रविवार, 29 मई 2016

इस दौर में जनतांत्रिक राष्ट्रघात के लिए सभी भारतवासी जिम्मेदार हैं।

प्रतिपक्षी से लड़ना है -लड़ लो , पूँजीवाद के गले लगना है -लग जाओ , साम्प्रदायिक गटर में डूबना है -डूब जाओ , आपस में दुश्मनों की तरह लड़ना है-  लड़ लो ! क्रांति करना है -कर लो ! आरक्षण चाहिए -ले लो ! सत्ता चाहिए -ले लो ! किन्तु अपने निहित स्वार्थ के लिए -भारतीय अस्मिता से खिलवाड़   मत करो ! यह तो सभी को मानना पड़ेगा कि आजादी के ६८ साल बाद भी  भारत की सीमायें सुरक्षित नहीं हैं। देश के अंदर भी धर्म-मजहब और जातीयता के अलगाववादी नासूर यथावत हरे हैं। जबसे कुछ राजनीतिक दलों को जातीयता की वोट शक्ति का पता चला है ,तबसे भारत के अधिकांश सत्तालोलुप दल  देश की विघटनकारी धारा में बहे जा रहे हैं। जो अपने आपको स्वयम्भू राष्ट्रवादी कहते हैं वे ,और जो सर्वहारा क्रांति के पक्षधर हैं वे, न केवल जातीय विमर्श की आग को हवा दे  रहे है ,बल्कि आरक्षण मांगने वालों की गुंडागर्दी रोकने में असफल रहे हैं। कुछ स्वार्थान्ध दल तो हरियाणा ,गुजरात पैटर्न पर चल रहे उग्र आरक्षण आंदोलन की आग भड़कने पर तुले हुए हैं। वे  उसकी आंच में अपनी राजनैतिक रोटी सेंकने में भी पीछे  नहीं हैं। कुछ व्यक्ति आधारित नए-आए दल और धर्मनिरपेक्ष दल भी अल्पसंख्य्क वोटों के लिए देश को  दांव पर लगाने से बाज नहीं आ रहे हैं। प्रतिक्रिया स्वरूप बहुसंखयक वोटों के नापाक ध्रुवीकरण के लालच में स्वनामधन्य 'राष्ट्रवादी' भी  भारतीय लोकतंत्र  की ऐंसी -तैसी कर रहे हैं ।  

हरियाणा में जाटों ने ,गुजरात में पटेलों ने और बंगाल में  ममता बनर्जी के यमदूतों ने 'मेक इन इंडिया' के जो झंडे गाड़े हैं उसके परिणामों से देश की प्रबुद्ध जनता  किंकर्तव्यविमूढ़ है । भारत में आरक्षण या जातिवाद के नाम पर जो कुछ हो रहा है वो लोकतांत्रिक निर्वाचन प्रक्रिया का उपहास मात्र है। इस दौर की राजनीति में जनतांत्रिक राष्ट्रघात के लिए सभी दल जिम्मेदार हैं। देश के सभी नेता,सभी धर्मध्वज सभी साधु-महात्मा, मजहबी नेता -धर्मगुरु  भी जिम्मेदार हैं। जो लोग यूपीए के दौर में हर बात पर आंदोलन -धरना और बगावत के तेवर लेकर चलते थे वे इस उद्दाम पूँजीवादी और मजहबी पाखण्ड की राजनीति के दौर में चुप हैं।  अब कोई अण्णा हजारे,कोई रामदेव ,कोई किरण वेदी आवाज उन्हीं उठाता ,क्या बाकई  यह अच्छे दिनों का प्रमाण है ? या फिर सत्ता सामने सबके सब वामन हो चुके हैं ? सत्य -न्याय और राष्ट्रीय अस्मिता के लिए कोई आवाज  क्यों नहीं उठाता ? क्या केवल ' भारत माता की जय 'का नारा लगाने से भारत विश्व शक्ति  बन जाएगा ? क्या लोकलुभावन जुमलों से  देश आगे बढ़ सकता है ? क्या सिर्फ शासक बदल जाने से राष्ट्रीय स्वाभिमान जाग गया ?

वैसे तो अधिकांश टीवी चेनल्स पर स्वामी रामदेव अपने पतंजलि उत्पाद लेकर हरदम उपस्थित रहते हैं । देश-विदेश के लाखों लोग उनके आयुर्वेदिक उत्पाद और राजनैतिक  उत्पात से वाकिफ हैं। मेरे जैसे अबोध अज्ञानियों को उनमें कोई रूचि नहीं है ! व्यक्तिगत रूप से मुझे उनके क्रिया कलापों से कोई लेना -देना नहीं है ! स्वामी रामदेव योग सिखाएँ या विज्ञापनों के मार्फत उत्पादों के उपभोग बताएँ ,यह विशुद्ध बिजनेस का मामला है । लेकिन स्वामी  रामदेव के पतंजलि उत्पाद यदि बाजार के अन्य लुटेरों को चौंकाते हैं तो इसमें तो समाज और देश का ही भला है और इससे मुझे ख़ुशी मिलती है। हालाँकि स्वामी रामदेव से मेरी व्यक्तिगत  खुन्नस का कारण कुछ और है । जैसे कि वे अपने मजदूरों को निर्धारित न्यूनतम मजदूरी नहीं देते। वे योग -प्रचार का दुरूपयोग करते हुए एक खास राजनैतिक पार्टी का प्रचार करते हैं।

अपने पतंजलि उत्पादनों के विज्ञापन में देश की  मौजूदा राजनीति का बेजा फायदा उठाकर स्वामी रामदेव 'यूनिफार्म लेवल प्लेइंग' फील्ड के सिद्धांत का बेजा उलंघन कर रहे हैं। वे  अपने योग शिविरों में योग कम सिखाते हैं और उपस्थित श्रद्धालुओं को विपक्ष के खिलाफ भड़काते ज्यादा हैं ।अभी कुछ दिनों पहले की बात है ,टीवी पर सुबह-सुबह स्वामी रामदेव के दर्शन भए । हमने सोचा कि उनके दर्शन से हम भी कृतकृत्य भए ! लेकिन जब मैंने उनके श्रीमुख से विपक्षी दलों के खिलाफ दुर्बचन सुने और सत्तारूढ़ नेतत्व की असफलताओं पर उन्हें पर्दा डालते देखा तो दंग रह गया। स्वामी रामदेव कभी अपनी एक आँख मींचते , कभी खीसें निपोरते और कभी कुटिल मुस्कान के साथ अपने भक्तों को बता रहे थे कि स्विस बैंकों में जमा काला धन वापिस इसलिए नहीं आया है , क्योंकि हमारा भारत अंतर्राष्टीय कानून से बंधा है। इसके अलावा स्वदेशी -स्वाभिमान आंदोलन के कर्णधार स्वामी  रामदेव 'विदेशी पूँजी निवेश' का समर्थन करते हुए उसे जस्टिफाइ कर रहे थे कि FDI को हम इसलिए स्वीकार कर रहे हैं ,क्योंकि हम [भारत]wto से बंधे हैं। मेरा मन किया कि नारा लगाऊँ -स्वामी रामदेव की जय हो ! एडीआइ जिन्दा बाद !कालाधन -जिंदाबाद ! मुझे ताज्जुब हुआ कि  शिविर में मौजूद एक शख्स भी ऐंसा ईमानदार  नहीं निकला जो उठकर कह सके की स्वामी जी यह समस्या तो डॉ मनमोहनसिंह के समय भी थी ,और उससे पहले अटल जी के समय भी थी। फिर क्यों आपने व आपके भक्तों ने पहले वाले प्रधान मंत्रियों को 'नपुंसक' और नाकारा कहा था ? और अब छप्पन इंची सीना वाले  जब कालाधन नहीं ला पाये या एफडीआई नहीं रोकते तो वे आप से संरक्षित क्यों हैं ?

स्वामी रामदेव जी के सम्बोधन में तमाम विपक्ष और अल्पसंख्य्क वर्गों के प्रति घृणा का भाव देख मुझे लगा कि ये तो रामायण के कपटी मुनि के भी बाप निकले । वे  किसी कालेज प्रांगण में छात्रों ,प्रोफेसरों और  संघियों को लोम-अनुलोम ,कपालभाति इत्यादि शारीरिक योग के साथ-साथ उपस्थित जन समूह को एक और 'खतरनाक' ज्ञान भी बाँट रहे थे!  वे श्रोताओं को समझा रहे थे कि 'सेकुलरिस्टों'और कम्युनिस्टों की वैज्ञानिक तर्क शक्ति का मुकाबला करने के लिए हमें इतिहास को 'अपने नजरिए' से समझना होगा। वे बड़े  अधिकार भाव से लटके -झटके के साथ उपस्थित अंधभगत फुर्सतियों को समझा रहे थे कि अभी तक विज्ञानवादियों, 'सेकुलरों'- वामपंथियों ने ही इतिहास लेखन, साहित्य सृजन , संगीत नियमन , और कला निर्देशन किया है ,अब हम इसे अपने नजरिए से प्रस्तुत करेंगे। उनका इशारा था कि दक्षिणपंथी संकीर्णतावादियों को  अपने 'राष्ट्रीय स्वाभिमान'के नजरिए से ,समाजवादियों और कम्युनिस्टों की तरह ही वैज्ञानिक तर्कवाद से उनका मुकाबला करना होगा !

बीच-बीच में बटरफ्लाई ,भ्रामरी जैसी बन्दरकूंदनी  करते हुए स्वामी रामदेव ने अपने अभिजात्य वर्गीय श्रोताओं को एक और ज्ञान दिया कि मार्क्सवाद तो विदेशी विचारधारा है। लगे हाथ ये सिद्धांत भी पेश कर दिया कि हमारा भारतीय 'चार्वाक दर्शन'ही तो 'मार्क्सवाद' है। याने चित भी मेरी -पट भी मेरी,क्योंकि अंटा मेरे बाप का ! जब मार्क्सवाद को चार्वाक दर्शन का परिष्कृत रूप मान  ही लिया तो वह विदेशी कैसे रह गया?क्या स्वामी रामदेव विदेश यात्रा कर आये तो वे विदेशी हो गए ? रामदेव  भूल जाते हैं कि जिस माइक या साउंड सिस्टम पर वे दिनरात बोल रहे हैं ,जिस महंगी कार और हवाई जहाज में वे घुमते रहते हैं ,जिस लेपटॉप ,कम्प्यूटर या मोबाइल का वे प्रयोग करते हैं ,ये तमाम संसाधन  पतंजलि योगसूत्र से नहीं लिए गए। और ये सब अभी पतंजलि संसथान में भी नहीं बने हैं । रेल,टेलीग्राफ ,भाप इंजिन ,से लेकर भाभा रिसर्च एटोमिक सेंटर और इसरो से लेकर 'मेक इन इण्डिया ' स्टार्ट उप इण्डिया में ऐंसा कुछ 'देशी' नहीं जिसमें रामदेव के पूर्वजों का रंचमात्र योगदान हो ! ये विशाल पनडुब्बियां, ये पोखरण के परमाणु विस्फोट, किस देश की मदद और टेक्नॉलजी से सम्भव हुए हैं ? शायद इसकी जानकारी स्वामी रामदेव को नहीं है। और स्वामी रामदेव -अन्ना हजारे के सुप्रचार एवं कांग्रेस के भृष्टाचार -प्रसाद पर्यन्त जो सत्ता में आज  बैठे हैं ,उन स्वयम्भू राष्ट्रवादियों' या नेताओं को भी पता नहीं है की परमाणु फार्मूला कैसे कौन कब लाया ? क्रायोजनिक इंजन या सेटेलाइट वीकल्स लांचिंग के लिए हैवी ईंधन के लिए हमारे किस प्रधान  मंत्री ने क्या-क्या पापड़ वेले हैं ? रामदेव जैसे लोगों को  तो शायद यही लगता है कि यह आधुनिक टेक्नॉलाजी भी पतंजलि के योग सूत्र से हीं ली गयी है। 

यह भारतीय संसदीय लोकतंत्र गीता,रामायण या महाभारत से नहीं लिया गया है।  इस भारतीय संविधान को ब्रिटेन के मैग्नाकार्टा ने ,फ़्रांसीसी क्रांतियों ने रूस की अक्टूबर क्रांति ने ,अमेरिका -कनाडा के संविधानों ने  तथा यूरोप के रेनेसा ने बहुत कुछ दिया है।  जिस भारतीय न्याय दर्शन या  मनुस्मृति पर स्वामी रामदेव को गर्व है ,उसे लागू क्यों नहीं करवाते ? क्या मंदिर निर्माण की बाधाओं से भी बड़ी कोई बाधा है ? जब वे मानते हैं कि भारतीय संविधान में सारे  विधान और कानून विदेशी हैं। और भारतीय स्वाभिमान की जीवंतता खतरे में हैं और उसके मूल्यों -आदर्शों का कहीं पालन नहीं होता तो कुछ करते क्यों नहीं ? कालाधन वापिस नहीं आ सकता ,मंदिर नहीं बन सकता ,धारा -३७० का कुछ नहीं हो सकता ,मनु स्मृति या गीता का आदेश लागू नहीं हो सकता ,तो फिर विपक्ष या वामपंथ के खिलाफ विषवमन क्यों ? वैसे भी स्वामियों योगियों ,बाबाओं को तो 'शीत ,उष्ण,शत्रु -मित्र ,हानि लाभ ' में समभाव या समदृष्टि रखनी चाहिए ! कमसे कम स्वामी रामदेव तो उसका पालन अवश्य ही करें !अपने  विरोधियों पर विषवमन करने के बजाय सम्यक भाव रखें। लेकिन वे तो अब निंदारस के साक्षात् महासागर में तैर रहे हैं। यदि वामपंथ की विचारधारा  विदेशी है तो कांग्रेस की कौन से कुरुक्षेत्र से ली गयी है ? वह भी तो एक अंग्रेज मिस्टर हयूम ने लन्दन से लाकर ही दी थी। और जो 'संघ परिवार' का मूल मन्त्र है वह  गीता के किस अध्याय से लिया गया है। मुसोलनी,और हिटलर मर गए ,उनकी विचारधारा भी वहाँ खत्म हो गयी ,लेकिन गोडसे वादियों को उनकी काली टोपी और चड्डे  खूब पसंद आये ! जो स्वामी रामदेव के मन भाये ! अपनी विचारधारा देशी के नाम पर स्वामी रामदेव के पास उनकी लंगोटी और 'योग' अलावा कुछ नहीं है ! उनके व्यापारिक उत्पादन के संसाधन और निजी उपयोग के साधन सब कुछ विदेशी है।

जिस अर्थशास्त्र के आधार पर देश का कालाधन स्विस बैंकों में जमा हुआ है ,वह वाणिज्य कला भी विदेशी है। स्वामी रामदेव अपने योग शिवरों के भाषणों में भारत के प्राचीन नास्तिक दर्शन के प्रणेता चार्वाक को आधुनिक मार्क्सवाद से नथ्थी करते हुए प्रतिपादित किया करते हैं। उन्हें इल्हाम हुआ है कि चार्वाक दर्शन और वैज्ञानिक द्वंद्वात्मकता पर आधारित मार्क्सवादी या वामपंथी विचारधारा एक ही चीज है। इसका अभिप्राय यह भी है कि उनकी नजर में वे मजदूर जो सड़कें बना रहे हैं ,वे किसान जो खदु आधे पेट रहकर देश के करोड़ों लोगों का पेट पाल रहे हैं ,वे कारखाने के मजदूर जो तमाम उत्पादनों में कम वेतन पर अपना खून -पसीना एक कर रहे हैं ,देश का निर्माण कर रहे हैं ,वे  मजदूर -किसान अब स्वामी रामदेव को चार्वाक वाले -निठ्ठले मुफ्तखोर नास्तिक नजर आ रहे  हैं। भारत के ४६ करोड़ मेहनतकश मजदूर -किसान और छोटे-मोठे कारोबारी यदि अपनी मेहनत से जीवन यापन करते हैं तो वे ऋण लेकर घी पीने वाले चार्वाकवादी कैसे हो गए ? ''यावत जीवित सुखम् जीवेत ,ऋणम कृत्वा घृतं पिवेत '' का सिद्धांत मार्क्सवाद से जोड़ना गलत है। यह देश की ४६ करोड़ मेहनतकश जनता के श्रम का अपमान है। फिर भी स्वामी रामदेव उपस्थित औंधी खोपड़ियों को 'भारत स्वाभिमान' की घुट्टी पिलाए जा रहे हैं ।

मुझे स्वामी रामदेव या उनके पतंजलि उत्पादनों में कोई दिलचस्पी नहीं है ,किन्तु जब उन्होंने 'तर्कबुद्धि' और कम्युनिस्ट शब्द का इस्तेमाल किया तो मुझे उनका वह पूरा कार्यक्रम मजबूरन देखना पड़ा। स्वामी रामदेव जिस योग के लिए दुनिया भर में जाने जाते हैं,उसका तो उन्होंने उस मंच से सिर्फ प्रतीकात्मक प्रदर्शन ही किया।  जबकि हर मंच पर  दक्षिणपंथी हिंदुत्ववाद का उन्होंने जमकर बखान किया। कभी-कभी वे किसी मुस्लिम नेता के नकारात्मक बयान का भी जिक्र कर लेते हैं , जिसमें कोई  वसपा नेता बनाम  कठमुमुल्ला कहता है  कि '' भारत में इस्लाम के आगमन से पहले कुछ नहीं  था। उसके अनुसार यह भारत भूमि दोजख जैसी थी'' ! उस मुस्लिम नेता ने यह भी कहा  ''हमारे पूर्वजों [मुसलमानों ने ] भारत को ताजमहल दिया ,कुतुबमीनार दी ,लालकिला दिया ,बगरेह बगैरह'',,,,,! स्वामी रामदेव उपस्थित श्रोताओं को और टीवी दर्शकों को बताते हैं कि 'हमारे [हिन्दुओं के ]पूर्वजों ने दुनिया को 'शून्य 'दिया ,वेद  दिए ,मन्त्र दिए ,आयुर्वेद दिया ,पतंजलि राजयोग दिया ,अहिंसा परमो धर्म : दिया !और न जाने क्या -क्या दिया !षडदर्शन दिया। हालाँकि गनीमत ये रही कि स्वामी रामदेव ने  नास्तिक दर्शन के प्रणेता चार्वाक का उल्लेख करते हुए कम्युनिस्टों को विदेशी नहीं कहा। बल्कि चीन का प्रमाण याद करते हुए उन्होंने आसा व्यक्त की कि  जब चीन के कम्युनिस्ट चीन परस्त हैं तो भारत के कम्युनिस्ट भी भारत परस्त ही होंगे !

 मैंने सोचा कि रामदेव भले ही भाजपा और संघ के शुभचिंतक हैं ,वे योग गुरु तो हैं ही!इसलिए उनका राष्ट्रीय स्वाभिमान हिन्दुत्वमय होना स्वाभाविक है।  किन्तु जिस  मुस्लिम बड़बोले नेता के 'जुमलों' का जबाब स्वामी रामदेव दे रहे थे , यदि बाई चांस उसका जबाब  मुझे देना होता तो क्या जबाब देता ?इस उधेड़बुन में रात  नींद नहीं आई ! यदि मैं पौराणिक प्रतीकों से बात करता हूँ तो [अ ]प्रगतिशील कहलाऊँगा। और यदि धर्मनिपेक्षता की खातिर उस कठमुल्ले की बात का कुछ हेर-फेर से समर्थन करता हूँ तो जाहिर है 'देशद्रोही' कहलाऊँगा। क्योंकि आजकल का तो चलन ही यही है कि''संघम शरणम गच्छामि '' ,  जो सत्ता के साथ हैं सिर्फ वे ही सही हैं। फिर भी मुझे उस इस्लामिक वसपा नेता का जबाब सूझ ही गया। चूँकि उसने कहा था कि इस्लामिक आक्रमण कारियों के आगमन से पहले यहाँ कुछ नहीं था , यह मुल्क [भारत] दोजख था ! मेरा जबाब होगा कि  ''तेरे पूर्वज दोजख में क्यों आये थे ,दोजख तो गुनहगारों को जाना पड़ता है और अब तुम इस दोजख में क्या  कर रहे हो ?''

हालांकि इस सबके बावजूद स्वामी रामदेव और संघ परिवार के लोग 'साम्यवाद' को विदेशी विचारधारा बताने से कभी नहीं चूकते। ये बात जुदा है कि उनके लिए विदेशी पूँजी , विदेशी कालाधन ,विदेशी   टैक्नालॉजी मान्य है । और खुद संघ को प्रदत्त हिटलर-मुसोलनी की  विदेशी फासिस्ट विचारधारा चलेगी। किन्तु पूँजीपतियों और बड़े कारपोरेट घरानों के खिलाफ लड़ने वालों की ,धर्मनिपेक्षता की बात करने वालों की और सामाजिक समानता की बात करने वालों की विचारधारा नहीं  चलेगी ! क्योंकि वह  'क्रांतिकारी विचारधारा  है ! जो शहीद भगतसिंह को पसंद थी !

कुछ प्रगतिशील वामपंथी मित्र धर्म-मजहब के मामलों में बहस तो खूब करते हैं किन्तु  धार्मिक पुस्तकों को पढ़े बिना ही ततसंबंधी तकरीरें झड़ने लगते हैं। प्रायः सभी प्रगतिशील चिंतक एक ही ढर्रे पर लगातार  लिखते चले जा रहे हैं !कि  रामायण ,गीता ,महा भारत ,वेद और पुराण सब मिथ हैं या काल्पनिक हैं। लेकिन जो उसमें प्रतिकूल लिखा गया है ,उसी को आधार मानकर  धज्जियाँ उड़ाना सरासर गलत है। बाल्मीकि रामायण के अध्याय चार श्लोक १,२,३,को पढ़ने पर मालूम हुआ कि हिन्दू समाज की वर्णाश्रम व्यवस्था अवैज्ञानिक नहीं थी! ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य ,शूद्र और स्त्रियों को सामान अधिकार मिले हुए थे।


''अन्यमासम् प्रवक्ष्यामि शृणुध्वम सुसमहिता ,
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
ब्राह्मण क्षत्रिय विशां शूद्राणां चैव योषितां '' [वाल्मीकि रामायण अध्याय -४ श्लोक १,२,३,]

अर्थात :- इस बाल्मीकि रामायण को ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य ,शूद्र एवं स्त्रियां  जो भी पढ़ेगा ,उसे ज्ञान और पूण्य लाभ होगा !

 यह अच्छी बात है कि वामपंथी -प्रगतिशील साहित्यकारों को विश्व का आर्थिक,ऐतिहासिक दार्शनिक और साइंटफिक ज्ञान है ,किन्तु यदि वे भारतीय वांग्मय का भी उचित अध्यन कर लेंगे तो  साम्प्रदायिकता और फासिज्म का मुकाबला करने में सफलता अवश्य मिलेगी !भारतीय वामपंथियों और प्रगतिशील साहित्य कारों को चाहिए कि वे भी चीनियों की तरह  अपने राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा करते हुए पाखंडवाद से मुकाबला करें। अभी जो जेहादी-अल्पसंख्य्क वादी और  हिन्दुत्ववादी ताकतें भारत को रौंद  रहीं हैं ,उसका मुकाबला परम्परागत 'नकारात्मक' तरीकों से नहीं होगा।

लोकतंत्र में सभी को आजादी है कि  चाहे तो धर्म-मजहब के पूजा स्थलों में जाए या न जाए। जिन्हे लगता है कि जाना चाहिए और यदि उन्हें रोक जाता है तो यह जुडीसयरी सब्जेक्ट है। यह सरकार और न्याय पालिका का दायित्व है कि धर्म-पूजा -मंदिर प्रवेश से वंचित जनों को संरक्षण प्रदान करे। किसी के साथ नाइंसाफी न होने दे ! जिसे जहाँ जाना हो जाए लेकिन उसके लिए  शनि सिंगनापुर  जैसा या दक्षिण के किसी हिन्दू मन्दिर पर धरना -आंदोलन का ड्रामा कहीं से भी उचित नहीं है ! जातिवाद के नाम पर आरक्षण चाहिए -ले लो !जातिवाद के नाम पर वोट चाहिए -ले लो ! धर्म-कर्म मानते हो तो मानते रहो !किन्तु  प्रगतिशील विचारों के क्रांतिकारी साथियों को हर किस्म के धार्मिक पाखण्ड और असत्य आचरण से बचना होगा।

मैंने अनुभव किया है कि कुछ वामपंथी साथी बिना किसी वांछित संदर्भ के कभी मनुवाद' कभी मनुस्मृति और कभी 'श्रीराम द्वारा शम्बूक बध' का वर्णन यूँ करेंगे मानों वे खुद मौका ऐ -वारदात पर मौजूद थे !  प्रगतिशील और संघर्षवान साथियों को हिन्दू,मुस्लिम ,सिख ,ईसाई ,जैन या पारसी हर धर्म मजहब का ज्ञान हो यह तो ठीक है ,किन्तु बिना ज्ञान या आधे -अधूरे ज्ञान के बल पर विमर्श में पाहुणे बनकर पाखण्ड रुपी साँप मारने की निर्थक कोशिश न करें तो बेहतर है। जब वामपंथी -प्रगतिशील साथी मानते हैं कि रामायण ,महाभारत ,पुराण और वेद इतिहास नहीं है बल्कि 'मिथ' हैं, तो फिर 'राम के द्वारा एक शूद्र शम्बूक का 'बध ' सच इतिहास कैसे हो सकता है ? यदि महाभारत केवल  मिथ है ,गप्प है तो  'ब्राह्मण द्रोणचार्य ने गुरु दक्षिणा में आदिवासी एकलब्य का अंगठा मांग लिया ' यह वाक्य सच क्यों मान लिया गया ?

 वेशक तमाम धर्म हिन्दू धर्म शास्त्रों में स्त्रियों,वनवासियों,दलितों[शूद्रों] और अनार्यों -यवनों ,द्रविड़ों  के निमित्त भी  कुछ संदर्भों में आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग होता रहा है। प्राचीन आर्यों की इस असफल चेष्टा का प्रमाण तो  दुनिया के हर पुरातन कबीले में  मौजूद है। और अपनी पहचान अक्षुण रखने के लिए हर कबीले में यह रीति -रिवाज  परम्परा अपनाई जाती रही है। इन में जो अमानवीय कुरीतियाँ  हैं ,उनके निदान का काम ही प्रगतिशील वामपंथी एक्टिविस्टों 
है। एक सच्चे वामपंथी  व्यक्ति या संगठन का दायित्व है वह  मंदिर प्रवेश की लड़ाई का नेतत्व करने के बजाय ,मंदिर निर्माण का विरोध करने के बजाय  , धार्मिक -मजहबी मामलों में नाहक उलझने के बजाय ,देश की मेहनतकश जनता को -मजूरों -किसानों को उनके जीवन-मरण के मुद्दे पर मार्गदर्शन करे ,वर्ग चेतना से लेस करे,असमानता के मुद्दे पर ,शोषण ,उत्पीड़न के मुद्दे पर लामबंद करे ! अनाड़ी की तरह फटे में पैर अड़ाने से भारत की धर्मांध जनता प्रतिक्रियावादियों के झंडे लेकर भूंखे पेट भी यही कहेगी कि उसके तो अच्छे दिन आये  हैं !  ये तो विरोधी हैं जो दुष्प्रचार किये जा रहे हैं।

 अभी कुछ दिनों पहले ही दक्षिण भारत के किसी राज्य की सचित्र खबर -पढ़ने में आई थी ,कि 'दलितों को मन्दिर प्रवेश ' कराने  के लिए बाएँ बाजु[[left wing] के कुछ नेता और संगठन उस आंदोलन का नेतत्व कर रहे थे ! यह बड़ी विचित्र बिडंबना है कि एक तरफ तो 'कारा तोड़ो कारा तोड़ो ' का सिहंनाद जारी है ,दूसरी ओर सामाजिक असमानता दूर करने के बहाने 'दलित और स्त्री विमर्श' को उसी प्रतिगामी 'मनुवाद' का पिछलग्गू बनाया जा रहा है ! चाहे महाराष्ट्र में महिलाओं के शनि शिंगणापुर मंदिर प्रवेश का मामला हो ,चाहे हाजी -अली पीर दरगाह में प्रवेश का मामला हो या दक्षिण के पुरातन हिन्दू मंदिरों में अस्पृश्य जनों के मंदिर प्रवेश का मामला हो,इन आन्दोलनों में क्रांतिकारी कुछ भी नहीं है। इन संघर्षों में दलितवादी नेता रूचि लें या कुछ उत्साही वामपंथी रूचि लेते हों, लेकिन साम्प्रदायिक और दक्षिणपंथी तत्व सवाल उठाएँगे ही कि 'यह मंदिर प्रवेश तो मनुवाद की ओर ले जाता है', दलित - वामपंथी नेता अब मनुवाद के समर्थक क्यों होने लगे ? जो लोग मंदिर ,मस्जिद ,चर्च, गुरुद्वारा नहीं जा पाते, या जाना उचित नहीं समझते , उन्हें  जबरन मंदिर, मस्जिद ,दरगाह में जबरन प्रवेश कराना उचित  है क्या ? क्या मजहबी पाखण्ड  में डुबकी लगाना  वैज्ञानिक सोच के अनुकूल है ? क्या यह  प्रगतिशील संघर्ष है। इस विमर्श में जनवाद और धर्मनिरपेक्षता कहाँ हैं ? श्रीराम तिवारी

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