सयुंक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार का दूसरा कार्यकाल पूरा होगा या नहीं इसके बारे में भविष्यवाणी करना जोखिम भरा होगा .वतनपरस्तों की सदिच्छा है कि सरदार मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यु पी ए द्वितीय भी अपना कार्यकाल पूरा करे ,जिनकी याददाश्त अच्छी है वे जानते हैं कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के पहले {२००४-२००९}कार्यकाल में बेशक अनेक खामियों के वाबजूद कुछ ऐसी उपलब्धियां अवश्य थीं जिनके कारण कांग्रेस नीत यु पी ये सरकार पुनः सत्ता प्राप्त करने में सफल रही . जिस वामपंथ ने महंगाई, भ्रष्टाचार और वन -टू -थ्री ,एटमी करार पर तथाकथित जनांदोलन कि दरकार के चलते यु पी ए प्रथम का साथ छोड़ दिया था ,उसे उसके ही जनाधार वाले क्षेत्रों में आम जनता ने सर-आँखों पर नहीं लिया, ऐसा क्यों हुआ ? वामपंथ ने वर्तमान संसद में अपनी आधी सीटें खो देने के बावजूद , अपनी तमाम तार्किक आत्म-आलोचनाओं के बावजूद ,देश कि जनता और अपने ही समर्थकों को उस चूक से अवगत नहीं कराया जो उनसे हुई थी .
२००४ में जब कांग्रेस नीत गठबंधन सत्ता में आया तब उसकी हालत ये थी कि श्रीमती सोनिया गाँधी के प्रधानमंत्री बनाए जाने कि चर्चा मात्र से बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज धढ़ाम से जमीन पर ओंधे मुह गिर रहा था.
उधर वैकल्पिक प्रधानमंत्री जी का नेशनल डेमोक्रेटिक अलाइंस पूरी दौलत दांव पर लगा देने पर भी उन्हें खरीद पाने में असफल रहा जिनकी गिनती से संसद में बहुमत तय होता है .माकपा ,भाकपा ,आर एस पी ,फारवर्ड ब्लाक के रूप में वामपंथ को कुल जमा ६२ सांसद प्राप्त हुए थे और वाम कि यह एतिहासिक उपस्थिति थी. वाम कि इस विजय ने ही एन डी ए को सत्ता से दूर रखने का महता कार्य किया था.यही वो असल कारण था कि आडवानी जी प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए और कांग्रेस जो १९९६ से २००४ तक सत्ताच्युत थी वो पुनः सत्तासीन होने में कामयाब हो गई. कांग्रेस के इस पुनर्जीवन में वाम कि भूमिका एतिहासिक रही थी. देश और दुनिया को यह तो याद रहा कि सोनिया गाँधी ने तत्कालीन जन-मानसिकता का सही मूल्यांकन करते हुए प्रधानमंत्री पद स्वयम न ग्रहण करते हुए सरदार मनमोहनसिंह को इस उत्तरदायित्व हेतु नामित किया था , किन्तु यह विस्मृत कर दिया गया कि इस सत्ता हस्तांतरण में वाम कि भूमिका कहाँ तक थी ? वामपंथ ने न केवल वाम का अपितु सपा ,बसपा , नायडू चौटाला और द्रुमुक इत्यादि का समर्थन भी यु पी ये प्रथम के पक्ष में जुटाने का प्रयास किया था ,लगभग गैर- एन डी ये- के ४०० सांसद तब सोनिया गाँधी ,स्व. हरकिशन सिंह सुरजीत एवं सरदार मनमोहन सिंह के साथ फोटो खिचवाना चाहते थे.
आजकल महंगाई पर विपक्ष और जनता का आक्रोश तो चरम पर है ही किन्तु सरकार के कुछ ईमानदार मंत्री तक इस भीषण महंगाई पर व्यथित हैं यु पी ये द्वितीय कि तरह ही यु पी ये प्रथम के दौरान या यों कहें कि उससे पूर्व एन डी ए के दौरान भी बेतहाशा महंगाई बढ़ती रही है, अर्थशास्त्रियों और विद्वानों ने इस विषय पर बड़े -बड़े ग्रन्थ लिखे हैं ,यह मुद्दा मांग ,आपूर्ती, क्रय-शक्ति , जनसंख्या ,उत्पादन ,वितरण और क़ानून एवं सुशासन इत्यादि से जुडा हुआ है, चूँकि इस आलेख कि विषय-वस्तू महंगाई नहीं है; अतः इसे अर्थशास्त्रियों के हवाले छोड़ते हुए मैं सिर्फ उस मुद्दे की पड़ताल करना चाहता हूँ कि वामपंथ ने किस आधार पर और वैज्ञानिकता कि किस कसौटी पर एन डी ए से ज्यादा यु पी ए को तवज्जो दी थी -२००४ में .ये भी मेरी उत्कंठा का विषय है की जब बंगाल , केरल , त्रिपुरा .की तीन वामपंथी सरकारों को सीधे-सीधे भाजपा से कोई खतरा नहीं अपितु कांग्रेस और उसके अलाइंस से ही था तो कांग्रेस की केंद्र में सरकार बनवाकर क्या हासिल किया ?
यु पी ए प्रथम की शानदार पारी के लिए सबसे अच्छी बेटिंग किसने की थी ? बिना सत्ता में शामिल हुए ही वामपंथ ने देश के गरीबों ,बेरोजगारों ,संगठित क्षेत्र के कामगारों ,असंगठित क्षेत्र के कामगारों को अनेक नेमतें बख्शी थीं .राष्ट्रीय {अब महात्मा गाँधी }ग्रामीण रोजगार योजना, खेतिहर किसानों ,भूमिहीन किसानों के लिए अन्यान्य योजनायें ,आधारभूत राष्ट्रीय संरचनाओं के लिए योजना आयोग से समर्थन ,केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रमों में विदेशी निवेश का रोका जाना ,केन्द्रीय प्रत्याभूत निगमों को देशी विदेशी निजी पूंजीपतियों के हाथों में जाने से रोकना, बीमार सार्वजानिक उपक्रमों को जीवन्तता प्रदान करना ,सरकारी क्षेत्र के बैंक ,बीमा ,दूर-संचार को बाजार गत स्पर्धा में बनाये रखना ताकि मूल्यों पर नियंत्रण बना रहे तथा और भी अनेक जन-हितैषी काम हैं जो वामपंथ ने देश हित में किये थे जैसे की देश को अमेरिकी खेमे में जाने से रोकना {विकिलीक्स के खुलासे में प्रकाश करात को अमेरिकी कूटनीतिज्ञों ने किस शब्द से नवाजा उसका उल्लेख भी सभ्यता के दायरे में नहीं आता }. ईराक ,ईरान ,अफगानिस्तान में भारतीय हितों के अनुरूप गुट निरपेक्ष विदेश नीति तथा भयानक अमेरिकी आर्थिक मंदी के चंगुल से देश को बचाना इत्यादि .
२८ जुलाई २००८ को एन डी ए के कुछ सांसदों को खरीदकर जब यु पी ए प्रथम ने अपना बहुमत जुटाया
और वामपंथ को मजबूरी में उसको बाहर से दिए गए समर्थन का उपहास किया , तो सत्ता के चारों पिल्लरों की ताकत के बल पर बहुमत साबित करने के मद में चूर नेता ने कहा - अब हमें वाम की जरुरत नहीं , अब हम टोका टोकी से मुक्त हैं ,अब हम आजाद हैं देश में निजीकरण ,उदारीकरण और ठेकाकरण के लिए; आर्थिक सुधार के नाम पर ,२-जी स्पेक्ट्रम घोटालों के लिए ;कामनवेल्थ घोटाले के लिए ,आदर्श सोसायटी घोटाले के लिए अब हम स्वतंत्र हैं अमरीका से वन टू थ्री एटमी करार {जो अभी भी फाइलों में धूल खा रहा है } करने के लिए .वगैरह ...वगैरह ..लेकिन यु पी ए का बाहर से समर्थन और वक्त-वक्त पर उसी के खिलाफ विभिन्न मुद्दों पर असहमति और आंदोलनों को देश के मीडिया ने गलत तरीके से पेश किया था .क्या यह सच नहीं कि वाम के निरंतर दबाव कि बदौलत ही यु पी ए प्रथम का चाल-चलन इतना ठीक ठाक माना गया कि देश की जनता ने उसे २००९ में यु पी ए द्वितीय के रूप में पुनः केद्रीय सत्ता में प्रतिष्ठित किया .लेकिन आज देश के हालत देखकर, महंगाई देखकर, देश के अंदर और बाहर चौतरफा संकट देखकर स्वयम चिदम्बरम और प्रणव मुखर्जी पस्त हैं .
लगता है कि यु पी ए प्रथम के समय उसे वामपंथ द्वारा दिए गए शक्तिवर्धक टोनिक्स का असर अब ख़त्म होने लगा है और धीरे-धीरे अलाइंस भी छिन्न भिन्न होने को है ,उधर आंध्र में सरकार अब गई कि तब गई .तेलांगना का अलग राज्य आन्दोलन ,देश में फैला नक्सलवाद ,आतंकवाद ,पडोसी राष्ट्रों कि बदमाशियां ,भयानक भुखमरी ,किसान आत्म-हत्या ,महंगाई और भृष्टाचार के रोजनामचों के बोझ तले दब चुकी सरकार को भाजपा और वामपंथ ने संसद में और संसद के बाहर बुरी तरह घेर रखा है ऐसे में भी इस यु पी ए द्वितीय का टिका रहना आश्चर्यजनक सत्य है .क्या देश नए सिरे से राजनैतिक ध्रुवीकरण के लिए तैयार है ?
श्रीराम तिवारी
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