कुछ पुराने मित्रों ने मेरी एक पोस्ट पर फेसबुक पर कोई प्रतिक्रिया न देते हुए व्यक्तिगत मुलाकात में बहुत महत्वपूर्ण सवाल उठाया है:-
"कि आप पंडित हैं या वामपंथी?"
मेरा निवेदन है कि मैं जन्म से और कर्म से पंडित ही हूँ,इस पर मेरा कोई कसूर नही! इसे विशुद्ध वंशानुगत सौभाग्य कहा जा सकता है!
चूंकि मैने गरीबी मुफलिशी देखी है,संघर्ष किया है और अब मार्क्सवाद के मूल सिद्धांतों पर मुझे पक्का यकीन है! चूंकि कमजोर वर्ग मेहनतकश मजदूर किसान संगठित होकर अपने हितों की रक्षा कर सकता है! इसलिये मैं मजदूरों किसानों के लिये सतत संघर्ष करने वाले *वामपंथ* के साथ हो लिया,क्या यह मेरा गुनाह है?
हम विगत 45 साल तक मजदूर किसान के पक्ष में खड़े होकर शोषण की ताकतों से लड़ते आ रहे हैं! किंतु भारत में गरीब और ज्यादा गरीब हुआ है और अमीर और ज्यादा अमीर! आजादी के बाद जनाधार के मामले में भारत में कांग्रेस नंबर वन और कम्युनिस्ट नंबर दो पर थे! 50 साल लगातार संघर्ष करने के बाद परिणाम यह रहा कि सिर्फ केरल में सरकार बची है! किंतु भारत की संसद में आधा दर्जन वामपंथी सांसद भी नही हैं! मैने इस पराभव का आकलन किया है।
वैसे तो हम हर जायज संघर्ष में मजूरों और किसानों के साथ हैं,किंतु 70 साल की उम्र में क्रानिक बीमारी के चलते मैं परोक्ष रूप से जन आंदोलनों में नही पहुंच पा रहा हूँ! मेरी पत्नी भी विगत 5 साल से आक्सीजन सपोर्ट पर निर्भर है,इसीलिए जन आंदोलनों में अपेक्षित सहयोग नही कर पा रहा हूँ!
हमें हमारी संसदीय ताकत के बरक्स यह भी याद रखना चाहिये कि मार्क्सवादी दर्शन किसी भी तरह की गुलामी नहीं सिखाता ! हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि हम कांग्रेस या क्षेत्रीय दलों के देश हित में सार्थक सहयोगी बने,किंतु कट्टरपंथी हिदुओं के साथ साथ इस्लामिक साम्प्रदायिक धर्मांधों का भी विरोध करें! शांतिप्रिय बहुसंख्यक हिंदुओं से पंगा लेकर वोट की खातिर आतंकियों की आलोचना न करके हम भारत में साम्यवाद नही ला सकते!
भाजपा के खिलाफ विपक्षी गठबंधन के लिये, कहीं हम अपनी विचारधारा ही न भूल जाएं या किसी राजनैतिक पार्टी के अंधभक्त न बन जाएं! वरना सुसभ्य वामपंथियों,असभ्य बर्बर हिंसक दकियानूसी तबलिगियों में फर्क क्या रह जाएगा?
वेशक मार्क्सवाद स्वतंत्रता समानता बंधुता का अलमवरदार है,किंतु जो लोग शोषित पीड़ित नही हैं, किंतु मानवता और नैतिकता के कारण वामपंथ के साथ हैं,तो आप उनकी सदाशयता या वंशानुगत मूल्यों पर सवाल नही उठा सकते !
उदाहरण के लिये वामपंथ से मेरा कोई स्वार्थ सिद्ध नही होने वाला,किंतु फिर भी हम उसके सहयोगी हैं! हम पर किसी का कोई ऐहसान नही है!वामपंथ का भी नही और ईश्वर का भी नही! ईश्वर का यों नही कि बिना कर्म किये वह किसी को कुछ दे ही नही सकता! वामपंथ का यों नही कि देशमें अब तक न तो पूंजीवाद कमजोर हुआ और न साम्यवाद की संभावनाएं द्रष्टिगोचरित हुईं हैं?
सर्वहारा क्रांति तो अब इतिहास की वस्तु रह गई है! ऐंसे हालात में कुछ मंदमति स्वनामधन्य अपढ़ कुपढ़ वामपंथी केवल धर्म जाति मजहब के घूरे पर फूँक मारते रहेंगे।भारतीय आध्यात्मिक दर्शन और सभी धर्म मजहब की सच्चाईयों को ठीक से जाने बिना ऐंसे दुर्मति वामपंथी अपना थोथा मखौल उड़वाकर जनता के बीच वामपंथ और मार्क्सवादी दर्शन को बदनाम करते रहते हैं!
दरसल मार्क्सवाद एक सर्वोत्क्रष्ट दर्शन है, किंतु भारत की जनता को वह समझ में नही आ पा रहा है! इसकी वजह हम वामपंथियों का ग्राम्सी के अनुसार "अपनी सांस्कृतिक सामाजिक नैतिक पहचान से विलग होना है"। तमाम वामपंथी कार्यकर्ता भारतीय दर्शन और संस्कृति के बारे में आधा अधूरा ज्ञान भी नही रखते। यही कारण है कि बंगाल में 40 साल तक वामपंथ का प्रभुत्व तो रहा ,किंतु आज वहाँ की विधानसभा में एक भी वामपंथी नही है!
जो असली और ईमानदार वामपंथी बच रहे हैं वे इंसाफ की लड़ाई आज भी लड़ रहे हैं ! किंतु जो नकली थे वे सब त्रणमूली ममता के पैर धोकर पी रहे हैं! भारत के सभी वामपंथी दल वोट के लिए विदेशी घुसपैठियों को सहन कर रहे हैं! किंतु चुनाव आने पर यही बांग्लादेशी, यही म्यामांर के रोहंगिया वामपंथ को ठुकराकर कांग्रेस को ठुकराकर ममता को वोट देते हैं!इन हालात में विचारशील और विवेकी साम्यवादियों का कर्तव्य है कि अपनी आत्मालोचना करें और भारतीय दर्शन का सांगोपांग अध्यन करें!
जो शोषण,अन्याय उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाते हैं,संघर्ष करते हैं,जो वैज्ञानिक वर्ग चेतना से लैश हैं,जो खुद की आलोचना करने की क्षमता रखते हैं,उन्हें ही मानव इतिहास में *क्रांतिकारी* कहा जाता है!टुकड़े टुकड़े गेंग वाले, कांग्रेस, लालू,अखिलेश,डीएमके के साथ देने वाले क्रांतिकारी नही हो सकते!
लाल सलाम
श्रीराम तिवारी
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