गुरुवार, 3 जनवरी 2013

शर्मिंदगी दिखाने के लिए हंगामा खड़ा करना उचित नहीं

 देश की राजधानी में  बिना परमिट के और सीसा चढ़े  चलते   वाहन  में  जिस युवती के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ और  जिसे  मर्मान्तक पीड़ा भोगते हुए अपने प्राण गंवाने पड़े,  उस की भयानक मौत  पर देश भर में जबरजस्त सामूहिक और सकारात्मक चेतना का उदय हुआ है और इस चेतना को देश के कलंक को धोने की समर्थ क्रांति के बीज भी इस सामूहिक आक्रोश में छिपे  हो सकते  हैं। इस बाबत सतत्त संघर्ष और सामजिक जागरूकता नितांत जरुरी है।  लेकिन इन    दिनों भारत में   दुष्कर्म [बलात्कार] पर ही  जरा ज्यादा ही शोरगुल हो रहा है। कोई उस लड़की का नाम पता जानना चाहता है, कोई उसे अशोक चक्र  से सम्मानित करना चाहता है, कोई इस घटना पर राजनैतिक बढ़त हासिल करना चाहता है, कोई निरुद्षेय  फकत हंगामा खड़ा कर भड़ास निकालना चाहता है।
                          एलीट क्लास  के फुरसतियों  ने , मीडिया  के 'नारी- चिंतकों' ने और राज नीति में असफल लोगों ने मान लिया है कि  अब हमें खेतों में सिचाई के लिए नहरें नहीं बनानी! अब हमे शत्रु राष्ट्रों से कोई खतरा नहीं अतएव सेना का आधुनिकीकरण क्या चीज है इस पर चर्चा नहीं करनी! किसानों की फसल में इल्लियाँ लग गई ,सिचाई के लिए  पानी नहीं,पानी है तो बिजली नहीं -इस पर मीडिया को ,दिल्ली मुंबई, इंदौर के ' सफ़ेद पाशों' को सोचने -करने की कोई जरुरत नहीं। बाज़ार में लूट मची है,सारा माल मिलावटी है और चौगुने दाम में बेच जा रहा है,दवाएं आउट  डेटेड  धडल्ले से बिक रही  हैं,फ़ूड इन्पेक्टर रिश्वत खोर  है, ड्रग इन्स्पेक्टर महा भृष्ट है,आरटीओ ,सेल टेक्स ,इनकम टेक्स ,म्युनिसिपल  दफ्तर सबके सब बेईमानी और मक्कारी से गन्दी नाली की तरह बजबजा रहे हैं , चारों ओर 'अंधेर नगरी चौपट राज है,किन्तु इस पर इन सभ्रांत लोगों को  कोई आन्दोलन  नहीं करना,  इन सब के लिए 'मुठ्ठी भर कम्युनिस्ट और 10 -20 लाख संगठित क्षेत्र के श्रमिक कर्मचारी हैं न! लगता है कि  देश के 'परजीवी' माध्यम  वर्ग की चिंता के केंद्र में खुद उसकी अनैतिक ऐय्याशी की चिंता ही हिलोर मार रही  है। उनकी चिंता  के केंद्र में 'दामिनी' पर हुए अत्याचार की बीभत्स छवि नहीं अपितु उनकी आज़ाद और स्वछंद जीवन शैली में खलल डालने  वे तत्व हैं  जो   इस  पतनशील व्यवस्था  को संचालित करते हैं। पीडिता के बहाने ही सही समाज के लगभग आधे हिस्से के रूप में वह नारी शक्ति   स्वयम भी इन घटनाओं की आंशिक जिम्मेदारी से  बच  नहीं सकती।
  जिसको सच बयान कर देने से राष्ट्रपति के पुत्र को नाहक माफ़ी मांगने पड़ी।  देश में विकाश की,रोजगार की,शिक्षा की,स्वाश्थ की ,सुशाशन की उतनी ही जरुरत है जितनी  महिला संरक्षण की। लेकिन जो हो गया ,जो होता आया है और होता रहेगा -उस पर मौसमी बुखार की तरह कुछ  रँगे - पुते चेहरे तमतमाए हुए हैं।
         दिल्ली की 'दामिनी'या  ' निर्भया ' फिर भी खुश नसीब है कि  कुछ हज़ार आँखों ने उसे भावभीनी  श्रद्धांजलि तो  दी। केवल देश  के महानगरों-मुंबई,दिल्ली, कोलकाता, चेन्नै या  हैदराबाद  में ही ये सब नहीं हो रहा, देश के    हर गाँव में ,खेत में ,खलिहान में,कारखानों में दफ्तरों   में  सदियों से यही सब होता रहा है। पहले सामंती  दौर में तो नारी केवल पुरुष की सेविका भर थी  वह हजारों  साल तक 'दासी ' की उपाधि से नवाजी जाती रही . अब आज़ादी के बाद और पूंजीवादी -बाजारीकरण के दौर में  भी वह कुछ शहरी अपवादों को छोड़कर  इस पतनशील समाज और व्यवस्था की ठोकरे खाने को मजबूर है। जो जमींदार है ,दवंग है,पूंजीपति है,सरमायेदार है वो कानून को अपनी जेब में रखता है,थानेदार उसका हुक्का भरता   है,पटवारी पानी भरता है ,नेता उसकी  चौखट  पर सिजदा करते हैं, इनके द्वारा नारी शोषण सनातन से किया जा रहा है ,किसी में दम हो तो इनके खिलाफ एक शब्द बोलकर दिखाए,शीला दिक्षित  को अपमानित करने वालों  में यदि जरा भी शर्म हया है  तो दिल्ली से मात्र 00 किलोमीटर  किसी गाँव में जाकर किसी बालात्कार पीडिता के साथ हमदर्दी दिखाकर  बताएं। अव्वल तो  खाप पंचायत वाले ही  दुष्कर्म पीडिता को  जिन्दा जमीन में   गाड़   देते हैं  दोयम यदि क़ानून ने या किसी ईमानदार हिम्मतवर ने शरण दी   तो उसका और उसके परिवार का  सत्यानाश कोई नहीं रोक  सकता।
                               इस     देश में राष्ट्रपति महिला रह चुकी है,देश की वर्तमान में  सबसे ताकतवर नेता महिला है ,देश की विपक्ष की सबसे ताकतवर नेता महिला है, देश की लोक सभा अध्यक्ष महिला है,देश के कतिपय मुख्यमंत्री महिला थी या हैं,देश में महिला डॉ है,प्रोफ़ेशर हैं,प्रोफेसनल्स है,'महिला डॉन '   महिला उद्द्य्मी हैं, महिला डाकू  हैं  ,महिला विश्व सुन्दरी  हैं ,महिला पूंजीपति ,महिला नर्तकी,महिला फिल्म स्टार,महिला पत्रकार महिला सम्पादक और महिला लेखिकाएं  तो इफरात में पाई जाती हैं,  फिर भी ये हंगामा क्यों खड़ा किया जा रहा है?  कि   सिर्फ पुरषों  को ही   नारी दुर्दशा के लिए  जिम्मेदार ठहराया जा रहा है।  यदि  आज पुरुष बर्बर और नारी पीडक है तो उसकी जननी और परवरिश करने वाली  माँ , बचपन में गोद में लोरी  गाकर सुलाने वाली बहिन, जीवन भर सुख-दुःख में साथ देने वाली   अर्धांगनी  वर्तमान दौर के पुरुष वर्ग के नैतिक   पतन की जिम्मेदारी से कैसे   बच  सकती है? मनोवैज्ञानिक खोजों के परिणाम बताते हैं की मानसिक रूप से विक्षिप्त पुरुष या नारी जो की  अनैतिक और  अवैध कार्यों में  लिप्त पाए गए उनकी  परवरिश में घोर अवहेलना की गई  या उन्हें अपराधिक किस्म के अभिभावक मिले या अपराधियों ने उन्हें इस दलदल में  धकेला। जब स्त्री पुरुष दोनों ही न केव ल जन्म देने बल्कि संस्कारों के संवाहक हैं तो  किसी खास राजनैतिक दल या नेता को को टार्गेट करने का  ओचित्य  मेरी समझ से परे है।  जब पूरा का पूरा सिस्टम काज़ल की कोठरी है तो उज्जवल धवल शुभ्र  वस्त्र रुपी उच्च नैतिक आदर्शवादिता के साथ   कौन टिकने वाला है। जिन पुरातन प्रतीकों को आदर्श के लिए दीवार पर टांगते हैं वे भी सब के सब इन सभी मूल्यों और आदर्शों के लिए आजीवन संघर्ष करते हुएनितांत धूमिल और अनुपयोगी हो चुके हैं।
          इस    देश  ने किसी नए  विमर्श की खोज नहीं   की  है। यह सिलसिला सनातन से चला आ रहा है, यह विमर्श सार्वदेशिक और सर्वकालिक है। क्या   कई अमेरिकी राष्ट्रपतियों से लेकर   बेटिकन  के तथाकथित कर्णधार वकिङ्ग्धम  पेलेश  की  कुईंस   तथा  सद्दाम  हुसेन ,अरब  के शाह और कर्नल गद्दाफी   इसी वजह से बदनाम नहीं  हुए?  किन्तु इन राष्ट्रों के  किसी भी समाज  ने कहीं भी नारी को अपावन या त्याज्य नहीं  माना। केवल हम भारत के लोग यह प्रतिज्ञा किये बैठे हैं कि  रेपिस्ट को सजा की मांग तो करेंगे लेकिन  उत्पीड़ित  नारी को सदा के लिए असम्मान का भाव लेकर जियेंगे। उससे दोयम दर्जे का व्यवहार करेंगे। इतना ही नहीं यदि कोई अफवाह उड़ा दे बदनाम करे तो नारी पर नहीं अफवाह उड़ने वाले पर यकीन कर नारी को  घर से निकाल देंगे।
 अतीत से लेकर वर्तमान काल के शहंशाहों के हरम - केवल और केवल नारी उत्पीडन और उस्सकी सामूहिक यातना के शिविर मात्र कहे जा सकते हैं। फर्क इतना सा है कि  दुनिया में केवल भारतीय समाज है जो नारी के साथ  यदि किसी के साथ  रेप हुआ है तो उस पीडिता का नाम छुपाने  का  सामंती  रिवाज  मौजूद है मानों  पीडिता का  ही  गुनाह अवर्णीय हो  और मीडिया में संसद में जिम्मेदार  परुष ही नहीं कतिपय नारियां[नेता] भी उस दुष्कर्म पीडिता का ऐंसे  शब्दों में वर्णन करते हैं की सुनकर उबकाई आने लगती है।  ,रेपिस्ट के नाम उछाले जाते हैं  मानों  वे परमवीर चक्र के लायक काम  करके  आये हों!
         यह नितांत सामन्ती मानसिकता है की नारी  देह की शुचिता ही सर्वोपरि है। एक   नारी  का सर्वांग एक    पुरुष  के सर्वांग  की  तरह ही अक्षत क्यों नहीं माना जाए?   जिस तरह एक   राह  चलती युवती के रोड एक्सीडेंट  हो जाने पर  उसे  अस्पताल में  उपचार विशेष के बाद ससम्मान घर-समाज में स्थान मिलता है ,उसे  मुँह  छिपाने  की जरुरत नहीं  पड़ती ,उसी तरह 'रेप' को भी एक शारीरिक -मानसिक आघात  क्यों नहीं माना जाना चाहिए? उत्तर है की शायद  हमारा पितृसत्तात्मक समाज फीमेल सेक्सुअलिटी पर ही नियंत्रण रखना चाहता है।   नारी का चरित्र और उसकी पावनता को महज़   सेक्सुअल  क्राइम  से नहीं जोड़ा जा   सकता। हमे अब इन वाक्यांशों को क़ानूनी   रूप से प्रतिबंधित करना होगा, यथा:-"इज्जत लुट गई"             " इज्जत -तार-तार हो गई" "  मुँह  दिखने लायक नहीं रही" "नारी अबला है" " स्त्री की आबरू ही उसका धन है"" उसकी आबरू लुट गई""वो लुट गई" "वो बर्बाद हो गई" इसके अलावा सेक्सुअल क्राइम से जुडी हर  कानूनी और पुलिसिया मशीनरी  में आमूल- चूल परिवर्तन  करना होगा। यह सब करने के लिए सामंती सोच से उबरना होगा।
                             रेप को भी महज एक शारीरिक -मानसिक दुर्घटना मानकर  जिस  नज़र  से  पुरुष पात्र को  ट्रीटमेंट  दिया जाकर ससम्मान घर समाज में स्थान मिलता है वही सलूक  नारी  पात्रो  के  साथ क्यों नहीं होना चाहिए?  बलत्कृत  महिला  को  भी यह य्ह्सास कराये जाने की जरुरत है कि  यह महज़ एक उतनी ही दुखद घटना है  जितनी की शारीरिक उत्पीडन के बरक्स उसे महसूस  हो रही है। मानसिक रूप से उसे यह चिंतनीय नहीं   है कि  'दुनिया लुट गई' "अब क्या होगा?" सरकार और समाज की भी यह जिम्मेदारी है कि केवल" दामिनी ' ' निर्भया ' को ही नहीं बल्कि देश की हर  वह नारी,युवती,बालिका जो इस तरह से दुराचारियों  का शिकार हो जाया करती हैं उनको सर्व प्रथम समाज में ससम्मान सुरक्षित जीवन की गारंटी  मिलनी ही चाहिए। दुष्कर्मियों  को वो सजा  दी  जो पीडिता  तय करे या पीडिता के सपरिजन चाहें।   यह सब तभी सम्भव है   जब हम अपने पुरातन संस्कारों के उस वैचारिक  हिस्से को नष्ट कर दें जो केवल नारी से ही 'अग्नि परीक्षा' चाहता है।
                          भारत की प्रेस और मीडिया ने जन -चेतना को सही दिशा देने की कोशिश तो जरुर की है किन्तु सिर्फ 'बलात्कार' या नारी उत्पीडन पर कोहराम मचा देने से दुनिया में यह सन्देश गया  कि  भारत तो केवल बलात्कारियों  का देश रह गया  है। जनता  भी उत्तेजित होकर हर बात का ठीकरा ' सरकार' के या पुलिस के सर फोड़ने   पर उतारू रहती है। जैसे की सरकार  और पुलिस   के  पास  इसके अलावा कोई और काम नहीं है। जनता का एक हिस्सा तो  स्थाई   रूप से  कभी 'जंतर-मंतर'कभी 'राम लीला मैदान " और कभी ' राय सीना ' हिल की ओर सेंत- मेंत  में भी निकल  पड़ने को आतुर रहता है। 
  सर'कार ने भी ज नता के गुस्से  का साथ देने के बजाय जनांदोलन  से घबराकर  'दामिनी ' को सिंगापूर भेज दिया  मानो भारत के डॉ और भारतीय चिकित्सा   व्यवस्था   बिलकुल ही नाकारा हो। यदि ऐंसा  है भी तो यह राष्ट्रीय स्वभिमान का प्रश्न है और नैतिक रूप  से  देश को जो दुनिया में जग हंसाई झेलनी पड़ी उसकी जिम्मेदारी भी तय  होनी चाहिए।
                                                                    भारत में जो ये सब[बलात्कार-सामूहिक रेप] हो रहा है वो सब  सारी  दुनिया में  भी कमोवेश  हो रहा है , में सिर्फ इसीलिये इन नापाक घटनाओं को स्वीकार्य नहीं बना रहा  की चलो हम्माम और भी नंगे हैं। लेकिन  शायद इन घटनाओं पर  भारत में  जरा  ज्यादा ही शोर  हो रहा   है ! यह सब नहीं हो ऐंसी  सद्कामना  हर वह स्त्री पुरुष जरुर करता है जो किसी का भाई है,किसी की बहिन है,किसी का बाप और किसी की  माँ  है। सरकार और  राजनीतिक पार्टियां भी बेहतरीन नेताओं के नेत्रत्व में काम कर रही हैं और वे भी देश की समाज की चिंता करते हैं।  लेकिन उन्हें संसद में या प्रेस के सामने नकली आंसू बहाने से बचना चाहिए।उनके कमेंट्स  न तो देश को दिशा देने लायक होते हैं और न ही अपराधियों को डराने में मददगार होते है।  दरसल  भारत को   आज चीन की महान क्रांति से सबक लेकर न केवल नारी उत्पीडन न  केवल गेंग रेप न केवल नशाखोरी ,न केवल वेरोजगारी बल्कि राष्ट्रीय सम्मान की खातिर एक 'महान सांस्कृतिक क्रान्ति '   की दरकार है। इसके लिए युवाओं को और देश की आवाम को अपनी मानसिकता   में क्रांतिकारी बदलाव लाना होगा। खुद का भला राष्ट्र की भलाई में देखना होगा। महिला और सेक्सुअल मान्यताओं  के  वैज्ञानिक  नार्म्स स्थापित करने  होंगे। कानून को न केवल कठोर बनाना होगा।  न केवाल नारी परस्त बल्कि  वास्तविक लेंगिक समानता के आधार पर निधारित करना होगा।  
 समाज में सभी महिलायें निर्दोष और पीड़ित है तथा सभी  पुरुष बलात्कारी और नारी उत्पीड़क है ,ऐंसा मानकर 
 देश और समाज का उद्धार नहीं किया जा सकता। भारत में जबसे महिलाओं ने नेत्रत्व संभाला है महिला उत्पीडन  में तेज़ी आई है इस पर भी गौर करना होगा। समाज में आर्थिक,सामजिक असमानता को
 ख़त्म करने  के जज्वात  जब पैदा हो जायेंगे तब ये बलात्कार,गेंग रेप सब बंद हो जायेंगे। केवल केंडल मार्च ,शोक सभाएं  करने या पीडिता को   अशोक  चक्र मांगने ,शहीदों में शुमार कर उसके नाम से पुल या चौराहों   का नाम  करण  करने से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला।  देश में बदलाव के लिए युवाओं को  चीन की क्रांति का अध्यन करना चाहिए फिर एकजुट संघर्ष से 'नए शक्तिशाली भारत का और 'नारी-पुरुष की वास्तविक बराबरी' का समतामूलक समाज स्थापित करना चाहिए।
           जब तक समाज में अशिक्षा ,वेरोजगारी,दैहिक प्रदर्शन,रिश्वत,असमानता और  व्यक्तिगत संपत्ति का अधिकार है तब तक वो सब यथावत चलता रहेगा जो आज के भारत में चल रहा है।   हत्या ,बालात्कार लूट,डकेती, रेप ,गेंग-रेप  सब यथावत जारी रहेंगे। इन्हें रोकने के लिए किसी सरकार को ,पुलिस को या  नेता को गाली देने की  जरुरत नहीं -समाज  की सोच को बदलना है तो अपनी सोच पहले बदलिए। यदि खुद गुड खाते हो तो दूसरों  का  गुड खाना आप कैसे बंद करे सकते हैं?    नारी उत्पीडन  के  इस  विमर्श में   देश  को और युवाओं को इस अवसर  पर जोश से नहीं होश से काम लेना चाहिए।

                        श्रीराम तिवारी।

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