शनिवार, 20 अप्रैल 2013

कौन बनेगा प्रधानमंत्री अगला...ये जनता को तय करने दो ...!

     
                              विश्व  मानचित्र  में  भौगोलिक रूप से   भारत   अन्य राष्ट्रों के समृद्ध भूभागों  के सम्मुख - एक नितांत सापेक्ष्तः छोटा सा भूभाग है . रूस,अमेरिका  दक्षिण अफ्रीका ,कनाडा ,चीन  ब्राजील , न्यूजीलैंड और   आस्ट्रेलिया  के सापेक्ष भारत के पास  बहुत कम भूभाग  है . चीन को छोड़ सारे संसार का संबसे बड़ी और घनी  जनसंख्या   की  गुजर करने वाला देश  भारत  चीन के भूभाग  के समक्ष  2 5 %  ही बैठता है . घनी  आवादी वैश्वीकरण  की बीमारियाँ - खुली गलाकाट  प्रतिस्पर्धा करप्सन  और  विचारधारा विहीन राज्य संचालन  की तदर्थवादी प्रवृत्ति  ने भारत को वैश्विक मानचित्र के हासिये पर ला खड़ा कर दिया है .  इन दिनों  जिन नीतियों,जिन संस्थाओं और जिन व्यक्तियों के द्वारा संचालित हो रहा है वे  नितांत अगम्भीर और  गैरजिम्मेदार सावित होते जा रहे हैं . सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही  केवल और केवल  अर्जुन लक्ष्य की भाँति  आगामी चुनावों के सिंड्रोम से पीड़ित होकर  'वोट बैंक फोबिया' के शिकार होते  जा   हैं .
                       घरेलु  और अंतर्राष्ट्रीय दोनों ही मोर्चों पर दूरगामी- कालजयी -सर्वसमावेशी  और 'राष्ट्रोत्थानकारी' नीतियों या कार्यक्रमों  की चर्चा तो अब मानों विस्मृति के गर्त में समा गई है .  इन अहम मुद्दों पर अब केवल  जे एन यु -  के प्रोफ़ेसरों   या 'जनवादी-प्रगतिशील  -लेखकों  या 'दिल्ली साइंस फोरम ' के विशेषज्ञों   के  बोद्धिक - विमर्श  ही  शेष रह गए हैं .  मीडिया में   तो  सिर्फ  दो ही   विमर्श  जारी  हैं - एक- व्यक्तिवादी नेत्रत्व का    महिमा मंडन  और दूसरा - गैर जिम्मेदार लोगों  का  ' राम लीला मैदान' या 'जंतर-मंतर' पर   सरकार विरोधी  असंयमित  निहित  स्वार्थियों का   पाखंडपूर्ण  उन्मादी   वितंडावाद  .    कभी कभी    किन्हीं  अमानवीय   घटनाओं  -महिलाओं पर अत्याचार , ह्त्या -बलात्कार  या पुलिस अत्याचार इत्यादि   पर उभरने वाले स्वतःस्फूर्त  तात्कालिक  जनाक्रोश को  भी  मीडिया तवज्जो तो देता है किन्तु  एक सीमा से आगे प्रचारित-प्रसारित करने  और उसे   संभावित  क्रांति का शंखनाद सिद्ध करने  के प्रयोजन- ' धुर में लठ्ठ मारने 'जैसे उपक्रम - कतिपय  स्वनाम धन्य अखवार और चेनल करते रहते हैं . ऐंसा करते वक्त वे  न तो देश का भला करते हैं और न उस आन्दोलन के वास्तविक समर्थक ही हो सकते हैं .  बल्कि वे आपने पूँजी निवेशक आकाओं और अभिभावकों के  हितों के अनुरूप 'कुक्कुट बांग'के लए मजबूर रहा करते हैं . कहा जा सकता है  कि   वर्तमान  बाजारीकरण  की प्रतिश्पर्धा में   उन्हें  ज़िंदा रहने  के लिए  यह सब करना ही पडेगा .  ठीक है लेकिन देश और समाज के सरोकारों पर मीडिया को सरकार या विपक्ष की अच्छी बातों पर भी गौर करना चाहिए और यदि  गलती  सरकार या विपक्ष    में से किसी की है या दोनों की ही साझा जिम्मेदारी है तो उसे 'जस का तस 'जनता के समक्ष प्रस्तुत करना चाहिए . मीडिया को स्वयम पार्टी नहीं बनना चाहिए .शायद इन दिनों भारत का मीडिया विपक्ष और खास  तौर  से' नमोमय ' हो  चला है . किन्तु कुछ युवा लेखक-पत्रकार इस प्रवृत्ति से अलग हटकर ';शुद्धतावादी'देशभक्तिपूर्ण 'पत्रकारिता के लिए संघर्षरत हैं .
                                            निसंदेह यूपी ए -द्वतीय सरकार और मनमोहन सिंह ने -जाने-अंजाने  कांग्रेस और गाँधी परिवार को  इतिहास के संबसे  विकट  मोड़ पर खड़ा कर दिया है ,राहुल गाँधी को  और 'कांग्रेस के मैनेजरों 'को यह एहसास है . इसीलिये अब आगामी चुनाव में वे  पी एम् की कुर्सी को कोई खास आशा से नहीं देखते. कांग्रेस का और राहुल का भविष्य सिर्फ 'धर्मनिरपेक्षता ' की धुरी पर टिका है उसके लिए वो 'बिल्ली के भाग से छींका टूटने ' का इंतज़ार तो कर ही सकते हैं . मीडिया और पूंजीपतियों ने तीसरे मोर्चे की प्रचंड संभावनाओं  के वावजूद उसके द्वारा अतीत में किये गए बेहुदे प्रदर्शन को देखते  हुए  नरेन्द्र मोदी नामक अश्व पर  बड़ा दाव  लगाया है . देश का पूंजीपति वर्ग  जानता है  कि   वो - बहुत कुछ तो कर  सकता है  किन्तु सब कुछ नहीं कर  सकता - याने बहु जातीय , बहु  धर्मी , बहु भाषी  और बहु संस्कृति वाले भारत राष्ट्र के विविधतापूर्ण चरित्र को नहीं बदल सकता ,जातिवाद ,साम्प्रदायिकता ,प्रचंड धार्मिक -पाखंड  और निर्धनता ,आभाव, शोषण -उत्पीडन के   विराट वोट  बेंक   में से   सत्ता  लायक  बहुमत को भारत या अमेरिका का पूँजीपति  वर्ग -  एनडीए या मोदी के पक्ष में  कतई  नहीं  जुटा  सकता। वो राहुल या यूपी ऐ की भी पैसे से तो मदद कर सकता है किन्तु 'जन  -आकांक्षाओं 'को वोट में   परिणित  नहीं कर सकता . क्योंकि  सभी वर्गों का नजरिया पूंजीपतियों या  भूस्वामियों के अनुकूल तो हो नहीं सकता . वोट  यदि  नरेन्द्र मोदी के पास है ,तो मायावती के भी  पास है , मुलायम के भी  पास हैं ,नितीश के पास हैं , जय ललिता , ममता  नवीन पटनायक  और वामपंथ के भी पास हैं .   ऐंसे  हालात में 'कौन बनेगा प्रधानमंत्री' का सवाल आसान नहीं है .सपने देखे जा सकते हैं , देखे जा रहे हैं किन्तु सपने-कभी -कभी सपने ही  रह जाते हैं .क्योंकि जो सपना मोदी को आ रहा है वो नितीश को भी आ रहा है , वो अडवानी ,मुलायम सुषमा और शिवराज को भी आरहा है  इसलिए 'एक अनार और सौ बीमार 'के सपने में अनार कहीं उसको न मिल जाए जिसे न तो सपना आ रहा है और  न उसको मीडिया में बहरहाल अभी  जगह मिल रही है . पहली वार यूपीए प्रथम के लिए जब सारा -देश ' सोनिया गाँधी' 'बनाम विदेशी महिला' में मीडिया के चश्में से राजनीती देख रहा था तब किसे मालूम था की डॉ  मनमोहन  सिंह भारत के प्रधानमंत्री बन ने वाले हैं और २ ० ० ४ के बाद २ ० ० ९ में तो मनमोहन सिंह जी को भी सपना नहीं आया की वो फिर से यूपीए द्वतीय के नेता होने जा रहे हैं , हालाकि आडवाणी जी ने लगातार २ ०   साल ये सपना देखा था और प्रधानमंत्री नहीं बन पाए संतोष की बात है कि  'उप 'प्रधानमंत्री तो बन ही लिए।  यदि वे अभी भी सपना देख रहे हैं तो केवल -और केवल नितीश की आँखों से -शरद यादव के चश्में से क्योंकि  जदयू नहीं चाहता की एनडीए टूटे या मोदी प्रधानमंत्री बने . यदि आडवानी के नाम पर नहीं तो स्वयम नितीश के नाम पर भी 'जोर-आज्माईस '  की जा सकती है किन्तु मोदी का विरोध नहीं थमेगा . दरअसल मोदी एक व्यक्ति नहीं -विचारधारा का नाम चल पड़ा है… भले ही कोई उसे साम्प्रदायिक कहे , दंभी कहे या फासिस्ट  किन्तु मोदी अब लोक प्रियता की ओर नहीं बल्कि बदनामी की ओर तेजी बढ़ रहे हैं  , इसी से कुछ लोगो को भ्रम हो चला है कि   मोदी  प्रधानमंत्री  बनने के निकट हैं .
                       एक ओर     ' संघ परिवार ' और  'देशी पूंजीपतियों ' का जमावड़ा खुले आम मोदी को शह  दे रहा है तो दूसरी ओर भाजपा के कतिपय  वरिष्ठों को-जिन्हें  अपनी साम्प्रदायिक दक्षिण पंथी  पार्टी के अन्दर खुद के  सेकुलर या समाजवादी  होने  का गुमान  है , उनके   भीतरघात  की स्थिति तक जा सकने के आसार  हैं     ये दिग्गज -  नितीश  या  जदयू समेत तमाम अलायन्स पार्टनर्स के विद्रोह की हवा का रुख   'मोदी प्रवाह'  'के विपरीत  कर सकने  की क्षमता अवश्य रखते हैं .  एनडीए के अलायन्स पार्टनर्स में 'नमो' को लेकर ऊपर-ऊपर जो तनातनी दिख रही है  वो  भाजपा के अन्दर की वासी कड़ी का उबाल मात्र है . जदयू के विगत अधिवेशन और दिल्ली रैली  की मशक्कत का  लुब्बो-लुआब ये है कि-  आगामी चुनाव  उपरान्त यदि एनडीए गठबंधन को  जदयू के समेत भी बहुमत हासिल न हो सका तो वे राजनीती के राष्ट्रीय क्षितिज पर 'अपनी धर्मनिरपेक्ष'  छवि की बदौलत सहज ही सर्वस्वीकार्य  होकर; गैर कांग्रेस दलों और उन  बदली हुई परिस्थतियों में ' मजबूर  भाजपा' का भी  बाहर से समर्थन  हासिल कर  सरकार का नेत्रत्व  का सकते हैं .  नितीश को दस जनपथ भेज सकते हैं .  शरद यादव,नितीश , शिवानन्द ,और जदयू  के  अन्य  वरिष्ठ नेता बहुत घाघ और व्यवसायिक बुद्धि के हैं . वे एक ओर तो भाजपा से  दोस्ती रखकर बिहारी सवर्णों  का  यथेष्ठ समर्थन बनाए रखना चाहते हैं और दूसरी ओर नरेन्द्र मोदी को ' अस्वीकार्य ' बताकर अपने को पाक-साफ़ -धर्मनिरपेक्ष - मुस्लिम हितकारी  सिद्ध  करने में जुटे हैं . मुस्लिम मतों को कांग्रेस+ राष्ट्रीय जनता दल [लालू]  की ओर खिसकने की तब पूरी सम्भावना है जबकि ये  तय हो जाये की एनडीए की ओर से  नरेन्द्र मोदी ही प्रधानमंत्री   पद के प्रत्याशी होंगे . वैसे  भी जदयू के नेता अच्छी तरह जानते हैं कि  और भी कई  कारणों से नरेन्द्र मोदी को  एनडीए संसदीय संख्या का या सदन के फ्लोर पर भारत के बहुविध समाज का  जनादेश - सत्ता के प्रमुख पद लायक समर्थन कभी नहीं मिल पायेगा .जदयू ने 'नमो ' के खिलाफ मोर्चा खोलकर एक साथ कई  निशाने साधे हैं। न केवल लोक सभा या केंद्र सरकार में बल्कि विहार विधान सभा और विधान  परिषद् में उन्हें   अपनी वर्तमान हैसियत वर्करार रखने के लिए एक साथ लालू,कांग्रेस और मोदी के खिलाफ हमला बोलना होगा .आज जदयू एकमात्र क्षेत्रीय दल है जो अपने को'अजात शत्रु ' का अवतार मान  सकता है .भाजपा कांग्रेस तो उनके लिए पलक पांवड़े विछाये ही बैठे हैं किन्तु अन्य क्षेत्रीय दल और यहाँ तक की 'वामपंथ ' भी  नितीश को कुछ 'किन्तु -परन्तु ' के वावजूद वक्त आने पर साथ देने या लेने के लिए तैयार हो सकता है . राजनीती अनंत संभावनाओं का पिटारा है कुछ भी सम्भव है लेकिन ये भी उतना ही अकाट्य सत्य है कि कांग्रेस  या भाजपा  के बिना    सहारे कोई भी प्रधानमंत्री नहीं  बन सकता . देश का दुर्भाग्य है कि  दुनिया  के  सबसे  बड़े  लोकतंत्र का दम भरने वाले इस महान भारत के अधिकांस यही राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल 'घोर  अलोकतान्त्रिकता ' के शिकार है .अधिकांश के पास कोई आर्थिक ,वैदेशिक शैक्षणिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक नजरिया स्पष्ट नहीं है . वे डॉ मनमोहनसिंह की आर्थिक  नीतियों   के चरित्र और परिणामों को पानी पी -पीकर तो कोसते हैं किन्तु जब इनसे  वैकल्पिक आर्थिक नीतियों को पेश करने को  कहो तो उनके चेहरों पर हवाइयां उड़ने लगती हैं . फिर चाहे वे मोदी हों नितीश हो या   मुलायम  हों .  देश के पूंजीपतियों को अमेरिका परस्त मनमोहनी  आर्थिक नीतियों से तो कोई शिकवा नहीं  हालांकि वे उनके लचीले पन  से  आजिज आ चुके  हैं अब जबकि उन्हें मनमोहन की ही  आर्थिक उदारीकरण की नीति वाला '  दवंग ' उम्मीदवार' नरेन्द्र मोदी  के रूप में  मिल  रहा हो तो  फिर क्यों खामखा सरदार जी या सोनिया जी को परेशान किया जाए . सो वे  मोदी के मुरीद होकर देश में कार्पोरेट हित सुरक्षित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं .अब आम  जनता की जिम्मेदारी है की वो इन लुटेरों से अपने को  बचाने के लिए  किसी कारगर विकल्प की तलाश फ़ौरन करे क्योंकि 'लौह पुरुष ' नमो ' तो पूंजीपतियों का  प्रिय भाजन  बन  चूका  है .अब और  कोई विकल्प नहीं  बचा क्या ? वेशक वामपंथ के पास शानदार वैकल्पिक नीतियाँ और कार्यक्रम हैं किन्तु बात सत्ता के  जनादेश  की चल रही और नीतियों  को कोई ' भटों  के भाव' न पूंछे तो क्या किया जा सकता है .

                                     वामपंथी पार्टियों के अधिवेशनों,केन्द्रीय श्रम संगठनों और सार्वजनिक उपक्रमों  या को-आप्रटिव  सोसायटियों  की 'साधारण-सभाओं '  में अवश्य देश के हितों की ,आम  आदमी  के लिए  नीतियों  की  चर्चा सुनी जा सकती है किन्तु  बाकी सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों के  अखिल  भारतीय  अधिवेशनों में  तो   वैचारिक विमर्श के नाम पर अब केवल एक व्यक्ति विशेष का समर्थन या  विरोध   रह  गया है।  कांग्रेस का अधिवेशन सिर्फ राहुल को उपाध्यक्ष बनाने और सोनिया जी को अध्यक्ष बनाने की उद्घोषणा  की भेंट चढ़ गया . भाजपा का अधिवेशन गडकरी को निपटाने ,राजनाथ को लाने और 'नमो' को भड़काने के काम आया . जदयू का अधिवेशन वैसे तो पिछड़े राज्य  बनाम  बिहार को स्पेशल वित्तीय पैकेज के लिए आहूत था किन्तु इस अधिवेशन में भी देश की जनता को  सिवा 'मोदी वनाम नितीश '  विमर्श के कुछ खास हाथ नहीं लगा .  विशेष   सामाजिक ,आर्थिक ,राजनैतिक ,वैदेशिक और  आंतरिक   विमर्शों में कांग्रेस ,भाजपा जैसी  पूंजीवादी-साम्प्रदायिक  पार्टियों से भले ही कोई उम्मीद न हो, क्योंकि उनके वैचारिक विमर्श जग जाहिर हैं . कांग्रेस को एन-केन -प्रकारेण  सत्ता चाहिए .भाजपा और संघ परिवार को "अखंड भारत + हिदुत्व+राम लाला मंदिर+तथाकथित प्राचीन गौरव"  चाहिए . इसीलिए इन दोनों  ही  बड़ी  पार्टियों से इन महत्वपूर्ण  प्रासंगिक विषयों-राष्ट्रीय आपदाओं  पर  किसी  ठोस  और   सकारात्मक   समसामयिक विमर्श की उम्मीद करना व्यर्थ है  .
                                           किन्तु   जो समाजवाद और और समतामूलक समाज व्यवस्था के स्वयम्भू  पैरोकार  हैं, हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई की एकता और धर्मनिरपेक्षता के अलम्बर दार है , पिछड़ों -दलितों के नायक हैं , वे  डॉ लोहिया  और जय प्रकाश नारायण के स्वघोषित चेले  -नितीश ,शरद , त्यागी और शिवानन्द  इत्यादि नेता    इन ज्वलंत प्रश्नों पर अपने राष्ट्रीय अधिवेशन में  मौन क्यों    रहे ? क्यों वे   केवल    "नमो' का जाप  करते   रहें, विरोध करते रहे . कौन मूर्ख उन्हें 'समाजवाद ' का  सहोदर समझेगा ?    कौन धर्मनिरपेक्ष भारतीय  उनके झांसे में आयेगा ? उनके इस स्टैंड से लगता है कि  कहीं ऐंसा न हो की "दोउ  दीन  से गए पाण्डे  ...हलुआ मिले  न मांडे " अपने इस  राष्ट्रीय अधिवेशन में जदयू ने  सारी  ताकत केवल भाजपा और मोदी को नसीहत देने में लगा दी और वाकी सारे मुद्दे हासिये पर धकेल दिए . क्या यही दर्शन है लोहिया का और जय प्रकाश नारायण  का ?
                                   भले ही    जदयू के इस  अधिवेशन  में 'धर्मनिरपेक्षता ' को कुछ  सम्मान  मिल गया  हो, उसे भारत की  राजनीतिक विवशता बनाम  सामाजिक -साम्प्रदायिक विविधता    के बहाने विमर्श के केंद्र में  खड़े होने का अवसर मिल गया  हो  किन्तु देश को इस समय  इससे भी ज्यादा की दरकार है . जदयू गुड खाकर गुलगुलों से परहेज नहीं कर सकता। नरेन्द्र  मोदी आज से दस साल  पहले  जितने कट्टर  साम्प्रदायिक थे   क्या वे  वास्तव में  आज भी  वहीँ खड़े हैं ? क्या  वास्तव में  गोधराकांड के  दौरान नितीश या जदयू ने कोई बेहतरीन मिसाल पेश  की थी ? की देखो दुनिया वालो हम हैं सच्चे धर्मनिरपेक्ष और तत्कालीन रेल मंत्री पद छोड़कर कुछ दिन तो सत्ता के बिना रहकर दिखाते !  नितीश ,शरद और जदयू की धर्मनिरपेक्षता  जितनी धोखे की  टट्टी  है मोदी की साम्प्रदायिकता भी  उतनी ही 'काल्पनिक है . दोनों का मकसद अव्वल तो अपने-अपने राज्यों  की  सत्ता में टिके रहना है ,दूजे वे  खुदा  न  खास्ता प्रधानमंत्री की दौड़ में बने रहकर देश और दुनिया की नज़रों में बने हुए हैं तो क्या  हर्ज़  है  ?  यदि इनमें से कोई पी एम् बन भी गया तो देश की हालत नहीं सुधरने वाली क्योंकि 'सरदारजी ' कम से कम व्यक्तिगत रूप से ईमानदार तो हैं ही और 'विश्व-बेंक'  आई एम् ऍफ़ वगेरह के नीति नियम भी जानते ही हैं किन्तु मोदी और शरद के पास  इन विषयों का ककहरा भी नहीं है , वे केवल चंद्रशेखर बन कर रहे जायेंगे, देवेगोड़ा बन कर रह जायेंगे ,  ज्यादा हुआ तो गुजराल या वीपी सिंह हो जायेंगे किन्तु अटल  बिहारी तो कभी नहीं बन पायेंगे। हालंकि अटलजी का अर्थशास्त्रीय ज्ञान संदेहास्पद रहा है वे भी मनमोहन सिंह की ही  नीतियों के ही पैरोकार रहे हैं . किन्तु देश को उन पर भरोसा था क्योंकि वे कट्टरवादियों के सामने कभी  नहीं झुके . नरेन्द्र मोदी  को अभी सावित करना है कि  गुजरात और गोधरा अंतिम अध्याय था  और साम्प्रदायिकता से नहीं नीतियों और कार्यक्रमों  से ' विशाल भारतीय लोकतंत्र ' का नवनिर्माण होगा . नितीश को भी सावित करना है कि  अभी तो बिहार के लिए वे केंद्र से 'विशेष पैकेज ' मांग रहे है ,यदि वे प्रधानमंत्री बन गए तो  इस देश के ७ ० करोड़ वंचित लोगों के लिए 'रोटी-कपडा- मकान '  जुटाने के लिए  कहीं अमेरिका से नए  क़र्ज़  का पैकेज तो नहीं मांगने लग जायेंगे ? क्या वे जानते हैं कि  भारत दुनिया  का एकमात्र अमीर मुल्क है जहां एक ओर  सत्तर मिलियेनर्स   है और वहीँ दूसरी ओर सत्तर करोड़ हैरान-परेशान जनता - जनार्दन। दुनिया की सबसे बड़ी गरीब जनसंख्या  भारत में  मात्र २ २ रुपया रोज से कम में  गुजारा  करती है तो  भी अमेरिका ,मनमोहन ,कमलनाथ,शरद पवार , चिदम्बरम के पेट में दर्द होता है  कि - भारत के भुखमरे  चूँकि ज्यादा खाने लगे हैं इसलिए न केवल भारत बल्कि दुनिया में भी  खाद्यान्न की महंगाई  बढ़ रही है . नितीश को ,मोदी को मानिक सरकार को  या जिस किसी को भी सत्ता में बिठाया जाए  उसका  डी एन ऐ 'भृष्टाचार की गटर गंगा से जुदा हुआ नहीं होना चाहिए .
                  जो लोग  अपनी कूबत , नीतियाँ और कर्तब्य  भूलकर केवल' नमो'  का जाप कर रहे हैं वे  ग़लतफ़हमी के शिकार हैं ,   जो  सोचते हैं कि  कट्टरवादी मोदी हिंदुत्व का  झंडा  उंचा करेगा उन्हें मालूम हो कि  मोदी   का हिंदुत्व  तो अब केवल इतिहास में  सिमट जाने वाला है . जब माया  कोडनानी  जैसे कट्टर हिंद्त्व वादियों को फांसी पर चढ़ता हुआ ज़माना देखेगा तो  आचार्य धर्मेन्द्र ,प्रवीण तोगड़िया या मोहन  भागवत  भी  मायूस होंगे . जो मोदी  का विरोध केवल साम्प्रदायिकता के कारण कर  रहे हैं वे नितीश हों ,शिवानन्द हों ,लालू हों या कांग्रेसी हों  या  देश  और दुनिया के मुसलमान हों  क्या    वे  फिर   भी मोदी   को इस मुद्दे पर घेर सकेंगे ? क्या मोदी का  साम्प्रदायिकता के आधार पर किया  जा रहा  विरोध   उथला  और गन्दला नहीं है ?   क्यों न गुजरात और गोधरा से आगे बढ़ा जाए ?   देश के सामने प्रस्तुत चुनौतियों के निदान पर मोदी की  आर्थिक नासमझी  और  मनमोहनसिंह के पद चिन्हों पर  देश को चलाने की उनकी नकलची और  जबरिया कोशिश पर प्रहार किया जाए ?
                                                              मेरा तो  मानना है कि  नरेन्द्र मोदी को एक पैसे भर भी 'हिंद्त्व' से  कोई मतलब नहीं है . वे जो भी बोल रहे हैं या बुलवा रहे हैं वो केवल वोट बेंक का सबब है .  उनकी  उच्च- मध्यम  वर्ग और नव- धनाड्य  वर्ग में बढती लोकप्रियता भी हिंदुत्व के कारण नहीं बल्कि गुजरात  में    निरंतर 'विकाश' का ढिढोरा पीटने , नोकरशाही पर लगाम कसने और देशी-विदेशी पूंजीपतियों तथा मीडिया को मेनेज करने  से मोदी को अभी तो वास्तव में बढ़त हासिल है . आधुनिक उन युवाओं  को भी   मोदी आकर्षित कर रहे हैं   जिनको  अपनी शैक्षणिक योग्यता अनुसार 'जाब  सुरक्षा ' चाहिए न की मंदिर-मस्जिद या साम्प्रदायिकता का कहर चाहिए . मोदी की इसी वैयक्तिक खूबी से  डरकर न  केवल वरिष्ठ भाजपाई नेता बल्कि एन डी ए  के अलायन्स पार्टनर्स भी आंतरिक रूप से नरेन्द्र मोदी   से ईर्षा रखते  हैं और अपनी कुंठा को धर्मनिरपेक्षता का जामा पहनाकर अपनी प्रासंगकिता बरकरार रखने की चेष्टा कर रहे  हैं .
                                              मेरा आकलन है  कि  शायद मोदी अब वो गलतियां कभी नहीं   दुहराएंगे   जो उन्होंने गोधरा काण्ड के उपरान्त की थी . मोदी को केवल साम्प्रदायिकता के आधार पर  घेरने वाले यह भूल जाते हैं कि   इस प्रकार का मोदी विरोध तो 'हिन्दुत्ववादियों' को और ज्यादा एकजुट और  आक्रामक बनाने के साथ-साथ उन्हें सत्ता के शिखर पर बैठने का सबब बन सकता है . तब धर्मनिरपेक्षता को और ज्यादा खतरा उत्पन्न हो सकता है .याने मोदी के पूंजीपति परस्त आर्थिक दर्शन और निजीकरण समर्थक नीतियों को छोड़ जदयू केवल साम्प्रदायिकता का राग अलापकर देश के साथ न्याय नहीं कर रहा . वे तमाम लोग जो मोदी को केवल साम्प्रदायिकता के आधार पर घेरने की कोशिश करते हैं  वे देश और समाज के साथ  न्याय नहीं  कर पाने के लिए अभिशप्त हैं .

                                                     भारत की जनता को , मीडिया को और देश के वास्तविक शुभचिंतकों   को व्यक्तिवादी  विमर्श से सावधान रहकर -वैचारिक और नीतिपरक विजन अपनाना चाहिए . मोदी , नितीश , शरद , आडवाणी ,सुषमा, राहुल  शिवराज ,मुलायम ,माया ,ममता जय ललिता ,नवीन  बादल,जेटली   ये   तो व्यक्तियों के नाम   भर   हैं किन्तु  चर्चा जब गाँधी,सुभाष ,नेहरु, इंदिरा , राजीव , ज्योति वसु या बाबा साहिब आंबेडकर की होगी ,लेनिन ,भगत सिंह ,कास्त्रो या  हो -चिन्ह-मिन्ह की होगी  तो ये  व्यक्ति नहीं विचारधारा कहे जायेंगे ...!  वेशक  मनमोहन सिंह जी भी  आज सर्वत्र  अस्वीकार्य हो  चुकने के वावजूद  एक ' विचारधारा 'तो अवश्य हैं ....! इतिहास में भले  ही  वे 'नायक ' नहीं  इन्द्राज हों  किन्तु
खलनायक भी कोई उन्हें नहीं कह सकेगा ..! आडवाणी , नितीश  या  नरेन्द्र मोदी समेत तमाम बहुप्रतीक्षित  व्यक्तियों को  भी व्यक्ति से ऊपर उठकर विचारधारा  बनना  होगा वरना इनमे से कोई भी प्रधानमंत्री बन जाए लेकिन  देश  का कल्याण नहीं कर पायेगा ...!

                                        श्रीराम तिवारी   -14,s-4, sch-78 ,vijaynagar indore m. p.

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