गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

भारतीय लोकतंत्र को ' चौथे मोर्चे' की दरकार क्यों है ?

              
                   भारतीय लोकतंत्र को  'चौथे मोर्चे ' की दरकार क्यों  है ?



       इन दिनों भारत में   राजनैतिक सरगर्मियों का  सिलसिला परवान  चढ़ता प्रतीत हो रहा है ,  एन डी ए  में  जद {यु} और शिवसेना नरेन्द्र  मोदी की प्रधानमंत्री पद की प्रस्तावित दावेदारी को अस्वीकार कर अपने विद्रोही तेवर जाहिर  कर अपने वजूद को ही नहीं बल्कि  अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि को बचाने की भरसक   कोशिश कर रहे  हैं . भाजपा का एक धडा भी यही चाहता है  कि  इस  धर्मनिरपेक्षता के  अश्त्र  से मोदी का पत्ता साफ़ होता है तो हो   जाने दिया जाए ताकि उनसे वरिष्ठ  और  एन डी ए  के अलायन्स पार्टनर्स को  स्वीकार  कोई  धर्मनिरपेक्ष छवि का भाजपाई  , सम्मान जनक ताजपोशी  के लिए अवसर पा सके  .  दूसरी ओर यूपीए के प्रमुख घटक कांग्रेस ने भी अपने तमाम हथकंडे  इस आशय से   अपनाने का इंतजाम किया है कि  आगामी विधान सभाओं और लोक सभा चुनावों में   चुनौती पूर्ण मुकाबले में अपनी प्रासंगिकता बनाए रख सकें . यथास्थति वाद  में कांग्रेस दुनिया भर में बेजोड़ है .व्यवस्था परिवर्तन से उसे  चिड  है , इसीलिए तमाम  प्रतिगामी - राष्ट्रघाती नीतियों के घालमेल का पिटारा सर पर  रखने के वावजूद  भी वो  चिरजीवी है .
                            विदेशी ताकतों ने भी हमेशा की तरह इन दिनों  अपने दूरगामी  स्वार्थों के निमित्त 'दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र' याने भारत   में  दिलचस्पी  लेना तेज कर दिया है। विकिलीक्स के मार्फ़त  कई साल पुराने  मामलों  को नए कलेवर में देशी-विदेशी मीडिया के माध्यम से जनता -जनार्दन के बीच पेश किये जाने के  और क्या निहतार्थ हो सकते हैं ?  देश की जनता को यह जरुर जानना चाहिए .विकिलीक्स  सही-गलत खुलासों पर प्रतिक्रिया देने के बजाय देश की आवाम को चाहिए की उसके नितार्थ को  जाने.   एक  ओर  नरेन्द्र मोदी को   'पान का बीड़ा ' खिलाकर भाजपा का एक  धडा  कुलांचे भर  रहा  है,  दूसरी  ओर उन्ही के बगलगीर' धर्मनिरपेक्षता बनाम गठबंधन '  के  बहाने  श्री  आडवानी जी या किसी अन्य सेक्युलर चेहरे की खातिर बगावत की कगार  तक जा पहुंचे  हैं।    भाजपा ,संघ परिवार और उनके बचे-खुचे अलायन्स पार्टनर्स  के तेवर  दिल्ली में , प्रदेशों की राजधानियों में -मीडिया के सम्मुख यों पेश  हो  रहे है मानों देश की जनता पलक पांवड़े बिछाकर बस  उन्हें सत्ता में विराजित करने  ही वाली है. जबकि मैदानी हकीकत कुछ और ही बयान कर रही है . देश के इन दोनों ही बड़े गठबन्धनों के अपने-अपने सर्वे  बताते हैं की उनकी हालत कितनी खराब है ? न केवल कांग्रेस ,भाजपा या वाम मोर्चा बल्कि  क्षेत्रीय दलों में से अधिकांस  की हालत बेहद पतली है . कोई भी अपनी जीत के लिए  पूर्णतः आश्वस्त नहीं है .हालांकि ऊपर-ऊपर सभी ये जाहिर कर रहे हैं  कि  'मेरी कमीज उसकी कमीज से उजली ' है .  चुनावी   हम्माम में सभी की हालत एक जैसी है . देश की जनता का अधिकांस हिस्सा कांग्रेस से क्यों नाराज है ?ये बताने की जरुरत नहीं ,सभी को मालूम है की डॉ मनमोहनसिंह के नेत्रत्व में न तो भारत   सुरक्षित है और न देश की आम जनता का कल्याण संभव है . क्योंकि वे जिन पूंजीवादी  नीतियों के पैरोकार हैं उनसे अमेरिका और यूरोप का भला नहीं हुआ तो भारत का क्या खाक हो सकेगा ?
       जो लोग आशान्वित हैं कि  भाजपा के नेत्रत्व में एन डी ए  की सरकार दिल्ली में  बनने  ही जा रही  है ,उनसे निवेदन है कि  एक नज़र भारत के नक़्शे पर दौडाएं और मेरे इस निष्कर्ष पर गौर फरमाएं .                 भाजपा  का  दक्षिण के चार राज्यों-केरल,तमिलनाडु, आंध्र  और कर्नाटक में  कहीं  कोई जनाधार न पहले  था और न  आज है।अलवत्ता संघ परिवार की कड़ी मेहनत और कांग्रेस-जद [एस] की आपसी  फूट  के परिणाम स्वरूप येदुरप्पा के नेत्रत्व में एक मौका कर्नाटक में भाजपा को  जरुर मिला था . जनता का मोह तभी भंग होना शुरू हो गया जब रेड्डी बंधुओं  ने  ,खनन माफिया ने   कर्नाटक की   अपार सम्पदा   को अपने कब्जे में   करना   आरम्भ किया  था .येदुरप्पा के कारनामें  और भाजपाई नेताओं की  ऐयाशी के तराने न केवल कर्नाटक बल्कि दिल्ली तक  जब  सुनाई  देने लगे तो कर्नाटक की जनता ने भी  अपना मूड  बदलना शुरू कर दिया था  . कर्नाटक में  अब  मामला बोक्लिग्गा बनाम लिंगायत नहीं रह गया बल्कि 'मेहनतकश बनाम लुटेरे ' हो गया है .  चाहे वो विधान सभा हो या लोक सभा -अब भाजपा कर्नाटक की जनता से वो उम्मीद  नहीं कर सकती जो   उसे पांच साल पहले हासिल हुआ था . कर्नाटक में भाजपा को विपक्ष में बैठने की  अपनी हैसियत बनाए रखने में भी पसीना आने वाला है . न केवल विधान सभा बल्कि लोक सभा के चुनाव में कर्नाटक अब भाजपा या  एन डी ए   का साथ नहीं देने वाला .
       पूर्व के लगभग सभी राज्यों-बंगाल,उडीसा,असाम,उत्तर-पूर्व,त्रिपुरा में हमेशा  भाजपा की स्थिति क्षेत्रीय दलों  की अनुकम्पा  से  केवल खाता खोलने तक ही सीमित रही है . इस बार भी वहाँ कोई चमत्कार नहीं होने वाला याने इन सभी राज्यों में भाजपा का कोई जनाधार नहीं है .बिहार में उसकी स्थति  लालू के कुराज , कांग्रेस की दुरावस्था और नितीश[ जद  यु ] की  मेहेरवानी   से विगत लोक सभा और विधान सभा चुनाव में सुधरी थी  किन्तु  जबसे भाजपा के कुछ उत्साही लालों ने "नमो" मन्त्र का जाप शुरू किया है तबसे धर्मनिरपेक्षता के नाम पर जद [यु] और नितीस के मिज़ाज कुछ बदले-बदले से हैं . भाजपा की बिहार इकाई दो फाड़ होकर चकरघिन्नी हो रही है . अब आगामी लोक सभा चुनाव में जातीय और साम्प्रदायिक धुर्वीकरण में बिहार की ओर से भाजपा को ज्यादा उम्मीद नहीं रखनी चाहिए . बिहार में जातीय ध्रुवीकरण एक  राष्ट्रघाती वास्तविकता है .
                  कश्मीर हिमाचल उत्तराखंड ,पंजाब,हरियाणा  और उत्तरप्रदेश में भाजपा की क्या स्थति है यह सर्व विदित है इन राज्यों से  दो दर्जन सांसद जुटाना भी  भाजपा के लिए लोहे के चने चबाने जैसा है .  महाराष्ट्र में कांग्रेस,भाजपा ,राकापा ,शिवसेना,कितने ही बदनाम हो जाएँ किन्तु उनके अपने-अपने  ठिये  तो    कमोवेश जस के तस रहा करते हैं।  यह अवश्य है कि जबसे गडकरी जी ने अपनी नेकनामी के झंडे गाड़े है ,जबसे  स्वर्गीय प्रमोद महाजन और उनके ततकालीन   संगी साथियों  के   सर्मयादारों से अन्तरंग रिश्तों को  कुख्याति मिली है ,तबसे  महाराष्ट्र में भाजपा  का प्रभाव  अवश्य घटा है . याने पहले से ज्यादा सीटों की उम्मीद अब भाजपा या एन डी ए  को महारष्ट्र से नहीं करनी चाहिए . गोपीनाथ  मुंडे  की राह में कांटे बिछाने वाले कैसे उम्मीद करते हैं कि  महाराष्ट्र से लोक सभा में बढ़त हासिल होगी ! कांग्रेस और राकपा की बदनाम सरकार  को उखड फेंकने के लिए महाराष्ट्र की जनता बेकरार है किन्तु भाजपा पर भी तो उसे यकीन नहीं नहीं है .
                भाजपा और संघ को   अपने तीन राज्यों -गुजरात, छत्तीस गढ़  और मध्यप्रदेश पर बड़ा भरोसा है .गुजरात को तो  एन-केन -प्रकारेण  बचा लिया गया  है ,शायद गुजरात की जीत का एक  अहम्  कारण  'मोदी' को प्रधानमंत्री का प्रोजेक्शन भी  रहा  हो,शायद गुजरात के हिन्दू मतों का मोदी के पक्ष में  ध्रुवीकरण भी एक कारण रहा  हो  या शायद  बेहद बदनाम और मंहगाई के लिए जिम्मेदार , भृष्टाचार के लिए जिम्मेदार  कांग्रेस  पार्टी  का वहाँ विपक्ष के रूप में असफल होने का कारण रहा  हो। जो भी हो गुजरात में  साम -दाम-दंड -भेद सब कुछ  दाव  पर   लगा दिया गया और विगत विधान  सभा से मात्र एक  सीट कम पाकर भी मानों  मोदी में सौ  हाथी  का बल   आ गया  है  ।शायद छतीसगढ़ में  भी इसी तरह कांग्रेस  समेत अन्य विपक्षियों की आंतरिक संगठनात्मक कमजोरी के कारण   रमनसिंह  जी पुनः  अपनी यथा स्थति  बनाए रखने में कामयाब  हो जाएँ  लेकिन लोक सभा और विधान सभा में भाजपा या एन डी ए  को कोई उल्लेखनीय  बढ़त  वहाँ नहीं मिलने जा रही है .  राजस्थान में ज्यादा जोर मारेंगे तो अपनी वर्तमान स्थिति को  ही बनाए रखने में कामयाब हो सकते हैं। किन्तु जसवंत सिंह जी और अन्य वरिष्ठ नेताओं को अपमानित कर वसुंधरा राजे न तो खुद मुख्यमंत्री बन पाएंगी और न राजस्थान से लोक सभा के लिए वांछित विजयी  सांसदों को भेजने में कामयाब हो सकेंगी .  गहलोत का बेक वर्ड क्लास से  होना और  वसुंधरा का पूर्व राजसी परिवार से होना भी आवाम के बीच विमर्श और लगाव का कारण  बनता ही  है .
                 भाजपा के  लिए   मध्यप्रदेश की स्थिति सबसे दयनीय है, यहाँ सरकार नाम की कोई चीज नहीं बची। पाकिस्तान का जरदारी  तो  मिस्टर  टेन परसेंट के नाम से ही  कुख्यात है, यहाँ पच्चीश परसेंट से कम में कोई फ़ाइल आगे नहीं बढती . मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री भले ही अपने आप को   ईमानदार ,पाक-साफ़  दिखाने की कोशिश करते  हों ;किन्तु डम्फर काण्ड,नोट गिनने की मशीन  और विकाश के झूंठे  दुष्प्रचार  ने  आम जनता को  बुरी तरह आक्रोशित कर रखा है.   कन्याओं का  मामा  कहलाने   वाले शिवराज को 'भू-माफिया,'खनन माफिया और रिश्वत खोरों ने   निरा ' मामू ' सावित कर  डाला है। विगत वर्ष मुरेना में एक आई पी  एस को खनन माफिया ने डम्फर से कुचल कर मार  डाला था .अभी एक और घटना हो गई .खनिज निरीक्षक संजय  भार्गव को इसलिए मार दिया गया कि  वह भी खनन माफियाओं की राह में रोड़ा बनकर देश भक्ति करने चला था .लोगों में चर्चा है की इसके पीछे 'दिलीप  बिल्ड्कान 'के लोग हैं और इस महा बदनाम ,महाभ्रष्ट कम्पनी के लोगों का मध्यप्रदेश की सत्ता में बैठे लोगों से  अंतरंगता जग जाहिर है।  सी बी आई भी उसका अभी तक कुछ नहीं बिगाड़ पाई .  ऐंसे  और भी कई   व्यक्ति और संस्थाएं  हैं जो भाजपा के  लिए फंडिंग करने के बहाने अपने आर्थिक साम्राज्य का  विस्तार करते जा रहे हैं . कई तो ऐंसे  हैं जो कभी कांग्रेस के  फायनेंसर हुआ करते थे ,वे अब भाजपा के  फाय् नेंसर हैं और यदि कांग्रेस दुर्भाग्य से फिर आ गई तो ये सत्ता के दलाल पुनः कांग्रेस की चरण वंदना में देरी नहीं करेंगे . अभी ये गले में केशरिया दुपट्टा डाले हुए दिख रहे हैं , यदि कांग्रेस आ गई   मध्यप्रदेश में  तो ये पंजा निशान या तिरंगी टोपी लगाए हुए दिख जायेंगे .  मध्यप्रदेश में मनरेगा  का पैसा जो केंद्र से  आया था सारा का सारा नेताओं और अफसरों -दलालों ने आपस में बाँट लिया . मध्य्प्र्देश में  सिर्फ भाजपा नेताओं और सरकारी अफसरों का विकाश हो रहा है. क़ानून और व्यवस्था जर्जर हो चुकी है,चेन स्नेचिंग,ह्त्या ,बलात्कार और जमीन से बेदखली के लिए मध्यप्रदेश ने पूरे देश का रिकार्ड तोड़ दिया है . मामूली पटवारी से लेकर सीनियर आई ए  एस तक अधिकांस के यहाँ करोड़ों की संपत्तियों  का खुलासा आये दिन हो रहा है .आयकर और केन्द्रीय वित्त अन्वेषण व्यूरो जैसी संस्थाओं ने  विगत एक वर्ष में मध्यप्रदेश से अरबों के भृष्टाचार को बेनकाब किया है . सत्तारूढ़  पार्टी के विधायक, मंत्री  पार्षद  नेता -रेपिस्ट, मर्डर  और प्ले बॉय  जैसी उपाधियों से नवाजे जा रहे  है।हालात ये हैं कि  भाजपा के ही  अन्दर जिन्हें खाने को नहीं मिला या कम मिला वे भी  शिवराज को निपटाने में जुटे हैं . पहले ये कांग्रेस में होता था की अपने ही  हरवा देते थे . अब भाजपा ने भी कांग्रेस से  सीख लिया है कि  अपनों को कैसे निपटाया जाए . भाजपा की  संभावित हार  का  डर  भी अब खुद -ब -खुद जनता और मीडिया के बीच चर्चा में आ गया है .भाजपा के इस डर  को तब और बल मिला जब उनके खुद के तंत्र ने एक सर्वे किया और पाया की वर्तमान में भाजपा के 8 0  विधायक  और 2 8  मंत्री आगामी चुनाव नहीं जीत पायेंगे। इन हारनेवालों को कहा जा रहा है की या तो अपनी छवि सुधारो या चुनाव क्षेत्र बदलो या नए चेहरों को मौका दो .इस लीपा पोती से  भाजपा शायद मध्यप्रदेश में  अपनी नाक तो  बचा ले किन्तु  केन्द्रीय  सत्ता में  आने की तो यहाँ दूर-दूर तक संभावना यहाँ से कतई  नहीं है .   जगह -जगह आर एस एस के पथ संचलन , कनकेश्वरी -ऋतम्भरा  और बाबा -बेबिओं के प्रवचन ,यज्ञ -कथा कीर्तन  तो मध्यप्रदेश में संघ परिवार की  निरंतर गैर राजनैतिक सक्रियता  के प्रमाण हैं ही किन्तु इन सभी इंतजामात का मकसद अपना स्थाई वोट बैंक ही है जिसे साधे  रखने की जिम्मेदारी संघ के लोगों की है। किन्तु जनता सब कुछ जान गई है अब  ज़माना  डिजिटल  नेटवर्क ,  इंटरनेट  और सूचना एवं संपर्क क्रांति का है सो  भारत का युवा और  सुशिक्षित वर्ग किसी भी गैर जिम्मेदार   साम्प्रदायिक या धार्मिक  उकसावे में आकर निर्णय नहीं लेने वाला . वो दुनिया में चल रही परिवर्तन की लहरों  को गौर से देख रहा है  मध्यप्रदेश में भाजपा का अब साम्प्रदायिक कार्ड नहीं चलने वाला .ये शिवराज भी जानते हैं  .इसीलिये वे ज्यादातर विकाश की ही बात करते हैं किन्तु  जब वे अपने द्वारा की गई घोषणाओं को पूरा नहीं कर पाने के लिए  केंद्र के सर ठीकरा फोड़ते हैं तो जनता को दिग्विजय राज की याद तजा हो जाती है ,तब केंद्र में अटल सरकार थी ,दिग्विजय सिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे . उमा भारती ने तब सड़कों की दुर्दशा ,बिजली-पानी कुशाशन और 'दैनिक वेतन भोगियों ' के मुद्दे पर दिग्गी को 'मिस्टरबंटाढार ' की उपाधि से नवाज था और भाजपा को सत्ता दिलाई थी आज भी मध्यप्रदेश वहीँ पर खड़ा है जहां पर दिग्गी  राजा  छोड़ गए थे .दैनिक वेतन भोगी आज भी  संघर्ष कर रहे हैं , कुछ तो भूंखे मर गए, मिल मजदूरों को बीस साल  हो गए अभी तक एक पाई नहीं मिली .  बिजली -पानी -सड़क  के बारे में तो जनता का गुस्सा इतना है कि  सत्ताधारी दल के विधायक पार्षद अब लोगों के बीच जाने से डर  रहे हैं  ऐंसे  हालात में आगामी चुनाव में भाजपा को राज्य और केंद्र दोनों के लिए ही जनादेश नहीं मिलने वाला .  हालांकि उमा भारती  की  ससम्मान  वापिसी शायद कुछ आशा जगा  सकती थी  . किन्तु जनता  को उमा से भी शिकायत है कि  दस साल पहले वे जो-जो वादे कर गईं थी उनमे से अभी तक कोई भी पूरा नहीं हुआ .जनता ने जनादेश उन्हें दिया था न की गौर को या शिवराज को .अब उनके लिए भी जनता के सामने जाना आसान नहीं  रहा . लोकोक्ति है कि" चुहिया  को चिंदी मिली तो बोली कि  चलो बजाजी  करेंगे" . उमा  भारती को  उपाध्यक्ष बने अभी चार दिन नहीं हए और वे कांग्रेस के पिण्डदान  की घोषणा  करने लगी हैं। याने वे यह कहना चाहती हैं कि  केंद्र में एन डी ए  की सरकार बस बन ने ही जा रही है .   शिवराज  क्या खाक कांग्रेस का मुकाबला करेंगे ये तो' बस उमा भारती के बूते की ही बात' है .इत्यादि इत्यादि ...
                                      यह सर्व विदित है  कि कांग्रेस नीत   केंद्र सरकार  की सभी  मोर्चों  पर  असफलताओं ,बढ़ती मंहगाई  और कुशाशन के वावजूद,  उनमें   आपसी फूट  के वावजूद    उनके  पास  तुरुप का एक पत्ता आखिरी तक रहता है और उसका नाम है "धर्मनिरपेक्षता"..!  हालांकि आम जनता  खुद ही कांग्रेस से मुक्ति चाहती है  किन्तु उसका स्थान लेने के लिए न तो भाजपा  ने अपना चाल-चेहरा-चरित्र इस काबिल छोड़ा  है  कि  कहीं मुंह दिखा सके  और न  ही एन डी ए  ने  कोई नीतिगत  विकल्प प्रस्तुत किया है  कि  डॉ मनमोहनसिंह की विनाशकारी आर्थिक नीतियों को पलट  कर कोई सर्व समावेशी ,जन-कल्याणकारी समतामूलक   सामजिक-आर्थिक- राजनैतिक और राष्ट्र हितकारी सिद्धांत और नीतियों प्रस्तुत कर सके . मेरे कहने का लब्बो लुबाब ये है  की ये दोनों  बड़े गठबंधन -यूपीए और एन डी ए  दोनों ही आज जनता -जनार्दन  का विश्वाश खो चुके हैं . और जब गठबंधन ही फ़ैल हो चुके हैं तो किसी एक पर विश्वाश कर पाना तो  देश  की आवाम के लिए और भी मुश्किल है . तीसरा मोर्चा भले ही सत्ता में आ जाए किन्तु देश को उससे केवल और केवल निराशा ही हाथ लगेगी . क्योंकि अतीत में जब -जब तीसरा मोर्चा बना और सत्ता में आया  तो उसे अव्वल तो कांग्रेस का कपटपूर्ण समर्थन लेना पड़ा और  दूसरे  ये तीसरे मोर्चे की  सरकारें साल भर  से ज्यादा  नहीं टिक  सकीं .
                               कांग्रेस तो वैसे ही कई कारणों से बदनाम है .केंद्र में यु पी ऐ  द्वतीय की जिजीविषा को जीवन शक्ति देनें वाले   तत्व - मनरेगा ,आर टी आई क़ानून,महिला आरक्षण तथा दलित-मुस्लिम हितों के लिये किये गए  दिखावटी  उपाय  अब उन्हें तीसरी बार सत्ता सीन करने वाले नहीं हैं . क्योंकि  ये सभी तत्व  तब तक बेमानी हैं जब तक देश में व्याप्त  भृष्टाचार ,रिश्वतखोरी, बाजारीकरण  ,निजीकरण  वैश्वीकरण   और कट्टरवादी साम्प्रदायिकता   विद्द्य्मान  है . जो इन छुट्टे सांडों को मजबूती  से कंट्रोल करने का माद्दा रखता हो आज उसे ही जनता का जनादेश मिलने की सम्भावना है .ये काम यूपीए ,एन डी ए  और तीसरा मोर्चा कभी नहीं कर सकता क्योंकि वे तीनों ही इन तत्वों से बने हुए हैं .रही बात वाम मोर्चे की तो वेशक वो ये काम कर सकता है किन्तु आज सारी  दुनिया में नव-पूँजीवाद  का बोलवाला है अतएव  अधिकांस युवाओं को  समाजवाद या साम्यवाद के बजाय ' आर्थिक  उदारवाद'    में ज्यादा सम्भावनाएं दिखाई देती हैं . वैसे भी वामपंथ  को सत्ता में आने का अभी वक्त नहीं आया है . उससे पहले देश को कई स्टेज से गुजरना होगा . शायद चौथा मोर्चा भी एक सार्थक प्रयोग के रूप में भारतीय   लोकतंत्र का अगला पड़ाव हो .

                         आधुनिकतम संचार और सूचना प्रौद्दोगिकी   के  कारण   और बढती हुई आधुनिकतम  वैश्विक चुनौतियों के कारण विगत दो-तीन वर्षों में  दुनिया भर के देशों में युवा वर्ग ने क्रांति का बिगुल बजाया है  और कई देशों में -मिश्र ,सीरिया,लीबिया तथा यमन में गैर परम्परागत  राजनैतिक ताकतों की सरकारें सत्तासीन हुईं हैं। हो सकता है ये क्रांतियाँ न  भी हों और भ्रांतियां बनकर ही इतिहास में दर्ज होकर रह जाएँ किन्तु मानवता के इतिहास में परिवर्तनीयता के सिद्धांत को इससे से न तो नकारा जा सकता है और न  इसके प्रभाव से मानवीय विकाश के मार्ग को अवरुद्ध किया जा सकता है । भारत की युवा पीढी शायद अब एनडी ए ,यूपीए  और तीसरे मोर्चे को भी कुछ समय के लिए अज्ञ्यातवास  भेज दे ,  तो कोई हर्ज़ नहीं . और इन्ही समकालिक क्रांतियों के समस्थानिक खोजकर भारत का भाग्य बदलने के लिए मैदाने जंग में उतर पड़े . सर्व श्री  अन्ना  हजारे,अरविन्द केजरीवाल,   प्रशांत भूषण   किरण वेदी स्वामी अग्निवेश ,सुब्रमन्यम स्वामी  ,गोविन्दाचार्य, ,अरुंधती रे,मेघा पाटकर,तथा अन्य तमाम वे लोग जो वर्त्तमान निजाम से ,वर्तमान व्यवस्था से और वर्तमान विद्द्य्मान भारतीय राजनैतिक पार्टियों से संतुस्ट नहीं वे सभी तत्व एकजुट होकर अपनी वैकल्पिक नीतियाँ,अपना राजनीतिक मेनिफेस्टो,अपनी वैकल्पिक सैधांतिक  विचारधारा स्थिर कर एकजुट आन्दोलन चलाकर देश के शिक्षित युवाओं का मार्ग दर्शन कर  वेशक "चौथा मोर्चा" बनाकर  भारत को वर्तमान चौतरफा संकट से उबार सकते हैं .बाबा रामदेव भी इस महान क्रन्ति यज्ञ में आहुति दे सकते हे किन्तु लगता है कि  उन्हें केवल अपने ग्यारह हजार करोड़ के आर्थिक  साम्राज्य की फ़िक्र है सो एक गॉड  फादर की उन्हें जरुरत थी,नरेन्द्र मोदी  के रूप में उन्हें उनके सर परस्त मिल गया अब बाबा रामदेव पूरे  भाजपाई हो चुके हैं .  यदि वे कांग्रेस और भाजपा से इतर देश हित में सोचते तो शायद बेहतर  परफोर्मन्स  दे सकते थे .
                                                स्वतंत्र भारत के इतिहास में स्वतः स्फूर्त जनांदोलन के माध्यम से  देश की तरुनाई ने पहली बार तब भूमिका अदा की थी जब  जय प्रकाश नारायण के नेत्रत्व में देश के सम्पूर्ण विपक्ष और युवा वर्ग समेत मजदूर -किसान सड़कों पर उतर आये थे . आपातकाल की विभीषिका को एक फूंक में उड़ाकर   लोकतंत्र को बचाया था .  आज  देश को  दूसरी  बार  इस तरुनाई के संयुक  संघर्ष और ईमानदार  नेत्रत्व  के आह्वान की सख्त जरुरत है और भारत भूमि कभी भी महापुरषों से महरूम नहीं रही। आज भी देश में सेकड़ों इमानदार अफसर,ब्यूरोक्रेट ,राजनीतिज्ञ ,किसान, मजदूर और  उद्द्योग्पति  हैं . शानदार केन्द्रीय श्रम संगठनों की दस करोड़ फौज है , सीटू, एटक ,इंटक ,बी एम् एस और एच एम् एस सहित तमाम राज्य सरकारों और सार्वजनिक क्षेत्रों के ताकतवर श्रम संगठन हैं ,यहाँ आप ईमानदारी, क्रांतिकारिता ,देशभक्ति और संघर्षों का जज्वा एक साथ देख सकते हैं . इन्हें युवाओं का सहयोग चाहिए जैसे की १ ९ ७ ७  में तत्कालीन युवाओं ने जे.पी . को दिया था .
                      हालांकि  कांग्रेस के  तेज तर्रार मह्राथियों- इंतजाम- अलियों  ने अभी भी उम्मीद नहीं छोड़ी है .   वे    अपना  'स्वघोषित  धर्मनिरपेक्षता   राग '   छेड़कर  एनडी ए  में सेंध लगाने  , नितीश और जदयू समेत तमाम उन दलों को जो 'मुस्लिम मतों' पर आधारित है ; को   एन डी ए  से  अलग करने  का इंतजाम कर रहे हैं.राहुल  गाँधी  के बारे में प्रचारित किया जा रहा है  कि  उन्हें  अभी कोई जल्दी नहीं है उनका प्लान बहुत दूरगामी और चोखा है वे तो  अभी दो-तीन आम चुनाव तक सत्ता में नहीं आने वाले भले ही कांग्रेस को अकेले ही स्पष्ट बहुमत  ही क्यों न मिल जाए , भले ही दिग्विजय सिंह कुछ  भी बयान देते रहे और विकिलीक्स कुछ भी  अंट -शंट  बकता रहे  उनकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने  वाला। उन्होंने तो शानदार फार्मूला खोज लिया है कि  :-

       तेल जरे  बाती  जरे ,नाम दिया का होय।
       लल्ला खेलत काहू के ,नाम पिया का होया।।

यूपीए -तीन का राहुल को सरताज बनाने  का सघन  अभियान जिन्होंने चला रखा है अंत में उन्हें निराशा ही हाथ लगने वाली है  ,क्योंकि डॉ मनमोहनसिंह जी ने देश में ऐंसा कुछ भी नहीं किया कि  लोग तीसरी बार यूपीए को सत्ता सौंप दें . विकीलीक्स  ने भी लगता है  कि  किसी विदेशी ताकत के इशारे पर  ठीक इसी दौर में न केवल' गाँधी परिवार '  अपितु अतीत के  भारत-अमेरिकी   रिश्तों की भी परतें उघाड़ने में इसी वजह से तेजी दिखाई है।
                                        मुलायम ,माया,ममता,बीजद,जया , उद्धव ,राज ठाकरे  , द्रुमुक ,लालू,पासवान और  देवगौड़ा इत्यादि   कितना ही उछल -कूंद कर लें किन्तु वे  अपने-अपने क्षेत्रीय ,भाषाई और जातीय सरोकार देश के राष्ट्रीय सरोकारों से टकराकर या शरणम् गच्छामि होकर ,बार -बार 'गठबंधन की राजनीती के दौर ' को  भले ही खाद पानी  देते रहें किन्तु  वे विशाल भारत  की नैया के खेवनहार कतई  नहीं हो सकते . एक बेहतरीन राजनैतिक -सामाजिक-आर्थिक  और  वैकल्पिक  नीति को प्रस्तुत करने में सक्षम  वाम मोर्चा  तमाम क्रांतिकारी संघर्षों के वावजूद , अपनी बेहतर  केडर  आधारित सांगठनिक क्षमता के वावजूद ,  जन सरोकारों के लिए सड़कों से लेकर संसद तक संघर्ष  के वावजूद ,   और भारत के सभी पूंजीवादी दलों,क्षेत्रीय दलों से बेहतरी के वावजूद ,पूंजीवादी दलों की विफलताओं  के वावजूद 
 पर्याप्त जन-समर्थन के बिना केंद्र की सत्ता में  बहरहाल अभी तो  नहीं आने वाला .
        वाम मोर्चा चाहे तो देश में निरंतर संघर्षरत स्वतंत्र आन्दोलनो -अन्ना ,केजरीवाल,और तमाम बिखरे हुए जनांदोलनो को एकजुट करने और उन्हें भारत में क्रन्तिकारी बदलाव के लिए अपनी क्रन्तिकारी विचारधारा  से लेस करते हुए अपनी ऐतिहासिक  भूमिका अदा कर सकता है.   इसके लिए उसे एक बार फिर घोषणा करनी होगी की वो स्वयम सत्ता में नहीं आयेगा .जैसा की अतीत में वाम मोर्चा  कर  चुका है  एक बार तब जबकि कामरेड ज्योति वसु को प्रधानमंत्री न बनाकर तत्कालीन देवेगोडा सरकार को बाहर से समर्थन दिया था और दूसरी बार यूपीए प्रथम को बिना शर्त बाहर से समर्थन दिया था . यदि अन्ना  हजारे,अरविन्द केजरीवाल, ,किरण वेदी और  मेघा पाटकर  जैसे सामजिक कार्यकर्ता वाकई गंभीर है तो उन्हें आगामी आम चुनाव का शंखनाद करना चाहिए और अरविन्द केजरीवाल की 'आप' का समर्थन कर उसे  मजबूत बनाने में सहयोग करना चाहिए इस 'आप ' को चौथे मोर्चे का नेत्रत्व दिया जाना  चाहिए . देश के तमाम गैर राजनैतिक  संगठन ,श्रम संगठन, वामपंथी केडार्स  और  देशभक्त मीडिया को इस 'चौथे मोर्चे' का समर्थन करना चाहिए।  अन्ना हजारे को  इस आन्दोलन  का संयोजक बनाए जाएँ और केजरीवाल ,प्रशांत भूषण किरण वेदी ,स्वामी अग्निवेश ,जस्टिस मार्कंडेय काटजू  को समन्वय समिति में लिए जाए .  स्वाभाविक रूप से वाम पंथ को भी बाहर से इस चौथे मोर्चे का समर्थन करना चाहिए . यदि लोग अतीत में यूपीए एन डी ए  तथा क्षेत्रीय पार्टियों से तंग आ चुके हैं ,उनके भृष्टाचारी कुशाशन से आजिज  आ चुके हैं तो उन्हें डटकर इस 'संभावित' "चौथे मोर्चे"  का समर्थन करना चाहिए .   वर्तमान  भृष्ट व्यवस्था  से मुक्त होने और महान भारत को दुनिया में सम्मान दिलाने के लिए  इन  गैर परम्परागत  जन-आंदोलनकारी शक्तियों के रूप   में 'चौथे मोर्चे' को देश की सेवा का एक अवसर अवश्य दिया जाना चाहिए ....!

      श्रीराम तिवारी



   

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