बुधवार, 5 जनवरी 2011

दिग्विजयसिंग के निशाने पर संघ ही क्यों ?

    .अतीत के खंडहरों में से मलबा  निकालकर कुछ भोले-भाले  हिन्दू अपने हिंदुत्व को पुनह प्रतिष्ठित करना चाहते हैं, वे अल्पसंख्यकों के इतिहास में से ऐसी नजीरें ढूड़ते फिरते हैं जो हिन्दू समाज को कोंचती हों .अतीत के अपमान ,पराजयों , धोखा आदि  याद करा के हमारे ये संघी भाई यदि हिन्दुओं को इसलिए एकजुट कर रहे हैं, या तथाकथित देशभक्ति और अनुशासन  का पाठ पढ़ा रहे हैं की  उन्हें आइन्दा गुलामी की मार न झेलनी पड़े तथा उनको अन्तरराष्ट्रीय जगत में वही सम्मान हासिल हो जो सेमेटिक ,नार्मन सुमेरु और चीनी सभ्यताओं-ईसाइयों ,मुस्लिमों, यहूदियों और कान्फुसियासों को ;उनके  उत्तराधिकारियों को प्राप्त है, तो किसी को क्या एतराज  हो सकता है ? दरसल यहाँ तक किसी को भी कोई  एतराज  होना भी नहीं चाहिए .संभवत इस सीमा रेखा तक असहमति की संभावनाएं शून्य हैं ,फिर संघ परिवार पर चौतरफा आक्रमण के निहितार्थ क्या हैं ?
                 मानव   सभ्यता के उदयकाल से ही -कबीलाई समाजों में और  दास और सामंत्कालीन  युग में रूपांतरण की प्रक्रिया का समाज शास्त्रियों  ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विहंगम सिंहावलोकन किया है .इस आलेख के विमर्श में उन घटनाओं का स्मरण स्वाभाविक है जिनसे भारतीय उपमहाद्वीप  के सरोकार परिलक्षित होते हैं .भारत की आजादी के लिए १८५७ से १९०६तक .{मुस्लिम लीग की स्थापना तक  }भारत के हिन्दू -मुस्लिमों ने हमकदम होकर ब्रिटिश साम्राज्य शाही से संघर्ष किया .मुस्लिम लीग वास्तव में कांग्रेस की तत्कालीन   हिंदूवादी बहुलता और साम्प्रदायिक अनुगूंज की प्रतिध्वनी मात्र थी .मुस्लिम लीगी अंग्रेज भक्ति और खिलाफत आन्दोलन में गांधीजी और कांग्रेस द्वारा  खिलाफत आन्दोलन का तहेदिल से स्वागत एवं भागीदारी ने हिन्दू समाज को बैचेन कर दिया था . पेशवाई  हिदुत्व के केथोड और स्वाधीनता के एनोड के बीच अशिक्षित  भारतीय हिन्दू जनता का तेजी से आयनीकरण हुआ .परिणामस्वरूप डॉ मुंजे की प्रेरणा से श्री हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयम सेवक संघ की स्थापना की .
          यह सर्व विदित इतिहास है, किन्तु इसका संक्षिप्त  जिक्र किये बिना   हम आज के दौर की - वर्गीय वैमनस्यता के सूत्रों को नहीं पकड़ सकते .आजादी के तुरंत बाद से ७० के दशक तक  पंडित नेहरु ने जरा जरुरत से ज्यादा ही धर्मनिरपेक्षता या सर्व धर्म सम- भाव के गीत गुनगुनाये ,हालाँकि वे १९१९ के खिलाफत आन्दोलन के सिपाही भी रहे थे अतः स्वाधीन  भारतीय प्रजातंत्र को एक नई वैज्ञानिक और धर्म निरपेक्ष-समाजवादी  द्रष्टि  का शानदार नेतृत्व -पंडित नेहरु के रूप में उपलब्ध था .किन्तु एक ओर तो उनकी नास्तिकता से कट्टरपंथी  हिन्दू जनसंघ की ओर खिचते चले गए तो दूसरी ओर  महंगाई ,बेरोजगारी से परेशान मजदूर किसान कभी साम्यवाद के लाल झंडे के नीचे और कभी क्षेत्रीय दलों के क्षत्रपों की भोगलिप्सा का वोट बैंक बनते रहे .फलस्वरूप  कांग्रेस कमजोर होती चली गई .कभी सिंडीकेट और कभी इंदिरा कांग्रेस के खेमों में बटती चली गई .पाकिस्तान को १९७१ में सबक सिखाने .बंगला देश बनवाने  और अटल महाराज जी द्व्रारा देवी दुर्गा का अवतार निरुपित होने के वावजूद इंदिरा जी इलाहावाद हाई कोर्ट में अपने  चुनाव को  संवैधानिक रूप से जीता हुआ साबित  करने में विफल रहीं .
          उन्होंने आपातकाल लगाया ,संघ ने कुछ दिनों बाद  आपातकाल और संजय गाँधी के काले कारनामों को तस्दीक करना शुरू कर दिया लेकिन यह प्रेम एक पक्षीय ही था कांग्रेस और उसके नेतृत्व   ने पंडित नेहरु की ही तरह राष्ट्रीय स्वयम  सेवक संघ से दूरी बनाए रखी और वास्तव में उसके मूल में मुस्लिम वोट की दरकार भी निहित थी किन्तु कांग्रेस के किसी भी नेता ने {इंदिराजी को छोड़कर }कभी भी खुलकर संघ का विरोध नहीं किया क्योंकि वे जानते थे की बिना  मुस्लिम वोट के चुनाव जीतना मुश्किल है तो बिना   हिन्दू वोट के सत्ता में पहुंचना मुश्किल .
        यही वजह है की संघ ने जयप्रकाश नारायण  जैसे अर्ध-क्रांतीकारी को अपना सहयोग देकर कांग्रेस की इकन्नी कर दी और बाद में दुहरी सदस्यता की बहस में उलझे धर्म निरपेक्ष नेताओं को धत्ता  बताकर  १९८० में भाजपा के रूप में पुनह राजनैतिक  वापसी  का मार्ग प्रशस्त  किया .१९८४ के लोकसभा चुनाव में २ सीटों को सुशोभित करने वाली भाजपा ने बाद में वी पी सिंग  के मंडल की काट स्वरूप कमंडल हाथ में ले लिया और श्री आडवानी जी ने रथ यात्राओं के दौरान त्रिशूल घुमाये ,बाबरी मस्जिद ढहाई ,जय जय सियाराम की सारे देश में धूम मचाई तब दिल्ली में सत्ता की गद्दी पाई और अटल जी के नेत्रत्व में एन डी ये की सरकार ने चाहे कुछ और किया हो या न किया हो किन्तु देश भर में संघ की शाखाओं का विस्तार करने में हर तरह की तन -मन धन  से मदद अवश्य की .
     परिणाम स्वरूप पहले चरण में तो प्रान्तों के चुनाव में तेजी से कांग्रेस के क्षेत्रीय क्षत्रप धराशायी   होने लगे और संघ की अनुषंगी भाजपा के कंगूरे पर कागा बैठने लगे, किन्तु सोनिया गाँधी के नेतृत्व  में कांग्रेस में जान आ जाने से  उसके अधिकांश प्रान्त हस्तगत कर लिए हैं ;किन्तु गुजरात छत्तीसगढ़  और मध्यप्रदेश में अभी भी भाजपा डटी है और अब संघ और भाजपा को इस बात का गुमान है की हिन्दू जनता को किया वादा पूरा नहीं कर सके और दिल्ली की गद्दी से उतार दिए गए . रहीम कवि कह गए हैं की  रहिमन हांड़ी काठ की चढ़े न दूजी बार " सो किस्सा कोताह ये है की संघ परिवार के निशाने पर सोनिया जी राहुल जी और मनमोहनसिंग जी हैं .इसीलिये संघ के समर्थक मर्यादा छोड़ अल्ल-वल्लवक् रहेँ हैं .
       उधर क्षेत्रीय क्षत्रपों में सबसे महाबली क्षत्रप दिग्गी राजा को लगता है की उनकी ईमानदारी ,काबिलियत ,उच्च शिक्षा ,व्यक्तिगत श्रेष्ठता के वावजूद संघ  ने उन्हें मध्प्रदेश में रुसवा किया .चूँकि अकेले भाजपा में दम नहीं था  की दिग्विजय सिंह को परास्त कर सकें सो साध्वी उमा भारती को आगे करके उग्र हिन्दू वादी नारेवाजी के बरक्स संघपरिवार  ने उन्हें मध्यप्रदेश की सत्ता से पदावनत किया ..अश्वतथामा ..मरो ...हतो...नरो ...व ...कुंजरो .व ...की तर्ज पर ..साम्प्रदायिकता  ने मैदान मार लिया ,मंदिर -मस्जिद के नाम पर ,हिंदुत्व के नाम पर सत्ता हस्तांतरण तो हुआ, माया तो मिली पर भाजपा और संघ परिवार को राम {मंदिर ] नहीं मिले .अतः इस बिडम्बना के बहाने दिग्विजय सिंह जी को भाजपा और संघ पर हल्ला बोलने का शानदार अवसर मिला तो क्यों चुकें ? बेशक छ दिसंबर १९९२ के पूर्व भी dwand tha  लेकिन अयोध्या में विवादस्पद ढांचा गिराए जाने के बाद हिन्दू-मुस्लिम में दुराव और धर्म-निरपेक्षता को भारी क्षति हुई है. इसके बाद के दौर में जो हिंसक आतंकवादी गतिविधियाँ (इस्लामिक आतंकवाद सहित ) विगत १८ वर्षों में हुईं हैं उसके लिए अडवानी जी की रथयात्रा और अयोध्या में विवादास्पद ढांचा गिराए जाने की घटना जिम्मेदार है. यदि दिग्विजय सिंग ऐसा आरोप लगाते  हैं  तो क्या गलत है ?  संघ का काम काज फ़ैल चुका है , उसमें समाज के घाघ और चालू लोग जो पहले कांग्रेस का काडर हुआ करते थे बहुतायत से घुस गए हैं .जब कांग्रेस की सत्ता आयेगी तो फिर झंडा बदल लेंगे .इन्ही में से कुछ असामाजिक तत्व ,अपने अनाड़ीपन के कारण गोधरा में हिन्दू कार  सेवकों को मरवाने ,जिन्दा जलवाने के लिए जिम्मेदार हो सकते हैं ,इन्ही में से कुछ मालेगांव ,अजमेर शरीफ या मक्का मस्जिद में अवांछित हरकत के लिए  जिम्मेदार हो सकते हैं .लेकिन फिर भी यह संघ के रूप में आकर  विराटता के सापेक्ष इतना भयानक स्वरूप नहीं की उसको अल कायदा या किसी खतरनाक अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी संघठन से उसकी तुलना की जाये .चूँकि संघ से जुड़े लोगों पर अंगुलियाँ उठ रहीं हैं सो संघ भी आत्म चिंतन में जुट गया है किन्तु बदनामी के दाग आसानी से कहाँ छूटते ? इधर संघ रुपी कर्ण के रथ का पहिया लहू लुहान कीचड में धसा है ,उधर दिगविजय सिंह रुपी अर्जुन को धर्मनिरपेक्षता का कृष्ण संघ पर हमले के लिए उकसा रहा है .और वे जो भी आरोप लगाते हैं उसके प्रमाण भी जेब में रखते हैं .
        श्रीराम तिवारी
         

      

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें