रविवार, 7 अप्रैल 2013

Bharteey loktantr men Jateeytawad ka ghun....!

    दुनिया के समाज शाश्त्रियों  के लिए मध्ययुगीन -गैर इस्लामिक , गैर ईसाइयत  और    तथाकथित विशुद्ध   भारतीय उत्तर वैदिक कालीन  पृष्ठभूमि   वाले  भारत  के  सामाजिक -ताने-बाने को  ऐतिहासिक  और द्वंदात्मक  - वैज्ञानिक   क्रमिक विकाश के   समग्र रूप  में समझ  पाना अत्यंत  कठिन और जटिल  रहा है.   भारत के 'सनातन' हिन्दू  समाज - जिसे आजकल हिंदुत्व से भी इंगित किया जाता है -   की  इन आंतरिक  जटिलताओं और उसके 'जातीय 'विमर्श   के लिए  आधनिक वैज्ञानिक समझ-बूझ के  विचारक और चिन्तक भी  अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर तत्सम्बन्धी  सत्यान्वेषण  कर पाने में असमर्थ रहे हैं।     हिन्दू सम्प्रदाय  में वैज्ञानिक तथ्यात्मिकता की जगह अंध आस्था  की अँधेरी सुरंगों  को हमेशा  प्राथमिकता दी जाती रही है . विगत दिनों नागपुर में  इन्कम  टैक्स ट्रिब्यूनल ने अपने एक अद्वतीय और  ऐतिहासिक  फैसले से उस जातीय और साम्प्रदायिक विमर्श  को  हवा दे दी जो भारत के  'नव-नाजीवादियों' को न केवल एतिहासिक रूप से प्रासंगिक बनाता है अपितु  मानवीय विकाश के  'जनवादी मूल्यों' को  हासिये पर धकेलकर ;सामंती दौर के घोर  त्राशक  अवशेषों को पुनर्जीवित करने का उपक्रम  भी करता प्रतीत होता है.  हालांकि ट्रिब्यूनल ने मंदिरों-  और  तत्सम्बन्धी ट्रस्टों की सम्पत्ति विषयक  आयकर में छूट के मद्देनज़र जो विचार व्यक्त किये वे काबिले गौर हैं . उनके अपने निहतार्थ भी मौजूद हैं. 'हिंदुत्व' को  परिभाषित  करने  की सामर्थ रखने वाले ये भारतीय ब्यूरोक्रेट बाकई  तारीफ और इनाम के हकदार हैं .  किन्तु वे भूल जाते हैं की हिंदुत्व के अश्वमेघ का घोडा भारत के जातीयता रुपी 'साठ  हजार' सगर पुत्रों' ने बाँध रखा है .  जब -जब मंदिर की ,हिंदुत्व की ,हिदुस्तान की चर्चा होगी तब-तब 'जाति -विमर्श'  भी जन-विमर्श के केंद्र में होगा .
                        इस जातीयता रुपी विषबेली  के फलने -फूलने में    विदेशी  आक्रमणों की  लम्बी श्रंखला , देशी गृह युद्धों और  प्राकृतिक आपदाओं समेत अन्य   कई   कारकों  को  जिम्मेदार माना जा सकता है . इनमें  से   पांच  प्रमुख प्रतिगामी    तत्व  इस प्रकार   हैं -:
  [१] सामंत युग या मध्ययुग में जनता के उस वर्ग का इतिहास न लिखा जाना; जो इतिहास के निर्माण का प्रमुख घटक हुआ करता है, अर्थात श्रमिक-कारीगर, या मजदूर-किसान के बारे में  कवियों,साहित्यकारों और भाष्यकारों की  भारतीय परिद्रश्य में  कोई उल्लेखनीय रचना उपलब्ध नहीं, जो तत्कालीन  वास्तविक सामाजिक संरचना   के रूप में ऐंसे  किसी   'जन-साहित्य' को उजागर करती हो, जो तत्कालीन शोषण की व्यथा को  प्रमाणिकता के  साथ  वर्तमान पीढ़ी के  समक्ष प्रस्तुत कर सकने में सक्षम हो .
[२]राजाओं,महाराजों-रानियों,महारानियो   और बादशाहों के बारे में   बहुत सारा- अर्ध सत्य -   असत्य और कपोल-कल्पित  साहित्य रचा गया कि  उसमे  सच को  खोजने  के लिए ' भूसे के ढेर में सुई खोज ने ' जैसा हाल  हो  गया .  राजाओं को ईश्वरीय अवतार तक घोषित कर दिया गया .  मेहनत  कश - मजदूर किसान को न केवल लूटा गया अपितु उस वर्ग की  परेशानियों -कष्टों को दैवीय विधान और कार्य-कारण  के सिद्धांत पर  आधारित  इनके कर्मफल का परिणाम  घोषित कर शोषण की  सनातन  परम्परा  को  स्थिर   बनाए   रखा गया और साहित्य-कला-संगीत  को केवल 'ब्राह्मण-वैश्य- क्षत्रीय '  के लिए सुरक्षित रखा गया .  शेष  ८ ० % जनता-जनार्दन को चातुर्वर्ण्य व्यवस्था अंतर्गत 'शूद्र' नाम से सदियों तक पद-दलित किया गया .         
 [३]आम जनता को न केवल  तथाकथित  ' ईश्वरीय ज्ञान' - वेद -पुराण -उपनिषद और  सम्पूर्ण संस्कृत वांग्मय से दूर रखा  गया , बल्कि   सामाजिक न्याय, स्त्री विमर्श,आर्थिक असमानता को 'वेद -विहीन' घोषित  किया जाता रहा .   वैज्ञानिक अनुसंधान को 'गुप्त' ' '  वर्जित'  घोषित करते हुए तब तक एकाधिकार में  रखा  गया  जब तक कि  विदेशी  आक्रान्ताओं ने उसे ' शैतान की करामात' घोषित कर, उसे  नष्ट कर देने का आह्वान   नहीं कर दिया ,  या सार्वजनिक करने को बाध्य नहीं कर दिया गया  या जड़-मूल से नाश कर  देने की  घृणित कोशिशों को अंजाम नहीं दे दिया गया .                     
  [४].पाश्चात्य वैज्ञानिक और भौतिक  प्रगति के परिणाम स्वरूप दुनिया में सामाजिक बदलाव जितनी तेजी से हुआ उसका दशमांश भी भारत में परिलक्षित नहीं हुआ . जबकि पाश्चात्य  रेनेशा  के ही दौर में  भारत  के  विभिन्न   क्षेत्रों में  भी पुनर्जागरण   की लहरें उठने  लगीं  थीं। लोकतंत्र  ,समाजवाद  और  सामाजिक  समानता के  मूल्यों को भारत में  स्थापित   कराने के लिए हालांकि 'तत्कालीन सभ्रांत लोक' के ही महानुभावों ने अनथक प्रयत्न किये थे, कुर्वानियाँ  भी दीं थीं .  किन्तु भारतीय  यथास्थितिवादियों   ने  न केवल  उस  प्रगतिशील   लौ को बुझाने की भरपूर कोशिश  की अपितु राजा  राम मोहन राय जैसे  'समाज सुधारकों '  तो  सिर्फ इसलिए सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पढ़ा कि  उन्होंने 'विदेश यात्रा क्यों की'?
[५] विज्ञान , तकनीकी और सूचना सम्पर्क क्रान्ति  के आधुनिक युग में  भारत  की  पुरातन  जातीय व्यवस्था  अप्रसांगिक हो   जाने   के बाद भी धार्मिक कट्टरता और सामंती मानसिकता   के  कारण  विभिन्न   समाज  अपने -अपने   जन्म गत  जातीय संस्कारों की  अप्रसांगिक मरू-मारीचिका में भटक रहे  हैं  . कुछ जातीय, साम्प्रदायिकतावादी   भाषाई  और क्षेत्रीयतावादी तो न केवल   भारत की' अखंडता' को  ही चुनौती दे रहे  हैं बल्कि 'धरती पुत्र' के कांसेप्ट को अमली जामा पहनाने की निरंतर कोशिश भी कर रहे हैं .
                                                              वर्तमान चुनावी प्रजातांत्रिक प्रक्रिया में अधिकांस  राजनैतिक  दल  [वामपंथ को छोड़कर]   जातीयता  ,साम्प्रदायिकता  ,भाषा,क्षेत्रीयता  की बिषेली  खरपतवार  को सत्ता प्राप्ति के साधन के रूप में इस्तेमाल कर ने  को बेताब हैं  ,वे जाने-अनजाने राजनैतिक पथ पर राष्ट्र सेवा करने के बजाय  निहित स्वार्थ वश महा अंधकूप में कूंद पड़ते हैं .इस  दौर में जबकि किसी भी  राष्ट्रीय दल को पूर्ण बहुमत  नहीं मिल पा रहा  है ,ये क्षेत्रीय-साम्प्रदायिक और जातीयतावादी ताकतें देश के सत्ता प्रतिष्ठान से 'ब्लैक मेलिंग' जैसा व्यवहार करती प्रतीत हो रही हैं . जगह-जगह विभिन्न समाजो,जातियों,सम्प्रदायों और खापों के सम्मलेन हो ने लगे हैं .  पूंजीवादी ,सम्प्रदायवादी ,क्षेत्रीयतावादी और  जातीयतावादी  दलों के नेताओं को आगामी आम चुनाव में जीतने के  लिए बहुमत चहिये.  जिस जाति ,सम्प्रदाय या भाषा -क्षेत्र से जिसका वजूद है वो उसी  के विकाश का नारा देकर  महाकवि रहीम का ये दोहा सुनाता फिर रहा है :-

   रूठे स्वजन मनाइये, जो रूठें सौ बार ..!
रहिमन पुनि-पुनि  पोईये , टूटे  मुक्ता  हार ...!!
  
   किसी को अब अयोध्या में श्रीराम  लला  के मंदिर  की , किसी को किसानों की आपदा और तत्सम्बन्धी आत्म हत्याओं की, किसी को कश्मीर की,किसी को भृष्टाचार से मुक्ति की,किसी को राष्ट्र के कर्ज उतारने की और किसी को युवा भारत के निर्माण की चिंता सता रही है . चूँकि इन मुद्दों पर चुनावी जीत के लिए रहीम  कवि  कह गए हैं :-

       रहिमन हांडी काठ की ,चढ़े न दूजी बार ..!

    विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की ये बिडम्बना है कि  'जातिवाद ' के बिना किसी भी देशभक्त और ईमानदार प्रत्याशी का चुनाव जीत पाना अब न केवल कठिन अपितु असम्भव सा होता जा रहा है . जो लोग क्षेत्रीयता को हवा देकर अपनी राजनैतिक ताकत बनाए रखने  बनाम  सत्ता की दलाली करते  रहने में तीसमारखाँ  बने फिरते हैं वे विदेशी   घुश्पेठियों  ,आतंकवादियों और दुराचारियों के  निरंतर भारत विरोधी कारनामों पर केवल अरण्यरोदन करते रहते हैं .केवल सरकार को या विदेशी ताकतों को कोसने के लिए ख्यात इन  जातीय्तावादियों और क्षेत्रीय्तावादियों को नहीं मालूम  कि  वे  न केवल देश के साथ बल्कि खुद अपने साथ और अपनी   भावी पीढ़ियों के साथ ,
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                        भावी पीढी के विश्वाश्घात कर रहे हैं .   दुर्भाग्य से  तथाकथित  तीसरे मोर्चे के हिस्से में आने वाला वर्ग इन्ही 'गैर जिम्मेदार ' निहित  स्वार्थियों से भरा पड़ा है .

        आगामी आम चुनाव में यदि किसी कारण से तीसरा मोर्चा सत्ता में आता है तो देश के  फिर से सोना गिरवी रखकर देश  चलाने की नौबत आ सकती है .देश के   दस-बीस साल  पीछे चले जाने से इनकार नहीं  किया जा सकता . देश की  जनता  को सिर्फ तीन राजनीतिक  केन्द्रों से ही  देशभक्ति -जनहित की उम्मीद करनी चाहिए  [१]कांग्रेस नीति गठबंधन [यू पी ऐ ][२]भाजपा नीति गठबंधन [एन डी! ए ] [३]माकपा नीति गठबंधन [वाम मोर्चा]...! इसके अलावा  जितने  भी राजनीतिक ,सामाजिक,आर्थिक और भीड़ जुगाडू  अपवित्र शक्ति  केंद्र हैं वे नितांत गैर-जिम्मेदार और ढपोरशंखी मात्र हैं उनमें वे मुख्यमंत्री भी शामिल हैं जो क्षेत्रीयता के रथ पर सवार होकर नीतिविहीन-कार्यक्रम विहीन  होकर केवल क्षेत्रीयता ,साम्प्रदायिकता या भाषा के नाम पर सत्ता सुख भोग रहे हैं .। नितीश कितने ही बड़े समाजवादी ,लोहिया वादी या  जेपी भक्त हों किन्तु वे भारत राष्ट्र की नैया पार लगाने में  किस अर्थशाश्त्र का प्रयोग करेगे? ये न वे जानते हैं और न कभी जानने  की  कोशिश  ही की है . क्या वे  चन्द्रशेखर का ,गुजराल का या देवेगौडा का अर्थशास्त्र लागु करेंगे जो केवल देश को शर्मिदगी ही दे सकता है  ?  या मनमोहन सिंह का अर्थशास्त्र मानेंगे  ?   जैसा की भाजपा और एन डी ए  ने  सावित कर दिखाया की वे मनमोहन सिंह जी के अर्थशास्त्र को  ही लागू कर सकते हैं क्योंकि उनका अपना कोई अर्थ शास्त्र है ही नहीं . यशवंत सिन्हा ,अरुण शौरी से  ज्यादा अमेरिका परस्त तो डॉ मनमोहन सिंह जी भी नहीं हैं .याने बात साफ़ है की भाजपा नीति गठबंधन सत्ता में आया तो चाहे वे आडवाणी हों,मोदी हों,सुषमा स्वराज हों या राजनाथसिंह  प्रधानमंत्री हों उनके पास डॉ मनमोहन सिंह जी की अर्थशास्त्रीय फोटो कापी मौजूद है .नो प्रोब्लेम…!  देश का जो होगा  अच्छा या बुरा -देखा  भाला  ही होगा .
                                                   किन्तु  मुलायम सिंह किस अर्थशास्त्र के दम पर लाल  किले की प्राचीर से राष्ट्र को संबोधित करेंगे ? ममता,मायावती,जय ललिता ने आज तक  अपने श्री मुख से ये नहीं बताया  की वे अपने राज्य या  क्षेत्र  से  ऊपर  उठकर  'भारत  राष्ट्र' या  वैश्विक  चुनौतियां  के  बरक्स  कौनसा  अर्थ शास्त्र और तद्निरूप नीतियाँ -कार्यक्रम लागू करंगे ?  क्या  केवल  मुस्लिम +यादव +पिछड़ा  =मंडल  बनाम मायावती बहिन के दलित वोट बैंक +सोशल इन्जिनिय्रिंरिंग + ब्राह्मण = जातीयता का उभार  से नए भारत राष्ट्र का निर्माण हो सकेगा ? क्या केवल तमिल तेलगु तेलांगना या  मराठावाद  या  साम्प्रदायिकतावाद  से दुनिया की श्रेष्ठ अर्थ व्यवस्थाओं का मुकाबला किया जा सकता है ? क्या ये क्षेत्रीय क्षत्रप जानते हैं कि वे  जिस  जातीवाद ,सम्प्रदायवाद से वोट  कबाड़ कर कुछ सांसद जिताकर संसद में अपनी गुजारे लायक हैसियत तो पा  सकते हैं किन्तु वे मात्र इतनी  सी नकारात्मक योग्यता के दम पर  चीन के प्रधान मंत्री "सी जिनपिंग" के सामने,अमेरिकी राष्ट्रपति 'ओबामा 'के सामने या रूस के राष्ट्रपति' पुतिन 'के सामने  उतनी तेजस्विता से खड़े नहीं हो सकते जिस आत्मविश्वाश से  डॉ मनमोहनसिंह ने ब्रिक्स सम्मलेन में या अन्य अवसरों  पर अपनी  प्रचंड  योग्यता   प्रदर्शित कर न केवल चीन बल्कि दुनिया के कई   राष्ट्र प्रमुखों  को  तेज विहीन किया   है .
                                                                                                                                                                                    भारत के कुछ नौजवान फेस बुक पर और विभिन्न मीडिया माध्यम डॉ मनमोहन सिंह के कम बोलने  पर कार्टून बनांते हैं , कुछ शिक्षित युवा वर्ग - उन्हें केवल उसी चश्में से देखता है जो विरोधी दलों ने या मीडिया ने लोगो को पहनाया है  ऐसा करते वक्त ये युवा वर्ग भूल जाता है कि  उसके राष्ट्रीय और सामाजिक सरोकार   अब आधुनिकतम सूचना तकनीकी ,डिजिटल नेटवर्क,और इंटरनेट के  क्रन्तिकारी युग  से संचालित और  परिभाषित   हो रहे  हैं . अब राजनीतिक-आर्थिक और सामाजिक   समझ  का  मूल्यांकन  वैश्विक  मूल्यों  पर  आधारित  होगा  न की  बाबा रामदेव,केजरीवाल अन्ना हजारे जैसे गैर जिम्मेदार लोगों  के  ढपोरशंखी दुष्प्रचार में शामिल होकर  आम  आदमी द्वारा जाने-अनजाने अपने देश के ही खिलाफ उलटा सीधा बकते रहने से   भारत  में कोई क्रांति  नहीं होने वाली,अरुधती या उमर  अब्दुल्लाह या  भारत का मीडिया ही जब अफजल गुरु की फांसी  का विरोध करे तो देश के प्रधानमंत्री ही  नहीं  पूरे देश को ही  दुनिया में शर्मसार होना  पड़ता  है . कुछ  अप्रिय घटनाओं [गेंग रेप] इत्यादि      से,   और पडोसी राष्ट्रों की  नितांत दुष्टता पूर्ण हरकतों से    भारत को दुनिया में किन-किन  शर्मनाक मंजिलों से  गुजरना  पड़  रहा है  ? ये बातें उन लोगों को पहले समझ लेनी  चाहिए जो भावी चुनाव  उपरान्त देश की बागडोर सम्भालने जा रहे हैं  कांग्रेस का अर्थात यूपी ए  का  कुशाशन और उसका पूंजीवादी ,महंगाई  बढाने  वाला  अर्थशाश्त्र सबको मालूम है . फिर भी आज विदेशी मुद्रा भण्डार अपने चरम पर है .देश में अमन है,शांति है,सकल राष्ट्रीय आय और जीडी पी भी कमोवेश सुधार पर है, देश में गरीबी बढ़ी है,पूंजीपतियों के मुनाफे बढे हैं,भृष्टाचार हुआ है और उस पर नियंत्रण अभी भी नहीं है .गठबंधन के दौर में कोई और गठबंधन भी यदि केंद्र की सत्ता में  होता तो शायद इससे बेहतर तस्वीर देश की न होती . भाजपा नीति एन डी  ए   के पास डॉ मनमोहनसिंह से बेहतर वैकल्पिक आर्थिक नीति या कार्यक्रम  नहीं है वे स्वयम अमेरिका परस्त और उदारीकरण -वैश्वीकरण-निजीकरण के सबसे बड़े आलम वरदार है. १ ९ ९ ९ से २ ० ० ४ तक के फील गुड और इंडिया शाइनिंग वाले दौर में देश की अधिकांस संपदा   सर्माय्र्दारों को लगभग मुफ्त में बाँटने वाले भाजपाई अब कौनसा नया अर्थशास्त्र लेकर श्री नरेन्द्र  मोदी को पढ़ाने वाले हैं और कौनसा अर्थशास्त्र मोदी जी ने देश के लिए तै कर रखा है ? कहीं वही तो नहीं जो टाटाओं -अम्बानियों,बजाजों और मित्तलों  तथा अमेरिका -यूरोप -इंग्लैंड को  भा  रहा है .
                             अतीत में भी इन्ही ताकतों ने    भारत  के  सांस्कृतिक ,आर्थिक और  प्राकृतिक  वैभव  की  प्रचुरता  के  वावजूद   उसे जमींदोज किया है .  भारत के   आंतरिक बिखराव और   एकजुटता  की प्रक्रिया  के अभाव  में  एक साथ और विपरीत दिशा में परिगमन  के  परिणाम स्वरूप  उत्तर-पश्चिम  और मध्यपूर्व से यायावर-हिंसक लुटेरों और बर्बर-असभ्य कबीलों ने  न केवल बुरी तरह लूटा बल्कि -युगों के सुदीर्घ अनुभव जन्य- आयुर्वेद जैसी  वैज्ञानिक  उपलब्धि को   ,ग्राम्य - आधारित मज़बूत अर्थ-व्यवस्था  को   और परिष्कृत मानवीय मूल्यों-अहिंसा,समता,क्षमा शीलता  को  ध्वस्त  करने   में कोई कोर  कसर  नहीं छोड़ी . वैज्ञानिक  नज़र से इस  विषय   को   अनुसंधान  और   अन्वीक्षित  करने    के   इच्छुक शोधार्थियों को   न केवल भारतीय पुरातन उपलब्ध साहित्य अपितु हलावर जातियों  का    भी   साहित्य   अवश्य पढ़ना चाहिए।  आशा की जाती है की अतीत के 'अंधकारमय' पक्ष के रूप में  इस सनातन चुनौती   से नई  पीढी को  निजात दिलाने में 'मार्क्सवाद-लेनिनवाद  और  सर्वहारा  अंतर्राष्ट्रीयतावाद  ' अवश्य मददगार सावित हो सकता है  वशर्ते कि  प्रत्येक दौर की  नई  पीढी  भारतीय  स्वाधीनता संग्राम समेत तमाम वैश्विक क्रांतियों के  वेहतरीन   मूल्यों को ह्रुदय्गम्य   करती रहे.
        जातीय -विमर्श  हेतु समाज   शाश्त्रियों  को अतीत के काल्पनिक ,मिथकीय  व्यामोह से मुक्त होकर  न  केवल अतीत के  भारतीय  सामाजिक उत्थान-पतन अपितु   आज के झंझावातों और भविष्य के निर्माण  को भी मद्देनज़र रखना   चाहिए .  किन्तु  इन दिनों लगता  है  कि उस सामंत युगीन  काल्पनिक  और  मिथकीय   व्यामोह  को  भी  बाजारीकरण और वैश्वीकरण के दौर में  एक आकर्षक 'उत्पाद'  के रूप में 'ओल्ड इज  गोल्ड' के बहाने पुनर्स्थापित किया जा रहा है .  जिसके भयावह परिणाम सामाजिक विषमता के गर्भ में   विकसित हो रहे हैं ,जो देश को गृह युद्ध की  दावानल में झोंकने के निमित्त बन सकते हैं .
                                                               आज कल भारत में कहीं ' राजपूत या क्षत्रीय -समाज' कहीं  'अग्रवाल समाज'कहीं 'जैन समाज'कहीं 'यादव-अहीर  समाज'कहीं 'जाट-विश्नोई   समाज'  और कहीं दलित- पिछड़े समाज के बैनर  यत्र-तत्र  टंगे दिखने लगे हैं . हालाँकि  बौद्धों,जैनों  और  लोकायतों के तो दो हजार साल से ज्यादा  पुराने  संगठनों  के  बनने -बिगड़ने -दोफाड़ होने और अपने ही सिद्धांतों को पद दलित किये जाने का  भी इतिहास है , सिखो का ५ सौ  साल  पुराना इतिहास है  जो उनके सामाजिक-धार्मिक  तौर  पर संगठित होने  और धर्म-राजनीती के घालमेल  के रूप में संवैधानेतर  सत्ता केंद्र स्थापित करने की नाकाम कोशिशों के रूप में भारतीय  इतिहास में दर्ज  हो  चुका  है .   विगत २ ० ० ४ से  देश के प्रधान मंत्री का पद एक सिख को   सिर्फ इसलिए दिया  जाता रहा है  कि  उस कौम के अलगाव वादियों     के  अहम्  और   तथाकथित उन्नीस सौ चौरासी के दंगों में आहात हुए सिखों को संतुष्ट किया जा सके . यह न केवल कांग्रेस  बल्कि देश  हित में उठाया कदम हो सकता  था वशर्ते  'अकाल तख़्त ' और संगठित सिख कौम का सरदार मनमोहनसिंह को समर्थन मिलता किन्तु एक समाज के रूप में एक पंथ के रूप में मनमोहनसिंह जी को रत्ती भर भी सहयोग 'शिरोमणि अकाली दल ' की ओर से कभी नहीं  मिला . इसी तरह से भारत में जितने भी जातीय -साम्प्रदायिक और क्षेत्रीतावादी संगठन हैं,या थे  सभी  ने  कमोवेश 'भारत राष्ट्र' को ब्लेक मेल करने अथवा अपना उल्लू  सीधा  करने को ही प्राथमिकता दी है।
                                     मंडल कमीशन और उसकी राजनीती के दूरगामी  परिणामों  का दंश देश अभी भी भोग रहा है  बाबा साहिब .डॉ भीमराव आंबेडकर  ने जिन्हें फर्श से अर्श पे बिठाया, मान्यवर कांसीराम जी ने जिन्हें राजनीती में   ककहरा सिखाया   वे   'बाबा साहिब' और कांसीराम जी की  की जय-जय कार तो करते  हैं  लेकिन  उनके  सिद्धांतों और सूत्रों को भूलकर अपने वंशानुगत स्वार्थों  के लिए  कुख्यात हो चुके हैं मायावती और उनके  रिश्तेदार ,नव धनाड्यों में शुमार हो चुके हैं जबकि देश की 9 0 % एस/सी /एस टी जनता आज भी गरीबी की रेखा के नीचे  घिसट  रही है .  वे इस व्यवस्था में जातीय आधारित संगठन  या राजनैतिक   पार्टी  बनाकर इससे ज्यादा कुछ हासिल कर भी नहीं सकते .सत्ता में आने के लिए भी उन्हें उन्ही  ब्राह्मणों को पटाने की सोसल  इंजीनियरिंग करनी पड़ती है  जिन्हें वे कभी -तिलक तराजू और तलवार ....इनको मारो… जूते  चार .... से स्मरण किया करते थे .   जाटों ,ठाकुरों,बनियों,ने अपने-अपने   संघ बना लिए हैं,अब सूना है की  ब्राह्मणों  को भी संगठित होने का 'इल्हाम' हुआ है सो हर जगह-जय परशुराम का उद्घोष सुनाई देने लगा है .

                        मेरी कालजयी  वैज्ञानिक और  वैश्विक  वैचारिक समझ; मुझे इस बात की इजाजत नहीं देती  कि  मैं किसी तरह के जातीय-भाषाई-साम्प्रदायिक सरोकारों वाले इस तरह  के   व्यक्ति  ,समाज,संगठन  के  उस विमर्श से रिश्ता रखूंया शिरकत करूँ -  जो सिर्फ अतीत की  झंडा वर्दारी  के आधार पर  अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने की हास्यापद चेष्टा करता है और मानव-मानव में नस्ल ,जाति ,मज़हब,भाषा या कौम के  आधार पर पृथक्करण या     वर्चस्व को वैधता प्रदान कराने की चेष्टा करता है .  किसी भी ऐतिहासिक रचना ,  साहित्यिक धरोहर या लोक-परम्परावादी  काव्यांश  को विकृत रूप में पेश किये जाने से में  हस्तक्षेप के लिए बाध्य  हूँ . यह मेरा उत्तरदायित्व भी है की  प्रत्येक प्रतिगामी और गुमराह कदम    को न केवल बाधित करूँ अपितु अपना और 'प्रगतिशील' समाज का पक्ष प्रस्तुत करूँ . अभी तक देश और दुनिया में जिन - जिन सम्प्रदायों, पंथों  -जातियों और उपजातियों  को संगठित होते हुए देखा सुना है उनमे साम्प्रदायिक आधार पर  - बौद्ध,जैन  इस्लामिक   ,ईसाई  , यहूदी, आर्य -समाजी , सिख्य  और पारसी ही संगठित थे . फ्रांसीसी क्रांति,वोल्शैविक -महान अक्तूबर क्रांति और चायनीज क्रांति के बाद दुनिया ने साम्प्रदायिक चस्मा उतार फेंका और 'मानवीय मूल्यों ' से युक्त - स्वतंत्रता ,समानता, भाईचारे   को  आधुनिक वेहतरीन युग निर्माण और व्यक्ति निर्माण के उद्देश्य से आविष्कृत किया था . सारे संसार के  तथाकथित सम्प्रदाय और धर्म-मज़हब  जो अवैज्ञानिकता , की घुट्टी पीकर पोषित हुए थे , उनके केन्द्रीय विचारों में बेहतरीन मानवीय  मूल्यों की बुनावट के वावजूद वे सब के सब  अपने-अपने मठाधीशों द्वारा तत्कालीन शासक वर्ग के हितों की पूर्ती  और आम जनता पर निर्मम अत्याचारों  के लिए कुख्यात रहे हैं।मानव इतिहास ने जितने भी देवीय आश्था के केन्द्रों को जन्म दिया है  उनमे से कुछ ने अवश्य ही मानवता की बड़ी  सेवा की है, त्याग किया है,  कुर्वानियाँ दीं हैं, मनुष्य को उसकी आदिम पाषाण  युगीन अवस्था से उसके उतोपियाई काल्पनिक  दैवीय रूपांतरण  के प्रयाण पथ पर; इन चंद  अपवादों- शहादतों  और बलिदानों  ने निसंदेह बेहतरीन भूमिका अदा की है.  संभवतः इन्ही कारणों से आर्यों में  ब्राह्मणों को जातीय श्रेष्ठता का भान' हुआ होगा ,  कुछ इसी तरह  ईसाइयों में रोमन केथोलिक को , इस्लाम में कुरेश कबीले को  ,  बोद्धों में लिच्छवियों को  शंकराचार्यों में नाम्बूदिरियों  को परम्परागत सम्मान  मिला होगा . किन्तु  इन पंथ-मज़हब या सिद्धांत के स्थापकों के  बेहतरीन  बलिदानों का   उनके उत्तर  अनुवार्तियों को प्राप्त  सामाजिक -आर्थिक - राजनैतिक  विशेषाधिकार  सदियों तक  सारे संसार में  अपने अहंकार, ऐश्वर्य,तेजस और प्रभुत्व का प्रचंड तांडव कर  न केवल समाज और राष्ट्र का बल्कि स्वयम अपने ही बंधू-बांधवों सजातीय-स्व्धार्मियों का भी  बेड़ा  गर्क  करता रहा  है.  इस जातीय या कबीलाई  दुनिया के विभिन्न देशों में लगभग एक जैसी  भारतीय उपमहाद्वीप  में आर्यों  [  प्रारंभ में आर्यों में केवल तीन वर्ण ही थे,ब्राह्मण- क्षत्रीय,वैश्य बाद में  जब आर्यों ने भारत में 'वैदिक काल' की व्यवस्था कायम की तब पराजित स्थानीय मानव समूह को 'दास' गुलाम और अंत में 'मनु महाराज ने तो इन 'धरती पुत्रों ' को शूद्र ही घोषित कर दिया '] के स्थापित होने के हजारों साल बाद   विदेशी आक्रमणकारियों,विदेशी यायावरों,बंजारों और दुनिया के विभिन्न  क्षेत्रों से विस्थापित होकर आते रहे  'जन-समूहों ने आर्यों को  अधिक  समय तक "कृण्वन्तो विश्वं आर्यम" का उद्घोष नहीं करने  दिया . भारत पर विदेशी आक्रमणों का  इतिहास जितना पुराना  और व्यापक है उतना विश्व में अन्यत्र दूसरा कोई उदाहरण नहीं है . इन में कुछ  अत्यंत बर्बर खूरेंजी  शकों, हूणों, च्न्गेजों , मंगोलों  ,अरबों ,तोर्मानो,यवनों,तुर्कों,अफगानों,पठानों,मुगलों, यूरोपियनों और खासकर अंग्रेज  संगठित सैन्य आक्रान्ताओं ने यहाँ के  तत्कालीन वेहतरीन सामाजिक -आर्थिक और प्रशासनिक ताने-वाने को ध्वस्त कर उनके अपने अनुरूप  सामाजिक,शैक्षणिक,आर्थिक,राजनैतिक और  व्यापारिक  मूल्य स्थापित किये जो उनके लिए वरदान थे और भारत के लिए अभी तक अभिशाप  हैं .
                                           
   श्रीराम तिवारी
 

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