कार्ल मार्क्स के 200वें जन्मदिन पर इस संगोष्ठी का आयोजन करके जनवादी लेखक संघ , मथुरा और जन सांस्कृतिक मंच मथुरा ने ऐतिहासिक काम किया है,मार्क्स का जन्मदिन मथुरा में मनाया जा रहा है यह अपने आप में सबसे महत्वपूर्ण बात है।यह कार्यक्रम इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि माकपा या जलेसं के केन्द्रीय संगठन अभी तक इस तरह के कार्यक्रम नहीं कर पाए हैं। मथुरा में इससे पहले कभी किसी वामदल या उससे जुड़े जनसंगठन ने भी मार्क्स का जन्मदिन नहीं मनाया।आप लोगों ने मुझे बुलाया इसके लिए मैं आप लोगों का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं।यह कार्यक्रम इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यहां अधिकांश उपस्थित लोग गैर-मार्क्सवादी हैं। मेरे लिए इस मौके पर बोलना बेहद कठिन और चुनौतीपूर्ण है।आपलोग सब मेरे गहरे मित्र हैं और आप मेरी पीड़ा जानते हैं। मेरे पिता की तीन दिन पहले ही मृत्यु हुई ,मैं उनके क्रिया-कर्म के दायित्वों में घिरा हुआ हूं, सामान्यतः मुखाग्नि देने के बाद घर से निकलने पर पाबंदी है।फिर भी मैं आपलोगों के प्रेम और लगाव के कारण इस कार्यक्रम को टाल नहीं पाया, साथियों ने कार्यक्रम स्थगित करने का सुझाव दिया था, हम सब श्मशान में मिले भी,पर,मैंने कहा कि कार्यक्रम स्थगित मत करो,मैं पूरी कोशिश करूंगा आने की,मेरा कहना यही था कि कार्यक्रम तयशुदा योजना के अनुरूप हो,मैं न आ पाऊं तो भी आपलोग मार्क्स पर बातें करें,आपलोगों ने मेरी बात रख ली और यह बहुत अच्छा किया, अशोक बंसल ने इस मौके पर एक छोटा वक्तव्य लिखित रूप में तैयार किया और उसे जलेसं के सचिव ने पढ़ा,यह वक्तव्य इसलिए महत्वपूर्ण है कि इसे एक गैर मार्क्सवादी ने तैयार किया।
गुरुवार, 22 जून 2023
कार्ल मार्क्स: उदारतावाद और राष्ट्रवाद
इस कार्यक्रम के बहाने मुझे अपने कष्ट से कुछ समय ध्यान हटाने का मौका मिला।
कार्ल मार्क्स पर बातें करते समय एक बात हमेशा ध्यान रखें ,उनके समूचे चिन्तन-मनन का परिवेश,उनके मित्रों का परिवेश लोकतान्त्रिक था, उनके ज्ञान के स्रोत का मूलाधार वे विचार हैं जो अपने जमाने के लोकतान्त्रिक विचार रहे हैं। मार्क्स ने सबसे ज्यादा सीखा गैर-साम्यवादियों से,कहने का आशय यह कि उदारतावादी सामाजिक परिवेश, उदारतावादी मित्रों और गैर-मार्क्सवादी ज्ञान परम्परा की उनकी विश्वदृष्टि के निर्माण में निर्णायक भूमिका है।
कार्ल मार्क्स पर विचार करते समय मार्क्स के नाम पर प्रचलित स्टीरियोटाइप धारणाओं और मार्क्सवादी कठमुल्लेपन से बचने की जरूरत है। मार्क्सवादी स्टीरियोटाइप बनाने में कम्युनिस्ट दलों और उनके तथाकथित मार्क्सवादी लेखन की केन्द्रीय भूमिका रही है। अधिकतर कम्युनिस्ट कार्यकर्ता मार्क्स की रचनाओं को नहीं पढ़ते, स्थिति यह है कि वे नाम तक नहीं जानते,वे कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य होने के नाते मार्क्सवादी होने का दावा पेश करते हैं।मैं आजतक यह समझने में असमर्थ रहा हूं कि कोई कॉमरेड बिना मार्क्स को पढ़े और समझे मार्क्सवादी कैसे हो सकता है! कहने का आशय यह कि मार्क्स पर बातें करते समय इस तरह के दलीय साम्यवादी रूढ़िवाद से बचने की जरूरत है क्योंकि इसका कार्ल मार्क्स के लेखन से कोई लेना देना नहीं है।कार्ल मार्क्स के लेखन की धुरी है विचारों की स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता,मार्क्स के विचारों का मूलाधार है मनुष्य। उल्लेखनीय है परंपरावादी लोगों के विचारों का मूलाधार धर्म और उससे निकला ईश्वर है,हेगेल के विचारों की धुरी राजसत्ता है,हेगेल ने राज्य से आरंभ किया और व्यक्ति को राज्य की विषयवस्तु बनाया। मैं साफतौर पर कहना चाहता हूं मार्क्स के विचारों का मूलाधार सर्वहारा नहीं बल्कि मनुष्य है। सर्वहारा का विचार तो उनके लेखन में बाद में दाखिल होता है,पेरिस जाने के बाद ही मार्क्स को सर्वहारा की दुर्दशा का ज्ञान हुआ। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि मार्क्स ने 'सकारात्मक मानवतावाद' पर मुख्य रूप से जोर दिया, वे स्वयं रेडीकल डेमोक्रेट थे। उनके जीवन के इस पहलू की अनदेखी की गयी और उनको कट्टर मार्क्सवादी-साम्यवादी बना दिया गया,यह काम किया साम्यवादी दलों ने।
कार्ल मार्क्स के विचारों के सर्जनात्मक विकास को हम अकादमिक जगत में सहज ही देख सकते हैं। खासकर गैर समाजवादी देशों के अकादमिक जगत की इस काम में महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
मार्क्स के लेखन का सर्जनात्मक विकास साम्यवादी दलों ने नहीं किया,उन लोगों ने तो मार्क्स को आस्था और पूजा की निर्जीव प्रतिमा बना दिया।मार्क्स पूजा की चीज नहीं है,ईश्वर नहीं है।(क्रमशः)
कार्ल मार्क्स के 200वें जन्मदिन पर जलेसं और जन सांस्कृतिक मंच , मथुरा की संगोष्ठी में दिया गया भाषण -
कार्ल मार्क्स: उदारतावाद और राष्ट्रवाद (२)
हम सब जानते हैं कि 18वीं सदी की औद्योगिक क्रांति के गर्भ से विखंडित और असंपूर्ण मनुष्य का जन्म हुआ।यह ऐसा मनुष्य है जिसके आंतरिक और बाह्य कलेवर को आधुनिक पूंजीवादी उत्पादन संबंधों और श्रम विभाजन ने बनाया।श्रम विभाजन, मशीनीकरण, शोषण और यूरोपीय व्यापारिक अनुभवों के परिवेश में जो मनुष्य जन्मा वह एकदम अकेला था।समाज और प्रकृति से अलग होकर जीना उसकी नियति थी।नयी संवृत्ति के रूप में 'अकेलेपन' और 'अलगाव' का जन्म हुआ और क्रमश: इन दोनों चीजों ने समूचे आधुनिक परिवेश को अपनी पकड़ में ले लिया।
नए परिवेश में आनंद का श्रम से अलगाव, साध्य का साधन से अलगाव पैदा हो गया।यहां तक कि साध्य और साधन के बीच अलगाव पैदा हो गया।
औद्योगिक क्रांति ने प्रत्येक पुरानी चीज के खिलाफ बगावत का भाव पैदा किया। सवाल यह है बगावत का भाव माल और वस्तु के भाव में कैसे रूपान्तरित हो गया ?नयी परिस्थितियों ने विखंडित मनुष्य को जन्म दिया।यही वह प्रस्थान बिंदु है जहां मार्क्स ने 'समग्र मनुष्य' की धारणा पेश की।
औद्योगिक क्रांति ने विखंडित मनुष्य और विखंडित परिवेश को जन्म दिया।जीवन में हर स्तर पर 'इकसार लय' पैदा की,यह लय नए को रचने में एकदम असमर्थ थी। इसमें सद्भाव पैदा करने की क्षमता नहीं थी। फलत:जीवन में विखंडन और इकसार छंद ने वर्चस्व स्थापित कर लिया। वहीं दूसरी ओर ' पूंजी की व्यापारिक स्प्रिट' और 'लालच' ने जीवन के हर क्षेत्र को अपनी गिरफ्त में ले लिया और हरेक को 'निजी संपत्ति' का गुलाम बना दिया। यही वह परिप्रेक्ष्य है जिसमें मार्क्स ने'समग्र मनुष्य' और 'क्रांतिकारी आशावाद' की धारणा पेश की।मार्क्स का मानना था 'अपूर्ण मनुष्य ' कभी भी समाज नहीं बदल सकता।
इस प्रसंग में क्रिस्टोफर कॉडवेल ने लिखा बुर्जुआ औद्योगिक सभ्यता के उदय ने समस्त प्राचीन ग्रामीण संबंधों को निष्ठुर अर्थमूलक संबंधों में रूपांतरित कर दिया। 'जहां तक अपने आधार में क्रांति लाने का प्रश्न है,बुर्जुआ वर्ग हर कदम पर क्रांतिकारी है ।' दिक्कत यही है कि इस बुनियादी बात को समझने में अन्य मार्क्सवादी असमर्थ रहे,यह धारणा मार्क्स की समझ से भिन्न है।
धर्मनिरपेक्षता और धर्म -
कार्ल मार्क्स के नजरिए से उदारतावाद और राष्ट्रवाद पर विचार करते हुए जो धारणा सेतु के रूप में नजर आती है वह है धर्मनिरपेक्षता, आधुनिक काल के आगमन के साथ जिस औद्योगिक क्रांति का जन्म हुआ उसके गर्भ से समाज की नई धर्मनिरपेक्ष संरचनाओं का जन्म हुआ, व्यक्ति,समाज, समुदाय और राष्ट्र के धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई। धर्म और राज्य के बीच संबंध विच्छेद हुआ।
परंपरागत समाजों में धर्म जीवन के हर क्षेत्र में छाया रहता है। मार्क्स ने धर्म के नजरिए से भिन्न मनुष्य को केन्द्र में रखकर जगत को परिभाषित किया। फ्रांसीसी राज्य क्रांति ने समानता, लोकतंत्र और बंधुत्व की धारणा दी , औद्योगिक क्रांति ने नए उत्पादन संबंधों और ने वर्ग के तौर पर पूंजीपति और मजदूर वर्ग को जन्म दिया,साथ ही प्रेस क्रांति हुई जिसने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संभव बनाया। इस समूची प्रक्रिया के गर्भ से धर्मनिरपेक्ष समाज का जन्म हुआ।
धर्मनिरपेक्षता आधुनिक युग का बुनियादी संस्कार और मूल्य है,जिन राजनीतिक -सामाजिक ताकतों को आधुनिक विकास, आधुनिक मूल्यों और लोकतंत्र से नफरत है वे सबसे पहले धर्मनिरपेक्षता पर हमले करते हैं। लोकतंत्र ,संवैधानिक व्यवस्था और संरचनाओं को अस्वीकार करते हैं।
विगत सौ साल में साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद और आतंकवाद ने धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र पर जमकर हमले किए ,अतीत के प्रेतों को जगाया। इस कार्य में समय-समय समय पर इन ताकतों को बाह्य शक्ति के तौर पर साम्राज्यवाद , बहुराष्ट्रीय कंपनियों और देशज स्तर पर सरकारों और कारपोरेट घरानों और अपराधी गिरोहों की मदद मिलती रही है,इन सबके अलावा मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग का बडा अंश और मीडिया इनके सामाजिक समर्थक की भूमिका निभाता रहा है।इस सबसे धर्मपेक्षता विरोधी ताकतों की राजनीतिक शक्ति में इजाफा हुआ है।
हम जिसे आजकल 'दंगे' कहते हैं,वह 18वीं सदी से शुरू होते हैं।ये हमारे समाज के धार्मिक -आर्थिक विभाजन की देन हैं।उसी दौर में आर्थिक भेदभाव को धार्मिक भेदभाव के साथ मिलाने की कोशिशें आरंभ हुईं। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि ब्रिटिश शासकों ने भारत को कभी 'राष्ट्र' के रूप में नहीं देखा।वे भारत को विभिन्न धार्मिक समूहों का देश मानते थे। इस काल्पनिक धारणा के आधार पर उन्होंने यह निष्कर्ष भी निकाला कि ये धर्म एक-दूसरे से परंपरागत द्वेष रखते हैं। ब्रिटिश परस्त विचारक यह भी मानते थे कि भारत हमेशा से धर्म के द्वारा विखंडित देश रहा है। यह अफसोस की बात है कि कांग्रेस भी यह मानती रही है कि भारत धार्मिक समूहों में बंटा हुआ देश है।इसके नेता हिन्दू-मुसलमानों को दो भिन्न पहचान में बांटकर देखते थे। कांग्रेस ने सन् 1889 के अपने चौथे अधिवेशन में यह प्रस्ताव पास किया कि हिन्दू और मुस्लिम संगठन यदि किसी विषय पर विरोध कर रहे हैं तो उस विषय पर कांग्रेस में चर्चा नहीं होगी। सन् 1916 में कांग्रेस ने हिंदू -मुसलमानों के दो अलग गुट बनाकर प्रतिनिधि मंडल भेजा, गांधी लगातार हिन्दू इडियम में बोलते थे। संक्षेप में कहें तो ब्रिटिश सामाजिक और धार्मिक नीति , कांग्रेस की शार्टकट साम्प्रदायिकता और असमान राजनीतिक चेतना के विकास ने ब्रिटिश युग में साम्प्रदायिक राजनीति को जन्म दिया। इसके ही गर्भ से भारत विभाजन की राजनीति का आरंभ हुआ और देश विभाजन हुआ।
भारत विभाजन और गांधी जी की हत्या के बाद धर्म और राजनीति के बीच संबंध विच्छेद की कोशिश नहीं की गई। कांग्रेस की यह नीति रही है कि धर्म भी रहे और राज्य के साथ उसके मधुर संबंध भी रहें। धर्म को निजी बनाने,राज्य को धर्म से अलग करने की कोशिश नहीं की गई। फलत: समाज में धर्मनिरपेक्षता रही और धार्मिक समूह और साम्प्रदायिकता भी बनी रही।धर्म के परंपरागत अधिकार और दायरे बने रहे। संविधान ने विभिन्न रूपों में धार्मिक कानूनों के जरिए धर्म के संरक्षण का काम किया। बहुधार्मिकता को संविधान सम्मत मान लिया गया। संविधान की नजर में सर्वधर्म समभाव बना रहा,साथ ही साम्प्रदायिक दलों और संगठनों को भी खुलकर काम करने की अनुमति दे दी गयी,उन पर पाबंदी नहीं लगाई गई, जिसके कारण देश में साम्प्रदायिक संगठनों को अपना व्यापक जनाधार बनाने में मदद मिली।
सन् 1948 में संविधान सभा में यह प्रस्ताव पास किया गया कि साम्प्रदायिक संगठनों और राजनीतिक दलों पर पाबंदी लगायी जाएगी, लेकिन इसे लागू नहीं किया गया। 'गऊ हत्या' पर पाबंदी लगायी गयी, लेकिन धार्मिक अतिवादी तत्वों पर पाबंदी नहीं लगाई गई। हिंदू पर्सनल लॉ में परिवर्तन हुआ लेकिन अन्य धर्मों को छोड़ दिया गया।
आज कल स्थितियां पहले की तुलना में ज्यादा जटिल हैं। साम्प्रदायिक संगठनों की गतिविधियां चरम पर हैं, प्रशासन के विभिन्न स्तरों पर उनका कब्जा है। मोदी सरकार आने के बाद से 'प्रशासन के भय और साम्प्रदायिक आतंक' की शुरुआत हुई है।
इन दिनों हर व्यक्ति अपने को आरएसएस और उसके संगठनों से घिरा हुआ महसूस कर रहा है।आज आरएसएस की विचारधारा नियोजित ढंग से हरेक के विचारों में दाखिल हो गयी है। उन्होंने साइबर सेना और टीवी न्यूज चैनलों के जरिए अपना व्यापक जनाधार बना लिया है। आरएसएस की राजनीति का मूलमंत्र है आम नागरिक में,खासकर अल्पसंख्यकों में भय की अनुभूति पैदा करो। जो उनका विरोध करते हैं उनको 'दगाबाज' और 'राष्ट्रद्रोही' घोषित करो। उनका मानना है " हम वहां नहीं हैं , लेकिन हम आप में ही हैं।" इस रणनीति का लक्ष्य है मन और शरीर से नागरिकों को बंदी बनाना।समाज में हर स्तर पर भय के वातावरण की सृष्टि करना। इसके बाद वे समाज में "कब्जा" जमाने की कोशिश करते हैं। इसे "फेसलेस आतंकवाद" कहते हैं। भय के माहौल में संघी 'पेशेवर' लोग वैचारिक हमले करते हैं। साथ ही भाजपा सरकारें ऐसी नीति लागू कर रही हैं जिनसे भय पैदा हो रहा है।यह कहा जा रहा है कि वे जो कुछ कर रहे हैं उसका लक्ष्य है देश को सुरक्षा प्रदान करना। जबकि देश और समाज की सुरक्षा से इसका कोई संबंध नहीं है।
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