कार्ल मार्क्स ने भले ही 'साम्यवाद ' समेत दुनिया में उपलब्ध प्रायः सभी 'दर्शनों' पर अपनी लेखनी चलाई होगी किन्तु खुद 'मार्क्सवाद' के उपर मार्क्स के अनुयाईयों-उनके उत्तरवर्ती आलोचकों और विरोधियों ने इतना सारा लिख डाला है , कि जब भी कोई नया लिखने की कोशिश करता है तो उसे लगता है कि यह भी शायद किसी ने कहीं लिख ही दिया होगा ! वास्तव में कार्ल मार्क्स एक वैज्ञानिक नजरिये वाले आर्थिक-सामाजिक और राजनैतिक भाष्यकार ही नहीं बल्कि एक महानतम लेखक -सम्पादक-पत्रकार और अप्रतिम क्रान्ति दृष्टा भी थे . उन्होंने अपने पूर्ववर्तियों के दार्शनिक दृष्टिकोण को ' अकादमिक विमर्श' और विश्व विद्द्याल्यीन पाठ्यक्रम से उठाकर 'जनता के बीच ' चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया .
प्रसिद्ध जैन मुनि श्री तरुण सागर जी की इस युक्ति को कि ' मैं महावीर को मंदिरों से बाहर चौराहों पर जनता के बीच खडा करने हेतु प्रयास रत हूँ मैं महावीर को मंदिरों की कैद से आज़ाद कराने हेतु संघर्षरत हूँ '- कार्ल मार्क्स ने भी ठीक यही किया . उन्होंने 'वर्गीय द्वंदात्मकता' के दार्शनिक प्रस्तुतिकरण को ' हाय्पोथीसिस ' से यूटोपिया और उस शाश्त्रीय आदर्शवाद से वैज्ञानिक भौतिकवादी अवधारणा की थीसिस तक और फिर उसके आगे जीवन के प्रयोगात्मक केंद्र में भी 'आम आदमी' या 'आवाम' को ही अवस्थित करने का शंखनाद किया था . उनके चिंतन के केंद्र में मानव समाज की ऐतिहासिक द्वंदात्मकता और तदनुरूप 'वर्ग-संघर्ष'का स्पष्ट प्रारूप विद्यमान था . जिसने कालांतर में न केवल सर्वहारा वर्ग के सतत संघर्षों के सामने राजनैतिक - सामाजिक-आर्थिक क्रांतियों को जन्म दिया अपितु खुद शोषण कारी ताकतों को भी 'सर्वहारा' के साथ समन्वय करने को बाध्य किया .हालांकि यहाँ भी शासकों को हमेशा 'शोषित वर्ग ' के खिलाफ पाया गया .
युग बदले ,शताब्दियाँ गईं ,दुनिया बदली ,धरती बदली ,आसमान बदला यहाँ तक कि अब तो अन्तरिक्ष भी मानव कृत बदलाव के लिए बहुश्रुत हो चला है किन्तु उस 'आम आदमी' की दशा यथावत है जो पर्याय रूप से दुनिया में -मेहनतकश ,मजदूर,सर्वहारा,प्रोलोतेरिअत , सीमान्त-किसान तथा एक वर्ग के रूप में जो अपना श्रम बेचता है जिसे 'शोषित वर्ग' कहा जाता है . उसका शोषण यथावत है। इसके विपरीत जो उत्पादन के साधनों पर चालाकी से कब्जा किये हुए है ,जो जल-जंगल-जमीन , सत्ता और सिस्टम पर बलात कब्जा किये हुए है, उसे 'शोषक वर्ग' कहते हैं . आधुनिक नव्य -पूँजीवादी -उदारवादी -बाजारवादी -प्रतिश्पर्धवादी दौर में जबकि साइंस-टेक्नोलाजी ,साहित्य-कला -संगीत तथा जीवन के अन्य मूल्यों में भी - केवल और केवल- मुनाफाखोरी अर्थात लाभ की ही स्वर लहरियां गुंजायमान हों तो 'कार्ल-मार्क्स' की प्रासंगिकता पर कम से कम मीडिया के शोषित जनों के बीच तो 'विमर्श' होना ही चाहिए . चूँकि आज अधुनातन सूचना संचार प्रौद्दोगिकी अपने अब तक के सर्वोच्च कीर्तिमान पर हैं,और इसके लाभों का बटवारा 'प्रतिस्पर्धी-ताकतों' के बीच हो रहा है अतः भारत जैसे गरीब मुल्क के पढ़े-लिखे नौजवानों को खास तौर से उन नवयुवकों /युवतियों को जो महसूस करते हैं की इस व्यवस्था में उनका न केवल शोषण हो रहा है अपितु हालात बदतर से बदतर हो गए हैं . उन्हें ज्ञात हो कि वे जाने-अनजाने केवल अपने दौर के शासक वर्गों के हितों को ही आगे बढ़ा रहे है। किसान आत्म हत्या , गेंग रेप, बलात्कार , आतंकी कार्यवाहियां ,भयानक मेंहगाई और राष्ट्रीय अ सुरक्षा इत्यादि का तो भारत मानों विश्व में नंबर एक- हो चूका है किन्तु विकाश के तमाम दावों के विपरीत लगभग एक-लाख गाँवों में आज भी शुद्ध पेयजल तो क्या 'गंदा पानी' भी मयस्सर नहीं है . अधिकांस शहर भी मरणासन्न जैसे हो चले हैं .केरियारिस्ट युवाओं को भले ही इन सवालों से कोई - देना नहीं हो किन्तु मीडिया में काम करने वाले अधिकांस नौजवान साहित्यकार बुद्धिजीवी,पत्रकार,सम्पादक और लेखक इन सवालों की अनदेखी कैसे कर सकता है ? वे कितने भी परावलंबित क्यों न हों किन्तु वे शोषण कारी ताकतों से न केवल स्वयं के लिए अपितु देश के करोड़ों बंचित -जनों के गुजारे लायक आमदनी की बात पर अपने मालिकों से 'संघर्ष' कर सकने में सक्षम हैं, वे हरेक को रोटी-कपड़ा-मकान जैसे पारंपरिक ज्वलंत प्रश्न पर आंदोलित कर सकते हैं . हालंकि परम्परागत मुद्दे तो वैसे भी दूर होते जा रहे और अब तो गुजारे लायक 'आक्सीजन' भी आम और खास दोनों को ही मयस्सर नहीं है . ऐंसे हालात में देश और दुनिया के तमाम नौजवानों को खास तौर से मीडिया कर्मियों को कार्ल मार्क्स के विचारों को जानने -समझने की कोशिश अवश्य करनी चाहिए की कार्ल-मार्क्स ने इस विषय की विवेचना और निदान के लिए किन सिद्धांतों और सूत्रों का सम्पादन किया है ?
वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले तो पहले से ही मानते हैं कि इस विचारधारा में-याने' मार्क्सवाद-लेनिनवाद-सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद' में इन तमाम समस्याओं का निदान उपलब्ध है, या की यह विचारधारा वैज्ञानिक कसौटियों पर खरी उतरी है,किन्तु 'दवाइयां आले में रखी हैं और असहाय मरीज मरणासन्न है कोई दवा देने वाला नहीं"से तो किसी क्रान्तिकारी बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती . आज के घोर मूल्यहीनता वाले युग में बड़ी-बड़ी बातें करने वाले नेता-समाज सुधारक-बाबा-स्वामी -लेखक -पत्रकार और स्वयम्भू राष्ट्रनायक तो गली-गली में अवतरित हो रहे हैं किन्तु वे जो इसी विद्रूप और भृष्ट व्यवस्था से खाद -पानी पाते हैं ऐंसे परजीवी - कायर -बुजदिल क्या खाक क्रान्ति करेंगे .वे वही लोग हैं जो चाहते तो हैं की विप्लव हो ...क्रांति हो .....विकाश हो…. समाजवाद हो…. किन्तु भगतसिंह मेरे घर में नहीं पडोसी के घर पैदा हो ........! इन सभ्रान्त्लोक के बुर्जुआ वर्ग से देश की आवाम-मेहनतकश वर्ग और मीडिया दिग्भ्रमित न हो .बल्कि समस्याओं,चुनौतियों और शासक वर्गों की नीतियों-कार्यक्रमों का सिहावलोकन करते हुए 'परिवर्तन की शक्तियों' का मार्ग दर्शन करें . कार्ल-मार्क्स का विश्व सर्वहारा और 'मीडिया कर्मियों' को यह सन्देश आज भी प्रासंगिक है .
मार्क्स की विचारधारा को ईमानदारी से अमल में लाया जाए और उसकी 'हिंसक व्याख्याओं ' के दुष्प्रचार से भारतीय जन-मानस को -आगाह किया जाए तो आदर्शवादियों समेत तमाम किस्म के 'धर्म्भीरुओं ' को भी वास्तविकता से रूबरू कराया जा सकता है ,साम्प्रदायिक और अंध राष्ट्रवादियों को कार्ल-मार्क्स की शिक्षाओं के आलोक में आसानी से परास्त किया जा सकता है . यह तब संभव है जबकि 'मार्क्सवाद-लेनिनवाद-सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद ' के वैज्ञानिक चिंतन को न केवल परम्परागत प्रिंट मीडिया में बल्कि डिजिटल ,इन्टरनेट ,फेसबुक और तमाम सूचना एवं संपर्क माध्यमों में 'आम आदमी की भाषा में ' सहज उपलब्ध कराने के लिए संसाधन उपलब्ध हों .
फ्रांसीसी क्रांति,पूर्वी यूरोप ,पोलैंड और सोवियत क्रांति को विफल बताने वाले कुछ निराश लोग और कुछ धूर्तलोग इसे मार्क्सवाद का अंतिम सत्य मान बैठे . वे यह भूल गए कि 'अंतिम सत्य ' मानवीय चेतना के विकाश की 'पराकाष्ठा ' का वह अभीष्ठ है जो किसी एक देश या एक समाज की सफलता या विफलता का मुहंताज नहीं हो सकता . हो सकता है कि क्रांतियों के 'अवतार' हुबहू वैसे न हों जैसे कि मार्क्स-एंगेल्स या लेनिन -स्टालिन के पूर्वानुमानों में घोषित किये गए थे . "कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो" में उल्लेखित शब्द कोई ' देवीय' ईश्वरीय रचनाविधान तो है नहीं . अर्वाचीन विज्ञान और आधुनिकतम सूचना तंत्र के 'इनपुट ' ही विश्व पटल के 'मानिटर ' पर उकेरे गए हैं .आज पूँजीवाद का 'आइकॉन' जरुरत से ज्यादा विजिट किया जा रहा है या सर्च किया जा रहा है किन्तु मौजूदा दौर के तमाम ' घातक-वायरस' के लिए भी वो ही जिम्मेदार है उसे अपने हिस्से की जिम्मेदारी याने 'सामंतवाद' का खात्मा कर चुकने के वाद 'विश्व सर्वहारा -क्रांति' को अवतरित होने का 'मानवीय ' उत्तरदायित्व वहन करना चाहिए था . उसे जनता की जनतांत्रिक क्रांतियों की बार-बार भ्रूण ह्त्या से बाज आना ही होगा वरना उसे 'विश्व डेस्कटॉप ' से जबरन वाश आउट कर दिया जाएगा . मार्क्स ने कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो में कहा है-:
" साम्यवादी अपने विचारों और उद्देशों को छुपाना अपनी हेठी समझते हैं .वे खुले रूप से ऐलान करते हैं कि उनका उद्देश्य सभी वर्तमान सामजिक दशाओं को बलात उखाड़ फेंकना है . शासक वर्ग यदि 'साम्यवादी क्रांति' के नाम से थर्राता है तो उसे थर्राने दो .सर्वहारा वर्ग को अपनी गुलामी की जंजीरों के अलावा कुछ नहीं खोना है ...जीतने के लिए उसके समक्ष सारा संसार है " मार्क्सवादियों के लिए , साम्यवादियों के लिए ,समाजवादियों के लिए और दुनिया के समस्त जनतंत्र वादियों के लिए,उन्नत समाजों और 'बेहतरीन इंसानों' के लिए-
क्रांति एक अविरल प्रवाहमान धारा है कई मोड़ आयेंगे जहां धारा का प्रवाह रोकने की कोशिश होगी .कहीं-कहीं बड़े-बड़े अवरोधक स्वागत करेंगे .किन्तु फिर भी क्रांतियों के प्रचंड आवेग को सदा के लिए रोक पाना संभव नहीं . प्रतिगामी प्रवाह को इतिहास में कहीं स्थायित्व प्राप्त नहीं हो सका और न अवरोधों में इतनी ताकत है कि 'क्रांति' की बाढ़ का मार्ग अवरुद्ध कर सकें . इस मई दिवस पर मीडिया में काम करने वाले तमाम नौजवानों को कार्ल मार्क्स का यह सन्देश आज भी प्रासंगिक है -:
"परिस्थियों ने हमें यह कार्य सौंपा है की हम सरकार के हर काम पर निगाह रखें और छोटे से छोटे अनुचित काम की जानकारी जनता को दें।समाचार पत्रों[माध्यमो] का यह कर्तव्य है की वे उन निर्दोष व्यक्तियों और वर्गों की लड़ाई लड़ें जो अन्याय का प्रतिकार कर सकने में सक्षम नहीं हैं .चूँकि दासता का वीभत्स किला घृणित राजनीति की नीव पर टिका होता है अतएव केवल बड़े-बड़े लोगों से ही लड़ना काफी नहीं बल्कि समाचार पत्रों में [मीडिया] में कार्यरत लोगों की जिम्मेदारी है की 'अपवित्र व्यवस्था' के प्रतेक पुर्जे पर भी निर्मम वार किया जाए क्योंकि शोषण के तंत्र को चलाने में वे भी उतने ही हिस्सेदार हैं "
१ -मई अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस पर उन तमाम गैरतमंद , शौहरत मंदों और तथाकथित बुद्धिजीवियों को संकल्प लेना चाहिए कि 'वर्ग संघर्ष ' के विभाजन में अपने आपको शोषित वर्गों के साथ रखकर 'देश और विश्व सर्वहारा' का नेत्रत्व कर अपने हिस्से की आहुति प्रदान करें .....! एक नए समाज के निर्माण का ,एक शक्तिशाली राष्ट्र के निर्माण का सपना देखने के लिए 'सर्वहारा क्रांति' का सपना देखना बहुत जरुरी है .....! आधुनिक मीडिया सूचना तंत्र और नवीनतम प्रोद्धोगिकी से जुड़े प्रत्येक जिंदादिल इंसान को 'न्याय और सत्य ' के लिए हो रहे द्वन्द में सत्य का पक्षधर होना चाहिए .क्योंकि 'सत्य परशान हो सकता है किन्तु पराजित नहीं ' अन्तः जीत तो सत्य की होगी . यही कार्ल-मार्क्स का कथन है और यही भारतीय 'वेदान्तदर्शन' का भी सार है ......!
श्रीराम तिवारी
प्रसिद्ध जैन मुनि श्री तरुण सागर जी की इस युक्ति को कि ' मैं महावीर को मंदिरों से बाहर चौराहों पर जनता के बीच खडा करने हेतु प्रयास रत हूँ मैं महावीर को मंदिरों की कैद से आज़ाद कराने हेतु संघर्षरत हूँ '- कार्ल मार्क्स ने भी ठीक यही किया . उन्होंने 'वर्गीय द्वंदात्मकता' के दार्शनिक प्रस्तुतिकरण को ' हाय्पोथीसिस ' से यूटोपिया और उस शाश्त्रीय आदर्शवाद से वैज्ञानिक भौतिकवादी अवधारणा की थीसिस तक और फिर उसके आगे जीवन के प्रयोगात्मक केंद्र में भी 'आम आदमी' या 'आवाम' को ही अवस्थित करने का शंखनाद किया था . उनके चिंतन के केंद्र में मानव समाज की ऐतिहासिक द्वंदात्मकता और तदनुरूप 'वर्ग-संघर्ष'का स्पष्ट प्रारूप विद्यमान था . जिसने कालांतर में न केवल सर्वहारा वर्ग के सतत संघर्षों के सामने राजनैतिक - सामाजिक-आर्थिक क्रांतियों को जन्म दिया अपितु खुद शोषण कारी ताकतों को भी 'सर्वहारा' के साथ समन्वय करने को बाध्य किया .हालांकि यहाँ भी शासकों को हमेशा 'शोषित वर्ग ' के खिलाफ पाया गया .
युग बदले ,शताब्दियाँ गईं ,दुनिया बदली ,धरती बदली ,आसमान बदला यहाँ तक कि अब तो अन्तरिक्ष भी मानव कृत बदलाव के लिए बहुश्रुत हो चला है किन्तु उस 'आम आदमी' की दशा यथावत है जो पर्याय रूप से दुनिया में -मेहनतकश ,मजदूर,सर्वहारा,प्रोलोतेरिअत , सीमान्त-किसान तथा एक वर्ग के रूप में जो अपना श्रम बेचता है जिसे 'शोषित वर्ग' कहा जाता है . उसका शोषण यथावत है। इसके विपरीत जो उत्पादन के साधनों पर चालाकी से कब्जा किये हुए है ,जो जल-जंगल-जमीन , सत्ता और सिस्टम पर बलात कब्जा किये हुए है, उसे 'शोषक वर्ग' कहते हैं . आधुनिक नव्य -पूँजीवादी -उदारवादी -बाजारवादी -प्रतिश्पर्धवादी दौर में जबकि साइंस-टेक्नोलाजी ,साहित्य-कला -संगीत तथा जीवन के अन्य मूल्यों में भी - केवल और केवल- मुनाफाखोरी अर्थात लाभ की ही स्वर लहरियां गुंजायमान हों तो 'कार्ल-मार्क्स' की प्रासंगिकता पर कम से कम मीडिया के शोषित जनों के बीच तो 'विमर्श' होना ही चाहिए . चूँकि आज अधुनातन सूचना संचार प्रौद्दोगिकी अपने अब तक के सर्वोच्च कीर्तिमान पर हैं,और इसके लाभों का बटवारा 'प्रतिस्पर्धी-ताकतों' के बीच हो रहा है अतः भारत जैसे गरीब मुल्क के पढ़े-लिखे नौजवानों को खास तौर से उन नवयुवकों /युवतियों को जो महसूस करते हैं की इस व्यवस्था में उनका न केवल शोषण हो रहा है अपितु हालात बदतर से बदतर हो गए हैं . उन्हें ज्ञात हो कि वे जाने-अनजाने केवल अपने दौर के शासक वर्गों के हितों को ही आगे बढ़ा रहे है। किसान आत्म हत्या , गेंग रेप, बलात्कार , आतंकी कार्यवाहियां ,भयानक मेंहगाई और राष्ट्रीय अ सुरक्षा इत्यादि का तो भारत मानों विश्व में नंबर एक- हो चूका है किन्तु विकाश के तमाम दावों के विपरीत लगभग एक-लाख गाँवों में आज भी शुद्ध पेयजल तो क्या 'गंदा पानी' भी मयस्सर नहीं है . अधिकांस शहर भी मरणासन्न जैसे हो चले हैं .केरियारिस्ट युवाओं को भले ही इन सवालों से कोई - देना नहीं हो किन्तु मीडिया में काम करने वाले अधिकांस नौजवान साहित्यकार बुद्धिजीवी,पत्रकार,सम्पादक और लेखक इन सवालों की अनदेखी कैसे कर सकता है ? वे कितने भी परावलंबित क्यों न हों किन्तु वे शोषण कारी ताकतों से न केवल स्वयं के लिए अपितु देश के करोड़ों बंचित -जनों के गुजारे लायक आमदनी की बात पर अपने मालिकों से 'संघर्ष' कर सकने में सक्षम हैं, वे हरेक को रोटी-कपड़ा-मकान जैसे पारंपरिक ज्वलंत प्रश्न पर आंदोलित कर सकते हैं . हालंकि परम्परागत मुद्दे तो वैसे भी दूर होते जा रहे और अब तो गुजारे लायक 'आक्सीजन' भी आम और खास दोनों को ही मयस्सर नहीं है . ऐंसे हालात में देश और दुनिया के तमाम नौजवानों को खास तौर से मीडिया कर्मियों को कार्ल मार्क्स के विचारों को जानने -समझने की कोशिश अवश्य करनी चाहिए की कार्ल-मार्क्स ने इस विषय की विवेचना और निदान के लिए किन सिद्धांतों और सूत्रों का सम्पादन किया है ?
वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले तो पहले से ही मानते हैं कि इस विचारधारा में-याने' मार्क्सवाद-लेनिनवाद-सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद' में इन तमाम समस्याओं का निदान उपलब्ध है, या की यह विचारधारा वैज्ञानिक कसौटियों पर खरी उतरी है,किन्तु 'दवाइयां आले में रखी हैं और असहाय मरीज मरणासन्न है कोई दवा देने वाला नहीं"से तो किसी क्रान्तिकारी बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती . आज के घोर मूल्यहीनता वाले युग में बड़ी-बड़ी बातें करने वाले नेता-समाज सुधारक-बाबा-स्वामी -लेखक -पत्रकार और स्वयम्भू राष्ट्रनायक तो गली-गली में अवतरित हो रहे हैं किन्तु वे जो इसी विद्रूप और भृष्ट व्यवस्था से खाद -पानी पाते हैं ऐंसे परजीवी - कायर -बुजदिल क्या खाक क्रान्ति करेंगे .वे वही लोग हैं जो चाहते तो हैं की विप्लव हो ...क्रांति हो .....विकाश हो…. समाजवाद हो…. किन्तु भगतसिंह मेरे घर में नहीं पडोसी के घर पैदा हो ........! इन सभ्रान्त्लोक के बुर्जुआ वर्ग से देश की आवाम-मेहनतकश वर्ग और मीडिया दिग्भ्रमित न हो .बल्कि समस्याओं,चुनौतियों और शासक वर्गों की नीतियों-कार्यक्रमों का सिहावलोकन करते हुए 'परिवर्तन की शक्तियों' का मार्ग दर्शन करें . कार्ल-मार्क्स का विश्व सर्वहारा और 'मीडिया कर्मियों' को यह सन्देश आज भी प्रासंगिक है .
मार्क्स की विचारधारा को ईमानदारी से अमल में लाया जाए और उसकी 'हिंसक व्याख्याओं ' के दुष्प्रचार से भारतीय जन-मानस को -आगाह किया जाए तो आदर्शवादियों समेत तमाम किस्म के 'धर्म्भीरुओं ' को भी वास्तविकता से रूबरू कराया जा सकता है ,साम्प्रदायिक और अंध राष्ट्रवादियों को कार्ल-मार्क्स की शिक्षाओं के आलोक में आसानी से परास्त किया जा सकता है . यह तब संभव है जबकि 'मार्क्सवाद-लेनिनवाद-सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद ' के वैज्ञानिक चिंतन को न केवल परम्परागत प्रिंट मीडिया में बल्कि डिजिटल ,इन्टरनेट ,फेसबुक और तमाम सूचना एवं संपर्क माध्यमों में 'आम आदमी की भाषा में ' सहज उपलब्ध कराने के लिए संसाधन उपलब्ध हों .
फ्रांसीसी क्रांति,पूर्वी यूरोप ,पोलैंड और सोवियत क्रांति को विफल बताने वाले कुछ निराश लोग और कुछ धूर्तलोग इसे मार्क्सवाद का अंतिम सत्य मान बैठे . वे यह भूल गए कि 'अंतिम सत्य ' मानवीय चेतना के विकाश की 'पराकाष्ठा ' का वह अभीष्ठ है जो किसी एक देश या एक समाज की सफलता या विफलता का मुहंताज नहीं हो सकता . हो सकता है कि क्रांतियों के 'अवतार' हुबहू वैसे न हों जैसे कि मार्क्स-एंगेल्स या लेनिन -स्टालिन के पूर्वानुमानों में घोषित किये गए थे . "कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो" में उल्लेखित शब्द कोई ' देवीय' ईश्वरीय रचनाविधान तो है नहीं . अर्वाचीन विज्ञान और आधुनिकतम सूचना तंत्र के 'इनपुट ' ही विश्व पटल के 'मानिटर ' पर उकेरे गए हैं .आज पूँजीवाद का 'आइकॉन' जरुरत से ज्यादा विजिट किया जा रहा है या सर्च किया जा रहा है किन्तु मौजूदा दौर के तमाम ' घातक-वायरस' के लिए भी वो ही जिम्मेदार है उसे अपने हिस्से की जिम्मेदारी याने 'सामंतवाद' का खात्मा कर चुकने के वाद 'विश्व सर्वहारा -क्रांति' को अवतरित होने का 'मानवीय ' उत्तरदायित्व वहन करना चाहिए था . उसे जनता की जनतांत्रिक क्रांतियों की बार-बार भ्रूण ह्त्या से बाज आना ही होगा वरना उसे 'विश्व डेस्कटॉप ' से जबरन वाश आउट कर दिया जाएगा . मार्क्स ने कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो में कहा है-:
" साम्यवादी अपने विचारों और उद्देशों को छुपाना अपनी हेठी समझते हैं .वे खुले रूप से ऐलान करते हैं कि उनका उद्देश्य सभी वर्तमान सामजिक दशाओं को बलात उखाड़ फेंकना है . शासक वर्ग यदि 'साम्यवादी क्रांति' के नाम से थर्राता है तो उसे थर्राने दो .सर्वहारा वर्ग को अपनी गुलामी की जंजीरों के अलावा कुछ नहीं खोना है ...जीतने के लिए उसके समक्ष सारा संसार है " मार्क्सवादियों के लिए , साम्यवादियों के लिए ,समाजवादियों के लिए और दुनिया के समस्त जनतंत्र वादियों के लिए,उन्नत समाजों और 'बेहतरीन इंसानों' के लिए-
क्रांति एक अविरल प्रवाहमान धारा है कई मोड़ आयेंगे जहां धारा का प्रवाह रोकने की कोशिश होगी .कहीं-कहीं बड़े-बड़े अवरोधक स्वागत करेंगे .किन्तु फिर भी क्रांतियों के प्रचंड आवेग को सदा के लिए रोक पाना संभव नहीं . प्रतिगामी प्रवाह को इतिहास में कहीं स्थायित्व प्राप्त नहीं हो सका और न अवरोधों में इतनी ताकत है कि 'क्रांति' की बाढ़ का मार्ग अवरुद्ध कर सकें . इस मई दिवस पर मीडिया में काम करने वाले तमाम नौजवानों को कार्ल मार्क्स का यह सन्देश आज भी प्रासंगिक है -:
"परिस्थियों ने हमें यह कार्य सौंपा है की हम सरकार के हर काम पर निगाह रखें और छोटे से छोटे अनुचित काम की जानकारी जनता को दें।समाचार पत्रों[माध्यमो] का यह कर्तव्य है की वे उन निर्दोष व्यक्तियों और वर्गों की लड़ाई लड़ें जो अन्याय का प्रतिकार कर सकने में सक्षम नहीं हैं .चूँकि दासता का वीभत्स किला घृणित राजनीति की नीव पर टिका होता है अतएव केवल बड़े-बड़े लोगों से ही लड़ना काफी नहीं बल्कि समाचार पत्रों में [मीडिया] में कार्यरत लोगों की जिम्मेदारी है की 'अपवित्र व्यवस्था' के प्रतेक पुर्जे पर भी निर्मम वार किया जाए क्योंकि शोषण के तंत्र को चलाने में वे भी उतने ही हिस्सेदार हैं "
१ -मई अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस पर उन तमाम गैरतमंद , शौहरत मंदों और तथाकथित बुद्धिजीवियों को संकल्प लेना चाहिए कि 'वर्ग संघर्ष ' के विभाजन में अपने आपको शोषित वर्गों के साथ रखकर 'देश और विश्व सर्वहारा' का नेत्रत्व कर अपने हिस्से की आहुति प्रदान करें .....! एक नए समाज के निर्माण का ,एक शक्तिशाली राष्ट्र के निर्माण का सपना देखने के लिए 'सर्वहारा क्रांति' का सपना देखना बहुत जरुरी है .....! आधुनिक मीडिया सूचना तंत्र और नवीनतम प्रोद्धोगिकी से जुड़े प्रत्येक जिंदादिल इंसान को 'न्याय और सत्य ' के लिए हो रहे द्वन्द में सत्य का पक्षधर होना चाहिए .क्योंकि 'सत्य परशान हो सकता है किन्तु पराजित नहीं ' अन्तः जीत तो सत्य की होगी . यही कार्ल-मार्क्स का कथन है और यही भारतीय 'वेदान्तदर्शन' का भी सार है ......!
श्रीराम तिवारी
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