रविवार, 29 जनवरी 2017

इतिहास का तार्किक विहंगावलोकन जरुरी है

पश्चिम के भौतिकतावादी वैज्ञानिक आविष्कार,यूरोपियन रेनेसाँ ,पूँजीवादी क्रांति ,मैग्नाकार्टा का विकास ,यूरोपीय जहाजियों द्वारा 'नई दुनिया 'की खोज ,अमेरिकी गृह युध्द और क्रांति,फ्रांसीसी क्रांति ,सोवियत क्रांति,चीनी क्रांति , भारतीय स्वाधीनता संग्राम और दक्षिण अफ्रीकी मुक्ति संग्राम इत्यादि घटनाओंके उपरान्त सारे सभ्य संसारने यह जाना कि मानव सभ्यताओं के अतीत का सम्पूर्ण इतिहास बर्बर शासकोंकी अय्यासी और बर्बर कबीलाई युद्धोंका इतिहास रहा है। ताकतवर मनुष्य द्वारा मेहनतकश जनता  के उत्पीड़नों और धरती की सम्पदा को लूटनेका खूनी इतिहास रहा है। लेकिन दुनिया की उपरोक्त महान क्रांतियों ने ही सारे संसारको एक वैज्ञानिक दृष्टि प्रदान की है। इस वैज्ञानिक नजरियेसे समाज,राष्ट्र और राजनीतिके अलावा इतिहास का विहंगावलोकन करने वाले अध्येता को 'मार्क्सवादी' इतिहासकार कहते हैं। जो लोग पोंगापंथी-पुराणपंथी हैं,गप्पबाज हैं,कनबतिए हैं ,अंदाजमारु कोरे लिख्खाड़ हैं ,उन्हें दक्षिणपंथी -प्रतिक्रियावादी -संकीर्णतावादी गपोड़ी कहते हैं.! 

फिल्म निर्माता संजय भंसाली की हिंदी फिल्म 'पद्मावती' के बहाने भारतीय सामंतयुग के इतिहास बनाम मिथ पर जो विवाद उठा है इससे भारत के आम आदमी को या देश के किसान-मजदूर को कुछ भी लेना -देना नहीं है। पूँजीपतियों ,नवधनाढ्यों,नशेड़ियों,अफीमचियों,मिलावटियों ,रिश्वतखोरों को भी इससे कुछ लेना देना नहीं है। सवा सौ करोड़ आबादी में से सौ-पचास कर्णी सेना वाले ,दस-बीस फिल्म एक्टर, दो-चार इतिहासकार और दस-बीस फेसबुकिये ही चोंचलेबाजी कर रहे हैं। इस अप्रिय विमर्शमें सबसे महवत्वपूर्ण तथ्य यह है कि फिल्म जगतके कुछ लालची लेखक,निर्माता और कलाकार सांस्कृतिक भयादोहन कर रुपया कमाने में जुटे हैं। वे अपने स्वार्थ के लिए इतिहास एवम मिथक के साथ अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर घालमेल कर रहे हैं। हालाँकि उनके इस कूट कदाचरण पर नियंत्रण के लिए देश में सेंसर बोर्ड है ,अदालतें हैं। किन्तु यह नितांत अशोभनीय और असंवैधानिक कृत्य है कि कभी शिवसेना ,कभी कर्णी सेना ,कभी रामसेना और कभी बजरंग सेना -देशभक्ति या संस्कृति रक्षा के बहाने कानून तोड़ने पर आमादा हो जाते हैं। यदि ये सेनाएं ही भारत भाग्य विधाता हैं ,तो भारतका संविधान , न्याय पालिका,संसद ,सरकार और देश की 'असली सेना' किस लिए है ? वैसे भी गुलामी के इतिहास पर चर्चा करना,गड़े मुर्दे उखाड़ना और समाज के घावों को कुरेदने जैसा है !

इतिहासकार नजफ़ हैदर का यह कथन उचित है कि संजय भंसाली यदि बाकई ऐतिहासिक फिल्म बना रहे हैं तो उसमें मिथक का इस्तेमाल क्यों कर रहेहैं ? और यदि वे मिथकीय फिल्म बना रहे हैं तो उसमें इतिहास क्यों घुसेड़ रहे हैं ? भारतीय समाजों के इतिहास अथवा मिथकों का अपने धंधे के लिए फिल्म वाले इस्तेमाल करेंगे तो द्वंद का होना स्वाभाविक है। जो लोग इन धंधेबाजोंके पक्षमें दलीलें दे रहेहैं वे इतिहासकार नहीं भड़भूँजे हैं। और जो लोग अस्मिता या सांस्कृतिक गौरव के नाम पर कानून को अपने हाथ में ले रहे हैं वे संकृति के रक्षक नहीं भक्षक हैं।   

जब कभी किसी गैर इस्लामिक भारतीय को लगता है कि अतीत में उनके पूर्वजों के साथ अन्याय हुआ ,उनकी सभ्यता और संस्कृति के साथ  घोर अत्याचार हुआ,उनकी धार्मिक आस्था और श्रद्धाको लतियाया गया,तो इसमें गलत क्या है ? कोई लाख इंकार करे किन्तु आठवीं शताब्दी से लेकर पंद्रह अगस्त १९४७ तक  पूरे २०० साल की असल तस्वीर यही है ! इसके प्रमाण भारत के कोने-कोने में बिखरे पड़े हैं।लेकिन यह भी कटु सत्य है कि इस्लाम के आगमन से पूर्व का भारत सिर्फ दूध घी में स्नान नही करता रहा ,बल्कि निरन्तर रक्तस्नान भी जारी रहाहै।आर्य परंपरा का अश्वमेध,नरमेध, वाजपेय,राजसूय और चक्रवर्ती सम्राट के निमित्त जो युद्ध हुए उनमें इस्लाम की कोई भूमिका नहीं रही। ये तमाम यज्ञ तभी सम्पन्न हो पातेथे जब 'आर्यपुत्र'करोड़ों को मारकर दिग्विजयी हुआ करते थे। कोई महामूर्ख ही इससे इंकार करेगा कि कुरुक्षेत्र के मैदान में 'नरसंहार'नहीं हुआ था।यह महाभारत का युद्ध तो भाई-भाई के बीच खुद 'ईश्वर'की मौजूदगी में हुआ था।जो इसे मिथ कहता है वह महामूर्ख है और जो इसे ईश्वरीय लीला कहता है, उसे यह स्वीकार करना पड़ेगा  कि इस्लामिक आक्रमण भी 'ईश्वर' याने 'अल्लाह' की लीलासे ही  सम्पन्न होते रहे हैं। अहिंसा की दीक्षा लेने से पहले शुरुआत में चण्ड अशोक जैसे बौद्धों ने वैदिकों को मारा था। शंकराचार्य के शिष्य राजाओं ने भी बौद्धों-जैनों और कापालिकों का संहार किया। कोई भी दूध का धुला नहीं है !इसीलिये अतीत की घृणास्पद यादों की दावाग्नि में धधकने से किसी को कुछ भी हासिल नहीं होने वाला।   

आर्थिक,सामाजिक, राजनैतिक,सांस्कृतिक,ऐतिहासिक,धर्म-मजहब और अंतरराष्टीय सवालों पर हर देशकी हर कौम की तथा हर व्यक्ति की अपनी-अपनी अलग-अलग राय हुआ करती है। जिस तरह संगीत में अलग-अलग सुर होते हैं ,जिस तरह काव्यमें अलग-अलग रस होते हैं ,उसी तरह जन सरोकारों पर और मौजूदा सवालों पर भी भिन्न-भिन्न लोगों की राय भिन्न-भिन्न हुआ करती है। यदि किसी व्यक्ति को वेदों का ज्ञान नहीं है,यदि उसे अभिरुचि या जिज्ञासा है तो वह किसी वेदपाठी विद्वान से वैदिक ज्ञान हासिल कर लेता है। यदि किसी को कुरआन का ज्ञान चाहिए तो किसी मौलवीसे सीख सकता है। किसीको बाइबिल का ज्ञान चाहिए तो चर्च के फादरसे सीख सकताहै। इसी तरह यदि किसीको इतिहास का ज्ञान चाहिए तो वह किसी इतिहासकार से- इतिहास की प्रामाणिक पुस्तकों से  ज्ञानार्जन कर सकता है। वेदपाठी विद्वान,मौलवी,फादर, इतिहासकार का नजरिया यदि प्रगतिशील है तो सोने में सुहागा। प्रगतिशील से तात्यपर्य यथार्थ और प्रामाणिक सोच वाले और विषय में  निष्णान्त व्यक्ति से है।विद्वान लेखक -साहित्यकार को देश काल परिस्थिति के अनुसार विषय वस्तु की महत्ता का भान होना भी जरुरी है। तभी वह सही सीख दे पायेगा। वर्ना  सिखाने वाला ही यदि अधकचरा ,अपरिपक्व, पक्षपाती और गुरु घंटाल है तो वह यथार्थ ज्ञान नहीं दे पायेगा। किसी व्यक्ति , विचारधारा,धर्म-मजहब,राजनीति और इतिहास की व्याख्या के तीन नजरिये हैं। पहला  कट्टरपंथी प्रतिक्रियावादी ,दूसरा  विज्ञानवादी यथार्थवादी ,तीसरा है स्वार्थपूर्ण और पक्षपाती ।

२१वीं शताब्दी की दुनिया में कट्टरपंथी प्रतिक्रयावादी प्रायः हर तरफ हावी हैं! इस्लामिक कट्टरपंथियों से प्रभावित भारतीय युवा भी दकियानूसी मान्यताओं या काल्पनिक घटनाओं को इतिहास मान लेत हैं ,वे पुराण और इतिहास में फर्क करने की जहमत नहीं उठाते। उच्च शिक्षित और तकनीकी दक्षता प्राप्त भारतीय भी मिथ और यथार्थ का फर्क नहीं समझते !इसलिए जब कोई फिल्म निर्माता ,लेखक ,साहित्यकार या इतिहासकार कोई स्थापना प्रस्तुत करता है तो भूचाल आ जाता है। तब तिल का ताड़ हो जाता है। धजीका सांप हो जाता है। पाखका परेवा हो जाता है। संजय भंसाली की फिल्म 'अलाउद्दीन' के सेट पर  यही सब कुछ हुआ। इस मुद्दे पर मुद्दई और मुद्दालेह दोनों पक्ष की ओर से चूक हुई है।

कर्णी सेना ने बिना फिल्म देखे , सिर्फ एक सीन को देखकर  ही मान लिया लिया कि उनके गौरवशाली इतिहास के साथ खिलवाड़ हो रही है। बिना ठोस सबूत के वे हाथापाई पर उतर आये!भंसाली भी पूर्णतः निर्दोष नहीं कहे जा सकते। क्योंकि जब सेट पर धींगा मस्ती हुई तब उन्होंने यह स्पष्टीकरण नहीं दिया कि कथित फिल्म में रानी पदमिनी को अलाउद्दीन खिलजी की प्रेमिका नहीं बताया जा रहा है। यह खुलासा उसने मुम्बई जाकर घटना के दो दिन बाद किया। मतलब साफ़ है, कुछ तो गड़बड़ थी ,जिसे दुरुस्त किया गया !इतिहास के बारे में कर्णी सेना औरसंजय भंसाली दोनोंका नजरिया दोषपूर्ण है। पद्मावती फिल्मकी झूमाझटकी वाली घटनामें दोनों गलतीपर हैं।

अलाउद्दीन -पद्मावती सन्दर्भ में हम सभी हिंदी भाषियों को बचपन से सिर्फ एक ही इतिहास पढ़ाया गया है कि मेवाड़ के राणा रतनसेन की रानी पदमिनी अनिद्य सुंदरी थी। वेशक यह मिथ है कि जब वह पान का बीड़ा खाती थी तो उसके गले की लालिमा बाहर झलकती थी। यह पद्मावत के रचयिता  'जायसी' का सौंदर्य उपमान है। काव्य में रसिकता और सौंदर्य बोध ,शब्द चमत्कार कोई वर्जित तत्व नहीं है। जब अलाउद्दीन खिलजी की सेना ने मेवाड़ को घेर लिया और युद्ध में राणा रतनसेन मारे गए तब रानी पद्मावती ने सैकड़ों महिलाओं के साथ 'जौहर' किया। सामंतकालीन हिंदुओं में खास तौर से ब्राह्मण और क्षत्रियों में सती प्रथा का चलन था और जौहर भी सती प्रथा का उच्चतम सोपान था।आमतौर पर यह ऐच्छिक हीथा। इसमें जलना-मरना उतना महत्वपूर्ण नहीं था ,जितनाकि यह महत्वपूर्ण था कि ''जीते जी दुश्मन के हाथ नहीं लगना है ''! जौहर की प्रथा का प्रचलन  सिर्फरनिवास तक सीमित नहीं था। यह क्षत्रिय योद्धाओं पर भी लागू था! लेकिन यह जरुरी नहीं था, कि आगमें जलकर ही मर मिटना है।

'हाड़ौती' की हाड़ी रानी की तरह अनेक क्षत्रिय युवाओं और राजकुमारियों ने उस कठिन दौर में अपने शीश खुद ही काटकर महाकाल को समर्पित किये हैं. इस अत्यंत अमानवीय और मार्मिक इतिहास को सही रूप में समझने और उसकी वजह जानने के बजाय कर्णी सेना वाले संजय भंसाली पर कुपित हो रहे हैं। जबकि भंसाली जैसे लोग रुपया कमाने की जुगाड़ में लगे हैं। जड़मति स्वयम्भू इतिहासकार सामंतयुग की  मार्मिक सच्चाईयों का वैज्ञानिक विश्लेषण करने के बजाय उस सामूहिक मौत को भी मिथ बता रहे हैं जो अटल सत्य है। इरफ़ान हबीब जैसे लोगों का वश चलेगा तो एक दिन शंकराचार्य की तरह इस जगत को ही मिथ्याघोषित कर देंगे। मलिक मुहम्मदजायसी के पद्मावत को मिथ मानने वाले सही हैं या भंसाली की पटकथा को इतिहास मानने वाले सही हैं ,इसका फैसला तूँ -तूँ मैं-मैं से नहीं हो सकता। वास्तविक और सच्चा इतिहास देश काल और सत्ता सापेक्ष होता है. इसलिए इतिहास की वैज्ञानिक नजरिये से अकादमिक पड़ताल की जानी चाहिए। संजय भंसाली को अपनी फिल्म की चिंता है। प्रो, इरफ़ान हबीबको सच्चे इतिहास की चिंता है ,कर्णी सेनाको अस्मिता की चिंता है ,इधर संघ और मोदी सरकारको अम्बानियों -अडानियों की चिंता है। देश के बदतर हालात गरीबी - भुखमरी वेकारी और जनता की फ़िक्र जिन्हें होनी चाहिए वे प्रगतिशील वामपंथी साहित्यकार मिथ,इतिहास और फिल्म वालों की चिंता में दुबले हो रहे हैं।

पार्वतीजी अपने पिता दक्ष के हवन कुंडमें जाकर सती हुईं या नहीं , सीताजी की अग्नि परीक्षा हुई या नहीं हुई ?  रानी पदमिनी थी या नहीं थी ,उसने जौहर किया या नहीं किया ,इससे सर्वहारा क्रांति का क्या लेना देना। दास केपिटल,कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो पढ़ते-पढ़ते हम बूढ़े हो चले, किन्तु मार्क्स,लेनिन,स्टालिन ,ने कहीं नहीं लिखा कि उनके राष्ट्रों के अतीत के राजा-रानी के रीति रिवाज मिथ थेऔर वे कैसे मरे ?उन्होंने किसी को मिथ नहीं कहा। उन्होंने यह भी नहीं लिखा कि सर्वहारा क्रांति के लिए इतिहास के खण्डहरों में भटकते फिरो। मार्क्स का कहना तो स्पस्ट है कि जो शक्तिशाली समाज है ,जो शक्तिशाली दवंग व्यक्ति है उससे निर्बल -कमजोर का शोषण नहीं होना चाहिए।  सभी को समान न्याय और जीने का अधिकार मिलना चाहिए। कहने को तो ये सब बातें धर्म शास्त्रों में भी लिखीं हैं किन्तु मानव इतिहास में सिर्फ कार्ल मार्क्स ने दुनिया को बताया कि  इस खराब सिस्टम को

    जब कोई भी इतिहासकार कहता है कि श्रीराम ,लक्ष्मण ,हनुमान, कृष्ण बलराम अर्जुन तो मिथ हैं , १२ वीं सदी के आल्हा उदल मिथ हैं , १५वीं सदी के राजपूताने की जौहरवती रानी  पद्मावती या पदमिनी मिथ हैं ,तो इसके दो ही मायने हो सकते हैं। एक तो यह कि वह नितान्त जड़मति मूर्ख नकलपट्टी करके इतिहास का प्रोफेसर बना होगा। दूसरा कारण यह हो सकता है कि उस इतिहासकार के मन में हिन्दू प्रतीकों और हिन्दू सभ्यता संस्कृति के प्रति अगाध घृणा भरी होगी। जो व्यक्ति सच्चा प्रगतिशील -सच्चा धर्मनिरपेक्ष होगा, वह कभी भी कल्पना अथवा झूँठ का सहारा नहीं लेगा। इतिहास का ककहरा जानने वाला भी जानता है कि हर दौर में आक्रान्ताओं ने अपने पक्ष का इतिहास लिखवायाहै।जो व्यक्ति यह मानताहै कि इब्ने बतूता ,अलबरूनी ,बाबर,हुमायूँ ,अबुलफजल, जहांगीर  रोशनआरा ने जो कुछ लिखा वो सब सच है। तो उस व्यक्ति को यह भी मानना होगा कि यह सच केवल उनका था जिन्होंने लिखा है। भारत का असल इतिहास न तो अंग्रेजों को मालूम पड़ा और न अब तक तो साइंस को ही मालूम हुआ । इसलिए जिन्हें मिथ कह दिया गया है उन  किवदंतियों,लोकगाथाओं और रीती रिवाजों की पड़ताल से ही विजित याने हारे हुए गुलाम समाजों का असल इतिहास जाना जा सकता है।अभीतो ये आलमहै कि हरकोई दक्षिणपंथी -वामपंथी विद्वान इतिहास का मीठा -मीठा गप कड़वा-कडवा थू किये जा रहा है !

दुनिया के इतिहास में यही दस्तूर रहा है कि  विजेता हमलावरों ने पराजित और गुलाम समाजों के प्रतीकों को बार-बार ध्वस्त किया है। जो लोग यह भूलकर इतिहास की मनमानी व्याख्या करते हैं वे  बहुत हद तक गिर चुके हैं। हम यदि अलाउददीन खिलजीको इतिहास पुरुष और पद्मावती को उसकी प्रियतमा मान लें तो वे इसे फौरन इतिहास मानलेंगे । किन्तु जब  कहा जाएगा कि अलाउद्दीन खिलजी एक अय्यास किस्मका अहमक सुलतान था, जिसने अपने पालनहार सगे चाचा जलालुद्दीन खिलजी को धोखे से मार डाला और जिसकी नियत रानी पद्मिनी के प्रति ठीक नही थी तो तुरन्त वीटो हाजिर है कि ये तो 'मिथ' है! जो बाकई सो रहा है उसे जगाया जा सकताहै किन्तु जो सोने का बहाना कर रहा है, उसे जगाना मुश्किल है। हालांकि मैं उसे भी जगा सकता हूँ, लेकिन हिंसक होना पडेगा  याने एक जोरदार लात मारनी पड़ेगी।

यदि किसी मूर्खानंद को पद्मिनी ,आल्हा- उदल मिथ दीखते हैं तो इन मिथकों के  निकटतम रिश्तेदार पृथ्वीराज चौहान ,जयचन्द ,परिमर्दन देव भी मिथ ही मानने होंगे।तब इन्हें हराने वाले - मुहम्मद गौरी, गजनी ,इल्तुतमिश, रजिया सुलतान, कुतुबुददीन ऐबक,घोर सनकी सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक भी मिथ ही होंगे ! और तब तो जैजाक्भुक्ति के चन्देल राजाओं का समग्र इतिहास मिथ ही होगा। कालिंजर का किला , खजुराहो के विश्व विख्यात मन्दिर,चन्देरी -महोबा के किले ,ओरछा के 'रामराजा'  मिथ ही होंगे ! तब तो बुंदेला वीरसिंह देव उनका वह बेटा जुझारसिंह जिसने जहांगीर के कहने पर अबुलफजल को कुत्ते की मौत मारा था ,मिथ ही होंगे ! यदि ये सब मिथ है ,तब  जुझारसिंह के अनुज हरदौल बुंदेला भी मिथ ही होंगे। तब बुन्देलखण्ड भी मिथ ही होगा! तब छत्रसाल , कविवर भूषण,पेशवा बाजीराव और पानीपत का युद्ध ये सब मिथ ही होंगे । भारत के सच्चे इतिहास को बार-बार मिथ बताने वाला यदि अंग्रेज इतिहासकार है ,तो यह उसकी साम्राज्यवादी बाध्यता है , यदि कोई कट्टरपंथी ईसाई या मुस्लिम इतिहासकार यह मिथवाद झाड़ता है तो यह उसकी मजहबी मजबूरी हो सकती है। लेकिन यदि कोई विख्यात वामपंथी प्रगतिशील प्रोफेसर - इतिहासकार इन सबको मिथ कहता है तो मुझे कहना पडेगा कि उसके मन में चोर है। वह भारतीय गंगा जमुनी तहजीव की जड़ों में और वामपंथ की जड़ों में भी मठठा डाल रहा है। उनके इस आचरण के चलते भारत में वामपंथ का विकास बहुत कठिन है। बंगाल में भी ऐंसे ही अहमक लोगों ने वामपंथ को कमजोर किया है। जिस तरह दक्षिणपंथी कट्टरपंथी इतिहासकार घोर संकीर्णतावादसे ग्रस्त हैं उसी तरह कुछ प्रगतिशील इतिहासकार भी भारतीय अतीतको यथार्थवादी वैज्ञानिक नजरिये से नहीं देख पा रहे हैं।

यदि संजय लीला भंसाली यथार्थ पर आधारित कलात्मक फिल्म बनाता अथवा शुद्ध मनोरंजनीय फिल्म बनाता, और यदि वह पैसा कमाने की अनलिमिटेड टुच्ची भूंख से ग्रस्त नहीं होता तो कर्णी सेना के द्वारा किये गए दवंग प्रतिवाद के खिलाफ सारा देश खड़ा हो जाता।सारा प्रवुद्ध वर्ग भंसाली के अधिकारों की पैरवी करता। यदि मुझे यकीन होताकि संजय भंसालीने शाहरुख़ खान ,सलमान खानकी तरह अपनी फिल्म की स्क्रिप्ट को जानबूझकर विवादास्पद नहीं बनाया है,यदि मुझे यकीन होता कि संजय लीला भंसाली ने राजपूतों के इतिहास से रंचमात्र भी छेड़छाड़ नहीं की है ,यदि मुझे यकीन होता कि भंसालीने ,राजपूतों की कर्णी सेना को जानबूझकर नहीं उकसाया है ,यदि मुझे मालूम होता कि मार-कुटाई की यह घटना फ़िल्मी  'टोटका'नहीं है ,तो देश के तमाम कलाप्रेमियों की तरह मैं भी उसकी अभिव्यक्तिकी स्वतन्त्रता का पक्षधर होता।लेकिन मैं पूरे यकीन से कह सकता हूँ  कि कर्णी सेना तो सिर्फ कानूनी तौर पर ही गलत है,किन्तु भंसाली ने पैसा कमाने के लिए अलाउददीन को हीरो और अपनी मातृतुल्य रानी 'पद्मिनी' को उसकी रखेल सावित करने की कोशिश की है। भंसाली का यह अक्षम्य अपराध है।

आजादी के ७० वर्षों में भारतीय फिल्म इंडस्ट्रीज ने अंडर वर्ल्ड का सहारा लेकर जितना भृष्टाचार फैलाया है, जितना  सामाजिक प्रदूषण फैलाया है ,जितना उन्मुक्त सेक्स परोसा है ,जितना नारी देह का व्यापार किया है वह संसार में अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा। कई फ़िल्म निर्माताओं,वितरकों और  हीरो- हीरोइनों ने अपने देश के साथ  विश्वासघात किया है। उत्तर-आधुनिक बाजारीकरण और नव्य उदारीकरण के कुटिल दौर में दिग्गज फिल्मवाले अब नफा कमाने के लिए इतिहास को मिथ बनाने पर तुलेहैं , वे भारतीय उदात्त चरित्रों का मजाक उड़ा रहे हैं ! वेशक  फिल्म निर्माता यदि सही हैं तो उन्हें डर किस बात का ? वे न्यायालय की शरण में क्यों नहीं जाते ?वैसे भी न्यायपालिका इन दिनों  फिल्म वालों पर कुछ ज्यादा ही मेहरवान है। शायद भंसाली को सलमान खान की तरह भृष्ट व्यवस्था का फायदा उठाना नहीं आता। जिस तरह दूसरों ने अतीत में कांग्रेस,राकांपा ,भाजपा ,शिवसेना को सेलूट किया उसी तरह भंसाली भी 'कर्णी सेना' को एक ठौ सेल्यूट ठोक देते, मामला वहीं निपट जाता। बड़े गर्व की बात है कि भंसाली ने चमचागिरी का रास्ता नहीं चुना। लेकिन संजय भंसाली ने इतिहास के जिस खण्डहर में छलांग लगाईं है वहाँ फूलों की सेज नहीं बल्कि कांटे ही कांटे हैं।

कर्णी सेना को यदि कोई आपत्ति थी तो वे उसे प्रेस और मीडिया के समक्ष पेश करते, कोर्ट जाते।मानहानि का मुक़दमा दायर करते। वैसे भी भारत के तमाम स्वनामधन्य संस्कृति प्रेमियों ,भारत स्वाभिमानियों को हमेशा याद रखना चाहिए कि भारत में एक अदद सेंसर बोर्ड भी है। न केवल सेंसर बोर्ड है बल्कि उस सेंसर बोर्ड पर केंद्र की 'हिंदुत्ववादी' सरकारका सीधा नियंत्रण है। मुंबईके परम देशभक्त शिवसैनिकों की भी हमेशा तिरछी नजर बनी रहती है। वेशक कर्णी सेना को कानून हाथ में नहीं लेना चाहिए था, सेट पर धकक मुक्की नहीं करनी चाहिए थी। हालाँकि यह सच है कि जब किसी की कोई नहीं सुनता, तो अंतमें सब यही रास्ता अख्तयार करते हैं। हालांकि इस घटना के बहाने फिल्म का प्रचार-प्रसार शुरूं हो चुका हैऔर इससे फायदा भंसाली को ही होगा ! किसी भी घटना को यदि पुलिस और कानून की नजर से देखा जाए ,तो घटना-दुर्घटना से जिसे फायदा होगा ,अंगुली भी उसी तरफ उठेगी।

वैसे तो भारत में 'सूत न कपास जुलाहों में लठालठी' की कहावत सदियों से चली आ रही है। लेकिन जबसे टीवी चेनल्स और सोशल मीडिया परवान चढा है, तबसे यह कहावत  सभी के सिर पर चढ़कर बोल रही है। जब कभी जहाँ -कहीं कुछ थोड़ी सी बहसबाजी या धक्कामुक्की हुई  कि''हनूमान की पूँछ में लगन न पाई आग ,लंका सबरी जल गयी ,गए निशाचर भाग!'' वास्तव में यह घोर असहिष्णुता का दौर है। लेकिन यह असहिष्णुता एकतरफा नहीं है। केवल शासकवर्ग ,साम्प्रदायिक तत्व और जातीयतावादी ही 'असहिष्णु' नहींहैं बल्कि धर्मनिरपेक्ष- प्रगतिशील जमातों में भी घोर असहिष्णुता घुस गयी है। कुछ वामपंथी नेता और  प्रगतिशील बुद्धिजीवी और साहित्यकार ऐसे  भी हैं जिन्हें सीधे मुँह बात करना ही नहींआती।अपनी बौध्दिक जुगाली में वे यह भूल जाते हैं कि ''घर में नहीं दाने -अम्मा चली चुगाने !''औकात पार्षदका चुनाव लड़ने या जीतनेकी नहीं है ,लेकिन पीएम नरेन्द्र मोदीकी आलोचना इस तरह करेंगे मानों वे पोलिट व्यूरो के सदस्य हों अथवा पार्टी प्रवक्ता हों !

भारतमें वामपंथी पार्टियोंका इतिहास बोध सर्वथा वैज्ञानिक,तार्किक और धर्मनिरपेक्षतापूर्ण रहा है। किन्तु कभी -कभार पार्टी मुखपत्रों में और स्वयम्भू इतिहासकारों के लेखन में धर्म-इतिहास का अज्ञान परोस दिया जाता है. तब इस उजबक और अधकचरे ज्ञान से ऊबकर पढ़े लिखे सचेतन कम्युनिस्ट भी पार्टीसे तौबा कर लेते हैं। पश्चिम बंगाल में सीपीएम की निर्मम हारके लिए सिर्फ ममता बेनर्जी की नाटकबाजी ,अल्पसंख्यकों का दुराव ही प्रमुख कारण नहीं है बल्कि कम्युनिस्ट पार्टियों का भारतीय संस्कृति ,धर्म - इतिहास विषयक दिग्भृम और अज्ञानभी एक बहुत बड़ा कारण रहा है ! भारत में वामपंथ का उद्देश्य इस पतनशील शोषणकारी नव्य पूँजीवादी -अर्ध सामंती व्यवस्था को उखाड़ फेंकना है।देश में  समानता,बंधुता आधारित शोषण मुक्त एक नए समाजवादी समाज की रचना करने का क्रांतिकारी मंसूबा रहा है। भारतीय साम्यवादियों के लिए न केवल मॉर्क्स,लेनिन बल्कि शहीद - भगतसिंह ,चेग्वेरा और स्टालिन सबसे बड़े ब्राण्ड रहे हैं !

जैसा कि मैंने उपरोक्त कार्यक्रम और नीतियों का खुलासा किया कि हरेक वामपंथी ,समाजवादी,साम्यवादी का फर्ज है कि'सर्वहारा की तानाशाही' स्थापित करने ,शोषण-उत्पीड़न समाप्त करने और लूट खसोट की पूँजीवादी व्यवस्था खत्म करने के निमत्त अपना योगदान दे।और न केवल नयी व्यवस्था बल्कि नया समाज और एक नए मनुष्य के निर्माण का प्रयास करे ! लेकिन वास्तव में हो क्या रहा है ? कुछ लोग जो वामपंथी  बुद्धिजीवी और प्रगतिशील  साहित्यकार कहलाते हैं,वे इस भृष्ट सिस्टम का बाल बांका नहीं कर पा रहे हैं।वे वेरोजगारी ,भुखमरी और लूट के खिलाफ  बात नहीं करते । किन्तु धर्म-मजहब पर , फिल्म वालों की तरफदारी पर और प्रधान मंत्री की ड्रेस पर खूब लिखते बोलते हैं । उनके श्रीमुख से इंकलाब जिंदाबाद ! सर्वहारा क्रांति अमर रहे!इत्यादि नारे नहीं निकलते ! लेकिन संजय भंसाली , शाहरुख़ खान ,सलमान खान सैफ अली करीना कपूर खान और उनके लख़्ते जिगर 'तैमूर' की इज्जत आफजाई खूब हो रही है। श्रीराम तिवारी !

शनिवार, 21 जनवरी 2017

आस्तिक-नास्तिक कथा अनंता -भाग -३


मानव सभ्यता के विकास क्रम में, सामाजिक ,आर्थिक ,सांस्कृतिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में द्वन्दात्मकता हमेशा क्रियाशील रही है। पाषणयुग से लेकर मध्ययुग के सामन्ती दौर तक इस द्वन्दात्मकता का प्रतिफल केवल शोषक- वर्ग के लिए ही सुरक्षित रहा है। यद्द्पि यूरोपीय रेनेसाँ एव विज्ञान के आविष्कार धरती पर मानवता के लिए सबसे बड़े  वरदान सिद्ध हुए हैं। सभ्यता के विकास क्रम की दीर्घ यात्रा अवधि में सचेतन मनुष्य ने परिवार,बोली,भाषा और अक्षर विज्ञान का विकास करते हुए नया मुकाम हासिल किया है। यह कटु सत्य है कि आदिकाल से मध्ययुग तक हरचीज केवल शक्तिशाली वर्ग के लिए ही सुरक्षित थी। शुरआती विज्ञान के चमत्कार भी केवल 'प्रभु' वर्ग के लिए ही  'ईश्वरीय' वरदान बने रहे ,जब तक कि यूरोपियन पूँजीवादी क्रांति ने उनके 'अहम को ध्वस्त नहीं किया। अतीत के आम आदमी की इस दयनीय और नकारात्मक स्थिति के वावजूद, धर्म-मजहब और अध्यात्म क्षेत्र के विचारक,चिंतक  दार्शनिक,ऋषि ,मुनि और गुरु बहुत हद तक मानवीय पक्ष के प्रवर्तक रहे हैं ।

 विज्ञान के आविष्कार ,पूँजीवादी क्रांति और लोकतंत्र के उदय से पूर्व की दुनिया में धरती के सन्साधन,मानव श्रम की लूटका आनंद, केवल राजाओं,सामन्तों ,श्रेष्ठियों और जागीरदारों के लिए ही सुरक्षितथा।किन्तु उस कठिन दौर में भी हर धर्म -मजहबके संतकवि ,ऋषि,पुरोहित,धर्मध्वज अधिष्ठाता,अवतार,पीर -पैगम्बरोंने आम जनताके लिए कुछ बेहतर ही किया है। उन्होंने समाज व्यवस्था संचालन के लिए 'विधि'-निषेध का निर्माण किया। नीति -नियम , रीतियाँ,परम्पराएं और त्यौहार बनाये। कुलरीति,समाज रीति और धर्मनीति का निर्माण किया। धरती पर मनुष्य के द्वारा निर्मित अच्छा-बुरा जो कुछ भी है, उसका अधिकांस श्रेय हमारे महान पूर्वजों को जाता है। वर्तमान दौर का मनुष्य या तो सिर्फ  'भोक्ता' है या भावी पीढ़ियों के सुख-दुःख का सृजनहार है। यदि मनुष्य अपनी भावी पीढ़ियों के लिए सकारात्मक सृजन जैसा कुछ बेहतर करता है तो यह उसकी सच्ची आस्तिकता है । यदि वह शोषण की मुनाफेबाजी की वणिक वृत्ति की पूँजीवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करता है ,एक बेहतर समाजवादी समाज का निर्माण करता है ,तो यह उसकी सच्ची ईश्वर भक्ति है। यही सच्ची आस्तिकता है।

कोई व्यक्ति,समाज अथवा राष्ट्र अपने निहित स्वार्थ के लिए ,यदि भावी पीढ़ियों को धर्मांधता ,साम्प्रदायिकता और जातीयता के दलदल में धकेल रहा है ,तो यह उसकी पाखण्डपूर्ण विनाशकारी आस्तिकता है। यह किसी भयावह आणविक युध्द के खौपनाक मंजर से भी बदतर है । इस भयानक धर्मांध आस्तिकता से वह तर्कवादी विज्ञानवादी नास्तिकता  बेहतर है ,वह   मनुष्य को केवल दुरावस्था का चित्रण ही नहीं दिखाती अपितु मौजूदा अपवित्र सिस्टम को उखाड़ फेंकने और बेहतरीन मानवीय मूल्यों पर आधारित व्यवस्था के निर्माण का विकल्प भी पेश करती है। वह सत्यनिष्ठा और वैज्ञानिक दॄष्टि देकर  शोषण ,अन्याय ,उत्पीड़न से लड़ना भी सिखाती है। वह मनुष्यमात्र को समानता ,बंधुता ,स्वतन्त्रता का पाठभी पढ़ातीहै। वह जुल्मतोंका प्रतिकार करना भी सिखाती है। इस नास्तिकता का उल्लेख वेदों में और दुनिया के  तमाम आध्यत्मिक ग्रन्थों में भी मिलता है।  इन धर्म शास्त्रों की अच्छी बातों को छुपाकर केवल शोषणकारी सिद्धान्त -सूत्र ही दुनिया के सामने विकृतरूप में परोसे जाते रहे हैं। यह सिलसिला अब भी जारी है। फर्क सिर्फ इतना है कि अब इसमें आतंकवाद बनाम राष्ट्रवाद का विमर्श भी घुस चुका है।  

सभी धर्म-मजहब के पवित्र ग्रन्थों में जो-जो परंपराएं हैं ,विश्वाश-रीतियाँ हैं ,धर्मशास्त्र के मानवीय सिद्धान्त सूत्र हैं , वे यदि मानवमात्र के हितु हैं,तो उनका सम्मान अवश्य किया जाना चाहिए।जैनधर्म का अनेकान्तवाद,स्याद्वाद, और अहिंसा- जिओ और जीनो दो ,वेदांत का 'सर्वे भवन्तु सुखिनः ' ईसाइयों की सत्यनिष्ठा,परोपकार दया क्षमा करुणा,प्रेमभाव,इस्लाम की बौद्धों और सिखों की समता सहिष्णुता और बन्धुत्व  किसी भी तरह से धर्मान्धता या साम्प्रदायिकता नहीं सिखाती। प्रायः हर धर्म-मजहब में मानवता सिखाई जाती है। लेकिन  'धर्म'-मजहब' का यही मतलब है तो मैं इसका पक्षधरहूँ। इस नजरियेसे में भी आस्तिक हूँ। किन्तु धर्म-मजहबके नामपर आतंक मचाना , जेहादके नाम पर खून बहाना ,ख़ुशी मनाने के बहाने पटाखे फोड़ना,होलिका दहन या रावण दहनके बहाने पेड़ काटना , लकड़ी जलाकर वातावरण प्रदूषित करना ,पूजा आरती के नाम पर नदियों को गन्दा करना , सांस्कृतिक आस्था के नाम पर जल्लीकट्टू का उन्मादी आयोजन करना ,कुर्बानी के नाम पर हर साल करोड़ों निर्दोष बकरे हलाल करना और कृतज्ञता व्यक्त करने के बहाने खुद अपने शरीर को घायल करना ,इत्यादि क्रूर परंपराएँ यदि धर्म -मजहब हैं ,तो में इसे नहीं मानता। फिर यदि  मुझे कोई नास्तिक कहता है तो उसका बहुत-बहुत शुक्रिया।

कुछ लोग जो अध्यात्म जगत में गहरे तक डूबे हैं ,वे प्रायः यह यक्ष प्रश्न उठाते रहते हैं कि कम्युनिस्ट लोग अथवा  नास्तिक या अनीश्वरवादी लोग यदि किसी गॉड,ईश्वर,अल्लाह में यकीन नहीं रखते तो 'अवसाद' अथवा प्राकृतिक संकट की अवस्था में वे किस 'चेतना' के आश्रित होते हैं ? वास्तव में यह सवाल ही काल्पनिक है ,क्योंकि मनुष्य के अलावा कोई अन्य देहधारी प्राणी यह सवाल नहीं उठाता। या यों कहें कि इस तरह के उच्च आध्यात्मिक स्तर पर जाने की मनुष्य के अलावा अन्य प्राणियों में संभावना ही नहीं है। तब तो ईश्वर का अस्तित्व मनुष्य तक ही सीमित हो जाता है।कहने का तात्यपर्य यह है कि 'ईश्वर'का अस्तित्व एक विकसित मनुष्य की सोच या आस्था पर आश्रित है। लेकिन इससे यह सिद्ध नहीं होता कि जो ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते या जिन्हें जन्मना अनीश्वरवादी योनि या सांसारिक परिवेश मिला वे सब घोर पातकी या पापी हैं। कोई गाय ईश्वर को माने या न माने यदि वह दुधारू है, तो  खुद ईश्वर ही  है। इसी तरह कोई 'माँ' मंदिर,मस्जिद ,गुरुद्वारा ,चर्च जाए या न जाए,लेकिन वह अपने बच्चोंका पालन पोषण अपने श्रम के पसीने से यदि करती है ,उन्हें नेकदिल ईमानदार विश्व मानव बनाती है तो उस माँ की नास्तिकता को सादर नमन ! क्योंकि तब वह केवल 'माँ' ही नहीं होती बल्कि  भगवान की मूरत जैसी ही होती है।

यदि आप किसी धर्म-मजहब विशेष के 'वास्तविक' अनुयायी हैं अर्थात सच्चे आस्तिक हैं तो अच्छी बात हैं ! किन्तु दो प्रमुख शर्तें  माननी होंगी !एक तो यह कि दूसरे के धर्म-मजहब में अपनी टाँग न घुसेड़ें। दूसरी शर्त यह कि धर्म - मजहब और उसके आडम्बर को राजनीति में न घुसेड़ें ! यदि आप किसी धर्म-मजहब से कोई वास्ता नहीं रखते या आप नास्तिक -अनीश्वरवादी हैं, तो आप महान हैं, आप साक्षात् भगवान् हैं, किन्तु आपको तीन शर्तों पर खरा उतरना होगा। पहली शर्त यह है कि आपको सभ्य संसार के श्रेष्ठतम मानवीय मूल्यों का पालन करना होगा। याने आपको संसार के प्रत्येक मनुष्य के साथ -विश्व बंधुत्व ,समानता का व्यवहार करना होगा और उसकी स्वतन्त्रता का भी सम्मान करना होगा। दूसरी शर्त यह है कि आप जिस देश के भी नागरिक हैं उसके संविधान का अक्षरशः पालन करना होगा। तीसरी शर्त यह है कि आपको स्वयम ईष्वरीय ऊँचाइयों को छूना होगा। यदि आप इन शर्तों को पूरा नहीं करते और फिर भी अपने आपको नास्तिक कहते हैं ,तो आपकी दो तरफ़ा धुनाई सम्भव है। एक तो यह कि आस्तिक जगत आपको जुतिया सकता है। दूसरे जिंदगी के किसी भी मोड़ पर आपका  व्यक्तिगत जीवन  घोर नारकीय हो सकता है।

यदि आप अल्पज्ञ और धर्मभीरु हैं तो बेधड़क किसी धर्म मजहब के आस्थावान हो जाइये। यदि आप तन-मन -धन से बलिष्ठ हैं और फ्रांसीसी क्रांति के मानवतावादी मूल्यों को ह्र्दयगम्य करने की कूबत है तो नास्तिक हो जाइये या वेदांत के ऋषि की तरह शिवोहम का अनुनाद कीजिये। सुप्रसिद्ध लेखिका मार्निया रॉबिन्सन ने उक्त सिद्धान्त को दूसरी तरह समझाया है। उन्होंने अपनी पुस्तक 'क्यूपिड्स पायजनस एरो 'में वैज्ञानिक तरीके से समझाया है कि ''आप आस्तिक -नास्तिक कुछ भी न हों तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता।लेकिन सुखी जीवन के लिए ,खुशियाँ पाने के लिए मनुष्य जो कुछ भी करता है, उसमें सहज प्राकृतिक बोध की आवश्यकता अवश्य होती है। यह मनुष्य की वैचारिक क्षमता पर निर्भर करता है कि उसे मानवीय सम्वेदनाओं के संचरण का और मानवीय सुख-दुख के भावों की अन्योंन्याश्रित स्थिति का कितना ज्ञान है ? '' मार्निया रॉबिन्सन कहतीं हैं कि ''जब आप अपनी निजी ख़ुशी के लिए कुछ करते हैं तो डोपामाइन हार्मोन निस्रत होता है ,जो एक तेज इच्छा -कामना पैदा करता है ,किन्तु संतोष नही देता। अतृप्त वासनाओं को जगाता है। लेकिन दूसरों की ख़ुशी या हित के लिए सोचने पर आक्सीटोसिन हारमोन निश्रित  होता है.यह निः स्वार्थभाव, दयालुता और प्राणी मात्र के प्रति प्रेम उतपन्न करता है। यदि यह हार्मोन पर्याप्त मात्रा में न निकले तो मनुष्य अवसाद की ओर अग्रसर होता है ''इसलिए यदि आप आस्तिक/नास्तिक न होकर केवल एक बेहतरीन इंसान हैं तो आपको बारम्बार नमस्कार !     

जो लोग मेरी वैचारिक प्रतिबद्धता से अनभिज्ञ हैं और मेरे पहले के आलेख जिन्होंने नहीं पढ़े वे बीच की किन्ही दो-चार पंक्तियों के आधार पर अपनी तातकालिक प्रतिक्रिया दे देने लग जाते हैं। कुछ लोग तो मुझे उस वामपंथ से नत्थी कर लेते हैं जो उन्हें 'संघियों' ने बताया है। 'बंदर क्या जाने अदरख का स्वाद ' !यद्द्पि जो खाँटी कम्युनिस्ट या वामपंथी विचारक हैं ,जो धर्म-मजहब को सिरे से नकारते हैं ,उनसे मैं सहमत नहीं हूँ। मेरा आकलन  है कि 'सत्य' केवल सापेक्ष होता है । सभी धर्म-मजहब के शास्त्र और सिद्धांत सूत्र बहुत मूल्यवान और मानवीय ही हैं।उनका अध्यन किये बिना ही ,उन्हें ख़ारिज किया जाना सरासर नादानी है। इसी तरह कोई धर्मध्वज या साम्प्रदायिक नेता किसी धर्म-मजहब विशेष का तरफदार बनकर किसी दूसरे  धर्म -मजहबकी आलोचना करे तो वहभी अस्वीकार्य है। इसी तरह कुछ तर्कवादी प्रगतिशील और लेफ्टिस्ट भी बिना धर्म शास्त्रों का अध्यन किये ही लठ्ठ लेकर 'धर्म-मजहब' के पीछे पड़ जाते हैं। वे उस चीज को ही सिरे से नकार देते हैं ,जिसने उन्हें इस काबिल बनाया है । यदि गीताकार कहते हैं कि''न बुद्धि भेदम जनयेद ज्ञानाम कर्म - सङ्गिनांम '' यदि बाइबिल ,कुरआन गुरुग्रन्थ साहिब में भी इसी तरह के अनेक बेहतरीन मोती माणिक्य भरे पड़ेहैं तो उनको स्वीकार करने में किसी का क्या नुक्सान है ?

गुरुवार, 19 जनवरी 2017

आस्तिक -नास्तिक कथा अनंता -भाग -2

 ई. हूफर -नामक विद्वान ने कहा था  “जब पहाड़ों को खिसकाने के लिये आवश्यक तकनीकी कौशल हो तो उस आस्था की आवश्यकता ही नहीं  जो पहाड़ खिसकाती है।” यह पाश्चात्य सिद्धांत वैदिक 'विशिष्ठाद्वैत' और स्याद्वाद सिद्धांत से काफी मेल खाता है। अर्थात आस्थावान हो तो बने रहो ,कोई फर्क नहीं पड़ता !किन्तु पहाड़ खिसकाने के लिए खुद तुम्हे ही माथापच्ची करनी होगी। साइंस और टेक्नालाजी की शरण में जाना होगा।मनुष्य का परिश्रम, साइंस और टेक्नालाजी -आस्था या स्तुति की मोहताज नहीं। उसका तो सन्धान ही काफी है। पूजा- पाठ या स्तुति से नतीजे आएंगे इसकी गारन्टी कोई नहीं देगा ,किन्तु परिश्रम और बुध्दि कौशलसे अपने आप हाजिर हो जायेंगे।

तमिलनाडु के कुछ लोग एक बाहियात,ऊलजलूल हिंसक बैलों के खेल जल्लीकट्टू के लिए हलकान हो रहे हैं !वे कोर्ट का अनादर कर रहे हैं ,इन हालात में राजनैतिक दलों को इस बकवास का समर्थन नहीं करना चाहिए। कम से कम प्रगतिशील और वामपंथी मित्रों को तो इससे दूर ही रहना चाहिए। एक तरफ तमिलनाडु के लोग हर चीज मुफ्तमें चाहते हैं, पहले दाल चावल सस्ता खाया ,अब  उनकी दाढ़ को मुफ्त का खून लग चुका है। इसलिए अम्मा समर्थकों को अब वर्तन भांडे और खाना भी मुफ्त में चाहिए। करूणानिधिका खेमा भी कुछ कम नहीं है।इस तरह लाखों मुफ्तखोर जिस प्रदेश में हों ,उसे कामधाम की क्या जरूरत ?उसे तो हंगामा करने का बहाना चाहिए ,फिर चाहे वह जल्लीकट्टू ही क्यों न हो ! यदि यह उधमबाजी ही आस्था -आस्तिकताका सबब है तो इसे दूरसे नमस्ते !
   
गोकि आस्था या आस्तिकता बुरी चीज नहीं ,यदि आप आस्तिक हैं तो जिंदगी भर दुखों के पहाड़ खिसकाने के लिए 'ईश्वर'का आह्वान करते रहिये। लेकिन आपकी आस्तिकता से पहाड़ खिसक जाएगा ,इस पर तो गोस्वामी तुलसीदासजीको भी संदेह है। उन्होंने अपने महानतम महाकाव्य रामचरितमानस में जोरदार शब्दों में लिखाहै :-
सकल पदारथ हैं जग माहीं। कर्महीन नर पावत नाहीं।। अर्थात जो कुछ होगा 'कर्म' से ही होगा। कर्म के बिना ,  सिर्फ आस्था के भरोसे ,दुखों का पहाड़ तो क्या, रेत का एक कण भी नहीं खिसकेगा !अस्तु श्रमेव जयते !

हर शास्त्र ,हर मजहब -धर्म कहता है कि कर्म करो ,फल की इच्छा मत करो। श्रीकृष्ण ने कर्म की पैरवी यों ही  नहीं की !उन्होंने 'इंद्रपूजा' या यज्ञके चोंचले  में न पड़कर ,गोकुल गाँव के ग्वालों को गोवर्धन पर्वत के नीचे छुपा कर बाढ़ से बचाया। 'श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाया' यह केवल एक रूपक है। दरअसल श्रीकृष्ण ने लोगों को समझाया कि बाढ आये तो आस्था और पूजा के भरोसे न रहें। इंद्र का नहीं गोवर्धन पर्वत का सहारा लिया जाना ही उचित है। श्रीकृष्ण द्वारा इंद्र की पूजा और यज्ञ का विरोध एक पौराणिक मिथ है। लोगों ने उनके सन्देश को समझने के बजाय उनकी भी पूजा शुरूं कर दी। उन्हें पूर्णब्रह्म परमात्मा घोषित कर दिया। वास्तविकता यह है कि द्वारका के विनाश और  'यादवी कुल कलह' से परेशान होकर  श्रीकृष्ण जब द्वारका छोड़ हस्तिनापुर जा रहे थे तब रास्ते में भीलों ने गोपिकाओं को लूट लिया और श्रीकृष्ण को मार डाला! अर्जुन साथ में थे किन्तु कुछ नहीं कर सके। भीलों ने उनका गाण्डीव तोड़ डाला। किसी ने इस घटना का वर्णन यों किया है :-

पुरुष बली न होत है ,समय होत  बलवान।

भिल्लन लूटीं गोपिका ,वहि अर्जुन वहि बाण।।

 हजारों साल बाद जो श्रीकृष्ण हमारे सामने पेश किये जा रहे हैं ,उसमें सूरदास का अंधत्व ,मीरा का वैधव्य और वल्लभाचार्य का प्रेमासक्त भाव निहित है। आस्था -विश्वास के अनेक रूपक हैं जो पुराणकारों के अतिशयोक्ति लेखन और कथावाचकों द्वारा  बोले गए  लगातार झूँठ को सच में बदलते रहे।तोता मैना ,अलिफ़ लैला की तरह  हर घटना की और महापुरुष की एक काल्पनिक छवि का निर्माण किया जाता रहा है। पौराणिक आख्यान  में यह छवि परम 'सत्य' कहलाती है। जो इस सत्य को मानताहै उसे आस्तिक कहते हैं ,जो वैज्ञानिक व ऐतिहासिक नजर से खोजबीन करता है ,उसे नास्तिक कहते हैं। कहने को तो दोनों अपनी-अपनी जगह सही हैं।लेकिन सच यही है कि उस 'परम सत्य'को महाकाव्यों में इस तरह गूँथा गयाहै जैसे आटे में नमक अथवा भूसे के ढेर में सुई।

यदि पूजा -आस्था से पहाड़ खिसक गया होता तब तो 'ईश्वर'के अस्तित्व पर संदेह की गुंजाइस ही नहीं रह जाती। किन्तु आस्था -प्रार्थना से कभी कोई पहाड़ नहीं खिसका। शास्त्र का कहनाहै कि जो 'ईश्वर' में विस्वास करता है ,  उसका  फायदा हो या न हो किन्तु नुकसान नहीं  होगा ! पैर में कांटा चुभने पर ,दाँतों में फ़ांस चुभने पर ,अंगुली कट जाने पर और रक्त बहने पर,दुनिया का कोई आस्तिक ईश्वर के भरोसे नहीं रहता। तुरन्त उपचार की सोचता है। यही सही  है। यदि आप आस्तिक हैं और 'कर्मसिद्धांत' का आचरण करते हैं तो वैज्ञानिक दॄष्टि से इस संसार को देखिये ,आपको दूध का दूध और पानी-का पानी नजर आएगा। आपकी आस्तिकता से किसीको कोई खतरा नहीं ,यदि आप  इस सन्सारके विकास में विज्ञान के योगदान को और मनुष्य की सृजनशीलता को सम्मान देते हैं।

गोयबल्स ने कहा था 'यदि किसी झूँठ को सौ बार बोला जाए तो वह सच हो जाता है' यह कथन 'भावजगत' अथवा अध्यात्म क्षेत्र में जमकर लागू होता है। विज्ञान बुद्धि वाला नास्तिक मनुष्य  भी यदि आस्था रुपी काल्पनिक भाव में रहताहै तो उसेभी वही परिणाम मिलेगा ,जो सहज स्वभाव वाले आस्तिक और आस्थावान को मिलेगा। फर्क सिर्फ इतनाहै कि 'आस्तिक' व्यक्तिको बड़ी आसानीसे अंधश्रद्धा और साम्प्रदायिकता का शिकार बनाया जा सकता है , जबकि 'नास्तिक' व्यक्ति को दुनिया की कोई भी ताकत भ्रमित नहीं कर सकती।धार्मिक जगत में आम धारणा है कि 'नास्तिक' बुरे होते हैं ,वे भगवान् ,ईश्वर और धर्म-मर्यादा को नहीं मानते। लेकिन आस्तिक और नास्तिक के भावों,विचारों,मूल्यों और चरित्रों को जानने वाला ,इन्हें एक ही सिक्के के दो पहलु मानने को बाध्य होगा! वैसे भी निरपेक्ष रूप से इस जगत में कोई आस्तिक नहीं हैऔर कोई नास्तिक नहीं है।  

समय ,स्पेस ,स्थिति ,चेतना और जिजीविषा का भाव -इन पांच 'तत्वों' के बिना मनुष्य के अस्तित्व का कोई अर्थ नहीं। क्रमिक विकास की अनवरत धारा में मानवीय मेधा शक्ति द्वारा संकल्पित विचार सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। मनुष्य के बौद्धिक एवम श्रमसाध्य कौशल द्वारा रचित सभ्यता ,संस्कृति, भौतिक संसाधन और आध्यात्मिक चेतना के विकास को यदि धरती से माइनस कर दें, तो इस लौकिक संसार के होने या न होने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा! यदि मनुष्य की चेतना का अस्तित्व नहीं तब किसी पारलौकिक तत्व अर्थात 'ईश्वर'के अस्तित्व का तो प्रश्न ही नहीं उठता ! इसका मतलब 'ईश्वर' अथवा किसी अलौकिक पारलौकिक शक्ति के होने -न होने की पहली शर्त यह है कि ब्रह्मांड में मनुष्य या उसके जैसा सचेतन प्राणी अवश्य हो !

यदि सचेतन मनुष्य और यह दृश्य जगत किसी 'कर्ता' का कार्य हैऔर यदि कर्ता 'सर्वशक्तिमान' है तो जगतका व्यवहार उस 'कर्ता' याने ईश्वर के नियंत्रण में ही होगा। तब पाप-पुण्य ,कर्म-अकर्म,उत्पत्ति -प्रलय ,जन्म-मृत्यु , स्वर्ग-नरक,सुख-दुःख ,हानि -लाभ , ज्ञान-अज्ञान के लिए मनुष्य अथवा देश -काल -परिस्थितियाँ नहीं अपितु वह 'सर्वशक्तिमान' ईश्वर ही जिम्मेदार होगा !इसका तात्पर्य यह है कि उस ईश्वर को -जो पूर्ण है ,सक्षम है ,सर्वव्यापी है सर्वशक्तिमान है उसेही अपने 'सृजन' की त्रुटियोंके लिए खुद ही जिम्मेदार होना चाहिए। कोई जन्मना धनाड्य है , कोई जन्मना निर्धन है ,कोई जन्मना स्वस्थ और मेधावी है ,कोई जन्मना रोगग्रस्त और मंदबुद्धि है ,इन हालात में प्रारब्ध या काम्यकर्म का बहाना किसी जीव पर थोप जाना न्यायसंगत नहीं है। 'जीव'की 'स्वतन्त्र इच्छा' का यदि कोई अस्तित्व है तो 'कर्ता' अर्थात ईश्वर का उसपर पूर्ण नियन्त्रण होना चाहिए। याने  कर्म-अकर्म और भले-बुरे के लिए ईश्वर की जगह मनुष्य रुपी 'कार्य'को जिम्मेदार क्यों होना चाहिए ! इस प्रश्न का उत्तर देने के बजाय हर धर्म-मजहब में यह कॉमन फेक्टर है कि 'सवाल मत करो ! ईश्वर के अस्तित्व पर और उसके न्याय पर यकीन करो!जो यकीन नहीं करता जो सवाल करता है ,तर्क करता है उसे भारतीय वैदिक वाङ्गमय में नास्तिक कहा गया है। जो आँख मीचकर वेद,शास्त्र,गुरु और ईश्वर में आस्था-श्रद्धा -विश्वाश रखता है उसे 'आस्तिक' कहते हैं।

दरसल इस दुनिया में परफेक्ट आस्तिक और परफेक्ट नास्तिक कोई नहीं है। मैं आस्तिक-नास्तिक की बहस को अंजाम तक ले जाना चाहता हूँ ,ताकि जिसे गलतफहमी है कि वह आस्तिक है वह ,और जिसे गलत फहमी है कि वह नास्तिक है वह ,अपनी गलतफहमी दूर कर ले !इसमें यदि मैं कुछ भी योगदान कर सकूँ तो मानवता के लिए मेरी यह कृतज्ञता होगी ! पाठकों से निवेदन है कि प्रस्तुत आलेख में प्रयुक्त शब्द 'ईश्वर' को वैश्विक आस्था केंद्र के व्यापक अर्थ में अर्थात 'सर्वशक्तिमान' के अर्थ में ही पढ़ा जाए।इस 'ईश्वर' शब्द में खुदा,अल्लाह,गॉड,एकओंकार र्ब्रह्म-परमेश्वर, भगवान तीर्थंकर इत्यादि सभी 'शब्द ब्रह्म' में समाहित हैं ।

दुनियाभर के विज्ञान बुद्धि वाले विद्वान् सदियों से मानते रहे हैं, कि धरती पर मनुष्य का उदभव पहले हुआ और 'ईश्वर'  बाद में 'अनुभूत'हुआ । दरसल जब तक 'मनुष्य' नामक प्राणी को अन्य सभी प्राणियों पर बौद्धिक बढ़त हासिल नहीं हुई थी ,तब तक ईश्वरकी अवधारणा तो बहुत दूर की बात 'लोक देवता' भी स्थापित नहीं हुए थे।  इस कथन को यों भी कहा जा सकता है कि मनुष्य का पूर्वज 'वनमानुष' के रूप में धरती पर मौजूद तो था किन्तु जब तक उसने अपने चारों और के दृश्य जगत और कतिपय अदृश्य शक्ति केंद्रों से 'टकराव'महसूस नहीं किया तब तक उसे 'देवताओं' की जरूरत ही नहीं पडी।कालांतर में जब मनुष्य को एहसास हुआ कि आग,पानी,हवा,आसमान,धरती,सूरज और चाँद तारे उससे बहुत शक्तिशाली हैं ,तो उसने इन शक्तियों के आगे भयमिश्रित कृतज्ञता व्यक्त कीहोगी । धरती पर  'मेंटेरियलिस्ट' देवताओं की स्थापना पहले हुई। भारती भूभाग के 'आर्यावर्त'में ऋग्वेद का प्रारंभ 'अग्नि' शब्द से ही हुआहै। पहला मन्त्र अग्निदेव को ही समर्पितहै।

पूर्व वैदिककाल में 'ईश्वर'नहीं था। ऋग्वेद,सामवेद,यजुर्वेद के दीर्घ रचना काल में इंद्र,मित्र ,वरुण,अग्नि,अहुरमज्द,
और इनके साथ -साथ मरुत,असुर,दानव ,यक्ष,नाग,रूद्र इत्यादि का वर्ण मिलता है। उत्तर वैदिककाल के ऋषियों ने इन अलग-अलग देवताओं को एक ही 'शक्ति' का प्रतीक माना। उपनिषद का ऋषि कहता है ''एकम सद विप्र
बहुधावदन्ति''! इस तरह यह 'एकम सद' ही 'यज्ञपुरुष' के रूपमें धरतीपर 'ईश्वर'का प्रथम साकर रूप प्रकटहुआ।
उपनिषद -आरण्यक के मन्त्रदृष्टा ऋषियों ने पृथ्वीकी भौतिक शक्तियों अर्थात 'मेटेरियलिस्ट'देवताओं के उत्प्रेरक कारण स्वरूप 'परब्रह्म' की परिकल्पना की, जो कभी देवता [वामन,विष्णु] के रूप में ,कभी अर्ध मानव अर्ध पशु [नरसिंह'] के रूपमें और कभी मनुष्य - परशुराम,राम,कृष्ण बुद्धके रूप में अवतरित होने लगा। यहाँ मैंने अपनी सीमित समझ एवम अल्पज्ञान के कारण केवल वैष्णव परंपरा में 'ईश्वर'के क्रमिक विकास और अवतारवाद काही उल्लेख किया है। शैव,शाक्त,गाणपत्य,नास्तिक,जैन,बौद्ध इत्यादि पंथ दर्शनमें 'ईश्वर'अथवा ब्रह्म का निषेध है तथा भारत के बाहर उद्भूत 'रिलीजन्स' के बारे में मुझे कोई खास जानकारी नहीं है। किन्तु यदि प्रत्येक मानव सभ्यता के क्रमिक विकास का विज्ञानसम्मत निष्पक्ष  विवेचन करें तो कमोवेश सभी धर्म-मजहब में एक रोचक समानता दिखेगी। यह सावित किया जा सकता है कि मनुष्य ने धरतीपर सर्वप्रथम 'मेटेरियलिस्ट पॉवर' को ही नमन किया था। मानवीय बुद्धि -विवेक से जो कुछ भी परे है, उसे ही आदिम मनुष्य ने कृतज्ञतावश 'अल्लाह,गॉड ईश्वर और सर्वशक्तिमान परमेश्वर मान लिया।  

जहाँ-जहाँ 'बुद्धि विवेक'का विकास नहीं हुआ ,बौद्धिक क्षमता का विकास नहीं हुआ वहाँ -वहाँ धर्म-मजहब बहुत बाद में पैदा हुए। तदनुसार वहाँ 'ईश्वर' अल्लाह,और गॉड भी बहुत बाद में जन्में। भारतीय भूभाग पर ईश्वर तभी अस्तित्व में आ गया था ,जब उसने आग की खोज की थी। ऋग्वेद का ऋषि उस आग को ही ब्रह्मस्वरूप  घोषित कर देता है। वैदिक ऋषि 'अग्निदेव'को कृतज्ञता स्वरूप 'हवि ' अर्पित करता है। इस 'हवि' को वह जिस हवनकुंड में स्वाहा करता है उसको भी उस ऋषि ने यज्ञपुरुष अर्थात 'ब्रह्म' ही कहा है।वैदिक ऋषि सिर्फ यहीं नहीं रुकता, वह हवि अर्पण करने वाले मनुष्य को भी ब्रह्म ही कहता है। शायद उपनिषद के मन्त्रदृष्टा ऋषि को 'अहंब्रह्मास्मि' और 'तत्त्वमसि' वाला अनुभव तभी हुआ होगा ।शायद इसी तरह अग्नि पूजक जरथ्रुस्त को ,हजरत मूसा और ईसा मसीह को, हजरत इब्राहीम और मुहम्मद पैगम्बर साहब को भी इसी तरह खुदा,अल्लाह का इल्हाम हुआ होगा ।

 आवश्यकता आविष्कार की जननी है ,धरती पर 'मनुष्य' नामक प्राणीको 'ईश्वर'की जरूरत महसूस हुई,उसने उसे खोज लिया। हालाँकि जब कभी किसी तर्क बुद्धि और विज्ञानवेत्ता ने प्रश्न किया तो उसके समक्ष श्रद्धा -विश्वाश रुपी प्रतिप्रश्न खड़ा कर दिया। कहा गया कि श्रद्धा -विश्वाश के बिना दुनिया में 'ईश्वर' का कोई अस्तित्व नहीं। याने ईश्वर पराश्रित है ,वह 'सतचित-आनंदघन ' नहीं है। नास्तिक फिर सवाल कर सकता है कि जो खुद ही पराश्रित है वह 'सर्वशक्तिमान' ईश्वर कैसे हुआ ?जो श्रद्धा -विश्वाश पर आश्रित है, जो दूसरे पर आश्रित है वह उसकी मर्जी के बिना 'कर्मफल' कैसे दे सकता है ?  अर्थात ईश्वर का अस्तित्व आस्था- श्रद्धा और विश्वाश पर तिलक हुआ है। यदि यह सच है तो कहा पड़ेगा कि आस्तिक-नास्तिक और ज्ञानी-अज्ञानी सब बराबर हैं।इसलिए यह कहावत चल पड़ी कि मान लो  तो पत्थर भी देवता है वरना वह पत्थर ही है ।

मानव इतिहास के हर दौर में ईश्वर के अस्तित्व पर दलीलें दीं जातीं रहीं हैं और सवाल भी खूब उठाये जाते रहे हैं। धर्मभीरु और भयभीत मनुष्य ने जब कभी -जहाँ कहीं  'ईश्वर' को स्वीकार किया है तो तत्काल उसके विरोध में भी आवाज उठी है । 'अस्ति' का विरोध एवम 'नास्ति' की स्वीकारोक्ति भी दुनिया के प्रत्येक  सभ्य समाज और हर युग में सुनाई देती रही है। भारत,पर्शिया ,यूनान,चीन ,इजरायल जैसे कुछ देशों की सभ्यताओं के शुरुआती दौर में ही भाषा के आविष्कारने  धर्म-मजहब से निर्धारित जीवन शैलीके विधान रचेहैं। भारतीय उपमहाद्वीप में संस्कृत और अन्य भाषाओँ के उद्भव -विकास ने आस्तिक-नास्तिक,जीवात्मा-परमात्मा, माया -जगत  इत्यादि अनगिनत शब्दों का अद्भुत पिटारा रचने में मानव समाज की मदद की है ।

भारतीय अद्वैत वेदान्त ने हजारों साल पहले शिद्दत से माना था कि जो-जो 'अस्ति,भाति,प्रियम 'है वह निर्गुण 'ब्रह्म' है अर्थात जो सदा से सर्वत्र है ,जो स्वयम की ज्योति से प्रकाशित है और जो सहज ही प्रिय है वही निर्गुण निराकार 'परमब्रह्म' है। नाम,रूप  माया है। यह माया याने नाम -रूप जब अस्ति ,भाति ,प्रियम के साथ  संयोजित होते हैं तो सगुण साकार ईश्वर'अवतरित' हो जाता है।जो व्यक्ति वेदों में और वेदान्त सिद्धांत में आस्था श्रद्धा रखता है उसे ही आस्तिक कहते हैं। जो इसे नहीं मानता उसे नास्तिक कहते हैं। ब्रह्म,जीव,माया जगत ,आस्तिक,नास्तिक इत्यादि शब्द वेदान्त दर्शनकी देन हैं। नास्तिक -आस्तिक शब्द  केवल वैदिक मत या वैदिक धर्मकी उपज हैं , वैदिकधर्म से बाहर के अन्य धर्म-मजहब के लिए समक्षक समीचीन शब्द क्या हैं यह मुझे नहीं मालूम ! इस्लाम का काफिर शब्द संस्कृत के नास्तिक का पर्यायवाची नहीं हो सकता ,क्योंकि इस्लाम में अन्य धर्म मजहब  मानने वाले को भी काफ़िर कहा गया है। जबकि वैदिकधर्म अन्य सभी धर्मों को मान्यता देता है। वैदिक ऋषि पूर्ण विश्वाश के साथ कहता है 'एकम सद विप्र :वदन्ति' ! अर्थात जिस तरह तमाम नाले नदियाँ समुद्र की ओर मुखातिब हैं ,उसी तरह संसारके सभी धर्म-मजहब उस 'एक सर्वशक्तिमान ईश्वर' की ओर  मुखातिब हैं। वैदिकधर्म में नास्तिक उसे कहा गया है जो  वैदिक परम्परा के अनुसार जीवन नहीं जीता। चूँकि वैदिक परम्परा के अनुसार जीवन जीने वाले मुठ्ठी भर ही होंगे ,भारत में हजार पांच सौ 'आस्तिक'ही होंगे। अस्ति -नास्ति के सिद्धान्तानुसार तो दुनिया के सात अरब लोग नास्तिक ही हैं।  चूँकि आलोच्य संदर्भ मेरी बौद्धिक क्षमता से बाहर है। इसलिए मैंने भारतीय और विशेषतः वैदिक परम्परा के बरक्स ही आस्तिक बनाम नास्तिक का तुलनात्मक विश्लेषण किया है ।

अधिकांस हिन्दू इस पौराणिक 'मिथ' को जानते हैं कि भृगु ऋषिने भगवान् विष्णु की छाती पर लात मारी थी।किन्तु यह बहुत कम लोग जानते हैं कि क्यों मारी थी ?यह पौराणिक मिथ केवल इसलिए नहीं गढ़ा गया कि श्रीहरि विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से भृगु ऋषि की पत्नी का सिर काट लिया था ,बल्कि यह इस बात का द्वेतक है कि ज्ञानरुपी ऋषि ने धन-समृद्धि के स्वामी 'लक्ष्मीपति'को अपने पदतल से रौंद दिया था । अन्योक्ति को ठीकसे समझा जाए तो तात्यपर्य यह है कि 'ज्ञान'को ईश्वर पर बढ़त हासिल थी। यदि इसयुग का बुद्धिजीवी भृगु ऋषि जैसा साहस करे तो उसे'देशद्रोही'और नास्तिक कहा जाएगा। शुक्राचार्य ने हमेशा देवताओं के विरुद्ध षड्यन्त्र रचे। मुनि विश्वामित्र ने  ब्रह्मा की सृष्टि को ही चेलेंज किया और समानांतर सृष्टि भी रची।उन्होंने ब्रह्मा और उनकी रचनाओं अर्थात वेदों का अपमान भी किया।उन्होंने वशिष्ठ जैसे महान सज्जन गुरु के पुत्रों को अकारण मार डाला। उन्होंने  मेनका अप्सरा के साथ रंगरेलियां मनाई। किन्तु किसी ने उन्हें नास्तिक कहने का साहस नहीं किया। यदि वे २१वीं सदी के भारत में यह सब करते तो कलिबुर्गी ,पानसरे,और दाभोलकर की तरह मार दिए गए होते ।

दुनिया के किसी भी तथाकथित महान धर्म-मजहब की स्थापना बिना 'रक्तिम' क्रांति के सम्भव नहीं रही।केवल कुछ अपवादों को छोड़कर किसीभी धर्म-मजहब का विस्तार बिना धर्मयुद्ध या खून खराबे के सम्भव नहीं रहा।  ईसा मसीह को  सूली पर चढ़ना पड़ा। मुहम्मद साहब को मक्का से मदीना 'हिजरत' करनी पड़ी,अपनी प्राणरक्षा के लिए उन्हें खुद हिंसक होना पड़ा। हुसेन-हसन को कर्बलाके रेगिस्तान में शहादत देनी पडी। कुरुक्षेत्र ,कलिंग का रक्तरंजित इतिहास कोई 'मिथ' नहीं है बल्कि  सर्वमान्य और सर्वज्ञात है। भारतीय उपमहाद्वीप में धर्म -अधर्म के नाम का जितना भी बर्बर खूनी इतिहास मौजूद है उसके मूल में अन्याय ,अत्याचार और शोषण -उत्पीड़न का प्रतिकार बहुत कम लेकिन 'जर-जोरू-जमीन' और राज्यसत्ता पिपासा का फंडा ख़ास रहा है। धर्म सिर्फ वीरगति प्राप्त होने पर स्वर्गिक आनंद का काल्पनिक बहाना रहा हैअर्थात 'चढ़ जा बेटा सूली पर राम भली करेंगे' ।

देवासुर संग्राम में सिर्फ अमृतकलश का झगड़ा नहीं था बल्कि समुद्र मंथन से निकली लक्ष्मी और समस्त सम्पदा के बटवारे का द्वंद था। चाहे परशुराम द्वारा क्रूर सामंतवाद का नाश हो,चाहे राम -रावण का युद्ध हो ,चाहे कौरव-पांडव के बीच महाभारत का अठारह दिवसीय महायुद्ध हो ,सभी में एक 'नारी' विशेष की भूमिका अवश्य रही है। कृष्ण और कंस के संघर्ष में , बिम्बिसार से लेकर चण्डअशोक की रक्तपिपासा में , बृहद्रथ और पुष्यमित्र शुंग के द्वंद में, जड़ भरत बनाम बाहुबली संघर्ष में 'शक्तिशाली ही राज्य भोग करेगा' का सिद्धांत क्रियाशील होता रहा है। मानव इतिहास के हरेक द्वंद ने सत्य-असत्य को भी परिभाषित किया है। साथ ही साथ 'धर्मसंस्थापना' के क्रमिक विकास का भी काम किया है। क्रमिक विकास की अनवरत हिंसक दीर्घ यात्रा के हर पड़ाव में आस्तिक -नास्तिक की गाथा लिखी जाती रही है। 'हरि अनंत हरि कथा अनंता' की भाँति आस्तिक-नास्तिक गाथा भी अनंतहै किन्तु मैं उस पर संछिप्त ही लिखूंगा।  'उद्धरण' या ऐतिहासिक साक्ष्य प्रस्तुत करने की अनावश्यक मशक्क्त के बजाय मैं स्वअनुभूतिजन्य तथ्यान्वेषण में यकीन रखता हूँ। यह पाठक के विवेक और संचित ज्ञानकोष पर निर्भर है कि वह सिद्ध करे कि मैंने जो लिखा वह 'इस या उस' वजह से गलत है ! अन्यथा मेरे लेखन को यथावत स्वीकार करे !  

धर्म-अधर्म के सनातन विमर्श में 'सत्य' याने ईश्वर का प्रमुख स्थान रहा है। सत्यपथ पर कौन है ? आस्तिक अथवा नास्तिक ,इस बारे में बहस हमेशा जारी रही है।और यह बहस कभी खत्म नहीं होने वाली।क्योंकि कुछ भाववादी विद्वान हमेशा इस 'मत' पर दृढ़ रहेहैं कि अच्छा जीवन जीने या आत्मोद्धार के लिए आस्तिक होना बहुत जरुरी है ! लेकिन वे इसका जबाब नहीं दे पातेकि ईश्वर का अस्तित्व मनुष्य की चेतना पर ही आश्रित क्यों है ?  यदि सुसभ्य और विकसित मनुष्य भी पिछड़ी सभ्यताओं और अनीश्वरवादी जनजातियों की तरह सहज प्रमादी होते और वे कार्य-कारण के सिद्धांत का अन्वेषण नहीं करते तो दुनिया में ईश्वर का अस्तित्व ही नहीं होता ? मात्र अधिकांसत: आस्तिक लोग ही जेहादी क्यों बनते हैं ? धर्मांतरण और धर्म्-मजहब के आंतरिक -बाह्य संघर्ष के लिए आस्तिक  लोग ही जिम्मेदार क्यों होते हैं ? मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण में धर्म-मजहब की ताकतें शक्तिशाली शोषक वर्ग के पक्ष में क्यों खड़ी हो जातीं हैं ? सर्वधर्म समभाव के सिद्धांत में अटूट विश्वाश रखने वाला देश भारत सदियों तक विदेशी नास्तिकों के अधीन गुलाम क्यों बना रहा ?

यदि किसी को यह भ्रम है कि आस्तिकता ईश्वर का भय पैदा करती है और बुराई को रोकती है ,तो उसे इस भ्रम से तत्काल मुक्त हो जाना चाहिए !क्योंकि सारे मजहबी आतंकवादी,चोर,डकैत ,दवंग,बाहुबली,और शोषणकर्ता आस्तिक ही होते हैं। इसके विपरीत नास्तिक मनुष्य जरुरी नहीं कि सभी शहीद भगतसिंह जैसे महान क्रांतिकारी हों,किन्तु इतना तय है कि हर नास्तिक हर भ्रम से मुक्त रहता है !जबकि आस्तिक मनुष्य बहुत सारे भ्रम फैलाता है। आस्तिक कभी पत्थरकी मूर्ती को दूध पिलाता है ,कभी सुनामी ,भूकम्प ,जलजला , तूफान  इत्यादि  प्राकृतिक- घटनाओं को ईश्वर का प्रकोप बताता है। नास्तिक व्यक्ति भ्रम तोड़ता है वह ऐंसे ईश्वर में विश्वाश नहीं करता जो अपने बन्दों पर सुनामी या भूकम्प के द्वारा जुल्म करता है। नास्तिक बतलाता है कि यह जगत 'मिथ्या' नहीं है। वह पाप-पूण्य के दैवीय नियम की बनिस्पत  संसार में स्थापित मानवीय मूल्यों की कद्र करना सिखाता है, वह प्रत्येक कार्य को नैतिक-अनैतिक नियमों में आंकता है। वह अच्छाई -बुराई के मापदण्ड से मनुष्यता को मापता है। सच्चे नास्तिक को मालूम है कि मूल्यों और यथार्थ पर आधारित समाज व्यवस्था में पाखण्डवादी धर्म-मजहब की नही बल्कि 'सत्य और न्याय' और मानवता की तूती बोलती है। नास्तिक किसी का अहित नहीं चाहता बल्कि प्राणिमात्र का हित चाहता है। 'वैदिक ऋषि' नेभी सबसे पहले यही कहाथा 'नेति-नेति' अर्थात 'ईश्वर है या नहीं मैं नहीं जानता' इसके वावजूद वह कामना करता है कि 'सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामयः '! इसलिए यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि एक सच्चा विज्ञानवादी भौतिकवादी नास्तिक भी उस वैदिक ऋषि की तरह ही सोचता है !     

सृष्टि के आदि में जब मनुष्य पशुवत जीवन जीता था तब धर्म नहीं था। मनुष्य ने सबसे पहले बोलना ,हंसना ,रोना और गाना सीखा होगा। बाद में आवश्यकतानुसार तमाम अनुसन्धान होते चले गए। आदिम मनुष्य ने कभी आग को, कभी समुद्र को, कभी सूर्यको, कभी चाँद तारोंको कौतूहल से देखा होगा। इसी विकास क्रम में उसने 'अज्ञात' शक्ति की कल्पना की होगी। कालांतर में उसका यह आविष्कार 'दंड' देने और समाज को नियंत्रित करने में काम आया। लेकिन अधिकांस धर्म-मजहब के उदभव की सदियाँ बीत चुकीं ,धर्म- मजहब खूब परवान चढ़ चुके हैं ,तो फिर ये  मजहबी पाखंड, धार्मिक उन्माद और हिंसा का नंगा नाच अभी तक क्यों बरकरार है ? जहाँ-जहाँ धर्म के, मजहब के, संगठित ठिकाने हैं ,वहाँ -वहाँ अधर्म ,अंधश्रद्धा ,अंधविश्वास और हिंसा का बिकट बोलवाला क्यों है ?

सिर्फ १९ वीं शताब्दी के दार्शनिक -रूसो ,बाल्टेयर ,हीगेल ,ओवेन अथवा मार्क्स ही नहीं बल्कि आधुनिक उन्नत तकनीकि युग के डेमोक्रेटिक राजनीतिज्ञ और सामाजिक समताकी आकांक्षा के प्रगतिशील विचारक और चिंतक भी इन सवालों की खोज में आजीवन सर धुनते रहे।उन्होंने माना कि मेहनतकश जनता को धर्म-मजहब के नाम पर ठगने वालों में 'आस्तिकों' की तादाद ही सर्वाधिक है। ऐतिहासिक द्वंदात्मक भौतिकवाद केलिए इससे  कुछ   मतलब नहीं कि आप आस्तिक हैं या नास्तिक !महत्व इस बात का है कि आपकी आस्तिकता अथवा नास्तिकता आपको किधर ले जाती है। यदि आपकी आस्तिकता आपको अच्छा मनुष्य बनाने में मदद करती है ,शोषणविहीन समाज बनाने में मदद करती है तो ऐंसी आस्तिकता का स्वागत है। यदि आपकी आस्तिकता से धर्मान्धता बढ़ रही है ,आतंकवाद बढ़ रहा है ,निर्धन मजदूर-किसान लूट-पिट रहा है ,देश कायरता एवम गुलामी के दलदल में धस रहा है तो ऐसी आस्तिकता को दूरसे ही नमस्कार!यह आस्तिकता तो सीधे सरल इंसान की शत्रु है ,मनुष्य की घोर विरोधी है।

यदि आपकी नास्तिकता से धरती के इंसान को सौरमण्डल का ज्ञान हासिल होता है,यदि आपकी नास्तिकता से चेचक के टीके और का आविष्कार होता है ,यदि आपकी नास्तिकता से साम्राज्यवाद का सूर्य अस्त होता है ,यदि आपकी नास्तिकता से कोई रोता हुआ  हँसने लगे ,यदि आपके नास्तिक या अनीश्वरवादी होनेके वावजूद आपके अपने माता-पिता ,वरिष्ठजन खुशहाल हैं ,यदि आप रिश्वतखोर नहीं हैं ,यदि आप अनैतिक कार्यों से दूर हैं ,और यदि आप  अपने देश के लिए समर्पित हैं तो आपकी नास्तिकता को शत -शत नमन ! ईश्वर आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। ईश्वर यदि वास्तव में है तो भी वह अकारण किसी निर्दोष प्राणी को क्यों सताएगा ?वह सिर्फ इस बिना पर सताने की जुर्रत क्यों करेगा कि इंसान ने उसे सिजदा नहीं किया या प्रणाम नहीं किया !ईश्वर अल्लाह गॉड कोई ईर्ष्यालु हस्ती तो है नहीं कि हर उस इंसान से बदला लेता फिरे जो उसकी 'भक्ति'[चमचागिरी] न करे !

उन्नीसवीं  शताब्दी में मार्क्स -एंगेल्स के हस्तक्षेप के बाद ,आस्तिक-नास्तिक की यह बहस विज्ञान और तर्ककी कसौटी पर आधरित हो गई। अब धर्म-मजहब का आंतरिक संघर्ष सिर्फ भाववादी दर्शन तक सीमित नहीं रहा ।  इसमें साइंस और तर्कवाद भी पूरी शिद्दत के साथ के मौजूद है।जबसे विज्ञान ने चन्द्रमा को मृत पिंड सावित किया है , जबसे एलोपेथी ने मानव समेत अन्य प्राणियों के शरीरों का रिसर्च किया है ,जबसे कृतिम गर्भाधान और कृतिम वर्षाका आविष्कार हुआ है ,तबसे साइंस का पक्ष ज्यादा विश्वनीय और अकाट्य  सिद्ध हुआ है। किन्तु साइंस वाले और भौतिकवादी उस एक मुद्दे पर ढेर हो जाते है ,जब 'भावजगत' का कोई विद्वान यह तर्क देता है कि मनुष्य की क्षमता के बाहर का जो 'क्षेत्र' है उसपर साइंस भी कोई निर्णय नहीं दे सकता। उनके अनुसार जो मनुष्य के चिंतन से बाहर का क्षेत्र है वही  'ईश्वर' है। मानलो  मनुष्यकी बुद्धि और विवेकसे बाहर का क्षेत्र 'असत्य' है ! तबभी अनेक प्रश्न उठते हैं कि ज्ञान क्या है ?अज्ञान क्या है ?सृष्टि का कर्ता अथवा 'कारण' कौन है ? सूर्य और उसके सौर मंडल का 'कारण' कौन है ? ये आकाशगंगाएँ ,ये नीहारिकाएँ, ये अखिल ब्रह्मांड कहाँ से आये ? जब तलक इन प्रश्नों का प्रमाणिक और तार्किक जबाब नहीं मिल जाता ,तब तक 'गणित में मानाकि सौ पर एक' की तरह हम भी मान लेते हैं कि जिन सवालों के उत्तर मनुष्य के पास नहीं हैं वे अतीन्द्रिय और अलौकिक हैं। इसलिए 'ईश्वर'के अस्तित्व को स्वीकारने के अलावा कोई चारा नहीं है । और उनका उत्तर जिसके पास है वही 'ईश्वर' है ! इसमें आस्तिक-नास्तिक अथवा ईश्वरवादी -अनीश्वरवादी की बहस बेमतलब ही है। 

यदि किसी उच्च शिक्षित साइंटिस्ट अथवा भौतिक विज्ञानी ने वेदांत दर्शन- अध्यात्म ज्ञानके साथ -साथ द्वंदात्मक भौतिकवाद का अध्यन किया हो! यदि किसी उद्भट जिज्ञासु अध्यनशील वेदवेत्ता दर्शनशास्त्रीने यूनान,रोम, अरब, यूरोप के इतिहास और दर्शन का  अध्यन किया हो ! यदि किसी कुसल पाश्चात्य सर्जन- फिजिसियन ने अंगेरजी संस्कृत,पाली,प्राकृत,अपभ्रंस इत्यादि भारतीय पुरातन साहित्य का अध्यन किया हो ! यदि किसी वैदिक वांग्मय के ज्ञाता -स्कालर ,आचार्य ,शंकराचार्य ने 'चार्ल्स डार्विन का विकासवाद' भी पढ़ लिया  हो और न्यूटनके गतिज नियम एवम आइंस्टीन के 'सापेक्षतावाद का अध्यन भी किया हो! यदि किसी तुर्रमखां मुल्ला-मौलवी ने महापण्डित राहुल सांकृत्यायन की तरह इस्लामके अलावा बौद्ध जैन तथा वैदिक मत की भी हजारों पाण्डु लिपियाँ पढ़ डाली हों और इसके साथ -साथ उसे 'ऊर्जा की अविनष्टता' के सिद्धांत का भी ज्ञान हो !ऐंसा मनुष्य भी 'ईश्वर' के बारे में कोई भी अधिकृत स्थापना नहीं दे सकता।

 यदि समस्त भूमण्डल पर कोई ऐंसा असाधारण मनुष्य है जिसने भगवदगीता ,जिंदावेस्ता ,कुरान ,बाइबिल ,न्यू एन्ड ओल्ड टेस्टामेंट,गुरुग्रन्थसाहिब, अभिधम्मपिटक ,जैनआगम ,साइंस,दर्शनशात्र,विश्वइतिहास,विभिन्न रेनेसाँ राजनैतिक क्रांतियाँ , इनसाइक्लोपीडिया ,चार्वाक, चाणक्य ,नीत्से और  मार्क्स,के डायलेक्टिकल हिस्टोरिकल मेटेरियलिज्म का अध्येता है ऐंसा महान अतिमानव भी  'ईश्वर' विषयक प्रतिक्रया का अधिकारी नहीं हो सकता !क्योंकि 'ईश्वर' अनंत , अखण्ड,सर्वव्यापी और 'अविरल'  है ,जबकि मनुष्य की मेधा शक्ति,विवेक शक्ति और चिंतन क्षमता सीमित है।

हालाँकि वैज्ञानिक बुद्धि और प्रगतिशील दॄष्टिवाला सच्चा अध्येता  अच्छी तरह जानता है कि 'ईश्वर', धर्म-मजहब की खोज बाकई मनुष्य ने ही की है। मानवीय सभ्यताओं के इतिहास में मनुष्य द्वारा की गईं कल्पनाओं में 'ईश्वर' उसकी सर्वश्रेष्ठ कल्पना है। भारतीय उपमहाद्वीप में जब तक 'वेद' लिखे जाते रहे ,तब तक लौकिक देवता अर्थात आकाश,अग्नि,पृथ्वी,वायु, सूर्य,चन्द्र ,नक्षत्र ,गृह, नदी ,पर्वत ,गज,सर्प और 'वनस्पति' इत्यादि ही मनुष्य द्वारा पूजित थे। इसके बाद ऋग्वेद मन्त्रों और वैदिक वांग्मय में कर्म के रूपमें 'यज्ञ' प्रकट हुआ। इंद्र,अग्नि,वरुण,मित्र अहुरत, सुपर्णों ,गरुत्मान,वैश्वानर और सूर्य इत्यादि देवताओं को 'हवि ' दी जाने लगी। सरस्वती,उषा,संध्या,छाया इत्यादि देवियों को भी यज्ञ में आहुति दी जाने लगी। पुराणकाल तक आते-आते वैदिक वांग्मय में उल्लेखित मन्त्रों -सूक्तों के नए भाष्य लिखे जाने लगे। नयी व्याख्या के अनुसार अश्व, गज,सर्प ,पीपल,पर्वत,नदियां और'सत्पुरुष' के रूप में स्वयम  मनुष्य भी पूज्य हो गया। मनुष्यने ईश्वरके निमित्त 'भक्ति' और योग नामक विधाओं का भी शानदार अनुसंधान कर लिया।

वैदिक ऋषि बहुत ही मेधाशक्ति के उद्भट विद्वान हुआ करते थे। हजारों साल की वैदिक परम्परा में उत्तरोत्तर अनुगमन करते हुए वैदिक ऋषि इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ''इंद्रम मित्रम वरुणम अग्निम अहुरथो,दिव्या सा सुपर्णों गरुत्मान. एकम सद विप्र: बहुधा बदन्ति ''। उपनिषदकाल तक आते-आते  मन्त्रदृष्टा वैदिक ऋषियों ने पाँच प्रमुख घोषणायें कीं। एक -मानवीय बुद्धि और ज्ञान शक्ति सीमित है , इस वजह से हम[मनुष्यगण] 'असीमित' ईश्वर को नहीं जान सकते। दो- सृष्टि के अस्तित्व का 'कारण' ही 'ईश्वर' है जो अपनी माया के संयोग से जीवमात्र को 'शरीर'  प्रदान करता है। तीन- जीवमात्र के दुःख-कष्ट का कारण उनके काम्यकर्म ही हैं वे अपने-अपने कर्म जनित फल- प्रारब्ध के रूप में भोगने को बाध्य हैं। चार- धरती पर ईश्वर प्राप्ति अथवा 'जीवन मुक्ति' का एकमात्र साधन  मानव देह ही  है। पाँच -विनम्रता,क्षमा,दया,दान,परोपकार,अहिंसा और सत्य से ईश्वर का अनुभव किया जा सकता है।

 वैदिक ऋषियों की इन तमाम आध्यात्मिक खोजों और परिकल्पनाओं में 'आवश्यकता आविष्कार की जननी है' का सार्वभौम सिद्धांत काम करता रहा है। उपनिषद -आरण्यकों के ऋषियों के चिन्तन में पर्याप्त वैज्ञानिकता और तार्किकता मौजूद है। 'वेदांत दर्शन ' में तो कोई पाखण्ड या भृम नहीं है। बल्कि उसमें  भृम निवारण के अनेक सूत्र और सिद्धांत मौजूद हैं। यदि १९ वीं सदी के जर्मन दार्शनिकों और पश्चिम के अन्य भौतिकवादियों ने वेदांत को पढ़ा समझा होता तो वे नीत्से के उस विचार से सहमत नहीं होते जिसमें उसने कहा था ''ईश्वर मर चुका है ''!क्योंकि वेदांत वाला ईश्वर तो अजर-अमर -अविनाशी और मानवीय इन्द्रियों से परे है ,इसलिए जब मनुष्य के लिए 'ईश्वर' को जान लेना ही अशक्य है, तो वह कैसे कह सकता है कि ईश्वर का अस्तित्व ही नहीं है ? वेशक जो आँख मीचकर आस्तिक हैं और ईश्वर के होने का १००% दावा करते हैं वे भी नहीं जानते कि 'ईश्वर' क्या है ? और कैसा है ? यदि कोई दावा करताहै कि उसने ईश्वर को देखा है या उसका चमत्कार देखाहै तो यह दावा गलत हो सकता है, क्योंकि जब वैदिक मंत्रदृष्टा ऋषि ही कहते रहेकि ''नेति-नेति'अर्थात ' हम नहीं जानते-हम नहीं जानते' तो और किसकी मजालहै कि कहदे 'मैंने देखा है '? कहने का तातपर्य यह कि आस्तिक-नास्तिक शब्दों का ईश्वर से कोई सम्बन्ध नहीं !   श्रीराम तिवारी !

बुधवार, 18 जनवरी 2017

उसे तैमूर में कपूर नजर आ रहा है !

 सैफअली खान - करीना कपूर ने अपने नवजात शिशु  का नाम 'तैमूर' रख दिया तो उसके विरोध और समर्थन में काफी प्रतिक्रियांएँ आना स्वाभाविक है। मुझे इससे कोई लेना-देना नहीं है कि कोई हीरो-हीरोइन अपने बच्चों का नाम क्या रखता है? कुछ लोग तो ऐंसे नाम भी रख लेते हैं कि समझ ही नहीं पड़ता कि इंसान का नाम है या कुत्ते का ! लेकिन जब कोई व्यक्ति किसी दूसरी कौम की लड़की को प्यार मोहब्बत के जाल में फंसाकर शादी कर ले और औलाद का नाम अपनी वंशावली के अनुसार रखे ,तो यह बदमाशी है। यह उस महिला के पैतृक और मातृ पक्ष को ललकारने का, चिढ़ाने का सबब भी है। यद्द्पि  मैं वास्तविक धर्मनिरपेक्षता का पक्षधर हूँ, किन्तु सैफ की  स्वेच्छाचारिता का समर्थन नहीं करूँगा। सैफअली ने व्यंग कसा है कि क्या 'नामकरण'से पहले मुझे जाहिर सूचना प्रकाशित करनी चाहिए थी ,कि किसी को यदि 'तैमूर' नाम पर आपत्ति हो तो सूचित करे !यह सीनाजोरी है ,शायद सैफअली खान को नहीं मालूम कि उसके डीएनए में तैमूरलंग ,सुबुक्तगीन ,गजनवी ,गौरी,अब्दाली नहीं बल्कि उसमें उसमें राम और रहीम की भारतीयता का अंश भी है ! इस देश में इकतरफा ठेलमबाजी किसी की भी नहीं चलेगी। गंगा  जमुनी तहजीब का मतलब यह नहीं जो सैफ अली और उसके तरफदार बता रहे हैं ,बल्कि वह तो उस तहजीब से मापी जायेगी जिसमे उसकी रगों में तैमूर का नहीं 'टैगोर'का अंश है। फिर भी उसे  केवल तैमूर नजर आ रहा है तो दाल में कुछ काला है। श्रीराम तिवारी !

'तैमूर' के समर्थकों को मालूम हो कि वह एक बाहियात किस्म का लंगड़ा लुटेरा और इस्लाम का विरोधी था। तैमूर ने ऐंसा कोई पुण्य का काम नहीं किया कि उसके नाम को इतिहास के पन्नों पर स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाए। ये बात जुदा है कि तैमूर की तीसरी पीढी और चंगेजखान की छठी पीढ़ी के घालमेल से अब्दुल्ला उज्वेग का जन्म हुआ था,जो बाबर का बाप था। बाबर- हुमायुँ बाप बेटे  ने जीवन भर सिर्फ  मारकाट मचाई थी। हुमायूँ का एक पुत्र अकबर जरूर इतिहास में याद रखने योग्य है। अकबर मात्र तेरह साल की उम्र में ही हथियार उठाकर युद्ध में मरने मारने के लिए निकल पड़ा था। वास्तव में अकबर की बुद्धि तब जागी जब  उसे टोडरमल,रहीम बीरबल जैसे शानदार नवरत्न मिले। बैरमखाँ ,राजा भगवानदास,राजा मानसिंह,टोडरमल ,तानसेन,बीरबल,अबुल फजल, मुल्ला दो प्यादा और अब्दुल रहीम खान-ए-खाना। ये सभी दरबारी अपने-अपने क्षेत्र के उदभट विशेषज्ञ थे।

अकबर और रहीम साहत्यानुरागी एवम काव्यरसिक भी थे। अब्दुलरहीम खान-ए -खाना अवध के सूबेदार और दस हजारी मनसबदार भी थे। उन्हें नीति साहित्य और काव्य सृजन  में विशेष अभिरुचि थी।अब्दुलरहीम के पिता बैरमखां अकबरके अभिभावक थे। बैरमखां से मनमुटाव होने पर अकबर ने उन्हें जबरन हज के लिए भेज दिया। रास्ते में किसी ने बैरमखाँ को मार डाला।बैरमखाँ -अब्दुल रहीम के पूर्वज बाबर,हुमायूँ,अकबर की तरह तैमूर-चंगेज अर्थात तुर्क-मंगोल-उज्वेग नस्ल के ही थे। रहीम की माता अवश्य एक कश्मीरी पंडित की बेटी थी। हुमायूँ के सिपहसलार बैरमखाँ ने जब कश्मीर फतह की और  लूट के माल के साथ-साथ लाहौर लौटा तो साथ में कुछ सूंदर युवतियाँ भी अपहरण करके लाया था। ये युवतियाँ  हुमायूँ के सामने पेश कीं,गईं, हुमायूँ ने बैरमखाँ की इस बहादुरी से खुश होकर, एक सूंदर कश्मीरी ब्राह्मण लड़की उसे भी बख्शीश में दी। बैरमखाँ और कश्मीरी युवती के पुत्र का नाम अब्दुल रहीम रखा गया । बैरमखाँ जैसे कट्टर सुन्नी मुसलमान ने भी अपने बेटे का नाम तैमूर नहीं रखा। बल्कि 'रहमदिल' का सूचक रहीम नाम रखा! कालान्तर में इन्ही रहीमकी बफादारी और बहादुरी से खुश होकर, काव्य रसिकता से प्रभावित होकर, अकबर ने रहीम को 'अब्दुल रहीम खान-ए खाना' का ख़िताब दिया।

रहीम ने कभी-कभी गोस्वामी तुलसीदास जी ,नरहरिदास,तानसेन और बीरबल को भी अपने स्वरचित दोहे सुनाये। जनश्रुति है कि जब रहीम और तुलसीदास दोनों चित्रकूट में थे तब एक बार गोस्वामी तुलसीदास जी ने रहीम को आधा दोहा लिख भेजा। जिसका जबाब रहीम ने भी आधे दोहे में ही दिया । इस तरह तुलसी और रहीम दोनों की संयुक्त रचना -निम्नाकित दोहे के रूप में इस प्रकार है :-

दोहा :-   सुरतिय नरतिय नागतिय ,क्या चाहत सब कोय।

              गोद लिए हुलसी फिरे ,तुलसी सो सुत होय।।


  अर्थ :- दोहे की पहली वाली लाइन तुलसीदास जी की है ,वे रहीम कवि से सवाल करते हैं कि 'संसार की समस्त नारियाँ क्या चाहतीं हैं ?' दोहेकी दूसरी वाली लाइन रहीमकी है जिसमें वे तुलसीदासजीको जबाब देतेहैं कि संसार की हर नारी वही चाहती है जो आपकी माता 'हुलसी' चाहती थीं। याने कि हर 'नारी अर्थात हर माता चाहती है कि 'तुलसी' जैसा महान सन्त कवि और साहित्यकार पुत्र उनको भी प्राप्त हो !

अब्दुल रहीम खान- ए-खाना खुद पाँच  बक्त के नमाजी और कट्टर सुन्नी मुसलमान थे। किन्तु उन्होंने अकबर को धर्मान्ध नहीं होने दिया। अकबर और रहीम जितना इस्लाम को मानते थे, उतना ही हिन्दू परम्पराओं और शास्त्रों को भी मानते थे। जैन,बौद्ध और क्रिश्चयन धर्म को भी सम्मान प्राप्त था। श्रीकृष्ण के प्रति रहीम के अनन्य प्रेम की पराकाष्ठा को कौन नहीं जानता ? रहीम के  श्रीकृष्ण प्रेम की बानगी इस एक दोहे में देखिये  :-

          यों रहीम मन अपनों ,चितवत चन्द्र चकोर।

          निशि वासर लाग्यो रहे ,कृष्ण चन्द्र की ओर।।

अर्थ ;-  प्रस्तुत दोहे के माध्यम से कविवर रहीम कहते हैं कि हे श्रीकृष्ण ! मेरा मन रात-दिन सतत आप में ही डूबा रहे , जैसे कि चकोर पक्षी पूर्णचन्द्र को सतत निहारता रहता है,उसी तरह मैं भी निरन्तर श्रीकृष्णमें ही लीन रहूँ !

रहीम ने ऐसे हजारों दोहे लिखे हैं। हर एक दोहा लिखने के बाद वे सबसे पहले सम्राट अकबर को मधुर राग- रागनी के साथ फुर्सत के क्षणों में सुनाया करते थे। जनश्रुति है कि सम्राटअकबर एक बार लखनऊ पधारे। वहाँ से आगरा -फतेहपुर सीकरी लौटते वक्त अवध के सूवेदार रहीम ने उन्हें अयोध्या की यात्रा करने और सरजू स्नान का सुझाव दिया। अकबर ने यह प्रस्ताव सहज स्वीकार कर  लश्गर को फैजाबाद कूच का फरमान सुनाया।
फैजाबाद से अयोध्या की यात्रा अकबर ने घोड़े से पूरी की।वे जब अयोध्या पहुंचे तो सुसज्जित हाथी पर स्वर्णिम हौदे पर सवार होकर अकबर ने अयोध्या और सरजू का दर्शन किया। इस दौरान बादशाह के हाथी ने अपनी सूंड में रास्ते की बहुतसी धूल भरकर ऊपर उछाल दी।अधिकांस धूल हौदे पर बैठे अकबर के ऊपर गिरी।अकबरकी सूरत बदरंग हो गई। गुस्से में उन्होंने रहीम से पूँछा -ये क्या हरकत है ?हाथी ऐंसा क्यों कर रहा है ?  रहीम ने तब कोई जबाब न देकर, २१ वीं शताब्दी के सरकारी अफसर की तरह सिर्फ इतना कहा -'दिखवाता हूँ' हुजूर !

इस घटना से अब्दुल रहीम खान-ए -खाना को रात भर नींद नहीं आई। दूसरी ओर उनके विरोधियों ने अकबर के कान भरना शुरूं कर दिए कि रहीम ने जानबूझकर एक अनाड़ी हाथी के मार्फ़त 'हुजूर' को अयोध्या की ख़ाक में नहलवाया है। नमक मिर्च लगाकर  यह भी कहा गया कि अब्दुल रहीम अब इस अवध की जागीरके काबिल नहीं हैं। इधर रहीम ने अलसुबह उठकर पहले  नमाज पढ़ी, फिर भगवान् श्रीकृष्ण का पूण्य स्मरण किया और तत्काल एक दोहा लिखा :-

धूरि धरत गज शीश पर ,कहु रहीम केहिं काज।

जेहिं रज मुनि पत्नी तरी ,सोउ ढूंढ़त गजराज।।

अर्थ:- हे ! शहंशाह अकबर ,आपने पूंछा है कि  हाथी अपने सिर पर धूल क्यों फेंक रहा है ? मैंने इसकी पड़ताल कर ली है। जिस 'चरण रज' से  गौतम ऋषि की अपावन पत्नी अहिल्या का उद्धार हुआ था ,यह हाथी उसी चरण रज को खोजता फिर रहा है। याने श्रीराम जी की उस चरण रज से बादशाह अकबर आप भी कृतार्थ हो चुके हैं।

रहीम का दोहा  सम्राट अकबर को बहुत पसन्द आया। उन्होंने रहीम को बड़े-बड़े इनाम-इकराम दिये। रहीम की देखा-देखि रीतिकाल के कवियों ने भी राज्याश्रयी काव्य लिखकर अपने पाल्य राजाओं से इनाम -इकराम पाये , किन्तु रहीम और तुलसी की बराबरी  कोई नहीं कर सकता  क्योंकि रस छंद लालित्य और काव्य सौंदर्य तो सबके पास था किन्तु तुलसी जैसा समन्वयकारी विशिष्ठाद्वैत,रहीम जैसा सर्वधर्म समभाव और सहिष्णुता बाकी कवियों में नहीं थी। कविवर रहीम के इस शानदार मेटाफर को सम्राट अकबर ने बखूबी समझा,इसलिए वह 'अकबर महान' हो गये।गोस्वामी तुलसीदास ने समझा,वे 'राम से अधिक राम कर दासा ' हो गए। किन्तु सैफअलीखान ,शाहरुख़ खान ,दाऊद खान ,अबू सलेम को 'तैमूर की याद सता रही है। उधर कुछ 'रामभक्तों को गोडसे की याद सतारही है। जबकि धर्मनिरपेक्ष और सहिष्णु लोगों को कबीर,तुलसी अकबर ,रहीम ,दारा शिकोह,बहादुरशाह जफर की याद आती है। ग़ालिब,खुसरो और नजीर अकबरावादी को समझने के लिए भारतीय वांग्मय वेत्ता होने की जरुरत नहीं है। द्वंदात्मक -भौतिकवाद को जानने कीभी जरूरत नहीं है।सिर्फ भारतकी 'गंगा जमुनी तहजीव' ही काफी है। धर्मनिरपेक्षता की शानदार परम्परा का ज्ञान नहीं होने से कुछ लोग तैमूर,गजनी,गौरी ,बिन कासिम को याद करते हैं। जबकि यह आवश्यक है कि अकबर,रहीम,दारा शिकोह ,अमीर खुसरो, बहादुर शाह जफर ,नजीब - अकबरावादी की परम्परा ,गंगा जमुनी तहजीब और  वास्तविक धर्मनिर्पेक्षता का सम्मान हो।

बाबर से लेकर बहादुरशाह जफर तक ऐंसा कभी नहीं हुआ,जैसा आजाद भारतमें २१ वीं सदीमें हो रहाहै।वेशक मुगल परम्परा थी किउनके 'हरम' में 'हिन्दू' औरतों का बाहुल्य हो। किन्तु मुगल सल्तनत के दौर में हिन्दू औरतों को महारानी का बड़ा रुतवा भी था। सिर्फ जोधा बाई ही नहीं बल्कि जहांगीर की पहली दोनों बीबियाँ राजपूतनी ही थीं। मुगल हरम में रहकर भी उन्होंने हिंदुत्व को ख़ारिज नहीं किया। इस्लाम का विरोध भी नहीं किया। लेकिन सैफ अली खान हों ,शाहरुख़ खान हों या  दाऊद,अबू सलेम हों उनके लिए सिर्फ हिन्दू लड़कियाँ चाहिए और वे सिर्फ हवश का साधन मात्र हैं।यही वजह है कि कुछ नादान हिंदुत्ववादी धर्मनिपेक्षता पर ही प्रहार करते रहते हैं। वे यह भी प्रचारित करते रहते हैं कि हिंदुत्व को इस्लाम से खतरा है। जबकि हिंदुत्व को इस्लाम से नहीं पाखण्ड से खतरा है।  इस्लाम को हिन्दू-ईसाई ,जैन-बौद्ध से नहीं आईएसआईएस से खतरा है ।स्वामी विवेकानंद ने खुद इस्लाम को भारत का शरीर और हिंदुत्व को इसकी 'आत्मा' कहा था। प्रत्येक भारतीय के मन में प्रश्न उठ सकता है कि भारत को तैमूर चाहिए या रहीम ! सैफअली खानको तैमूर  पसन्द है। लेकिन करीना ने सैफसे शादी करके क्या पसन्द किया ?अपने अस्तित्व को खत्म कर दिया। क्या उसे तैमूर में  कपूर नजर आ रहा है? राजपूतानियों के जौहर की पैरवी मैं नहीं करता किन्तु तहजीव का इतना अवमूल्यन जोधा बाई,जगत हुसेनी और अन्य हिन्दू रानी - महांरानियों ने भी नहीं होने दिया। गुलामी के दौरमें भी यह नहीं हुआ जो इस दौर की करीना कपूर,सरोज खान  , गौरीखान ,मलाइका खान,पार्वती खान इत्यादि करती रहीं हैं। सैफ करीना का यदि यह व्यक्तिगत मामला है,तो मेरी भी व्यक्तिगत सोच  है कि मैं 'तेमूर'को  रिजेक्ट करूँ और अब्दुल रहीम -तुलसी खुसरो को पसन्द करूँ।

 धर्मनिरपेक्षता से जब रहीम कोई परेशानी नहीं रही। लेकिन आजकल के अधेड़ परस्त्रीकामियों ने धर्मनिरपेक्षता का बंटाढार कर दिया है। वे नहीं जानते कि वर्तमान संसदीय लोकतंत्र के लिए भी रहीम की 'गंगाजमुनी' तहजीब  एक बहुत बड़ा वरदान है।भारतीय संविधान निर्माताओं ने स्वाधीनता संग्राम की ज्वाला  में तपकर तैयार हुई गंगा जमुनी संस्कृति को, महान अक्टूबर क्रांति के मूल्यों को , फ्रांसीसी क्रांति के मानवीय सिद्धांतों को और दुनिया की तमाम शांतिकामी आवाम के सर्वप्रिय धर्मनिरपेक्षता सिद्धांत को अनुशंषित किया है। गांधीजी ने इसे 'अमन' की संजीवनी बूटी माना है। सुभाष बोस ,भगतसिंह,पँ.नेहरू गणेश शंकर विद्यार्थी, बाबा साहिब आंबेडकर और सभी स्वाधीनता सेनानियों ने धर्मनिरपेक्षता और गंगा-जमुनी तहजीब को अंगीकृत किया है। यह विविधता में एकता ही हमारे धर्मनिपेक्षता और भारतीय संविधान की सारवस्तु है।

बहुसांस्कृतिक, बहुधर्मी,बहुजातीय और बहुभाषी भारत अतीत में सदियों तक तक गुलाम रहा है, मल्टीकल्चर राष्ट्र के लिए  'गंगा जमुनी तहजीब' एक बाध्यतामूलक कड़बी दवा है। लेकिन चुनावी राजनीति, छद्म सहिष्णुता और फिरकापरस्ती के कारण धर्मनिरपेक्ष भारत में एक आवारा किस्मकी बॉलीबुड संस्कृति परवान चढ़ रही है। वोटकी राजनीति ने धर्मनिरपेक्षता को 'गरीब की लुगाई याने सारे गाँव की भौजाई' बना डाला है। यदि कोई 'तैमूर' नामकरण करे तो 'प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष' है। और यदि किसी ने रहीम और रसखान के काव्य की चर्चा की तो उसे परम्परावादी और 'साम्प्रदायिक' करार दिया जाएगा ! यह प्रगतिशीलता नहीं सरासर पाखण्ड है।

जब आला दर्जे की अभिनेत्री करीना कपूरने दोयम दर्जे के अधेड़ फिल्म अभिनेता सैफअली खान की दूसरी या तीसरी बीबी बनना स्वीकार किया अर्थात सैफ से निकाह किया ,तब करीना के परिवार और समाज वालों ने कोई खास इतराज नहीं किया। वैसे भी कपूर परिवार ने हिन्दू-मुस्लिम में कभी भेद नहीं किया। थोथे सामाजिक सम्मान या रक्तशुद्धता का हौआ खड़ा नहीं किया। कपूर परिवार के वरिष्ठजन भी इसी तरह के गान्धर्व ,असुर , प्रतिलोम व्याह कर चुके थे। करीना कपूर की तरह अनेक हिन्दू लड़कियों ने भी अपने धर्म-समाज के बाहर मुस्लिम हीरो से निकाह किये हैं।और वे ख़ुशी-ख़ुशी गौरी खान ,पार्वती खान ,सरोज खान,मलाइका अरोड़ा खान हो गयीं ।अबु सलेम , दाऊद जैसे बदमाशों ने जिन हिन्दू लड़कियोंको बर्बाद किया उनकी लिस्ट भी बहुत लंबी है। किन्तु इस विषय पर भारत के तमाम समाज शास्त्री ,प्रगतिशील साहित्यकार चुप रहे ,किस ने 'उफ़' तक नहीं किया। क्योंकि वे डरते रहे ,कि उन्हें कहीं 'साम्प्रदायिक' घोषित न कर दिया जाए ! जबकि प्रगतिशीलता का अभिप्राय यह नहींहै कि गलत बात की अनदेखी की जाए। धर्मनिर्पेक्षताको जब -जब बहुसंख्यक वर्गसे खतरा पैदा हुआ तब-तब मैंने बहुसंख्यक वर्ग की साम्प्रदायिकता के खिलाफ आवाज बुलन्द की है ,लेकिन जब कभी अल्पसंख्यक वर्ग ने इस धर्मनिर्पेक्षता की धुलाई की तो मैं चुप रहा क्योंकि मुझे डर था कि प्रगतिशील बुद्धिजीवी क्या कहेंगे ? लेकिन यह अन्याय देखते रहना मेरे वश में नहीं है।

वेशक 'हिंदुत्ववादियों' की तरह मैं 'लव जेहाद' को नहीं मानता ,किन्तु कुछ घटनाएं ऐंसी हैं जो तार्किक हस्तक्षेप और पुनर्विचार के लिए विवश करतीं हैं । एक घटना का साक्षी तो मैं खुद हूँ। केंद्र सरकार के जिस डिपार्टमेंट में [अब पीएसयू] मैं कार्यरत था ,उसी में एक मुस्लिम एसडीओ हुआ करता था। उसे कोई खास तकनीकी ज्ञान नहीं था किन्तु पता नहीं  किस जुगाड़ से वह इंजीनियर बन गया था। ड्यूटीके दौरान उसके आफिसमें कुछ युवा 'हिन्दू' महिलाओं की आवाजाही चलती रहती थी। जबकि उनका कार्यक्षेत्र अलग बड़े हाल में था। एक दिन पता चला कि उस वन्देने आफिस की एक हिन्दू लड़की को फांसा और भगाकर उससे शादी करली है। चूँकि मैं कर्मचारी संघ का उदीयमान और युवातुर्क नेता हुआ करता था इसलिए मुझे अधिकारियों के गड़बड़झालों की खबर अपने आप मिल जाती थी । उस अधिकारी की दो-दो बीबीयाँ  पहले से थीं ,वे जब तब  फोन पर शिकायत करतीं रहतीं थीं। कि उनके शौहर गायब हैं। ऐंसे और उदाहरण भी उसी कार्यालय में थे। एक मरियल  दुबले पतले अधेड़ मुस्लिम सज्जन ने ५५  की उम्र के बाद चौथी शादी की थी ,लेकिन वह युवा लड़की सुहागरात के रोजही उन्ह लातमारकर भाग गयी थी। इसतरह के अनेक उदाहरण हर शहर और हर तबके में मिलेंगे।लेकिन कोई कुछ नहीं कर सकता क्योंकि 'निजी मामला' है और 'पर्सनल ला है ! भारत की पहचान तैमूर से नहीं दधीचि और हरिश्चंद्र से होगी ! यदि

बड़े अफशोस  की बात है कि न केवल फिल्म इंडस्ट्रीज में अपितु भारतीय समाज में भी अधिकांस उदाहरण ऐसे मिलेंगे जो सावित करते हैं कि मुस्लिम समाजकी पुरुषसत्तात्मक सोच के कारण हिन्दू लड़कियों को कुर्बानी देनी पड़ती है। जब किसी मुस्लिम हीरो, उच्चाधिकारी अथवा राज नेता को दूसरी या तीसरी शादी करनी होती है तब उसे सिर्फ हिन्दू लड़की ही दिखाई देती है।क्योंकि मुस्लिम समाज में बहु विवाह के कारण या पुरुषवादी सोचके कारण लिंग अनुपात का असन्तुलन बहुत दयनीय है.यही वजह है कि अरबी धनाड्य ,शेख ,सुलतान, दुबई-यूएई के अमीर भारत,बंगलादेश और नेपाल से लड़कियाँ खरीदकर ले जाते हैं।उनके गुनाहों की सजा भारतकी बेटियों को दी जा रही है।

नबाब पटौदी ,अजहरुद्दीन ,सलीम खान ,सैफ अली खान ,अरबाज खान,शाहरुख़ खान, आमीरखान ,मुख्तार अंसारी,शाहनवाज हुसेन जैसे हीरो या राजनेता सिर्फ हिन्दू लड़की से ही शादी करेंगे  ऐसा तो भारतीय संविधान में नहीं लिखा ! वेशक वे दो निकाह करें या तीन करें , हिन्दू लड़की से करें या मुस्लिम से निकाह करें , किन्तु उन्हें इसका हल तो बताना ही होगा कि कुँआरे हिन्दू लड़कों की शादी के लिए लड़कियां कहाँ से आएंगी? क्योंकि हिन्दू समाजमें ,हरियाण-पंजाब में  लिंगानिपात का अंतर चिंतनीय है। दूसरी ओर मुस्लिम लड़कियों का भी घोर अभाव है और यदि कहीं कोई इक्का-दुक्का हिन्दू लड़का और मुस्लिम लड़की 'प्रेमरोग'के कारण शादी करना भी चाहें तो उनका हश्र  रणबीर कपूर और कैटरीना कैफ की कहानी जैसा क्यों होता है ?

चाहे राजी -मर्जी हो या धोखाधड़ी हो या अबू सलेम -दाऊद जैसा जबरन व्यभिचार इस 'बेमेल' निकाह के चलन ने  हिन्दू समाज को चौराहे पर खड़ा कर दिया है। न केवल हिन्दू  बल्कि सम्पूर्ण भारत का सामाजिक संतुलन गड़बड़ा गया है। इसके लिए सिर्फ आधुनिक फ़िल्मी 'हीरो' या राजनेता ही कसूरवार नहीं हैं अपितु सामंतयुग के सुलतान और बादशाह भी इस वीभत्स दृश्य के सृजक रहे हैं।  हिन्दू राजकुमारियों और मुस्लिम राजाओं के व्याह -निकाह का सिलसिला सदियों से चला आ रहा है।यह तब भी इकतरफा था और अब फिल्म वालों की निकाह परम्परा में भी इकतरफा ही है। इस तरह की बेमेल शादियाँ का इतिहास याने हिन्दू लड़की और मुस्लिम लड़के के निकाहनामों से बाहर पड़ा है। लेकिन यह लोक परम्परा या राष्ट्रीय आदर्श ही बन जाए यह जरुरी तो नहीं ?तैमूर नहीं राम-रहीम भारत के नायक हैं

जब सैफ अलीखान की माँ शर्मीला टेगोर [बंगाली ब्राह्मण] क्रिकेटर नबाब पटौदी[मुस्लिम] की तीसरी बीबी बनी तो धर्मनिपेक्ष भारत की जनता ने सहज स्वीकार किया !जब करीना कपूर ने अधेड़ सैफ अली  खान की दूसरी-तीसरी बीबी बनना स्वीकार किया ,याने उससे शादी-निकाह किया तब भी भारतकी अधिसंख्य धर्मनिरपेक्ष जनता ने इस सम्बन्ध को सहज स्वीकार किया। हालाँकि इन घटनाओं पर कुछ 'हिंदुत्ववादी'अवश्य चूँ -चपड़ करते रहे. किन्तु भारत के प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष बहुसंख्यक समाज ने हर बार इन बेमेल शादियों को भी व्यक्तिगत मामला मानकर सहन किया। कौन किसके साथ शादी कर रहा है ,कौन किसके साथ रिलेशन में है ,यह मेरे लिए महत्वपूर्ण नहीं है। लेकिन जब करीना -सैफ के नवजात बेटे का नाम 'तैमूर' रखा गया तब मुझे कुछ अजीब लगा। मुझे नहीं मालूम कि अकबर के पुत्र सलीम से लेकर सैफ के पुत्र 'तैमूर' तक की परम्परा में केवल एक ही वर्ग के नामों का चलन क्यों है ? इस्लामिक नाम में  भी कोई बुराई नहीं है।  किन्तु यह दयानतदारी हिन्दू नामों के लिए क्यों नहीं ? मैं कोई इस्लाम विरोधी या धर्मांध हिंदुत्ववादी नहीं हूँ ,और मेरा सवाल साम्प्रदायिकतासे प्रेरित नहीं है। यह सवाल उस मानसिकता का प्रतिकार है जो अकबर के दौर से लेकर साफ अली खान के दौर में आया है।श्रीराम तिवारी !




बुधवार, 4 जनवरी 2017

नोटबंदी से देश को फायदा कम और नुकसान ज्यादा हुआ है।

नोटबंदी के दरम्यान एक बिहारी महिला की तबियत ख़राब होने से वह हजार-पांच सौ के पुराने नोट स्थानीय बैंक की शाखा में नहीं बदलवा पाई। बड़ी तकलीफ उठाकर वह दिल्ली आई। वह आरबीआई आफिस में रूपये जमा कराने पहुंची।आरबीआई वालोंने 'अर्धसत्य' के खलनायक [स्वर्गीय सदाशिवराव अमरापुरकर ] की तर्ज पर कहा - कल आना ! दूसरे दिन वह फिर आरबीआई दफ्तर पहुँची ,लेकिन फिर टरका दिया। महिला तीसरे दिन भी रु० लेकर पहुँची,किन्तु कोई रिस्पॉन्स मिला ,उसने वहीँ अपने बाल नोंच लिए,कपडे फाड़ लिए। वह अपने बच्चों के साथ रोती -चीखती -चिल्लाती रही,आरबीआई वालों को गालियां भी देती रही। उसे  दिल्ली की कुख्यात पुलिस ने हवालात में बंद कर दिया। उस अबलाकी दुर्दशा पर न तो किरण वेदी ने उफ़ किया ,ना स्मृति ईरानी खिसिआई , ना नारीवादी गुर्राए ,ना आसमान फटा ,और ना अभीतक धरती थर्राई! इस घटना के बाद मोदीजी की जनविरोधी नीतियों और उनकी नोटबंदी योजना से मुझे भी कोई शिकायत नहीं रही ,क्योंकि इतने कष्ट उठाने के बाद भी जब उस पीड़ित महिला ने नोटबंदी के खिलाफ या मोदीजी खिलाफ एक शब्द नहीं बोला तो किसी परेशानी के मुझे क्या गरज आन पड़ी कि  मोदीजी और उनके नोटबंदी जैसे चोंचलों पर अपना वक्त बर्बाद करूँ ? लेकिन ईमानदारी से कहूँ तो मोदी सरकार की इस  नोटबंदी से देश को फायदा बहुत कम हुआ और नुकसान  बहुत ज्यादा हुआ है। मोदीजी अगर अपनी चूक मान लेते तो उनका कुछ नहीं घटता। बल्कि बौद्धिक जगत में उनकी कुछ साख ही बढ़ती। विरोधी भी मान जाते कि बन्दे का कलेजा ५६ इंच का न सही किन्तु  कुछ तो बढ़ा है  !

उत्तर प्रदेश में 'समाजवाद' सिर्फ एक परिवार विशेष तक सीमित रह गया था. अब 'सपा' के अंदर जो कुछ हो रहा है  ,वह 'समाजवाद' की ऐंसी -तैसी करने के लिए काफी है। वैसे भी इस 'कुनबा' समाजवाद से यूपी अथवा देश को कोई उम्मीद नहीं थी ! यदि आज अखिलेश के साथ पार्टी का बहुमत है तो भी वे उस गुनाह से नहीं बच सकते जो उन्होंने और उनके प्रिय काका रामगोपाल ने 'अवैध' अधिवेशन बुलाकर किया है। भले ही मुलायम अब अकेले हैं,किन्तु यूपी की जनता और समाजवादी आंदोलन के समर्थक  यह कभी नहीं भूल सकते कि अतीत में 'समाजवाद'के लिए मुलायमसिंह ने 'संघर्ष' का शानदार इतिहास लिखा है।

यह अकाट्य सत्य है कि 'नोटबंदी' से देश को एक रूपये का भी फायदा नहीं हुआ और न आइंदा होगा,किन्तु यह भी अटल सत्य है कि यूपी विधान सभा में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिलने जा रहा है।जो लोग मोदी जी की नीतियों के खिलाफ हैं और निरंतर आलोचना कर रहे हैं,वे यह नोट कर लें कि देशकी जनता  'नोटबन्दी' के खिलाफ नहीं है।  इंडिया टुडे के एक्सिस ओपिनियन पोल के अनुसार यूपी में  भाजपा को स्पष्ट बहुमत [२०६ -२१६] सीट् मिल रही हैं। दूसरे नंबर पर सपाको १०० से कम सीट मिलने वाली है। तीसरे नम्बर पर 'बहिनजी'का कुनबा होगा ,उन्हें सिर्फ ६०-६५ सीट मिलेंगी। बाकी पार्टियों का पाटिया उलाल होने जा रहा है। हालाँकि मुख्यमंत्री के रूप में अभी भी अखिलेश यादव पहले नम्बर पर बने हुए हैं,किन्तु उनका 'यादवी कुल कलह'से उबर पाना मुश्किल है। यदि इंडिया टुडे का एक्सिस पोल सही सावित होता है तो बाकी के राज्यों में भी भाजपा को सफलता मिल सकती है। इसका असर आगामी २०१९ के लोक सभा चुनाव पर पढ़ेगा।  यदि इण्डिया टुडे का एक्सिस पोल गलत सावित हो भी जाए तो भी यह सौ फीसदी सच है कि पीएम मोदी के व्यक्तिगत आकर्षण और वोट बैंक पर कोई नकारात्मक प्रभाव नही पड़ा है। उनके द्वारा लगातार गलत निर्णय लेने के वावजूद ,लोगों को तकलीफ होने के वावजूद,कतार में मर जाने के वावजूद वांछित जनाक्रोश का अतापता नहीं है। मैंने स्वयम व्यक्तिगत तौर पर नोटबंदी पर विभिन्न लोगों से उनका अभिमत पूँछा ,अधिकांस का जबाब एक समान था 'देश के लिए थोड़ी तकलीफ तो चलती है !

चुनाव में 'धर्म' ,जाति और सम्प्रदाय पर  सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से भाजपा को कोई फर्क नहीं पडेगा।क्योंकि मोदी जी जबसे पीएम बनेहैं उन्होंने कभी अच्छे दिनों का वादा किया ,कभी विकास का वादा किया ,कभी कालेधन और नोटबंदी का नाटक किया उन्हें सुप्रीम कोर्ट के वर्डिक से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। क्योंकि सपा और बहिनजी की कृपा से यूपी में अधिकान्स हिन्दू वोट भाजपा की ओर ध्रुवीकृत हो चुका है। यूपी की जनता ने बिहार से अलग स्टेण्ड ले लिया है। एमपी में नोटबंदी से किसान बरबाद हो गए ,छग -रायपुर के किसान मुफ्त में सब्जी लुटा रहे हैं राजस्थान,गुजरात में हाहाकार मची है ,किन्तु हरजगह उपचुनाव और स्थानीय निकायों में भाजपा जीत रही है। विपक्ष ने नोटबंदी का पुरजोर विरोध किया ,मोदी सरकार की गलत नीतियों का खूब जमकर विरोध किया किन्तु जनता का एक बड़ा हिस्सा अभी भी मोदी के साथ है। आगामी २०१९ के लोक सभा चुनाव के बाद भाजपा को शिवसेना की जरूरत नहीं होगी। देश की अधिकांस जनता को  विपक्ष पर विश्वास नहीं है। यह आकलन इंडिया टुडे द्वारा किये गए एक्सिस पोल की वजह से नहीं है ,बल्कि सपा,बहिनजी तृणमूल तथा अन्य पार्टियों की पतली हालत देखकर कोई भी इस सिथति को समझ सकता है।  श्रीराम तिवारी !



मंगलवार, 3 जनवरी 2017

वे 'कसाब 'या गोडसे हो सकतेहैं!


जिस किसी ने भौतिकी,रसायन ,जीवविज्ञान का अध्यन किया है और यदि उसे 'विश्व इतिहास 'तथा डार्विन के 'विकासवादी' सिद्धांत की जानकारी है तो वह व्यक्ति कभी 'धर्मांध' नहीं हो सकता।जिन्होंने भारतीय वेदांतदर्शन ' साँख्य ,योग ,मीमांसा ,वैशेषिक और न्याय दर्शन का अध्यन किया है ,वे यदि 'डार्विन के विकासवाद' और मार्क्स के 'ऐतिहासिक द्वंदात्मक भौतिकवाद' को समझ लें तो वे 'आस्तिक' होते हुए भी महान क्रांतिकारी हो सकते हैं । 
वैदिक धर्मसूत्र स्वाभाविक रूप से 'धर्मनिरपेक्ष' ही हैं। यही कारणथा कि स्वामी विवेकानंद,स्वामी श्रद्धानंद,लाला
लाला लाजपतराय ,तिलक,गाँधी जैसे आस्तिकभी महान 'धर्मनिरपेक्ष' स्वाधीनता सेनानी हुए हैं।पांच वक्तके पक्के नमाजी मौलाना आजाद ,सीमान्त गांधी अब्दुल गफ्फरखां और मुजफ्फर अहमद जैसे महान क्रांतिकारी हुए हैं। भगतसिंह तो किसी संत महात्मा या 'अवतार'से कम नहीं थे किन्तु बड़े गर्व से अपने आप को ' नास्तिक'कहते थे !

 आपका धर्म-मजहब और ईश्वर में विश्वास रखना तब तक गलत नहीं है जब तक आपकी आस्तिकता अथवा 'आस्था' से किसी दूसरे का अहित न होता हो !कतिपय पढ़े-लिखे युवा या आधुनिक साइंस टेक्नालॉजी विषय में उच्च शिक्षित इंजीनियरभी जब धर्मान्धता में डूबजाएँ ,मजहबी आतंकवाद के गटर में कूंदते नजर आएं ,तो समझ लेना चाहिए कि उन्हें धर्म-मजहब की कोई जानकारी नहीं हैं। वे केवल जर खरीद गुलाम हैं।वे 'कसाब 'या गोडसे हो सकतेहैं ! ऐंसे आत्मघाती 'धर्मध्वज' अथवा जेहादी पूर्णतः पाखण्डी होतेहैं। वास्तवमें इन मूर्खोंका धर्म-मजहब से कोई वास्ता नहीं होता। ये धर्मान्धता और आतंकवाद के पुर्जे जैसे होते हैं। इनकी धर्म-मजहब में कोई आस्था नहीं होती । ये अपने वतन के संविधान का भी आदर नहीं करते। ये दंगा फसाद और गृह युध्द के काम आते हैं। ये  लोकतंत्र ,धर्मनिर्पेक्षता ,समाजवाद,साम्यवाद , मानवतावाद  और सर्वहारा क्रांति का अभिप्राय नहीं समझते।