प्रायः देखा गया है कि टटपूंजिया- दक्षिणपंथी -भाववादी लेखक अथवा पत्रकार और पूँजीवादी -साम्प्रदायिक नेता अक्सर वामपंथ पर वेवजह हमला करते रहते हैं। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का तात्पर्य यह नहीं कि जो कमजोर वर्गों की आवाज हो -उसको दवाया जाए और भृष्ट लुटेरों की चरण वंदना की जाए ! प्रायः यह भी देखा गया है कि जो शख्स वामपंथ या कम्युनिज्म की निंदा -आलोचना करता है, वह कार्ल मार्क्स की शिक्षाओं और उनके द्वारा स्थापित इस वैज्ञानिक दवन्दात्मक -ऐतिहासिक भौतिकवाद का ककहरा भी नहीं जानता । यह लम्पट - विक्षिप्त वर्ग एक तरफ तो बड़ी शिद्द्त से दावा करता है कि " दुनिया में अब कम्युनिज्म खत्म हो रहा है, और भारत में कम्युनिज्म की कोई सम्भावना ही नहीं है ,बगैरह,,,बगैरह,," दूसरी ओर यही वर्ग जेएनयू जैसे तमाम विश्वविद्यालयों के सभ्य सुशिक्षित प्रगतिशील प्रोफेसरों और छात्र-छात्राओं को जन्मजात वामपंथी ही मान रहा है। उन्हें स्व.रोहित वेमूला और उसका निर्धन दलित परिवार वामपंथी नजर आता है। और जिन्हे वर्तमान कारपोरेट कम्पनी कल्चर के प्रति पीलिया प्रेम रोग हो चुका है ,उन अबोध युवाओं को जेएनयू का छात्र नेता कन्हैया कुमार 'देशद्रोही'नजर आता है। विचित्र विडंबना है कि इन अर्धशिक्षित -दिग्भर्मित हाईटेक युवाओं को विजय माल्या ललित मोदी, कालेधन वाले भॄस्ट अफसर और बेईमान पूँजीपति 'देशभक्त' नजर आ रहे हैं ? उन्हें अर्धविक्षिप्त सुब्रमण्यम स्वामी हिन्दुत्ववादी नजर आता है ,खुद जिसकी लड़की ने किसी गैर हिन्दू से शादी की है। आडवाणी,मुरलीमनोहर जोशी के दामाद भी मुस्लिम ही हैं। वाह क्या अदा है उनके इस हिंदुत्व की ? यह शिवाजी या राणाप्रताप वाला हिन्दू तो कदापि नहीं है ,वेशक जोधा के बाप राजा बिहारीमल या भाई मानसिंह वाला हिंदुत्व अवश्य नजर आता है। जिन लोगों की नजर में कामरेड कन्हैया देशद्रोही है ,उन्ही की नजर में भगोडे विजय माल्या ,ललित मोदी और तमाम लुच्चे -लफंगे साम्प्रदायिक नेता देशभक्त हैं !
अक्सर कुछ सीधे सादे अर्धशिक्षित छात्र और तकनीकी दक्षता प्राप्त युवा केरियरिस्ट भी जुमलेबाज नेताओं की झांसेबाजी को समझ नहीं पाते। वे नहीं जानते कि किस खास निहित स्वार्थी योजना के तहत आधुनिक पूँजीवादी मीडिया एक खास रंग की राजनीती को उनके ललाट पर उत्कीर्ण किये जा रहा है। प्रतिगामी नीतियों को इतिहास के कूड़े से उठाकर ,वैश्विक बाजार के उत्पादों को देश की गलियों चौबारों में खपाकर और लोकतंत्र को चूना लगाकर आधुनिक 'विकास' का गुणगान किया जा रहा है। अतीत की असफलताओं के बहाने वर्तमान सत्तारूढ़ नेतत्व को महिमा मण्डित किया जा रहा है। सिर्फ एक खास नेता का ही गुणगान प्रायोजित किया जा रहा है। कोशिश की जा रही है कि सिर्फ एक नेता के 'मन की बात ' ही सुनी जाए। क्या यह नव फासीवाद का आगाज नहीं है ? देश में यदि लोकतंत्र है तो सभी के मन की बात क्यों नहीं सुनी जानी चाहिए?
आधुनिक युवा तकनीकी रूप से बिजनेस मैनेजमेंट या बाजारीकरण की नजर में तो काबिलियत रखते हैं किन्तु उन्हें विश्व व्यापी सनातन संघर्षों और उनके ऐतिहासिक दवंदों की खबर नहीं है। वे यह नहीं जानते कि आधुनिक साइंस ने दुनिया में केवल वैज्ञानिक क्रांति ही नहीं की है । आधुनिक कम्प्यूटरीकृत युवाओं के समक्ष संसार का अथाह ज्ञान कोष संचित रखा हुआ है किन्तु फिर भी वे यूरोपियन रेनेसा,फ्रेंच रेवोलुशन ,अमेरिकी क्रांति , सोवियत अक्टूबर क्रांति ,चीनी सर्वहारा एवं सांस्कृतिक क्रांति के बारे में कुछ नहीं जानते। अतीत की क्रांतियों के दुनिया पर हुए विश्व व्यापी सकरात्मक असर की उन्हें कोई जानकारी नहीं है । आधुनिक तकनीकी दक्षता प्राप्त युवाओं को नहीं मालूम कि यह आधुनिक संचार क्रांति या वैज्ञानिक समग्र क्रांति जिस साइंस की देंन है ,उसी साइंस ने दुनिया में सामंतवादी- शोषणकारी राजनीति को पलटने का काम भी किया है। विश्व व्यापी साइंस की खोजों ने ही यूरोप में पहले -पहले सामंतवाद पर प्रजातंत्र को बढ़त दिलाई थी। और 'चर्च' की प्रभुसत्ता को नियंत्रित करने का काम भी किया था दुनिया बाहर के गुलाम राष्ट्रों-पूर्व के उपनिवेशों को मुक्त कराने में इस साइंस की भूमिका प्रमुख रही है। साइंस ने राजनैतिक -आर्थिक -सामाजिक क्षेत्र में जो भी अनेक क्रांतिकारी उलटफेर किये हैं। ये क्रांतिकारी परिवर्तन ही मार्क्सवाद या साम्यवाद के उत्प्रेरक रहे हैं। इसी समग्र वैश्विक क्रांतिकारी दर्शन ने दुनिया को क्रांति की नयी राह दिखाई है । वैज्ञानिक भौतिकवाद ही साम्यवादी दर्शन का मेरुदण्ड है। इंटरनेट मोबाइल धारक आधुनिक युवाओं को यह ज्ञान भी होना चाहिए।
मार्क्स ,एंगेल्स तो साम्य वादी अन्वेषण के महज निमित्त मात्र थे। यह व्यवस्था परिवर्तन का सिद्धांत अटल है ,यह हर देश में हर काल में अलग-अलग ढंग से होता ही रहता है। वक्त आने पर भारत में भी इसे होना ही है। लेकिन किस देश में कब होगा ?कैसे होगा ? यह उस देश के युवाओं की तासीर पर निर्भर है । क्रांति कब हो ?कैसे हो ? यह सम्बंधित देश की क्रांतिकारी युवा सोच पर निर्भर करता है। परिवर्तन की प्रक्रिया को जान लेना ही इस क्रांतिकारी दर्शन का ब्रह्मज्ञान है । भारत में यह ज्ञान सर्वप्रथम मान्वेंद्रनाथ राय ,रजनिपामदत्त ,लोकमान्य तिलक , मुजफ्फर अहमद , शहीद भगतसिंह इत्यादि महान क्रांतिकारियों को हुआ था। उन्होंने गुलाम भारत में भी वोल्शिविक क्रांति के सपने देखे थे। किन्तु धूर्त अंग्रेजों ने अपने ढहते हुए ब्रिटिश साम्राज्यवाद को बचाने के लिए भारत में जाति -धर्म के गोरखधंधे रच डाले। उन्होंने भारत की विध्वंशक शक्तियों को खूब उकसाया। ताकि भारत में सर्वहारा क्रांति को रोक जा सके। उन्होंने 'अहिंसा' के बहाने गांधी जी और कांग्रेस के नेताओं को पूँजीवाद का पाठ पढ़ाया,और कांग्रेस -मुस्लिम लीग के अलगाववादी ध्रुवों को खास तवज्जो दी। नतीजे में इस विभाजित उपमहाद्वीप की दो कौमें अभी तक रूठी हुई हैं। अब तक तो यह केवल मजहबी दुराव मात्र हुआ करता था ,किन्तु अब वह साम्प्रदायिक उन्माद के रूप में राजनैतिक शक्ति संचय का साधन बन चुका है।
इतिहास गवाह है कि अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग और जिन्ना को पाकिस्तान के लिए उकसाया था,और सिखों को खालिस्तान के लिए । तमिलों -तेलगु और अन्य गैर हिंदी -भाषा -भाषियों को उनके अलग-अलग राष्ट्रों के लिए उकसाया था । केवल इतना ही नहीं अंग्रेजों ने दलितों और उनके नेताओं को जातीय आधार पर पृथक निर्वाचन के लिए भी उकसाया। जिसे महात्मा गांधी ने बड़ी सूझ-बूझ से 'पूना पेक्ट ' के तहत आरक्षण व्यवस्था के रूप में लागू कर द्रवीभूत किया । लेकिन आज गांधी जी और बाबा साहिब अम्बेडकर होते तो इस दौर के आरक्षण का यह महास्वार्थी वीभत्स रूप देखकर अपना माथा कूट लेते।उनके लिए आरक्षण का मकसद सफेदपोश वर्गों की ऐयासी नहीं था,बल्कि निर्धन दलित -सर्वहारा का उत्थान ही उनका पवित्र ध्येय था। वह ध्येय कैसे पूरा हो ? आधुनिक शिक्षित -युवाओं को इसका उत्तर खोजना चाहिए।
अंग्रेजों ने जाते-जाते ,कश्मीर,हैदराबाद,भोपाल,जूनागढ़ और अन्य कई राजाओं को 'भारत संघ' में शामिल होने से रोका। उन्होंने देशी राजाओं को स्वतंत्र रहने के लिए उकसाया ! इस अवसर पर कांग्रेस के अंदर जो लेफ्टिस्ट थे उन्होंने भारत को एकजुट करने में सरदार पटेल और नेहरू का भरपूर साथ दिया। देश विभाजन के समय कौमी दंगों को रोकने में ईएमएस नबूदिरपाद और तत्तकालीन तमाम कम्युनिस्टों की महती भूमिका रही है। कांग्रेस ने केवल गैर कम्युनिस्ट नेताओं के जीवन चरित्र और बलिदान ही पाठ्य पुस्तकों में प्रकाशित कराये हैं। हैदराबाद के निजाम और उसके रजाकारों ने रॉयल सीमा और आध्र में जब पृथक स्टेण्ड लिया और पाकिस्तान मे मिलने की चर्चा चलाई तो लाल झंडे वालों ने ही निजाम को घेरकर मजबूर किया कि वो भारत में विलय पर हस्ताक्षर करे। इस मुठभेड़ में जितने कम्युनिस्ट मारे गए उतने तो पाकिस्तान में हिन्दू भी नहीं मारे गए होंगे।
ठीक इसी समय हिन्दू महा सभा के लोग भारत में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर गांधी जी को निपटाने के षड्यंत्र रच रहे थे। जिसकी परिणीति नाथूराम गोडसे के हाथों गांधी जी की हत्या के रूप में हुई।अच्छे -खासे पढ़े लिखे लोग भी कभी-कभी आर्थिक -राजनैतिक-दर्शन -सिद्धांतों को जाने बिना घोर फासीवादी संगठनों के प्रभाव में आ जाते हैं। और इसी तरह राजनीतिक विश्लेषण क्षमता से विमुख कुछ प्रगतिशील लोग भी धर्मनिरपेक्षता और आतंकवाद जैसे मुद्दों पर भटक जाया करते हैं। दक्षिणपंथी संकीर्णतावाद के बरक्स कुछ वामपंथी भी वैचारिक संकीर्णता की खाई में जा गिरते हैं। पर्याप्त अध्यन के अभाव में भाजपा और संघ का बड़े से बड़ा प्रवक्ता भी मार्क्सवादी नीति निदेशक सिद्धांतों से अंजान ही रहता है। क्योंकि वह गोलवलकर साहित्य के दुष्प्रभाव में आकर मार्क्सवाद के प्रति शत्रुवत और सर्वहारा वर्ग के प्रति नकारात्मक भाव में होता है, अतः इन कूप मण्डूक लोगों से किसी किस्म के विवेकपूर्ण विश्लेषण की उम्मीद नहीं की जा सकती।
संघियों की तरह कुछ जड़ -मार्क्सवादी वामपंथी भी सर्वहारा -अंतर्राष्ट्रीयतावाद के सिद्धांतों को छोड़कर मौजूदा राजनीति के प्रचण्ड चेता हो जाते हैं। उन्हें वैज्ञानिुक भौतिकवाद की इतनी सनक सवार होने लग जाती है की भाव जगत की ठाँव में माता -पिता भी रूढ़िवादी -संकीर्णतावादी नजर आते हैं।जब किसी वामपंथी को भाववादी दर्शन में केवल मिथ या आडंबर ही दिखेगा तो वह उसके प्रति अध्यन में रूचि भी क्यों लेगा ? उग्रवामपन्थी से लेकर ट्रेड यूनियन में काम करने वाले नेता-रामायण ,बाइबिल.कुरआन जैसे भाववादी साहित्य को समग्र रूप से पढ़ने -समझने की कोई खास चेष्टा नहीं करते। चूँकि उन्होंने पहले से ही ठान रखा है कि ''यह सब बकवास है , पाखंडपूर्ण मिथकीय कूड़ा करकट है '' ! धर्म -मजहब और दर्शन के ग्रंथों को पढ़े बिना , अतीत के इतिहास को ठीक से उन्हें जाने बिना,उसके विमर्श में कून्द पड़ते हैं। इसीलिये धर्मांध जनता को वर्ग चेतना की जद में लाने में ये वामपंथी विद्वान भी फिसड्डी सावित होते रहते हैं।
संसदीय लोकतंत्र के त्रुटिपूर्ण चुनावों में असंगठित क्षेत्र की बहुसंखयक जनता और अल्पसंख्य्क समूह तीसरे विकल्प या वामपंथ की जीत को हमेशा संदेह की नजर से देखती है। लोकसभा या विधानसभा चुनावों के समय गरीब- मजदूर-किसान समुदाय जाति -धर्म -मजहब के पांतों में बट जाता है। और गफलत में अपने वर्ग शत्रु को ही वोट दे देता रहता है। उसकी रहनुमाई के लिए मौजूद सर्वहारा के हरावल दस्ते को हार का मुँह देखना पड़ता है। वर्तमान 'अच्छे दिनों'में भी यही सब चल रहा है।मानव इतिहास के हर दौर में कुछ मुठ्ठी भर लोग ही होते हैं जो हर किस्म के शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ संगठित संघर्ष की रहनुमाई किया करते रहे हैं। वे समाज-राष्ट्र के सकारात्मक निर्माण में भी निष्णांत हुआ करते हैं। ऐंसे धीरोदात्त चरित्र के बलिदानी लोगों से ही युगांतर होते रहे हैं। इन्ही से महाकाव्यों के चरित्र गढे जाते रहे हैं। कालांतर में इन्हे ही देव ,इन्हें ही अवतार और ,इनको ही 'नायक' कहा जाता रहा है। आधुनिक वैज्ञानिक भौतिकवाद और पुरातन दर्शन -मिथ -इतिहास सभी एक दूजे के अन्योन्याश्रित हैं।किसी भी युग के ज्ञान -इतिहास का कोई पृथक अस्तित्व नहीं है। सब कुछ समष्टिगत है।
आधुनिक विश्व क्रांतिकारी द्वन्दात्मक -भौतिकवादी विचार के प्रणेताओं ने उनके प्रगतिशील वामपंथी-साहित्य को जो सम्मान दिया है ,वही सम्मान सामन्तयुगींन रीतिकालीन सौंदर्य साहित्य को भी मिलना चाहिए। यह साम्यवादी दर्शन भी उतना ही पुरातन है जितने की महाकाव्य। इसलिए दोनों ही समान रूप से आदरणीय ,पठनीय और अनुकरणीय है। भाववादी महाकाव्य साहित्य सृजन न केवल भव्य है अपितु वह निरंतर अनुशीलन योग्य भी है। वह किसी भी कोण से प्रतिक्रांतिकारी और यथास्थितिवादि नहीं है। अपितु किसी भी आसन्न क्रांति चेतना के लिए यह जीवंत साहित्य तो पूर्वपीठिका की तरह ही सर्वकालिक है। स्वामी विवेकानंद ,स्वामी श्रद्धानन्द,लाला लाजपत राय , काजी नजरूल इस्लाम ,रवींद्रनाथ टेगोर,अरविंदो ,ईएमएस नम्बूदरीपाद ,श्रीपाद डांगे,राहुल सांकृत्यायन ,बाबा नागार्जुन ,निराला ,राम विलास शर्मा इत्यादि ने भारतीय महाकाव्यों का गहन अध्यन किया था। इन सभी को यूरोप की वैज्ञानिक और भौतिक क्रांतियों का भी पर्याप्त ज्ञान था। यही वजह है कि ये सभी सिर्फ मार्क्सवाद के विद्वान ही नहीं अपितु निर्विवाद रूप से स्वतंत्र भारत के पथप्रदर्शक भी माने जाते हैं।
कुछ अपवादों -क्षेपकों को छोड़कर अधिकांश भाववादी भारतीय साहित्य -खास तौर से पाली, प्राकृत ,अपभ्रंस और संस्कृत -वांग्मय का दर्शन अक्षरशः वैज्ञानिक आधार पर पर्याप्त प्रमाणिक है। और मानवीय तो वह है ही । भले ही यह तमाम प्राचीन महाकाव्य सृजन नितांत अतिश्योक्तिपूर्ण -गप्पों का ही भण्डार ही क्यों न हो !किन्तु उस भूसे के ढेर में भी परोपकार ,नयायप्रियता, अपरिग्रह, उत्सर्ग ,सत्य शील, उदारता ,बन्धुता , क्षात्रत्व इत्यादि सनातन मूल्यों की अमूल्य धरोहर रूप में अनेक मणि-माणिक्य छुपे हुए हैं। अर्थात प्राच्य दर्शन और समग्र वैदिक वांग्मय के सूत्र भी कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो' के कालजयी सिद्धांतों जैसे ही मानवीय-सर्वकालिक हैं।
महाभारत और उसके भीष्म पर्व में सन्निहित भगवद्गीता तो विश्व में बेजोड़ हैं। कुछ प्रगतिशील लोग इस मिथकीय साहित्य को बिना पढ़े ही हेय दॄष्टि से देखते हैं। इसी तरह अधिकांश भाववादी और अंधश्रद्धा वाले मजहबी साम्प्रदायिक लोग भी 'दास केपिटल ' मार्क्सवाद या 'कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो' इत्यादि को पढ़े बिना ही कम्युनिज्म पर टीका टिप्पणी करते रहते हैं। ये तथाकथित धार्मिक और भाववादी लोग अपने धर्म -पंथ के मूल्यों को जाने बिना और इन गर्न्थो का सांगोपांग अध्यन किये बिना ही उनकी गलत सलत व्याख्या करते रहते हैं। वे अपने कर्मकाण्डीय धार्मिक प्रयोजन के बहाने इस शानदार पुरातन धरोहर रुपी अध्यात्म साहित्य को गर्त में धकेल रहे हैं और धर्म-मजहब के विस्तार के बहाने उसका बेजा राजनैतिक दुरूपयोग करते रहते हैं।
आम धारणा है कि वेद ,आरण्यक ,उपनिषद ,गीता ,कुरआन,बाइबिल इत्यादि ग्रन्थ तो कोरे अवैज्ञानिक और भाववादी -अध्यात्मवादी ही हैं। सांगोपांग अध्यन करने पर पता चलता है कि ये सभी गूँथ तो मूलतः वैज्ञानिक भौतिकतावादी ही हैं। इनमें निहित भाववाद सिर्फ व्यष्टि चेतना के निमित्त ही दर्ज है। रामायण महाभारत या अभिज्ञान शाकुन्तलम ही नहीं बल्कि पंचतंत्र-हितोपदेश जैसा लोक साहित्य भी इस बात का प्रमाण है कि वह केवल मिथ या कालकवलित मृगमरीचिका नहीं है। अजन्ता ,एलोरा ,खजुराहो,साँची -सारनाथ और दक्षिण भारत के विशाल मंदिर एवं भारत में यत्र-तत्र -सर्वत्र विखरी पडी विराट पुरातन शिल्प धरोहर में सर्वत्र पुरातन साइंस -टेक्नॉलाजी विदयमान है। कु छ भी तो अवैज्ञानिक नहीं है।क्या बिना गणतीय सूत्रों ,प्रमेयों और सहज भौतिक ज्ञान के,अतीत का यह विराट सृजन सम्भव था? नहीं ! कदापि नहीं ! बल्कि इस पुरातन शिल्प , के आधार पर ही मनुष्य ने आधुनिक उचाईयों को छुआ है। सकल पौराणिक -मिथकीय सृजन ,और साहित्य भी आधुनिक प्रगतिशील वैज्ञानिक खोजों की ही तरह न केवल ज्ञेय और गम्य है बल्कि मानवोचित है सार्वभौम है , सार्वकालिक हैं।
श्रीराम तिवारी !
अक्सर कुछ सीधे सादे अर्धशिक्षित छात्र और तकनीकी दक्षता प्राप्त युवा केरियरिस्ट भी जुमलेबाज नेताओं की झांसेबाजी को समझ नहीं पाते। वे नहीं जानते कि किस खास निहित स्वार्थी योजना के तहत आधुनिक पूँजीवादी मीडिया एक खास रंग की राजनीती को उनके ललाट पर उत्कीर्ण किये जा रहा है। प्रतिगामी नीतियों को इतिहास के कूड़े से उठाकर ,वैश्विक बाजार के उत्पादों को देश की गलियों चौबारों में खपाकर और लोकतंत्र को चूना लगाकर आधुनिक 'विकास' का गुणगान किया जा रहा है। अतीत की असफलताओं के बहाने वर्तमान सत्तारूढ़ नेतत्व को महिमा मण्डित किया जा रहा है। सिर्फ एक खास नेता का ही गुणगान प्रायोजित किया जा रहा है। कोशिश की जा रही है कि सिर्फ एक नेता के 'मन की बात ' ही सुनी जाए। क्या यह नव फासीवाद का आगाज नहीं है ? देश में यदि लोकतंत्र है तो सभी के मन की बात क्यों नहीं सुनी जानी चाहिए?
आधुनिक युवा तकनीकी रूप से बिजनेस मैनेजमेंट या बाजारीकरण की नजर में तो काबिलियत रखते हैं किन्तु उन्हें विश्व व्यापी सनातन संघर्षों और उनके ऐतिहासिक दवंदों की खबर नहीं है। वे यह नहीं जानते कि आधुनिक साइंस ने दुनिया में केवल वैज्ञानिक क्रांति ही नहीं की है । आधुनिक कम्प्यूटरीकृत युवाओं के समक्ष संसार का अथाह ज्ञान कोष संचित रखा हुआ है किन्तु फिर भी वे यूरोपियन रेनेसा,फ्रेंच रेवोलुशन ,अमेरिकी क्रांति , सोवियत अक्टूबर क्रांति ,चीनी सर्वहारा एवं सांस्कृतिक क्रांति के बारे में कुछ नहीं जानते। अतीत की क्रांतियों के दुनिया पर हुए विश्व व्यापी सकरात्मक असर की उन्हें कोई जानकारी नहीं है । आधुनिक तकनीकी दक्षता प्राप्त युवाओं को नहीं मालूम कि यह आधुनिक संचार क्रांति या वैज्ञानिक समग्र क्रांति जिस साइंस की देंन है ,उसी साइंस ने दुनिया में सामंतवादी- शोषणकारी राजनीति को पलटने का काम भी किया है। विश्व व्यापी साइंस की खोजों ने ही यूरोप में पहले -पहले सामंतवाद पर प्रजातंत्र को बढ़त दिलाई थी। और 'चर्च' की प्रभुसत्ता को नियंत्रित करने का काम भी किया था दुनिया बाहर के गुलाम राष्ट्रों-पूर्व के उपनिवेशों को मुक्त कराने में इस साइंस की भूमिका प्रमुख रही है। साइंस ने राजनैतिक -आर्थिक -सामाजिक क्षेत्र में जो भी अनेक क्रांतिकारी उलटफेर किये हैं। ये क्रांतिकारी परिवर्तन ही मार्क्सवाद या साम्यवाद के उत्प्रेरक रहे हैं। इसी समग्र वैश्विक क्रांतिकारी दर्शन ने दुनिया को क्रांति की नयी राह दिखाई है । वैज्ञानिक भौतिकवाद ही साम्यवादी दर्शन का मेरुदण्ड है। इंटरनेट मोबाइल धारक आधुनिक युवाओं को यह ज्ञान भी होना चाहिए।
मार्क्स ,एंगेल्स तो साम्य वादी अन्वेषण के महज निमित्त मात्र थे। यह व्यवस्था परिवर्तन का सिद्धांत अटल है ,यह हर देश में हर काल में अलग-अलग ढंग से होता ही रहता है। वक्त आने पर भारत में भी इसे होना ही है। लेकिन किस देश में कब होगा ?कैसे होगा ? यह उस देश के युवाओं की तासीर पर निर्भर है । क्रांति कब हो ?कैसे हो ? यह सम्बंधित देश की क्रांतिकारी युवा सोच पर निर्भर करता है। परिवर्तन की प्रक्रिया को जान लेना ही इस क्रांतिकारी दर्शन का ब्रह्मज्ञान है । भारत में यह ज्ञान सर्वप्रथम मान्वेंद्रनाथ राय ,रजनिपामदत्त ,लोकमान्य तिलक , मुजफ्फर अहमद , शहीद भगतसिंह इत्यादि महान क्रांतिकारियों को हुआ था। उन्होंने गुलाम भारत में भी वोल्शिविक क्रांति के सपने देखे थे। किन्तु धूर्त अंग्रेजों ने अपने ढहते हुए ब्रिटिश साम्राज्यवाद को बचाने के लिए भारत में जाति -धर्म के गोरखधंधे रच डाले। उन्होंने भारत की विध्वंशक शक्तियों को खूब उकसाया। ताकि भारत में सर्वहारा क्रांति को रोक जा सके। उन्होंने 'अहिंसा' के बहाने गांधी जी और कांग्रेस के नेताओं को पूँजीवाद का पाठ पढ़ाया,और कांग्रेस -मुस्लिम लीग के अलगाववादी ध्रुवों को खास तवज्जो दी। नतीजे में इस विभाजित उपमहाद्वीप की दो कौमें अभी तक रूठी हुई हैं। अब तक तो यह केवल मजहबी दुराव मात्र हुआ करता था ,किन्तु अब वह साम्प्रदायिक उन्माद के रूप में राजनैतिक शक्ति संचय का साधन बन चुका है।
इतिहास गवाह है कि अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग और जिन्ना को पाकिस्तान के लिए उकसाया था,और सिखों को खालिस्तान के लिए । तमिलों -तेलगु और अन्य गैर हिंदी -भाषा -भाषियों को उनके अलग-अलग राष्ट्रों के लिए उकसाया था । केवल इतना ही नहीं अंग्रेजों ने दलितों और उनके नेताओं को जातीय आधार पर पृथक निर्वाचन के लिए भी उकसाया। जिसे महात्मा गांधी ने बड़ी सूझ-बूझ से 'पूना पेक्ट ' के तहत आरक्षण व्यवस्था के रूप में लागू कर द्रवीभूत किया । लेकिन आज गांधी जी और बाबा साहिब अम्बेडकर होते तो इस दौर के आरक्षण का यह महास्वार्थी वीभत्स रूप देखकर अपना माथा कूट लेते।उनके लिए आरक्षण का मकसद सफेदपोश वर्गों की ऐयासी नहीं था,बल्कि निर्धन दलित -सर्वहारा का उत्थान ही उनका पवित्र ध्येय था। वह ध्येय कैसे पूरा हो ? आधुनिक शिक्षित -युवाओं को इसका उत्तर खोजना चाहिए।
अंग्रेजों ने जाते-जाते ,कश्मीर,हैदराबाद,भोपाल,जूनागढ़ और अन्य कई राजाओं को 'भारत संघ' में शामिल होने से रोका। उन्होंने देशी राजाओं को स्वतंत्र रहने के लिए उकसाया ! इस अवसर पर कांग्रेस के अंदर जो लेफ्टिस्ट थे उन्होंने भारत को एकजुट करने में सरदार पटेल और नेहरू का भरपूर साथ दिया। देश विभाजन के समय कौमी दंगों को रोकने में ईएमएस नबूदिरपाद और तत्तकालीन तमाम कम्युनिस्टों की महती भूमिका रही है। कांग्रेस ने केवल गैर कम्युनिस्ट नेताओं के जीवन चरित्र और बलिदान ही पाठ्य पुस्तकों में प्रकाशित कराये हैं। हैदराबाद के निजाम और उसके रजाकारों ने रॉयल सीमा और आध्र में जब पृथक स्टेण्ड लिया और पाकिस्तान मे मिलने की चर्चा चलाई तो लाल झंडे वालों ने ही निजाम को घेरकर मजबूर किया कि वो भारत में विलय पर हस्ताक्षर करे। इस मुठभेड़ में जितने कम्युनिस्ट मारे गए उतने तो पाकिस्तान में हिन्दू भी नहीं मारे गए होंगे।
ठीक इसी समय हिन्दू महा सभा के लोग भारत में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर गांधी जी को निपटाने के षड्यंत्र रच रहे थे। जिसकी परिणीति नाथूराम गोडसे के हाथों गांधी जी की हत्या के रूप में हुई।अच्छे -खासे पढ़े लिखे लोग भी कभी-कभी आर्थिक -राजनैतिक-दर्शन -सिद्धांतों को जाने बिना घोर फासीवादी संगठनों के प्रभाव में आ जाते हैं। और इसी तरह राजनीतिक विश्लेषण क्षमता से विमुख कुछ प्रगतिशील लोग भी धर्मनिरपेक्षता और आतंकवाद जैसे मुद्दों पर भटक जाया करते हैं। दक्षिणपंथी संकीर्णतावाद के बरक्स कुछ वामपंथी भी वैचारिक संकीर्णता की खाई में जा गिरते हैं। पर्याप्त अध्यन के अभाव में भाजपा और संघ का बड़े से बड़ा प्रवक्ता भी मार्क्सवादी नीति निदेशक सिद्धांतों से अंजान ही रहता है। क्योंकि वह गोलवलकर साहित्य के दुष्प्रभाव में आकर मार्क्सवाद के प्रति शत्रुवत और सर्वहारा वर्ग के प्रति नकारात्मक भाव में होता है, अतः इन कूप मण्डूक लोगों से किसी किस्म के विवेकपूर्ण विश्लेषण की उम्मीद नहीं की जा सकती।
संघियों की तरह कुछ जड़ -मार्क्सवादी वामपंथी भी सर्वहारा -अंतर्राष्ट्रीयतावाद के सिद्धांतों को छोड़कर मौजूदा राजनीति के प्रचण्ड चेता हो जाते हैं। उन्हें वैज्ञानिुक भौतिकवाद की इतनी सनक सवार होने लग जाती है की भाव जगत की ठाँव में माता -पिता भी रूढ़िवादी -संकीर्णतावादी नजर आते हैं।जब किसी वामपंथी को भाववादी दर्शन में केवल मिथ या आडंबर ही दिखेगा तो वह उसके प्रति अध्यन में रूचि भी क्यों लेगा ? उग्रवामपन्थी से लेकर ट्रेड यूनियन में काम करने वाले नेता-रामायण ,बाइबिल.कुरआन जैसे भाववादी साहित्य को समग्र रूप से पढ़ने -समझने की कोई खास चेष्टा नहीं करते। चूँकि उन्होंने पहले से ही ठान रखा है कि ''यह सब बकवास है , पाखंडपूर्ण मिथकीय कूड़ा करकट है '' ! धर्म -मजहब और दर्शन के ग्रंथों को पढ़े बिना , अतीत के इतिहास को ठीक से उन्हें जाने बिना,उसके विमर्श में कून्द पड़ते हैं। इसीलिये धर्मांध जनता को वर्ग चेतना की जद में लाने में ये वामपंथी विद्वान भी फिसड्डी सावित होते रहते हैं।
संसदीय लोकतंत्र के त्रुटिपूर्ण चुनावों में असंगठित क्षेत्र की बहुसंखयक जनता और अल्पसंख्य्क समूह तीसरे विकल्प या वामपंथ की जीत को हमेशा संदेह की नजर से देखती है। लोकसभा या विधानसभा चुनावों के समय गरीब- मजदूर-किसान समुदाय जाति -धर्म -मजहब के पांतों में बट जाता है। और गफलत में अपने वर्ग शत्रु को ही वोट दे देता रहता है। उसकी रहनुमाई के लिए मौजूद सर्वहारा के हरावल दस्ते को हार का मुँह देखना पड़ता है। वर्तमान 'अच्छे दिनों'में भी यही सब चल रहा है।मानव इतिहास के हर दौर में कुछ मुठ्ठी भर लोग ही होते हैं जो हर किस्म के शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ संगठित संघर्ष की रहनुमाई किया करते रहे हैं। वे समाज-राष्ट्र के सकारात्मक निर्माण में भी निष्णांत हुआ करते हैं। ऐंसे धीरोदात्त चरित्र के बलिदानी लोगों से ही युगांतर होते रहे हैं। इन्ही से महाकाव्यों के चरित्र गढे जाते रहे हैं। कालांतर में इन्हे ही देव ,इन्हें ही अवतार और ,इनको ही 'नायक' कहा जाता रहा है। आधुनिक वैज्ञानिक भौतिकवाद और पुरातन दर्शन -मिथ -इतिहास सभी एक दूजे के अन्योन्याश्रित हैं।किसी भी युग के ज्ञान -इतिहास का कोई पृथक अस्तित्व नहीं है। सब कुछ समष्टिगत है।
आधुनिक विश्व क्रांतिकारी द्वन्दात्मक -भौतिकवादी विचार के प्रणेताओं ने उनके प्रगतिशील वामपंथी-साहित्य को जो सम्मान दिया है ,वही सम्मान सामन्तयुगींन रीतिकालीन सौंदर्य साहित्य को भी मिलना चाहिए। यह साम्यवादी दर्शन भी उतना ही पुरातन है जितने की महाकाव्य। इसलिए दोनों ही समान रूप से आदरणीय ,पठनीय और अनुकरणीय है। भाववादी महाकाव्य साहित्य सृजन न केवल भव्य है अपितु वह निरंतर अनुशीलन योग्य भी है। वह किसी भी कोण से प्रतिक्रांतिकारी और यथास्थितिवादि नहीं है। अपितु किसी भी आसन्न क्रांति चेतना के लिए यह जीवंत साहित्य तो पूर्वपीठिका की तरह ही सर्वकालिक है। स्वामी विवेकानंद ,स्वामी श्रद्धानन्द,लाला लाजपत राय , काजी नजरूल इस्लाम ,रवींद्रनाथ टेगोर,अरविंदो ,ईएमएस नम्बूदरीपाद ,श्रीपाद डांगे,राहुल सांकृत्यायन ,बाबा नागार्जुन ,निराला ,राम विलास शर्मा इत्यादि ने भारतीय महाकाव्यों का गहन अध्यन किया था। इन सभी को यूरोप की वैज्ञानिक और भौतिक क्रांतियों का भी पर्याप्त ज्ञान था। यही वजह है कि ये सभी सिर्फ मार्क्सवाद के विद्वान ही नहीं अपितु निर्विवाद रूप से स्वतंत्र भारत के पथप्रदर्शक भी माने जाते हैं।
कुछ अपवादों -क्षेपकों को छोड़कर अधिकांश भाववादी भारतीय साहित्य -खास तौर से पाली, प्राकृत ,अपभ्रंस और संस्कृत -वांग्मय का दर्शन अक्षरशः वैज्ञानिक आधार पर पर्याप्त प्रमाणिक है। और मानवीय तो वह है ही । भले ही यह तमाम प्राचीन महाकाव्य सृजन नितांत अतिश्योक्तिपूर्ण -गप्पों का ही भण्डार ही क्यों न हो !किन्तु उस भूसे के ढेर में भी परोपकार ,नयायप्रियता, अपरिग्रह, उत्सर्ग ,सत्य शील, उदारता ,बन्धुता , क्षात्रत्व इत्यादि सनातन मूल्यों की अमूल्य धरोहर रूप में अनेक मणि-माणिक्य छुपे हुए हैं। अर्थात प्राच्य दर्शन और समग्र वैदिक वांग्मय के सूत्र भी कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो' के कालजयी सिद्धांतों जैसे ही मानवीय-सर्वकालिक हैं।
महाभारत और उसके भीष्म पर्व में सन्निहित भगवद्गीता तो विश्व में बेजोड़ हैं। कुछ प्रगतिशील लोग इस मिथकीय साहित्य को बिना पढ़े ही हेय दॄष्टि से देखते हैं। इसी तरह अधिकांश भाववादी और अंधश्रद्धा वाले मजहबी साम्प्रदायिक लोग भी 'दास केपिटल ' मार्क्सवाद या 'कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो' इत्यादि को पढ़े बिना ही कम्युनिज्म पर टीका टिप्पणी करते रहते हैं। ये तथाकथित धार्मिक और भाववादी लोग अपने धर्म -पंथ के मूल्यों को जाने बिना और इन गर्न्थो का सांगोपांग अध्यन किये बिना ही उनकी गलत सलत व्याख्या करते रहते हैं। वे अपने कर्मकाण्डीय धार्मिक प्रयोजन के बहाने इस शानदार पुरातन धरोहर रुपी अध्यात्म साहित्य को गर्त में धकेल रहे हैं और धर्म-मजहब के विस्तार के बहाने उसका बेजा राजनैतिक दुरूपयोग करते रहते हैं।
आम धारणा है कि वेद ,आरण्यक ,उपनिषद ,गीता ,कुरआन,बाइबिल इत्यादि ग्रन्थ तो कोरे अवैज्ञानिक और भाववादी -अध्यात्मवादी ही हैं। सांगोपांग अध्यन करने पर पता चलता है कि ये सभी गूँथ तो मूलतः वैज्ञानिक भौतिकतावादी ही हैं। इनमें निहित भाववाद सिर्फ व्यष्टि चेतना के निमित्त ही दर्ज है। रामायण महाभारत या अभिज्ञान शाकुन्तलम ही नहीं बल्कि पंचतंत्र-हितोपदेश जैसा लोक साहित्य भी इस बात का प्रमाण है कि वह केवल मिथ या कालकवलित मृगमरीचिका नहीं है। अजन्ता ,एलोरा ,खजुराहो,साँची -सारनाथ और दक्षिण भारत के विशाल मंदिर एवं भारत में यत्र-तत्र -सर्वत्र विखरी पडी विराट पुरातन शिल्प धरोहर में सर्वत्र पुरातन साइंस -टेक्नॉलाजी विदयमान है। कु छ भी तो अवैज्ञानिक नहीं है।क्या बिना गणतीय सूत्रों ,प्रमेयों और सहज भौतिक ज्ञान के,अतीत का यह विराट सृजन सम्भव था? नहीं ! कदापि नहीं ! बल्कि इस पुरातन शिल्प , के आधार पर ही मनुष्य ने आधुनिक उचाईयों को छुआ है। सकल पौराणिक -मिथकीय सृजन ,और साहित्य भी आधुनिक प्रगतिशील वैज्ञानिक खोजों की ही तरह न केवल ज्ञेय और गम्य है बल्कि मानवोचित है सार्वभौम है , सार्वकालिक हैं।
श्रीराम तिवारी !
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