खबर है की सालिसिटर जनरल मोहन पारासरन ने सप्रीम कोर्ट में चल रहे सेतु समुद्रम मामले से अपने आपको अलग कर लिया है। श्री परासरन ने इस मुकद्दमें से हटने की जो वजह बतायी है वो काबिले गौर है। उनका अभिमत है की ' इस सेतु का निर्माण भगवान् राम ने किया था ' उनके इस आस्थामूलक बयान से वे लोग अवश्य गदगदायमान होंगे जो अतीत के खंडहरो में विचरण किया करते हैं . तमिलनाडु के मुख्यमंत्री श्री एम् करूणानिधि से तो यही उम्मीद थी की वे परासरन पर ब्राह्मणवादी -आर्य समर्थक साम्प्रदायिकता का आरोप लगाकर अपने सनातन 'आर्य विरोध ' का झंडा उंचा उठाए रखते । ताकि 'द्रविड वोटों ' पर निरंतर सवारी जारी रहे। किन्तु यहाँ तो मामला आस्था बनाम वैज्ञानिक प्रगति का है और करूणानिधि को इसमें बढ़त हासिल है। शायद हाई वजह है की उन्होंने परासरन पर खुलकर आरोप नहीं लगाया की वो साम्प्रदायिक मानसिकता का शिकार है. बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए उनसे मात्र असहमति ही व्यक्त की है। सेतु समुद्रम परियोजना के पक्ष में अपनी प्रतिबद्धता का और राज्य के विकाश का हक़ करूणानिधि को भी है इसलिए वे केंद्र सरकार पर दवाव बनायेंगे की कोई बेहतर वकील इस मुद्दे की सुप्रीम कोर्ट में पैरवी करे।
आम तौर पर उत्तर भारत में इस तरह की घटनाओं के विमर्श को संघ परिवार वनाम प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष विचारधाराओं के संघर्ष में जबरन ठूंस दिया जाता है और जीत अक्सर असत्य की याने साम्प्रदायिकता की ही होती रही है। तमिलनाडु में भी इस मुद्दे को अक्सर 'तमिल अस्मिता बनाम 'आर्यावर्त साम्राज्यवाद' के रूप में नकारात्मक ढंग से भी लिया जाता रहा है। इसीलिये भाषाई विमर्श में हिन्दी को उत्तर की याने आर्यावर्त की भाषा के रूप में ही माना गया है। किंतु तमिलनाड और देश के विकाश के मद्देनजर केंद्र और राज्य सरकार को जो जरुरी और मजबूत कदम उठाने चाहिए थे ,लगता है की वे पारासरन के इस आस्थामूलक विद्रोह से डगमगा गए हैं।
वैसे तो पारासरन के इस अप्रत्याशित कदम से सेतु समुद्रम के सन्दर्भ में कई पक्ष नज़र आने लगे हैं । एक पक्ष की समझ है की सेतु समुद्रम एक प्राकृतिक संरचना है यह मानव निर्मित नहीं है। इसे छेड़ने से पर्यावरण संतुलन बिगड़ सकता है । कुछ लोगों का मत है की 'पाक-जलडमरू मध्ध्य' याने अरब सागर और बंगाल की खाड़ी के बीच सेतु समुद्रम से होकर यदि जलपोतों को रास्ता दिया जाता है तो न केवल ईंधन की बचत होगी बल्कि समय और धन की बर्बादी भी कम होगी। एक पक्ष की समझ है की यह मर्यादा पुरषोत्तम भगवान् श्रीराम ने लंका विजय के पूर्व वनवाया था और यह हिन्दू समाज का पवित्रतम स्मृति चिन्ह है। इसलिए इसे संरक्षित किया जाना चाहिए। किसी ठोस वैज्ञानिक प्रमाण क आभाव में भारत सरकार और तमिलनाडु सरकार का सुनिश्चित मत है की चाहे जो हो 'सेतु समुद्रम परियोजना ' को मूर्त रूप दिया जाना चाहिए और वैज्ञानिक विकाश पथ पर शीघ्रातिशीघ्र आगे कद बढाए जाने चाहिए। । भूतपूर्व राष्ट्रपति श्री ऐ पी जे कलाम साहब का कहना है की इस सेतु को नष्ट करने से उत्पन्न कबाड़े में इतना युरेनियम और थोरियम उत्पन्न होना संभव है की सारे भारत को १५० साल तक बिजली की निर्बाध आपूर्ति की जा सकती है और जरूरत पड़ने पर पर्याप्त परमाणु बम भी बनाए जा सकते हैं. हालांकि उनके कथन की कोई वैज्ञानिक पुष्टि अभी तक नहीं हुई है।
इस परियोजना के खिलाफ कुछ लोग सुप्रीम कोर्ट भी गए हैं . सरकारी पक्ष से सालिसिटर जनरल मोहन पारासरन अब तक इस केश की पैरवी करते आ रहे थे। उन्होंने इस केस की काफी स्टडी की है किन्तु सरकार का पक्ष रखने के बजाय वे अब याचिका कर्ताओं की भाषा बोल रहे हैं। वे कह रहे हैं की सेतु समुद्रम तो भगवान् राम ने ही वन वाया था। सरकार चाहे तो कोई और वकील कर ले. किन्तु वे इस मामले में अपनी आस्था पर अडिग हैं। उनके लिए देश से बढ़कर वैयक्तिक अंध-श्रद्धा अर्थात आस्था है। इस सन्दर्भ में उनका रवैया ऐंसा है मानों वे और उनके तथाकथित हिदुत्ववादी मित्र ही 'राम' के सच्चे आराधक हैं ! शायद वे अपने पद से इस्तीफा देकर किसी एसी ही साम्प्रदायिक राजनैतिक पार्टी में ही शामिल हो जाएँ। शायद किसी हिन्दुत्ववादी ग्रुप में भी शामिल हो जाएँ। शायद 'नमो' की टीम में ही कोई काम मिल जाए। उनका भविष्य उज्जवल है। कांग्रेस ,यूपीए, वामपंथ और धर्मनिरपेक्ष कतारों से शायद ही कोई उजड्ड ऐंसा हो जो 'श्रीराम ' के महान उदात्त चरित्र और त्याग से अभिभूत न हो ! किन्तु गनीमत है की वे राम के नाम पर वोट की राजनीती नहीं करते। वे 'राम का नाम- बदनाम ' नहीं करते।
मैं भी श्री राम के मानवीय और मर्यादित चरित्र का न केवल कायल हूँ बल्कि अनुयायी भी हूँ। किन्तु पारासरन के कथन से असहमत हूँ. इसलिए उनके कथन को संशोधित करने की धृष्टता अवश्य करुगा। उनका कथन है "रामसेतु का निर्माण भगवान् राम ने ही किया था " इस कथन में पहला शब्द' ही 'रामसेतु' है याने इस प्राकृतिक संरचना का प्राग ऐतिहासिक रामायण कालीन मानने में तो कोई बुराई नहीं ,राम हुए थे इसे मानने में किसी को शक क्यों होना चाहिए? राम के कार्य निमित्त रामसेतु का निर्माण हुआ यह मानने से भी आसमान नहीं फट पडेगा। जब सब कुछ ही 'रामजी' ने बनाया है तो बेचारा रामसेतु ही क्यों प्राकृतिक संरचना ठहराया जाए ? जिस दौर में एक मामूली क्रिकेटर को भगवान् माना जाता है , जिस दौर में पाखंडी- धनलोलुप - दुष्कर्मी ढोंगी -झान्साराम- धनाड्य स्वामियों - नसेडी-गंजेड़ी - साधुओं औरभोगी धर्म गुरुओं को भगवान् माना जाता है, जिस दौर में मानव समाज का तलछट -वुर्जुआ वर्ग , किसी ऐय्यास धंधेबाज मौकापरस्त फ़िल्मी हीरो को 'महानायक' और देह प्रदर्शन-ऐय्यासी - शराबखोरी के लिए कुख्यात वारांगनाओ को' महानायिका' के सम्मान से नवाजती हो उस दौर में सिर्फ श्रीराम को अवतार या भगवान् न मानने से क्या फायदा ? 'मिथ' ही सही मर्यादा पुरषोत्तम श्रीराम को उनके विश्वशनीय दूत हनुमान को उनकी महान जीवन संगनी भार्या को देवी सम्मान देने से और 'रामसेतु' को उनकी रचना मानने से किसी को कोई हानि कदापि नहीं होगी। भारत में राम के उदात्त चरित्र को ह्र्दयगम्य करने वाले अनेक क्रांतिकारी , वुद्धिजीवी और विचारक हुए हैं सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ,राम विलास शर्मा , महात्मा गाँधी , राहुल साङ्क्र्त्यायन या गणेश शंकर विद्द्यार्थी इत्यादि विभूतियों से बड़ा क्रांतिकारी और 'धर्मनिरपेक्ष' कौन हो सकता है ?
मेरी असहमति इस तथ्य से भी नहीं है की कोई चीज भगवान् राम ने बनाई थी तो अब उसी मत छुओ ,पाप लगेगा। हो सकता है राम वास्तव में इश्वर अवतार ही हों और यह भी की यह राम सेतु भी उन्ही के दिशा निर्देशन में ही तैयार हुआ हो । हो सकता है की उनके द्वारा निर्मित सेतु को यदि क्षति पहुँचती है तो देश और दुनिया में जलजला आ ही जाए। मेरी असहमति उनसे भी नहीं है जो प्रगतिशील और भौतिकतावादी हैं और यह धारणा रखते हैं की यह कुदरत की संरचना है और इस से छेड़छाड़ महंगी पड़ेगी। हो सकता है। सब कुछ संभव है। मुझे तो पारासरन और उनके जैसे आस्थावानों से सिर्फ इतनी जानकारी चाहिए है की व्यक्तिगत आश्था और विश्वाश महत्वपूर्ण है या देश ? घोर आश्थावादी भी यह सवाल पूंछने को व्याकुल है की - देश और दुनिया में इतने सारे धर्म-मजहब और उनके प्र्बचन कारों के होते हुए वैचारिक दिग्भ्रम और अशांति क्यों है ? हर वो शख्स जो आस्तिक और धर्मप्राण है वो बुझा-बुझा , डरा -डरा और बीमार सा क्यों है ?
क्या पारसरन को नहीं मालूम की रामसेतु से पूर्व जो प्राकृतिक संरचना धनुष्कोटी उस परिक्षेत्र में विद्द्य्मान थी वो भी तो भगवान् राम याने [ सृष्टि निर्माता ] की ही बनाई हुई थी ? यदि राम जी परब्रह्म अवतार ही थे तो उन्होंने अपनी ही कृति से छेड़छाड़ क्यों की? क्या वे सभी काम खंडित या अधूरे ही किया करते हैं। क्या ये 'पूर्ण परमात्मा' के अधूरे काम अवतार या लीला वश ही पूर्ण किये जा सकते हैं ? क्या केवल इसलिए सेतु रचना की गई थी की वे अपनी पत्नी को लंका से वापिस ला सकें ? यदि यही सच है तो जिस प्रेयसी - प्रियतमा को वापिस हासिल करने के लिए इतना विराट 'रामसेतु ' बनवाया , जिस लंका विजित की गई उसे सिर्फ एक धोबी के कहने मात्र से 'घर से बेदखल' करना उचित था ?
वेशक यदि 'सेतुसमुद्रम' परियोजना एक गलत कदम है तो उसे रोका भी जा सकता है ? किन्तु यह आश्था से नहीं विज्ञान और अनुसंधान से तय होना चाहिए। देश के और तमिलनाडु के सरोकारों के परिप्रेक्ष में तै होना चाहिए। केवल कोरी आश्था से किसी का भी हित नहीं साधने जा रहा है। जहां तक कुदरती छेड़छाड़ की बात है तो प्रश्न पूंछा जा सकता है की - क्या नल-नील ने अपने मालिक याने सुग्रीव के आदेश पर उनके परम मित्र 'श्रीराम' के हित के लिए जो 'रामसेतु' बनाया था वो कुदरत से छेड़छाड़ नहीं थी ? यदि तब के इंजीनियर प्राकृतिक संरचना से छेड़छाड़ कर सकते हैं याने समुद्र में पूल बना सकते हैं और उसके बल पर श्रीराम लंका विजय कर सकते हैं तो अब 'सेतुसमुद्रम' परियोजना पूर्ण कर इस दौर के अनुरूप कदम उठाकर राष्ट्र हित के लिए उचित हेर-फेर क्यों नहीं करना चाहिए ? वैसे भी इसकी कोई गारंटी नहीं की जहां कुदरत से छेड़छाड़ नहीं होती वहाँ जनहानि नहीं होगी। यूरोप ,अमेरिका ,अरब और जापान -चीन ने अपना सब कुछ बदल डाला और हमसे १०० साल आगे चल रहे हैं। पारासरन जैसे लोग केवल अपने स्वर्णिम अतीत और खण्डहरों पर चिंताग्रस्त हैं. कुछ नेता और राजनीतिग्य अतीत के खंडहरों पर वोट की राजनीती भी कर रहे हैं। यही वजह है की सेतु समुद्रम परियोजना हो , नदियों को जोड़ने की बात हो ,बाँध बनाने की बात हो या आधारभूत संरचना के निर्माण की बात हो, हर जगह केवल आश्था का, भृष्टाचार का और व्यक्तिगत लोभ-लालच का बोलबाला है। सार्थक और राष्ट्र हितेषी सवाल इन दिनों विमर्श के हासिये पर हैं और वोट की राजनीती पर देश में कोहराम मचा हुआ है।
श्रीराम तिवारी
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