मध्यप्रदेश में चौदहवीं विधान सभा - चुनावों के पूर्व का परिदृश्य :
मध्यप्रदेश की वर्तमान तेरहवीं विधान सभा दिनाँक १२-१२- २००८ को गठित हुई थी . श्री शिवराज सिंह चौहान ने इसी रोज मुख्य मंत्री पद की शपथ ली थी . संविधान के नियमानुसार वर्तमान विधान सभा का
कार्यकाल ११ दिसंबर -२०१३ को समाप्त हो जाएगा . याने इस तारीख तक चौदहवीं विधान सभा का गठन हो जाना चाहिए . तात्पर्य यह है कि तत्संबंधी चुनाव प्रक्रिया ११ दिसम्बर -२०१३ तक सम्पन्न हो जाना चाहिए . चुनाव आयोग की तत्सम्बन्धी तैयारियां जोर-शोर से जारी हैं , विधान सभा चुनाव के प्रमुख राजनैतिक प्रतिद्वंदी -सत्ता पक्ष याने [ भाजपा] और प्रमुख विपक्षी दल याने [कांग्रेस] ने अपनी-अपनी रणनीति के अनुसार जनमत जुटाने के सघन प्रयास कर दिए हैं . तदनुसार दोनों ही पक्षों के 'हाईकमानों ] ने अपने-अपने 'क्षत्रपों ' को इस चुनावी घमासान में उतार दिया है .मध्यप्रदेश के गैर भाजपा और गैर कांग्रेस सिद्धांत वाले अति-कमजोर विपक्षी दल - बसपा , सपा ,वाम-मोर्चा इत्यादि ने भी अपने-अपने दलों की औपचारिक उपस्थिति के प्रयास शुरू कर दिए हैं . चूँकि मध्यप्रदेश में एनडीए या यूपीए जैसा कोई कांसेप्ट नहीं बन पाया है इसलिए असल टक्कर भाजपा और कांग्रेस की ही है . यहाँ मध्यप्रदेश में प्रशासनिक और जन-कल्याण के कार्यान्वन की असफलताओं की स्थति में कोई भी सत्ताधारीदल 'गठबंधन धर्म' निभाने या 'अलायन्स पार्टनर्स ' के असहयोग का बहाना नहीं बना सकता . इसलिए विधान सभा चुनावों में प्रायः एंटी इनकम्बेंसी फेक्टर का ठीकरा सत्ता धारी पार्टी के सर ही फूटता है. किन्तु यह कोई स्थायी सिद्धांत नहीं है . 'लोकतंत्र बचाओ मोर्चा 'के अध्यक्ष के एन गोविन्दाचार्य का इस सन्दर्भ में कथन बहुत सटीक है कि "जनता सत्ता पक्ष से नाराज और विपक्ष से निराश है " उनका यह कथन अखिल भारतीय राजनीति के सन्दर्भ में है, किन्तु मध्यप्रदेश की राजनीती में तो यह युक्ति अक्षरश : लागू होती नज़र आ रही है.
ऊंट किस करवट बैठेगा यह तो लोकतंत्र में जनता याने मतदाता ही तै करते है , किन्तु आजादी के ६ ६ साल बाद भी भारत में और खास तौर से मध्यप्रदेश में मतदाताओं की जागरूकताअभी भी संदिघ्द बनी हुई है .चुनावी दुष्प्रचार से प्रभावित हुए बिना अपनी आदर्श सरकार चुनने लायक समझ बूझ या प्रजातांत्रिक चेतना का विकाश अभी भी प्रतीक्षित है . कांग्रेस और भाजपा के अलावा किसी तीसरे सार्थक विकल्प की ओर जनता का रुझान बहरहाल तो संभव नहीं है; इस स्थति के लिए तीसरा मोर्चा भी कदाचित जिम्मेदार है .केवल कागजों पर ही सपा,बसपा,गोंगपा,समता की गतिविधियाँ सम्पन्न हो रही हैं. वाम मोर्चा का असर संघर्षों की लाइन में तो ठीक-ठाक है; किन्तु चुनावी क्षितिज पर वो हासिये पर ही है . भाजपा की' जन-आशीर्वाद ' यात्राओं के प्रतिवाद में कांग्रेस का भी पुरजोर और आक्रामक प्रचार जारी है . धार जिले में भाजपा समर्थकों द्वारा कांग्रेस नेताओं पर हमले किये जाने से कांग्रेस को एक बड़ा मुद्दा भी मिल गया है . चुनाव आयोग ने भी भाजपा और मध्य प्रदेश सरकार को अपनी अप्रश्न्नता से अवगत करा दिया है . सरकार ने भी आक्रमणकारियों की गिरफ्तारी में देरी नहीं की .
मध्यप्रदेश के भाजपाइयों को और वर्तमान मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान को यह भली भांति मालूम है कि एक छोटी से भूल या चूक भरी पड़ सकती है . अपना विशाल समर्थक-केडर होने के वावजूद उन्हें मालूम है कि जनता-जनार्दन की सत्ता परिवर्तन की चाहत का कोई ठिकाना नहीं है . इसीलिये वे सत्ता में पुनः निर्वाचित होकर आने की अपनी तमाम अनुकूलताओं और संभावनाओं के बावजूद - सम्पूर्ण क्षमताओं के साथ चुनावी संघर्ष में जुटे हुए हैं . टिकिट वितरण से पूर्व .प्रत्येक जिले में -जन रायशुमारी की गई है , जो वर्तमान विधायक जीतने में कमजोर है उन्हें अपनी स्थति सुधारने का पहले मौका दिया गया और जो नहीं सुधरे तो उम्मीदवार बदलने का भी इंतजाम किया गया है . टिकिट के दावेदारों की स्क्रीनिंग की जा रही है , 'संघ' से सलाह मशविरा किया जा रहा है . जहां ज्यादा कमजोरी है या की पहले कभी जीते ही नहीं वहां के मतदाताओं को एन-केन प्रकारेण अपने पाले में लाये जाने के अथक प्रयास किये जा रहे हैं . अपने पक्ष में हवा का रुख बनाए रखने के लिए चुनावी शगूफे छोड़े जा रहे हैं . जनहित के काम कम लेकिन पार्टी दफ्तरों ,संघ -हितग्राहियों और समर्थकों के घरों को गुलजार किया जा रहा है . भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री रामलाल , प्रदेश अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर और मुख्मंत्री शिवराज सिंह चौहान और कैलाश विजयवर्गीय सहित पार्टी के सभी दिग्गज प्रदेश का मैराथन दौरा कर रहे हैं उम्मीदवारों की जीत और अन्ततोगत्वा भाजपा की जीत सुनिश्चित की जा रही है इस बाबत .संघ परिवार के कार्यक्रम भी प्रदेश भर में समानांतररूप से अनवरत चल रह हैं . शिवराज की 'जन-आशीर्वाद यात्राओं ' की धूम दिल्ली तक मची हुई है . मध्यप्रदेश कांग्रेस के दिग्गज और नेता प्रतिपक्ष अजयसिंह को भी अपने संगी साथियों से कहना पड़ रहा है कि "भाजपा की तरह शगूफा छोड़कर चुनावी हवा वनाओ " याने आज की भाजपा का 'चुनावी पराक्रम' कांग्रेस को भी 'गुर'सिखाने के स्तर तक जा पहुंचा है .
इधर जनता को किसी भी दल पर भरोसा नहीं रहा और यह तथ्य ये दोनों प्रमुख दल भी जानते हैं. कि भले ही जनता हमें -'नागनाथ या सांपनाथ' माने किन्तु हमारे अलावा मध्यप्रदेश में और कोई नहीं जीत सकता . थोड़े से मतों की बढ़त से भाजपा को सत्ता और शिवराज की हैट्रिक बन सकती है. यदि कांग्रेसी एकजुट हो जाएँ ,ज्योति सिंधिया को मुख्मंत्री घोषित कर दें तो बहुत थोड़े से अंतराल की बढ़त से कांग्रेस को भी सत्ता में आने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता . लुब्बो लुआब ये हैं कि सारा दारोमदार केवल चुनावी 'दुष्प्रचार और नेताओं की 'छवि' पर 'पर टिका हुआ है .वरना पार्टियां तो कब की बदनाम हो चुकी हैं .राजनीती के हम्माम में वे सभी दल नंगे हो चुके हैं जो सत्ता सुख भोग चुके हैं . 'आसाराम काण्ड ' में पहले उन्हें बचाने की असफल कोशिशों और बाद में जनता और मीडिया के दवाव में उन्हें गिरफ्तार करवाने से भी मध्य प्रदेश भाजपा की छवि धूमिल हुई है . गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा चुनाव -अभियान समिति के प्रमुख श्री नरेन्द्र मोदी की शुरू से लाइन थी कि आसाराम को संरक्षण ना दिया जाए उसे क़ानून के हवाले क्र दिया जाए ,किन्तु इन्दोरी नेताओं ने मोदी से ज्यादा 'हिन्दुत्ववादी' बनने के फेर में जन-मानस में अपनी छवि धूमिल ही की है . मोदी को भी रिपोर्ट जाती ही होगी की उनकी इक्षाओं का कितना आदर यहाँ मध्यप्रदेश में किया जा रहा है ? इसीलिये तमाम दिग्गज नेता डेमेज कंट्रोल में जुट गए हैं .
भाजपा के धाकड़ नेता कैलाश विजय वर्गीय भी मालवा -निमाड़ के अलावा सुदूर सागर- ग्वालियर , भिंड -मुरेना तक सक्रिय हैं . अन्दर खाने की चर्चा है कि यदि एनडीए की केंद्र में सरकार बनती है और शिवराज की कोई' बड़ी' भूमिका वहां आवश्यक हुई तो कैलाश विजय वर्गीय मध्यप्रदेश के मुख्य मंत्री भी बनाए जा सकते हैं . संघ के कद्दावर लोग भी मानसिक रूप से इस स्थति के लिए तैयार हैं . कैलाश जी वैसे तो बहुत लोकप्रिय और काबिल नेता हैं किन्तु अपनी सफलताओं सेउन्होंने अनेक दुश्मन भी बना लिए हैं . वे भाजपा में ही अपने विरोधियों के बीच ईर्षा के पात्र हैं. उधर कतिपय ईमानदार कांग्रेसी भी उनसे खार खाए बैठे हैं . क्योंकि कैलाश जी ने अनेक स्वार्थी कांग्रेसियों को 'फूल-छाप-कांग्रेसी ' याने विभीषण बना डाला है . कांग्रेस के कई घरफोडू नेता और कार्यकर्ता कैलाश विजयवर्गीय से इमदाद पाते रहते हैं .इसलिए किसी भी चुनावी समर में वे व्यक्तिगत रूप से अजेय तो हैं ही साथ ही किसी की भी नैया पार लगवाने में भी सक्षम हैं . कैलाश जी ने इंदौर शहर को ही नहीं बल्कि भोपाल ,जबलपुर सागर ग्वालियर में देशी-विदेशी पूंजीपतियों की 'इन्वेस्टर्स मीट ' कराकर भाजपा और शिवराज को विकाश का नया सूत्र प्रदान कराने में महती भूमिका अदा की है .इंदौर में जोर-शोर से टी सी एस इत्यादि की स्थापना ,आइआइ एम् की स्थापना और प्रदेश भर में नव-ओउद्दोगिक क्षेत्रों की स्थापना में कैलाश विजयवर्गीय का शानदार रोल रहा है . वास्तव वे मध्यप्रदेश में शिवराज के वाद नंबर -दो पद परस्वतः ही पहुच गए हैं. हालांकि इंदौर के दो नंबर क्षेत्र से अपनी राजनैतिक पारी शुरू करने के कारण मीडिया के लोग उन्हें अक्सर 'दो-नम्बरी' भी कहते हैं .
कैलाश जी जैसे दिग्गजों के कारण कांग्रेसी लोग मध्यप्रदेश में हताश हो चुके हैं . क्योंकि कैलाश विजयवर्गीय ने कांग्रेस के धर्मनिरपेक्षता वाले हथियार को भी भोंथरा कर दिया है . संघनिष्ठ कैलाश के मुस्लिम चेले भी कम नहीं हैं . वे हिन्दू -मुस्लिम ,अमीर-गरीब सभी को साधने में माहिर हैं. मालवा और मध्यप्रदेश के अधिकांस मुस्लिम नेता इन दिनों कैलाश जी के मार्फ़त ही शिवराज जी जैसे नेताओं के संपर्क में हैं . कांग्रेस के अन्दर सेंध लगाकर दल-बदल करवाकर चौधरी राकेश सिंह चतुर्वेदी जैसे दवंग कांग्रेसी विधायक का भाजपा में 'धर्मान्तरण ' कराने के पीछे कैलाश जी का ही हाथ माना जा रहा है. उधर वसपा के भूतपूर्व और वर्तमान निर्दलीय विधायक मानवेन्द्रसिंह को भी भाजपा में लाने का श्रेय कैलाश विजयवर्गीय को ही जाता है . पहले जनसंघ और बाद में भाजपा केवल ' बनियों की पार्टी' कहलाती थी, कैलाश जी के प्रयाशों से अब वह कांग्रेस के 'रूप-रंग-आकार' से भी आगे जाकर मध्यप्रदेश में तो 'धर्म सापेक्षता ' की मिशाल बन चुकी है . भाजपा की वर्तमान शिवराज शैली की पटकथा लिखने वाले सुन्दरलाल पटवा का कैलाश जी को भी आशीर्वाद प्राप्त है .कट्टर हिन्दुत्ववादी चेहरा केवल उमा भारती का ही है और आसाराम का समर्थन करने, उसे चरित्र प्रमाण पत्र देने से वे मध्यप्रदेश में नितांत अकेली पड़ गई हैं , प्रभात झा जो की स्वयम एक जमाने में बेहतर पत्रकार थे, गफलत में आसाराम के बहाने कांग्रेस के शीर्ष नेतत्व पर वार तो करते रहे किन्तु जनता को यह पाखंड रास नहीं आया , क्योंकि जनता को आसाराम की हरकतों का सब कुछ पहले से ही मालूम है . यदि प्रभात झा को नहीं मालूम तो यह उनकी समस्या है . यदि प्रभात झा को लगता है की आसाराम 'निरपराधी' और पीडिता 'झूँठी ' है तो उन्हें जोधपुर पुलिस के बजाय कम से कम अपनी पत्रकार विरादरी से तो हकीकत जान लेनी चाहिए थी .
कांग्रेस और यूपीए मध्यप्रदेश में तो निसंदेह 'सर्वप्रिय' होती जा रही है . लेकिन लोकतंत्र में चूँकि जनता का जनादेश ही सर्वोपरि हुआ करता है अतएव जनता के बीच क्या चल रहा है यह 'मतगणना' के बाद ही मालूम पडेगा . अभी तो केवल कयास भर लगाए जा सकते हैं . सटीक भविष्वाणी के लिए जनता का मूड और देश काल परिस्थतियों की पड़ताल जरुरी है . दृश्य मीडिया से बेहतर प्रिंट मीडिया यह काम बखूबी कर सकता है क्योंकि यह प्रमाणन का मोहताज नहीं है . स्थानीय समाचार पत्रों में भाजपा के प्रचार -प्रसार को देखकर तो यही लगता है कि इस मामले में कांग्रेस उन्नीस भी नहीं है और परिवर्तन की संभानाओं से किसी को इनकार नहीं है . भाजपा को यदि अपनी जीत का भरोसा होता तो शिवराज जी को इतने पापड़ नहीं वेलने पड़ते . कांग्रेस को जीत की आशा तो है किन्तु आपसी कलह और नेतत्व की अनिश्चितता के कारण उसकी चुनावी गाड़ी बार-बार पटरी से उतर जाती है . शोभा ओझा को कांग्रेस महिला मोर्चे की राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जाने और कमलनाथ को तवज्जो देनें और ज्योति सिंधिया को गाहे -बगाहे भावी मुख्य मंत्री घोषित करने से पार्टी के भीतर ही धड़ेबाजी का घमासान मचा हुआ है .
भाजपा और कांग्रेस के नेता जानते हैं कि मध्यप्रदेश में लगभग - १० % लोग दारु पीकर वोट देते हैं , १० % नर-नारी कम्बल-साड़ी -पैसा-प्रलोभन के प्रभाव में वोट करते हैं ,१० % फर्जी मतदान हुआ करता है , २० % भाजपा का प्रतिबद्ध वोट है , २० % कांग्रेस का प्रतिबद्ध वोट है ,५ %बसपा का वोट आधार है,५ % साम्यवादियों और समाजवादियों का प्रतिबद्ध वोट है शेष २० % मतदाता वोट ही नहीं करता . क्यों नहीं करता यह शोध का विषय है . कांग्रेस का परम्परागत वोट आधार दलित वर्ग भारी तादाद में कांग्रेस छोड़कर बसपा अर्थात मायावती के साथ चला गया , कुछ दलित वोट बैंक भाजपा ने भी कवर कर लिया है . अल्पसंख्यक -खास तौर से मुसलमानो से कांग्रेस को बहुत उम्मीद हुआ करती थी. मुलायम सिंह के कारण राष्ट्रीय स्तर पर जो ध्रुवीकरण हुआ उसका असर मध्यप्रदेश पर भी पडा है. इस दौर में .गुजरात या यूपी में भले ही मोदी समर्थकों को अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिन्दुत्व वादी वोटों का ध्रुवीकरण कराने में आंशिक सफलता मिली हो किन्तु उनकी इस हरकत से मध्यप्रदेश मेंउलटा ही हो रहा है अर्थात मुसलमान वापिस कांग्रेस की ओर लौटने को बेताब हैं .जबकि कांग्रेस का हिन्दू वोट बैंक भी ज्यों का त्यों सुरक्षित है. मोदी के अल्फाजों से गुजरात में भले ही हिन्दू वोट भाजपा की ओर ध्रुवीकृत हो गए हों किन्तु मध्यप्रदेश में साम्प्रदायिक अलगाव बहुत क्षीण है .
भोपाल जैसे इक्का दुक्का शहरों को छोड़ बाकी कहीं पर भी साम्प्रदायिक आधार पर वोटों का ध्रुवीकरण नहीं के बराबर है . इसीलिये शिवराज सिंह चौहान ने मध्यप्रदेश में 'नरेन्द्र मोदी से अलग लाइन ली है . जानबूझकर मोदी से दूरी बनाकर रखी गई है .हिन्दू-मुस्लिम एकता और गंगा -जमुनी तहजीव के बरक्स मध्यप्रदेश में शिवराज ने मोदी कार्ड खेलने से परहेज किया और स्पष्ट दिख रहा है कि मुसलमान भाजपा की ओर भी आ रहे हैं . शिवराज से मुसलमानों को न केवल मध्यप्रदेश में बल्कि पूरे देश में कहीं कोई प्रॉब्लम नहीं है . यही एक ठोस चीज है जो शिवराज को अपने अन्य भाजपाई नेताओं के समक्ष बढ़त दिलाती है . शिवराज की यही वैयक्तिक धर्मनिरपेक्ष सोच है जिसके कारण इंदौर के चंदननगर में हुए साम्प्रदायिक दंगों में अल्पसंख्यकों को सरकार की ओर से पूरा सहयोग मिला। दंगा भड़काने वाले दोनों ही पक्ष के 'हुडदंगियों' को जेल भेज दिया गया . भले ही हिन्दू-मुस्लिम दोनों ओर के दंगाई शिवराज से नाराज हों किन्तु प्रबुद्ध वर्ग ने शिवराज और पुलिस की सराहना ही की है .
कांग्रेस को शिवराज की इस रणनीति का तोड़ नहीं मिल पा रहा है . वास्तव में शिवराज ने' धर्मनिरपेक्षता' की जगह' धर्म सापेक्षता ' का झंडा उठा रखा है जो सभी धर्मो के अनुयाइयों को रास आ रहा है . अपने 'विकाशवादी 'एजेंडे के साथ शिवराज अपने ढंग की 'सोशल इंजीनियरिंग ' भी खूब जानते हैं . शिवराज की यह 'धर्म-सापेक्ष ' रणनीति - उन्हें न केवल मध्य प्रदेश में बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी स्वीकार्य बनाती है . न केवल मुसलमानों को बल्कि पिछड़ों ,दलितों , बंजारों ,पारधियों , आदिवासियों से लेकर ब्राह्मण , बनियों और ठाकरों को अपने 'संघी' कुनवे की ओर खीचने में जुटे हुई है . शिवराज को आर एस एस का भी सम्पूर्ण सहयोग स्वाभाविक रूप से मिल रहा है . किसानों को ढेरों आश्वाशन-वादे और समर्थन दिए जा रहे हैं .मंडियों ,पंचायतों ,जनपदों और सहकारिता के क्षेत्र में भाजपा ने मजबूत पकड़ बना रखी है .
मजदूरों और शाश्कीय कर्मचारियों को खुश करने में तो शिवराज जी बदनाम तक हो गए हैं . इनके राज में बड़े अफसर अरबपति , मझोले अफसर और चपरासी -पटवारी तक करोड़ पति हो गए हैं . वेशक खनन माफिया , बिल्डर्स और भृष्ट नौकरशाही का मध्यप्रदेश में सम्मांतर सत्ता केंद्र स्थापित हो चूका है किन्तु जनता को कांग्रेस का वो राज भी याद है जब यह प्रदेश 'बीमारू' राज्य की श्रेणी में हुआ करता था . कांग्रेसी राज में भी भ्रष्टाचार कम नहीं था किन्तु फर्क सिर्फ इतना है कि भाजपा राज में यदि भृष्टाचार परवान चढ़ा है तो कुछ 'विकाश के काम' भी हो रहे हैं और लोग भी खुश है. भाजपा सरकार के भृष्टाचार पर यहाँ सिर्फ विपक्ष और मीडिया ही चिल्ल पों करता रहता है किन्तु अधिकांस जनता तो भाजपाइयों की मांद में ही पानी पीने को उतावली नज़र आ रही हैं. कभी कावड़ यात्रा , कभी जन-दर्शन यात्रा , ' कभी जन -आशीर्वाद यात्रा ' कभी मोरारी बापू की 'राम कथा ' कभी कनकेश्वरी देवी की' भागवत' कभी ये जग्य कभी वो जग्य कभी कन्यादान योजना के मार्फ़त भाजपाई नेता अपनी चुनावी जीत सुनिश्चित कर रहे हैं .
मध्यप्रदेश में भाजपा और संघ परिवार के लोग घर-घर द्वार-द्वार जाकर शिवराज सरकार के कामों का प्रचार कर रहे हैं . भाजपा महिला मोर्चा ,भाजपा युवा मोर्चा , विद्द्यार्थी प रिषद् ,वनवासी परिषद् , साहित्य परिषद्, भारतीय मजदूर संघ और किसान संघ सबके सब अपने-अपने मोर्चे पर डटे हैं , शिवराज के नेतत्व में भाजपा की हैट्रिक वनानी है यह संकल्प सभी में कूट-कूट कर समाया हुआ है .वे जानते हैं कि यदि मध्यप्रदेश में इस बार कांग्रेस जीती तो बहुत सारे भाजपाई नेताओं और कार्यकर्ताओं को जेल हो सकती हैऔर दिल्ली की सत्ता का स्वप्न भी दूर होता चला जाएगा . उधर कांग्रेस के सामने 'करो या मरो' के अलावा कोई विकल्प नहीं है . यदि शिवराज हैट्रिक बना लेते हैं जैसी की संभावना भी है तो न केवल मध्यप्रदेश में बल्कि केंद्र में भी कांग्रेस को लंबा वनवास भोगना पड़ सकता है . इसीलिये बूढी कांग्रेस में जान फूंकने के लिए राहुल टीम जी जान से जुटी है . किन्तु उसकी परेशनियाँ कम नहीं हो रहीं हैं .
सत्ता में आने की भरपूर संभावनाओं के वावजूद कांग्रेस में घोर अराजकता और आपसी खीच तान मची हुई है . एक तरफ कमलनाथ , सत्यवृत चतुर्वेदी सुरेश पचौरी और ज्योति सिंधिया हैं दूसरी ओर दिग्विजय सिंह ,अजय सिंह और दिलीप सिंह भूरिया हैं , तीसरी ओर मोहनप्रकाश और राहुल गाँधी हैं चौथी ओर कांग्रेस सेवादल और एन एस यु आई है . कोई किसी से कम नहीं है.एक से बढकर एक महारथी हैं किन्तु कोई सार्थक प्रगति कांग्रेस ने अभी तक नहीं की है . उलटे कांग्रेस के' विभीषणों' ने एन चुनावों की पूर्व वेला में दल-बदल कर कांग्रेस को रुसवा ही किया है . हाई कमान के निर्देशों के वावजूद प्रदेश कांग्रेस का कोई भी बार भाजपा को छू नहीं पा रहा है . अजय सिंह ने जरुर भाजपा सरकार के गलत कामों और तथाकथित माफिया राज का भंडाफोड़ कर सत्ता पक्ष को कठघरे में खड़ा किया है . जनता और मीडिया ने संज्ञान भी लिया था किन्तु शिवराज सिंह ने विधान सभा में जबाब देने के बजाय उसे ही स्थगित करा दिया।अब संविधान वेत्ता माथा पच्ची करते रहें तोउनके ठेंगे से . इस घटना के दरम्यान चौधरी राकेशसिंह चतुर्वेदी 'दल-बदल-काण्ड' हो जाने से जहां कांग्रेस की भारी किरकिरी हुई वहीँ भाजपा बड़ी चतुराई से साफ़ बच निकली . प्रदेश की आम जनता तो चाहती है कि मुकाबला बराबरी का हो . यदि सत्ता पक्ष बेइमान हो,नाकारा हो तो विपक्ष उसे जनता के सामने लाये . किन्तु प्रदेश कांग्रेस के दिग्गज नेता अपने लोकतांत्रिक अधिकार भूलकर केवल "कौन बनेगा मुख्य मंत्री " के लिए वयान् बाजी करने में मशगूल हो रहे हैं .
दिलीप सिंह भूरिया के अध्यक्ष बनने पर आशा की गई थी कि प्रदेश का शोषित-पीड़ित दलित-आदिवासी समाज कांग्रेस का दस वर्षीय वनवास समाप्त करेगा . किन्तु दिग्विजय सिंह जी के दस साल पुराने वयान अभी प्रदेश की जनता भूली नहीं है . तब उन्होंने वीरोचित सिंह गर्जना के साथ कहा था - कि -"बिजली -पानी -सडक -स्वास्थ्य -शिक्षा के लिए किये गए कामों से नहीं बल्कि 'चुनावी मेनेजमेंट' से चुनाव जीते जाते हैं ".याने तब जो उनको 'श्रीमान बँटाधार ' की उपाधी दी गई थी वो किंचित सही थी । वे जरुरत से ज्यादा धर्मनिरपेक्षता दिखाने के चक्कर में आतंकवादियों तक को 'श्रीमान' शब्द से विभूषित करते रहे . केवल ईसाई और मुस्लिम वोटों के चक्कर में सहिष्णु और उदार हिन्दुओं का समर्थन भी खोते चले गए . केवल ठाकुरों को साधते-साधते 'सकल-समाज' को कांग्रेस से दूर करते चले गए . कई मुसलमान तक यह कहते सुने गए - कि हमारे बारे में जब दिग्विजय सिंह या कोई अन्य नेता , कोई व्यक्ति या समूह जब कोई चिंता या सौजन्यता दर्शाता है तो हम मुसलमान समझ जाते हैं कि ये सारा मांजरा राजनीति और वोटों के फंडे का है . जो हिन्दू या धर्मनिरपेक्ष नेता केवल हिन्दुओं को ही कोस्टा रहेगा वो अल्पसंख्यकों या मुसलमानों का भला क्या खाक करेगा ? मध्यप्रदेश का मुसलमान आम तौर पर वोट उसी को करता है जो विकाशवादी याने -पानी-बिजली ,सड़क या क़ानून व्यवस्था के लिए मुआफ़िक हो. वे नरेन्द्र मोदी के खिलाफ भी बोलने से बचते हैं. ऐंसा इसलिए नहीं कि मुसलमान किसी से डरते हैं. अपितु ऐंसा इसलिए कि उनकी नजर में मोदी एक 'नेता-कम-अभिनेता' जैसे ही हैं . मोदी का मखोल उड़ाने से मुसलमानों को कोई फायदा नहीं होने जा रहा है . उन्हें अपने हिस्से की भूमिका अदा करने के लिए कांग्रेस और दिग्विजय सिंह जी से नहीं बल्कि देश के "धर्मनिरपेक्ष संविधान' से अपेक्षा है.
दिग्विजय सिंह जी और कांग्रेसी इतनी सी बात नहीं समझ पाए और राजनीति करते-करते बुढ़ा गए हैं . यही वजह की मध्यप्रदेश में कांग्रेस का राजनैतिक वनवास लंबा होता दिखाई दे रहा है . दिग्विजयसिंह जी को समझना चाहिए कि कांग्रेस को मध्यप्रदेश में मोदी से नहीं 'संघ' और शिवराज से जूझना है . इस बाबत अभी तक की कांग्रेसी कोशिशें बेहद लचर और नाकाफी हैं . उसके संभावित उम्मीदवारों का ही ही अता-पता नहीं है . भाजपा के मजबूत उम्मीदवारों के सापेक्ष तो मध्यप्रदेश कांग्रेस ने वर्षों पहलेसे ही 'वाक् ओवर' दे रखा है ,किन्तु कांग्रेस के परम्परागत प्रभाव वाले विधान सभा क्षेत्रों में भी कोई एकमत उम्मीदवार अभी तक तै नहीं कर पाये हैं रतलाम ,उज्जैन , देवास ,बुरहानपुर ,इंदौर में जहां-कहीं कांग्रेस को मामूली मतों से बार-बार हारना पड़ता है वहाँ अभी भी नेतत्व की रिक्तता बरकरार है . विभिन्न धडों में जूतम पैजार मची हुई है . कई जगह तो बूथ एजेंट तक का अता -पता नहीं है .
दस साल बाद सत्ता में वापिसी का सपना देखने वाली मध्यप्रदेश कांग्रेस के पास भाजपा के कतिपय उन उम्मीदवारों के खिलाफ कोई कारगर व्यक्तित्व या नेतत्व अभी तक तैयार नहीं हो पाया है जो अंगद की तरह राजनीती में पाँव जमाये हुए हैं . ये वे क्षेत्र हैं जहां कांग्रेस लगातार विधान सभा और लोक सभा चुनाव हारती आ रही है . चाहे इंदौर-२ और इंदौर-४ हो या उज्जैन हो ऐंसे कई चुनाव क्षेत्र हैं जहाँ से कांग्रेस ने लगातार हार के बाद लगता है कि अब इन चुनाव क्षेत्रों से अपने पोलिंग एजेंट ही हटा लिए हैं . दूसरे शब्दों में ये भी कहा जा सकता है कि कांग्रेस आइन्दा भी विपक्ष में बैठने के लिए ही अभिशप्त है . कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतत्व या यूपीए सरकार ने भी ऐंसा कोई तीर नहीं मारा है कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस को जिताने में मदद कर सकें। हालांकि राहुल गाँधी ने जरुर बुंदेलखंड क्षेत्र के विकाश की आशा जगाई थी,केंद्र से कुछ विशेष आर्थिक पैकेज भी सेन्सन किया गया था. जे एन यु आर ऎम योजना अंतर्गत राष्ट्रीय राजमार्गों और बड़े शहरों की 'पब्लिक ट्रांसपोर्ट व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए केंद्र से काफी धन राशी राज्य सरकार को मिली थी किन्तु मध्यप्रदेश कांग्रेस का उनींदा नेतत्व उसे भी भुनाने में असमर्थ रहा है .
सोनिया जी ,राहुल गाँधी जी और मनमोहनसिंह जी के पास इंदिरा नेहरु वाला करिश्मा तो है नहीं की यहाँ आकर उसका बखान करें , राजीव गाँधी वाला 'नए भारत का निर्माण ' वाला विजन भी नहीं है उपर से तुर्रा ये कि मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों से महंगाई बेतहासा बढ़ती जा रही है ,डालर के सापेक्ष रुपया रसातल में जा धसा है , देश की सीमाओं पर भी खतरे के बादल मंडरा रहे हैं , इन हालात में यदि कांग्रेस अपनी पुरानी हैसियत भी मध्यप्रदेश में बचा सकी तो गनीमत समझो . मुख्य मंत्री पद के लिए माधवराव सिंधिया का नाम आते ही प्रांतीय अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया की भृकुटी तन जाती है . पूर्व अनुभव के कारण दिग्विजय सिंह भी नहीं चाहते कि मध्यप्रदेश में कोई और कांग्रेसी सरकार का नेतत्व करे . केन्द्रीय नेतत्व उनकों नजर अंदाज भी नहीं कर सकता . मध्यप्रदेश में कांग्रेस की संभावनाओं के दस प्रमुख सूत्र हैं :-
एक-शिवराज सरकार के दिलीप बिल्ड कान और खनन माफिया से तथाकथित सम्बन्ध .
दो-लोकपाल से अनुशंसित भ्रष्टाचार के मामलों पर शिवराज सरकार की चुप्पी .
तीन-मध्यप्रदेश में टॉप अधिकारीयों से लेकर बाबू-चपरासी -पटवारी के भृष्टाचार के खुलासे .
चार -सन्नी गौड़ से डम्फर कनेक्शन .
पांच -नोट गिनने की मशीन के चर्चे .
छे :-केंद्र सरकार की योजनाओं को अपनी बताकर प्रचारित करना .
सात - धार में साम्प्रदायिक उपद्रव पर प्रशाशनिक अक्षमता का आरोप .
आठ -उमा भारती , प्रभात झा और कतिपय अन्य नेताओं का 'रेप आरोपी' आसाराम का समर्थन .
नौ -नरेन्द्र मोदी बनाम लालकृष्ण आडवाणी के द्वन्द का नकारात्मक असर .
दस -संघ के कार्य कर्ताओं पर केन्द्रीय एजेंसियों द्वारा निरंतर प्रताड़ना और सरकार की बेरुखी .
इसके अलावा किसानों की मांगों पर उचित कार्यवाही का न होना , सड़कों की बदहाली ,इन्वेस्टर्स मीट की विफलता, विनिवेश्कों की अरुचि ,बिजली -पानी की आपूर्ति में गाँवों-शहरों में भेद भाव, काम के बदले अनाज योजना , मनरेगा में भारी भृष्टाचार इत्यादि अन्य कई बिंदु हैं जहां कांग्रेस भाजपा को घेर सकती थी . किन्तु उनके और भाजपाइयों के कई जगह आपस में एक जैसे निहित स्वार्थ होने से एक सीमा से आगे कोई वर्गीय टकराव नहीं है . केवल दिग्विजय सिंह ,अजयसिंह जैसे दो-चार बड़े नेता ही खुलकर सामने आते हैं. बाकी कोई भी बलि का बकरा बनने को तैयार नहीं है. कांग्रेसियों की अनुशाशन हीनता तो जगत प्रसिद्ध है वे केवल 'गाँधी परिवार' को ही अपना नेता मानते हैं बाकी सभी ठेंगे से . ऐंसे हालात में उनकी सारी शक्ति आपस के संघर्ष में नष्ट हो जाती है . भाजपा वाले भी केवल 'संघ परिवार' को ही अंतिम सत्य मानते हैं. बाकी तो आपस में 'गिव एंड टेक' का नाता ही है . तमाम अनिश्चितताओं के वावजूद लगता है कि कांग्रेस कीआपसी फूट और अतीत में उसके द्वारा हुई चूकों के परिणाम स्वरूप भाजपा को मध्यप्रदेश में हैट्रिक बनाने में सफलता मिल सकती है .
आजादी के बाद से ही मध्यप्रदेश में कांग्रेस के सामने प्रमुख विपक्ष के रूप में 'राष्ट्रीय स्वयम सेवक संघ ' के अनुषंगी -जनसंघ ,जनता पार्टी या अब भारतीय जनता पार्टी का ही वर्चस्व रहा है . जब-जब कांग्रेस को सत्ता से जाना पडा तब-तब इसी 'संघनिष्ठ विपक्ष' याने 'संघ परिवार' को ही सत्ता में आने का मौका मिला है . हालांकि आजादी के बाद के शुरुआती दौर में जब भारतीय संसद में साम्यवादी प्रमुख विपक्ष की भूमिका मेंहुआ करते थे तब मध्यप्रदेश विधान सभा में भी मुख्य विपक्षी दल साम्यवादी और समाजवादी ही हुआ करते थे. कामरेड होमी दाजी ,कामरेड शाकिर अली, कामरेड मोतीलाल शर्मा जैसे कद्दावर कम्युनिस्ट नेताओं के नेतत्व में लाल झंडे का बोलवाला था . सर्व श्री यमुना प्रसाद शाष्त्री ,कल्याण जैन ,लाडली मोहन निगम और मामा बालेश्वर दयाल जैसे समाजवादियों के सिद्धांतों और उच्च आदर्शों के कारण गैर कांग्रेसवाद के रूप में मध्यप्रदेश में जो विपक्ष हुआ करता था उसमें संघ परिवार पर इन धर्मनिरपेक्ष और जनतांत्रिक दलों को बढ़त हासिल थी .चूँकि उस समय कांग्रेस को हटाकर कोई एक दल सरकार नहीं बना सकता था . इसीलिये संविद सरकारों का श्रीगणेशअन्य प्रान्तों की तरह मध्यप्रदेश में भी हो चूका था .आपातकाल के उपरान्त जयप्रकाश नारायण के नेतत्व में जब 'जनता पार्टी ' बनी तो पहले तो संघ परिवार ने अपने झंडे डंडे फेंक फांक दिए किन्तु जब 'दोहरी सदस्यता के सवाल पर जनता पार्टी का विभाजन हुआ तो हरियाणा के भजन लाल की तरह मध्यप्रदेश के ;संघी' भी पूरी सरकार ही जनता पार्टी से बाहर ले आये और जब १९८० में भाजपा का प्रथम अधिवेशन मुंबई में सम्पन्न हुआ तो उसमें विलीन हो गए .इस अधिवेशन में अटल बिहारी वाजपेई प्रथम अध्यक्ष बने तो मध्यप्रदेश विधान सभा मे नवोदित' भाजपा ' का परचम तेजी से परवान चढ़ ने लगा . क्योंकि अटलजी का मध्यप्रदेश से न केवल आनुवंशिक अपितु भावनात्मक रिश्ता था . तभी से मध्यप्रदेश में एक नारा बहुत लोकप्रिय हो चला था "बारी बारी सबकी बारी अबकी बारी अटल बिहारी "या "इंदिरा शासन डोल रहा है … अटल बिहारी बोल रहा है … " मध्यप्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तब यही नारा लगाते हुए बरास्ते विद्द्यार्थी परिषद् भाजपा के 'होनहार विरवान' हुआ करते थे .जब हुबली के तिरगा झंडा विवाद के उपरान्त सुश्री उमा भारती को मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा और बाबूलाल गौर को मौका मिला तब शिवराज भाजपा के राष्ट्रीय और शीर्ष नेतत्व के अति विशवास पात्र बन चुके थे. बाबूलाल जी गौर जब विवादास्पद होने लगे तो एक बेहतर छवि के 'संघनिष्ठ व्यक्तित्व ' श्री शिवराज सिंह चौहान को मौका दिया गया . उन्होंने यथा संभव बेहतर काम किया और २००८ के विधान सभा चुनाव में भाजपा को पुनः सत्ता में प्रतिष्ठित कराने में सफलता प्राप्त की। अब २०१३ के अंत तक होने जा रहे आगामी विधान सभा चुनाव में हैट्रिक बनाने की ओर अग्रसर हो चुके शिवराज कहीं कोई कमी नहीं छोड़ना चाहते .
भाजपा और संघ परिवार ने जब से गुजरात के मुख्यमन्त्री नरेन्द्र मोदी को अपना स्टार प्रचारक बनाया है और गुजरात में हैट्रिक बनाने के उपरान्त मोदी की जो कट्टरपंथी-दक्षिणपंथी -पूँजीवादी कतारों में पूंछ परख बढ़ी है तब से शिवराज जी भी राष्ट्रीय राजनीति के विमर्श में संभल-संभल कर चल रहे हैं . वेशक शिवराज जी के पास 'नमो' की तर्ज पर भले ही कोई राष्ट्रीय स्तर का विजन न हो , कोई आर्थिक,वैचारिक वैकल्पिक सोच न हो , किन्तु उनकी 'धर्मनिरपेक्ष' छवि उन्हें' नमों 'पर बढ़त दिलाती है .शिवराज की यह छवि मध्यप्रदेश में कांग्रेस कोतो परेशान करही रही है बल्कि केंद्र की यूपीए सरकार को भी आगामी लोक सभा चुनावों में भारी पड़ने वाली है . यदि लोक सभा चुनाव में यूपीए को बहुमत नहीं मिलता और भाजपा भी स्पष्ट बहुमत से दूर रहती है जिसा कि विभिन्न सर्वेक्षण बता रहे हैं तब 'सेकुलर्जिम ' के नाम पर एंडीए की ओर से शिवराज भी एक प्रत्याशी तो अवश्य ही हैं . बशर्ते वे मध्यप्रदेश के वर्तमान विधान सभा चुनाव में हैट्रिक बनाकर दिखाएँ . न केवल हैट्रिक अपितु लोक सभा चुनाव में गुजरात से ज्यादा लोक सभा सांसद भी दिल्ली भेजें . इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर शिवराज का 'जन-दर्शन अभियान . और कल्याणकारी योजनाओं की घोषणाएं जारी हैं .
शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने कई मामलों में केंद्र सरकार के असहयोग के वावजूद अपनी इच्छा शक्ति और जन-आकांक्षा के दवाव के चलते - विगत आठ सालों में मध्यप्रदेश को एक बीमारू प्रदेश से विकाशशील प्रदेश की श्रेणी में ला खड़ा किया है . प्रति व्यक्ति आय ,बिजली उत्पादन, खद्द्यान्न उत्पादन , नए उद्दोगों की स्थापना ,शिक्षा ,स्वाश्थ्य और क़ानून -व्यवस्था में मध्यप्रदेश अन्य राज्यों से आगे निकल चुका है . दलित और निर्धन वर्गों के स्वास्थ्य हेतु - दीन दयाल अन्त्योदय उपचार योजना , दीन दयाल चलित उपचार योजना , जननी सुरक्षा योजना, कन्यादान योजना,लाडली लक्ष्मीइत्यादि योजनाओं की सारे देश मेंधूम है . कतिपय नए जिलों का निर्माण , नई तहसीलों का निर्माण , नए बांधों का निर्माण , सिचाई और पेयजल संसाधनों में वृद्धि ,किसानों की बिजली बिल माफ़ी योजना, किसानों को खाद्यान्न खरीदी में भरपूर सहयोग और बोनस , कृषि बंदोबस्त का कम्प्यूटरीकरण , बीपीएल और उसके समकक्ष गरीबों को एक रुपया किलो गेंहू , एक रुपया किलो नमक ,दो रुपया किलो चावल। सरकारी स्कूलों में खाना -कपड़ा और पुस्तकें १२ वीं तक मुफ्त,सीनियर सिटीजंस को मुफ्त तीर्थ यात्रा इत्यादि के अलावा विभिन्न समाजों और धार्मिक समूहों को उनके सञ्चालन हेतु हर किस्म का सहयोग शिवराज सरकार के द्वारा अबाध गति से दिया जा रहा है.
अल्पसंख्यक समुदायों को लुभाने के लिए ही सही किन्तु शिवराज ईद पर जब 'टोपी' पहन लेते है और रज़ा मुराद जैसे सीनियर अभिनेता उन्हें जब 'देश का सबसे बेहतरीन मुख्मंत्री' घोषित करते हैं या प्रधानमंत्री के काबिल बताते हैं , तो शिवराज फूलकर कुप्पा नहीं हो जाते बल्कि वे नरेन्द्र मोदी का सम्मान रखते हुए बड़ी शिद्दत से रज़ा मुराद के वक्तब्य से असहमति व्यक्त करते हैं . क्या नरेन्द्र मोदी में इतनी काबिलियत है ?नरेद्र मोदी तो आडवाणी के इस वक्तब्य से ही भड़क गए थे कि शिवराज भी प्रधानमंत्री के पद के योग्य हैं . शिवराज ने अपनी 'जन आशीर्वाद यात्रा ' से लगभग दो-तिहाई मध्यप्रदेश नाप लिया है .
निसंदेह केंद्र की तरह ही मध्यप्रदेश में भी 'एंटी इनकम्बेंसी'की लहर को अनदेखा नहीं किया जा सकता . कांग्रेस ने एकजुट होकर 'वनवास' से वापिसी का यदि ईमानदारी से संकल्प लिया है तो भाजपा के विजय रथ को रोकना नामुमकिन नहीं है .यह उसके अस्तित्व का भी सवाल है , यों कहें की 'अभी नहीं तो कभी नहीं 'का सिद्धांत सूत्र भी काम कर सकता है .शिवराज के कुछ सलाहकारों को को आशंका है कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस यदि ईमानदारी से एकजुट होकर उठ खड़े हों तो पांसा पलट सकता है .
स्वर्गीय विजय राजे सिंधिया ,कु शा भाऊ ठाकरे, लक्ष्मी नारायण पांडे , श्री कैलाश जोशी ,श्री सुन्दरलाल पटवा एवं सुश्री उमा भारती इत्यादि के अनथक परिश्रम से , अटल - आडवाणी के प्रभावी निर्देशन से ,संघ परिवार के सौजन्य से, अयोध्या के ' मन्दिर -मस्जिद' विवाद को भुनाने से भाजपा को मध्यप्रदेश में जो सत्ता हासिल हुई है उसे 'जन-विकाश' के रास्ते पर लाने में शिवराज कितने सफल हुए हैं इसके इम्तहान का भी वक्त आ पहुंचा है . यु पी ऐ या कांग्रेस को भी अपने आगामी लोक सभा चुनाव के पूर्व का सेमी फायनल मध्यप्रदेश के विधान सभा चुनाव में खेलने को मिलेगा … जीत-हार किसकी होगी यह सब कुछ राजनैतिक पार्टियों या नेताओं के हाथ में ही नहीं है कुछ जनता को भी तै करना है कि दो बुराइयों में से कम बुरा कौन है जिसे प्रदेश की सत्ता संचालन के लिए चुना जाए … !
श्रीराम तिवारी
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