ताजा खबर है कि आइन्दा गुजरात के पटेलों को भी आरक्षण का लाभ मिलेगा। संविधान निर्माताओं ने सिर्फ दस साल के लिए केवल एससी/एसटी को ही यह आरक्षण प्रस्तावित किया था। लेकिन उनका आरक्षण अब शायद सनातन के लिए पक्का हो गया है। वीपीसिंह के राज में मंडल आयोग की सिफारिश पर पहले केवल कुछ खास किस्म के समाज पिछड़े मानकर उपकृत किये गए थे । और अब शुद्ध सामाजिक दादागिरी की बदौलत जाटों,गूजरों और पटेलों को आरक्षण दिया जाने वाला है। सड़कें-पुल उड़ाने,रेल-पटरियाँ उखाड़ने ,बसें जलाने वालों - सामूहिक बलात्कार के दोषियों को उनके दुष्कृत्य के लिए उचित दण्ड दिए जाने के बजाय आरक्षण का शौर्य पदक पेश किया जा रहा है। अब तक जिन्हें कोई आरक्षण नहीं मिला है और आइन्दा भी घोर गरीबी - भुखमरी के वावजूद जिन्हें 'सवर्ण' जातिु का ठप्पा लगा होने से कोई आरक्षण नहीं मिलना है ,वे निर्धन मजदूर - किसान क्या मनुवादी -ब्राह्मणवादी व्यवस्था के लिए जिम्मेदार हैं ? क्या अब यह मान लिया जाए कि जिन्हे आरक्षण रुपी कवच-कुंडल मिल चुके हैं ,वे आइन्दा 'अवर्ण ' नहीं रहेंगे बल्कि 'सवर्ण' हो जाएंगे ?इन सवालों की पड़ताल किए बिना भारतीय आवाम का सर्व समावेशी सामूहिक विकास असम्भव है !हमलावर
उत्तर वैदिक काल से लेकर ईसापूर्व पांचवीं -छठी शताब्दी तक अधिकांश भारतीय कबीलाई समाजों का वैदिक वर्ण व्यवस्था में पर्याप्त रूपांतरण हो चुका था। संस्कृत भाषा का विशद वाङ्ग्मय और उसके वैदिक सूत्र ही इस धारा के प्रमुख उत्प्रेरक -पथप्रदर्शक रहे हैं। शिक्षित भद्रलोक के लिए वेद ,उपनिषद, स्मृति ,आरण्यक संहिताएँ और पुराणों के दिशा निर्देश अनुकरणीय रहे हैं। इस प्राच्य सभ्य वाङ्ग्मय में आदिम साम्यवाद व सामाजिक समरसता दोनों मौजूद थे। इसमें रंचमात्र जातीय या सामाजिक असमानता नहीं थी । यह विशुद्ध आध्यात्मिक उत्थान की वैश्विक यात्रा थी। विकासवादी धारा के समानांतर देश काल परिश्थिति के प्रभाव से कुछ 'आदिम-कबीलाई ' समाजों ने सभ्यता के प्रारंभिक दौर में 'लोक -मान्यताएँ स्थिर बना लीं थीं। उन्हें पत्थर की लकीर बनाकर सदा के लिए आत्मसात कर लिया गया । अतः उनकी अन्वेषण क्षमता प्रायः जड़वत होने लगी । और उनकी यह तुष्ट जीवन शैली ही अतीत के अंधानुकरण को मजबूत करती रहीं। जबकि क्रांतिकारी आर्य कबीले अपनी सृजनशीलता और वैज्ञानिक सोच से ऐतिहासिक विकास के हर मोड़ पर सभ्यता की उत्तरोत्तर छलाँग लगाते चले गए । सिर्फ ऋग्वेद की वैश्विक प्रमाणिकता ही नहीं बल्कि वेदांत के अनुशीलन करने वाले वैदिक समाज की उत्कृष्ट रचनाधर्मिता को भी संसार की समस्त पुरातन सभ्यताओं में सर्वोच्च सम्मान प्राप्त है। निसंदेह यह वैदिक समाज ही अतीत के भद्रलोक में सबसे पहले दीक्षित होना प्रारम्भ हुआ था। कालांतर में वर्णाश्रम की तरह वर्ण व्यवस्था उसकी अपनी वैज्ञानिक खोज रही।यह पुरातन सामाजिक विज्ञान के आदिम अनुसंधानों का प्रयोग मात्र था। इसे विकृत और पतनशील बनाने वाले विदेशी आक्रान्ता ही हैं।
पांच हजार साल पुरानी उक्त वर्ण व्यवस्था के अवशेषों-भग्नावेशों को अब 'ब्राह्मणवाद' कहा जा रहा है। विगत कुछ वर्षों से राजनीतिक मकसद के लिए कुछ लोग इसे मनुवाद के नाम से भी गरियाते देखे गए हैं। अनार्य या अवैदिक सामाजिक धारा में जो वैदिक सूत्रों को नहीं मानते थे , जो अपभ्रंस ,पाली,प्राकृत,द्रविड़ और अन्य गैर संस्कृत भाषाओँ से योगरूढ़ हुए , वे ग्राम्य जनों और आदिवासी समाजों की 'लोक मान्यताओं' का प्रमुख आधार बने रहे । कालान्तर में वेदांत के ही कुछ विज्ञान सम्मत -प्रगत -अनीश्वर वादी सूत्रों को कपिल,कणाद ,चार्वाक, बुद्ध ,महावीर और नानक ने क्रमश : सांख्य ,नास्तिक,बौद्ध ,जैन और सिख पंथ की स्थापना की । और भारतीय समाज की ये दोनों प्रमुख सामाजिक धारायें-वैदिक और अवैदिक के दवंद से ही जातीय-समाज व्यवस्था के उत्थान -पतन की प्रक्रिया जारी रही हैं। लेकिन वह अंतर्दवन्द कारी होते हुए भी उतनी जटिल या भयावह नहीं थी। तब दासीपुत्र जाबालि,नारद ,विदुर को उनके ज्ञान की बदौलत 'आर्यपुत्रों 'से भी श्रेष्ठ मान मिला करता था।
विदेशी आक्रमण कारियों ने वेदमत और लोकमत के दवंद की इन दोनों धाराओं से बेजा फायदा उठाया। अपने निहित स्वार्थों के लिए हर विदेशी आक्रान्ता कबीले और कॉम ने भारतीय समाज की इन धाराओं के सनातन द्वन्द और इस वर्ण -जाति व्यवस्था से खूब फायदा उठाया । चूँकि इसे यथावत बनाए रखने में ही उनका स्वार्थ सध रहा था ,इसलिए किसी भी विदेशी आक्रमणकारी ने इस जातीय व्यवस्था को छूने की भी हिम्मत नहीं दिखाई। जातिवाद समाप्त करने या उसे मानवीय रूप प्रदान करने की बुद्ध ,गोरक्षनाथ ,रामानन्द ,
कबीर,रैदास और नानक जी ने बहुत कोशिश की थे। लेकिन उनके अनुयाई तो और ज्यादा नयी नयी जात -पंथ बनाते चले गए। जो दमित ,दलित और शोषित थे उन्हें कभी सम्मान नहीं मिला। अब यदि जातीवादी आधार पर आरक्षण से यह सम्मान वापसी होती है तो शुभस्य शीघ्रम !
भारत के जातीय विमर्श को समझने के लिए अधिकांश समाज शास्त्रियों ने अंग्रेजों और यूरोपियन का विशेष अनुकरण किया है। प्रगतिशील वामपंथी समाज शास्त्री अपने अहंकार में डूबकर वेद ,उपनिषद और मनुस्मृति को पढ़ना तो दूर उसे छूना भी प्रतिगामी समझते हैं। अतएव वे पुरातन भारतीय समाज की सांस्कृतिक धाराओं को यूरोप और पश्चिम के चस्मे से देखने के लिए बाध्य हैं। भारत के दक्षिणपंथी तथाकथित भगवा दल वाले तो और ज्यादा कूप मण्डूक हो रहे हैं , वे यूरोप की सांइस -टेक्नॉलजी का भरपूर उपयोग करते हुए ,अपने पुरातन आर्य ऋषियों के चमत्कारों का अतिश्योक्तिपूर्ण बखान करने में मग्न रहते हैं। आरक्षण सिद्धांत पेश करने वाले जातीयतावादी नेताओं ने भी जातीय वैमनस्य बढ़ाने में हदें पार कीं हैं। इसीलिये इस कृत्य के लिए कुछ हद तक ये तीनों धड़े जिम्मेदार हैं। लेकिन भारत की जातीय व्यवस्था को अमानवीय बनाने के लिए तो विदेशी आक्रान्ता -हमलावर सर्वाधिक जिम्मेदार रहे हैं।
ब्राह्मणों ,क्षत्रियों,वैश्यों के खिलाफ भारत के शेष समाजों को खड़ा करने में कभी बौद्धों और शक-हूणों ने भी भारी मशक्कत की है । इस्लामिक हमलावर कबीलों और सुलतानों ने भी इसमें खूब रोटियाँ सेंकीं । लेकिन ईस्ट इण्डिया कम्पनी और अंग्रेजों की भूमिका सबसे खास रही ।अंग्रेज कूटनीति का असर ही था कि वे शुरुं में हजार दो हजार अंग्रेज ही आये और ३३ करोड़ [तत्कालीन] भारतीयों को गुलाम बना लिया। उन्होंने मुसलमानों हिन्दुओं द्रविड़ों ,मराठों और सिखोंको अलग-अलग धड़े में बांटने के लिए भारतीय इतिहास को चालाकी से मिथ बता दिया। यह सवाल उठना लाजमी है कि जब भारतीय या हिन्दुओं के वेद ,पुराण,संहिताएं मिथ हैं ,उनकी सब मान्यताएं मिथ हैं ,तो फिर उनके आधार पर खड़ी जातीय व्यवस्था ऐतिहासिक कैसी हो गयी ? यदि यह जातीय सामाजिक वयवस्था एक सच है तो उसका जनक भारतीय वैदिक वाङ्ग्मय मिथ कैसे हुआ ?
आजादी के आंदोलन के दौरान कुछ जातीय नेता ,कुछ मजहबी और साम्प्रदायिक नेता ,कुछ अंग्रेजी चापलूस अंग्रेजों की दुर्नीति का शिकार हो गए। उन्होंने कांग्रेस और गांधी जी को खूब परेशान किया। वेशक इस जातीय और समाज की दयनीय स्थिति के लिए कुछ ब्राह्मण भी दोषी अवश्य होंगे। किन्तु सामाजिक शोषण के लिए महज ब्राह्मणों को दोष देना सरासर अन्याय है। यह सर्व विदित है कि आरक्षण की वैशाखी लिए 'मनुवाद' की कल्पना गढ़ी गयी है। जबकि मनुवाद व ब्राह्मणवाद का कोई सार्थक और सीधा संबंध नहीं है । मनु एक राजा थे ,क्षत्रिय थे। तपस्या की होगी सो वे ऋषि हो गए। उन्होंने एक आचार संहिता बना दी ,कुछ लोगों को पसंद आयी। कुछ ने नहीं माना। इसमें ब्राह्मण कहा से आ गए ? मनु स्मृति पढ़े बिना ही उस पर दोषपूर्ण रुबाइयां लिखना एक किस्म का सामाजिक अपराध ही है। सामाजिक -आर्थिक शोषण तो सारे संसार में व्याप्त है ,क्या यह सब ब्राह्मणों ने ही किया है ? क्या अफ्रीका के नेल्सन मंडेला को ,क्यूबा के फीदल कास्त्रो को या अमेरिका के मार्टिन लूथर 'किंग' को भारत के निर्धन वामनों ने जेलों में डाला था ?क्या ये सभी मनुवाद के शिकार हुए ?
भूमंडलीकरण और बाजारीकरण के दौर में ,२० वीं -२१ वीं शताब्दी में भी भारत की कुछ प्राचीन -सामन्तयुगींन धाराओं का असर देखा जा सकता है। सामाजिक लोक व्यवहार में 'भद्रलोक 'और 'भदेस' दोनों ही धाराओं ने हर किस्म की वैज्ञानिक क्रांति का हमेशा ही विरोध किया है। उन्होंने आधुनिक भौतिक वैज्ञानिक क्रांति को तो आत्मार्पित कर लिया ,किन्तु हर किस्म की नकारात्मक मान्यताओं व छुआछूत की परम्परा को ज्यों का त्यों शाश्वत 'अछूत' ही बनाए रखा है । यह निर्मम और शोषणकारी -अमानवीय सिलसिला -मामूली हेर -फेर के साथ २१ वीं सदी में भी यथावत जारी है। बड़े ही अचरज की बात है कि जो वर्ण व्यवस्था किसी भी समाज विशेष को संतुष्ट नहीं कर पाई। वह सामन्तकालीन समाज व्यवस्था मरी हुई बंदरिया की मानिंद अभी भी अपने अतीत के व्यामोह से चिपकी हुई है। अतीत में प्रबुद्ध कबीलों ने जब इस व्यवस्था को जरूरत के अनुसार ईजाद किया होगा, शायद जिन्हे यह पसंद नहीं आयी वे तब के प्रथम विद्रोही या क्रांतिकारी रहे होंगे। लेकिन ऐंसे विद्रोही कबीले हर दौर में पिछड़ते ही चले गए। जिन् बाह्य आक्रमणकारी -तोरमाण ,शक-हूण -कुषाण , उज्वेग और मुगल जैसे बर्बर कबीलों ने इस तत्कालीन चातुर्वर्ण्य सभ्यता' को अपना लिया और वे यहाँ के शासक भी बन बैठे। और जिन तुर्क,गुलाम और मंगोलों ने इसे बहुत बाद में अपने तरीके से अपनाया उन्हें दारा शिकोह या शरमद जैसी शहादत प्राप्त हुई । आंशिक रूप से इस वर्ण व्यवस्था का कायल हो जाने के कारण ही हुमांयू पुत्र अकबर को हिन्दुस्तान में इतना बड़ा मुकाम और रुतवा हासिल हुआ । आमेर के राजपूत राजा भारमल की पुत्री जोधा से अकबर की शादी कोई परी कथा या प्रेम कहानी नहीं है, बल्कि यह जातीय और वर्णव्यवस्था के सामने अकबर की कदमबोसी कही जा सकती है।
जिन् स्थानीय आदिवासियों और अन्य भारतीय समुदायों ने इसे तहेदिल से स्वीकार नहीं किया वे मानव समूह अपने पिछड़ेपन के लिए उन्हें दोष नहीं दे सकते जो खुद ही सनातन से सताए हुए हैं। इस आजाद भारत में अब भी कुछ लोग अपने-आपको दलित-पिछड़े मानकर ही चल रहे है। वे यदि इस वर्ण-जाति आधारित व्यवस्था को ही नकार दें तो उन्हें आरक्षण की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। यह बड़ी विचित्र स्थिति है कि जो लोग इस वर्ण जाति की व्यवस्था से तृस्त हैं वे इसे नकारने के बजाय आरक्षण सिद्धांत पेश कर रहे हैं। मानों इस आरक्षण रुपी हर्जाने से उन्हें सामाजिक सम्मान अपने-आप प्राप्त होने लग जाएगा !ऐंसा आभासित होता है कि भारत में कुछ सम्पन्न और खाते -पीते लोगों को पिछड़ा- दलित कहलाने का पैदायशी शौक है। वास्तव में ऊंच नीच -छुआछूत तो राष्ट्रीय अभिशाप है। लेकिन आरक्षण के बहाने इसे और मजबूत क्यां बनाया जा रहा है ? भारत में अमीरी या धन -दौलत से सामाजिक सम्मान शायद ही किसी को मिला हो ! तात्या टोपे ,मंगल पांडेय गरीब थे या अमीर इससे नहीं बल्कि आजादी के लिए शहादत दी इससे सम्मान के पात्र हो गए। शहीद चन्द्रशेखर आजाद ,भगतसिंह ,सुखदेव ,राजगुरु को भरपेट खाना कभी नहीं मिला बल्कि देश की आजादी के लिए वे अनेक कष्ट झेलते हुए शहीद हो गए। उन्हें जो सम्मान प्राप्त है वह किसी आरक्षण धारी को कभी नहीं मिल सकता। केवल अधिकार की बात करना सच्ची वतनपरस्ती उन्हीं है। देश के लिए त्याग करना पर ही सम्मान का हक मिल सकता है।
वास्तव में सामाजिक हींन बोध ही बेहद पतित अवस्था है। जब कोई कहता है कि ' मै पिछड़ा या दलित हूँ' तो इस पतित नकारात्मक सोच के साथ ही वह मानसिक रूप से विकलांग [अब दिव्यांग] होने लगता है। लेकिन जब कोई चिराग पासवान या जीतनराम माझी कहता है कि ''हम अब आरक्षण नहीं चाहते ''- ''हमारी जगह दूसरे गरीबों को आरक्षण मिलना चाहिए '' - तो इतना कह देने मात्र से ही उनका सामाजिक कद ऊँचा होने लग जाता है। फिर वह किसी ब्राह्मण से कमतर नहीं रह जाता। वह अपने चिराग नाम को सार्थक कर लेता है। उसे अब पासवान शब्द भी पावन लगता है। जब जीतनराम माझी स्वेच्छा से आरक्षण सुविधा का त्याग करते हैं तो वह दलित नहीं रह जाते। बल्कि जीतनराम हो जाते हैं। और अब उन्हें माझी शब्द से दलित होने का नहीं बल्कि श्रेष्ठ होने का भाव होने लगता है। यही उत्कृष्ट मानसिक अवस्था है जो मनुष्य मात्र को सामाजिक तौर पर श्रेष्ठ बना सकती है। आरक्षण की वैशाखी से कोई किसी दौड़ में जीत हासिल नहीं कर सकता। आर्थिक शोषण से मुक्ति का एकमात्र मार्ग है सर्वहारा क्रांति। एकमात्र यही एक साधन है जिससे सभी वर्गों-वर्णों के लोगों को एक साथ सामाजिक ,आर्थिक और हर किस्म की असमानता से निजात दिलाई जा सकती है। कार्ल मार्क्स - एंगेल्स ,लेनिन और भगतसिंह ने इसे वैज्ञानिक नजरिए से भली भांति प्रस्तुत किया है।यह तय है कि बिना किसी ठोस समग्र क्रांति के सामाजिक न्याय केवल दिवा केवल स्वप्न ही है।
कोई भी व्यक्ति जब सम्पूर्ण राष्ट्र, सकल शोषित समाज को एकीभाव से देखने लगता है तो उसका सनातन दारिद्र और पिछड़ापन भी अपने आप दूर होने लगता है। जब वह नानक ,कबीर ,रैदास ,ज्योतिबा फुले,सावित्री वाई फुले या बाबा साहिब अम्बेडकर हो जाता है ,तो उसके 'वर्ण' या जात की नहीं बल्कि उसके शौर्य और शील की जय जयकार होती है। लेकिन लोग जब तक आरक्षण की वैशाखी की कामना करते रहेंगे तब तक मानसिक रूप से दलित-पिछड़े ही बने रहेंगे ! इस राह पर कुछ देर के लिए पेट की छुधा शांत हो सकती है ,किन्तु मानसिक संतोष कदापि उन्हीं मिल सकता।
कुछ लोग अवश्य भारतीय संविधान की बदौलत ही इस व्यवस्था में ठीक से खड़े हो पाए हैं। किन्तु शताब्दियों से विद्रोही रहे कुछ भारतीय आज भी इस सिस्टम में प्रवेश नहीं कर पाये हैं। शायद वे अभी भी अपनी प्राचीन विरासत से चिपके रहना चाहते हैं। या अपने पुरातन ढर्रे को यथावत रखना चाहते होंगे ! झाबुआ ,काल हांडी , अबूझमांड और सरगुजा के आदिवासी आज भी अपनी पुरातन पध्दति से हीं चलते जा रहे हैं। वे मनुस्मृति को नहीं जानते। उन्हें उस से कोई शिकायत भी नहीं। हालाँकि इन आदिवासियों के बीच 'रक्तिम ' सशत्र क्रांति का प्रचार करने वाले माओवादी भी वर्षों से काम कर रहे हैं। लेकिन ये नक्सलवादी शिक्षित युवा अपने ही सजातीय आदिवासियों को गुमराह कर रहे है। वे उन्हें अब तक वोल्शेविक नहीं बना सके। 'मनुवाद' से लड़ने की घृणित जातीयतावादी ढपोरशंख भी वे नहीं बजा पाये। दरअसल इन आदिवासियों को , देश के अन्य करोड़ों ग्रामीण दलितों को -जो खेती बाड़ी -मजदूरी से जीवन यापन करते हैं ,तथाकथित 'मनुवाद से या ब्राह्मणवाद से कोई लेना देना नहीं है। उनका टकराव तो इस पूँजीवादी सामन्ती अर्थ व्यवस्था से है और उन्हें इससे लड़ने के लिए तैयार करने के बजाय जातिवादी नेता 'वर्ण संघर्ष की धुन छेड़ते रहते हैं।
तमाम पूँजीवादी पार्टियों के नेताओं और जातीय -संगठन द्वारा सामाजिक क्रांति के बहाने थोक बंद वोटों के लिए आरक्षण की आग को हवा दी जा रही है। जातीयता की आंच पर सभी राजनीतिक दल रोटी सेंक रहे हैं। लेकिन वंचितों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनका देश है भी या नहीं ! यदि देश है भी तो वह गुलाम है या आजाद ? ईश्वर और उसके खास एजेंट-ब्राह्मण के होने या न होने से भी इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। इस विपन्न वर्ग में करोड़ों दलित-आदिवासी तो हैं ही किन्तु उनके जैसे करोड़ों गरीब सवर्ण -मजदूर -किसान भी हैं। इनकी एकता जातीय आरक्षण की राह पर असम्भव है। क्योंकि आरक्षण की लौह दीवार ही उनके आपसी वैमनस्य का कारण भी है ,और भारतीय सर्वहारा वर्ग की यही सबसे कारुणिक बिडंबना है।देश काल परिस्थितियों की आवश्य्कता अनुसार समाज के अंदर की सहज द्वंद्वात्मकता रुपी चिंगारी कभी-कभी तीखी भी होती रही है। हरएक दौर में ताकतवर -व्यक्तियों,समाजों और राष्ट्रों को कमजोर व्यक्तियों,समाजों और राष्ट्रों ने 'क्रांति' की चुनौती दी है। कालांतर में समाज व्यवस्था संचालन के निमित्त वर्ण व्यवस्था का जन्म हुआ। प्रारम्भ में तो आर्थिक श्रम -विभाजन के हेतु से सिर्फ तीन वर्ण-ब्राह्मण,क्षत्रिय वैश्य ही प्रचलन में रहे। किन्तु काल प्रवाह की लम्बी एतिहासिक यात्रा के उपरान्त अनेक कारणों से चौथा वर्ण ''शूद्र' अवतरित हुआ। किसी कवि की उस निरुक्ति को प्रमाणिक और विज्ञान सम्मत नहीं कहा जा सकता ,जिसमें कहा गया है कि 'ब्राह्मण ब्रह्म मुख्य से ,क्षत्रिय भुजाओं से ,वैश्य जंघा से और शूद्र चरणों से उत्पन्न हुए हैं। ''
तो यह सब कुछ -कुछ रोमन और यूनानी समाज जैसा ही था। किन्तु कालांतर में जब नदी घाटी सभ्यताओं से आगे नागर सभ्यताओं का उदय हुआ तब अन्य विजेता कबीलों ने विजित जनों और द्विजेतर वर्णों पर आधिपत्य जमा लिया। श्रम शोषण की शुरुआत भी यहीं से आरम्भ हुई। कार्ल मार्क्स ने भी सरसरी तौर पर भारतीय आदिम साम्यवादी वर्ण व्यवस्था के इस क्रमिक विकाश पर नजर डाली है। लेकिन उन्होंने इस जातीय -वर्ण की व्यवस्था को इस नजर से नहीं देखा , जिस नजर से भारत के जातीयतावादी लेखक -चिंतक सोच रहे हैं।
उत्तर वैदिक काल के उपरान्त -उत्तर भारत का आदिम कबीलाई समाज ,दक्षिण भारत का कबीलाई समाज ही नहीं बल्कि पूर्व -पश्चिम के कबीलाई समाजों में भी वर्ण व्यवस्था को समाहित किया जाने लगा था। तब शायद अछूत शब्द का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था । लेकिन दस्यु , दास ,सुदास [अच्छे दास] कोल - किरात ,भिल्ल , सेवक, इत्यादि शब्दों का चलन शनेः-शनेः बढ़ता चला गया। आदिम समाज को 'राज्य 'के द्वारा शासित करने और व्यवस्था के रूप में स्थापित होने के कारण एक नया शब्द 'शूद्र भी इस वर्ण व्यवस्था का लगभग स्थाई अंग बन गया। तब चातुर्वर्ण्य व्यवस्था एक आवश्यक बुराई के रूप में समाज का अस्तित्व बन गयी। आदिम कबीलाई युद्धों की अनवरत जय-पराजय से ही इस चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का निर्माण हुआ है । इसमें ब्राह्मण ,क्षत्रिय या वैश्य वर्ण की कोई भूमिका नहीं। इस वर्णाश्रम व्यवस्था को कालांतर में जो बीभत्स और घृणित रूप प्राप्त हुआ उसके लिए विदेशी आक्रमणकारी पूर्ण रूप से जिम्मेदार हैं। जिस दौर में मध्य एसिया के यायावर लुटेरे- कबीले मारकाट मचाते हुए भारत के उत्तर -पश्चिमी भूभाग पर चढ़ दौड़े ,उस दौर के खण्ड-खण्ड बिखर भारत को अहिंसा ,सत्य ,अस्तेय -बृह्मचर्य ,अपरिग्रह ,क्षमा ,दया और शील जैसे मानवीय मूल्यों ने सराबोर कर रख था। विप्र ,ब्राह्मण ,ऋषि,मुनि,संत,महात्मा सिद्ध ,अरिहंत और भन्ते जैसे लोगों द्वारा केवल भारतीय समाज को ही नहीं बल्कि राजाओं-सामन्तों और जनपदों के श्रेष्ठियों को अहिंसा का पाठ पढ़ाया जा रहा था। विदेशी खूँखार भेड़ियों के लिए मैदान खाली था। नतीजे में भारत को सदियों की गुलामी भोगनी पडी।
चूँकि अहिंसा और पंचशील जैसे सिद्धांतों के दौर में ही भारत गुलाम बना ,इसलिए अभी यह तय होना बाकी है कि भारत की इस सदियों की गुलामी के लिए कौन जिम्मेदार है? कभी विदेशी कबीलाई आक्रमण ,कभी किसी मजहबी उन्माद की आयातित आंधी और कभी भारतीय वर्ण व्यवस्था की जड़ता और कभी अहिंसा के सिद्धांत ही इस समाज को को पददलित किये जाने के जिम्मेदार रहे हैं। इसमें ब्राह्मण वर्ग की भूमिका सिर्फ इतनी थी कि वे केवल अध्यात्म ,दर्शन , चिकित्सा ,गणित और धर्म सूत्रों -मन्त्रों की तो खूब बेहतरीन रचनाएं करते रहे किन्तु सनकी राजाओं और बिखरे हुए समाज पर उनकी कोई पकड़ नहींकभी नहीं रही । आचार्य चाणक्य याने कौटिल्य जैसे दो -चार अपवाद होंगे ,जिन्हें राष्ट्र निर्माण का अवसर मिल पाया । यदि यह सिलसिला जारी रहता तो गुलामी की नौबत ही न आती। तब शायद आधुनिक साइंस के चमत्कार यूरोप से पहले भारत में हो गए होते ! दरसल मनुवाद तो बुद्ध -महावीर के दौर में ही खत्म हुआ और 'अहिंसा परमो धर्म : के नारों की बाढ़ आ गयी। जो विदेशी आक्रमणकारियों को मुफीद थी।
उत्तर वैदिक काल के बहुत अर्से बाद अवैदिक धार्मिक पाखंडवाद ने और भौगोलिक विविधता एवं परिवेश की जटिलतम भिन्नता का फायदा उठाकर इस वैविध्यपूर्ण भारतीय 'हिन्दू 'समाज को पंगु बना डाला। इन तत्वों ने इसे सांस्कृतिक आर्थिक और सामाजिक रूप से बेहद जटिल एवं संकीर्णतावादी बना डाला।वर्ण व्यवस्था के दोषों के लिए और विदेशियों की गुलामी के लिए भी वही तत्त्व जिम्मेदार हैं। जो इन दिनों जातीय आरक्षण की राजनीति कर रहे हैं। इस बदनाम वर्ण वयवस्था के संस्थापक या निर्माता ऋषि -मुनि या ब्राह्मण कभी नहीं रहे। प्रगतिशील इतिहासकार -साहित्य्कार बार-बार कह चुके हैं कि वे पुराणों को इतिहास नहीं मानते ! जब पुराणों को इतिहास नहीं मानते तो मनुस्मृति को 'मिथ' क्यों नहीं मानते ? दरसल सामन्तों के आपसी युद्ध और कबीलाई समाज की बर्बरता तथा विदेशियों की गुलामी ने ही इस जाति वर्ण की व्यवस्था को पुष्पित पल्ल्वित किया है। घोर आरक्षणवादी नेता -लालू-मुलायम यदि सच्चे यादव हैं तो बताएं कि महाभारत काल में - कृष्ण और सुदामा में से कौन इस व्यवस्था का असली संचालक और पोषक था ? लालू ,मुलायम,और राबड़ी जी यह बताएं कि सुदामा ने किसका कब कितना शोषण किया ? सोलह हजार एक सौ आठ रानियां किसकी थीं ? गरीब सुदामा ब्राह्मण की या की द्वारकाधीश श्रीकृष्ण यादव की ? वर्ण व्यवस्था का आनंद किसने लूटा? निर्धन सुदामा [ब्राह्मण] ने या श्रीकृष्ण [ यादव] ने ? भीख मांगने वाले ब्राह्मण इस घृणित जातीय व्यवस्था के लिए कदापि जिम्मेदार नहीं हैं। मनुवाद - ब्राह्मणवाद एक काल्पनिक दुष्प्रचार है जो अंग्रेजों का रचा हुआ प्रपंच था। क्योंकि आजादी की लड़ाई में फांसी चढ़ने वाले अधिकांश ब्राह्मण ही थे। मंगल पांडे ,तात्या टोपे ,रानी झांसी ,नाना साहिब पेशवा ,चाफेकर बंधू ,तिलक, रवींद्रनाथ टेगोर,महर्षि अरविन्द ,गोखले,विद्यासागर और खुद गांहदी जी भी कर्म से शुद्ध ब्राह्मण ही थे। ब्राह्मणों को नाथने के लिए ही अंगर्जों ने न केवल दलितों बल्कि अन्य जातियों को उकसाया था।
हर दौर के विदेशी यायावर कबीलों के आक्रमण उपरान्त जो विदेशी जीत गए वे आर्य ऋषि-मुनियों द्वारा -राजपुत्रों' या क्षत्रियों में समाहित कर लिए गए । युध्दों में जो पराजित देशी-विदेशी जीवित रहे , वे गुलाम बनाए जाते रहे। और चौथे दर्जे याने 'शूद्र वर्ण ' में डाल दिए गए। कालांतर में 'आदिवासी' अनार्य ,यवन और द्रविड़ भी भारतीय समाज का इसी तर्ज पर हिस्सा बनते चले गए। जब व्यवस्था में मूल्यों,आदर्शों और आर्थिक मुद्दों को लेकर टकराव हुआ तो सामाजिक 'खापों' या गोत्रों का संस्थापन होने लगा। इस तरह जातीय -गोत्रीय कटटरता का आग्रह बढ़ता चला गया। जब नियम-संयम ,आचार-विचार और धर्म के आधार पर कटटरता बढ़ी तो समाज में श्रेष्ठता के अभिमान और वंचित-पराजित को लतियाने की जिद ने जातीय असहिष्णुता को जन्म दिया। नियमों का पालन करने वाले 'रघुकुल रीति' का महिमा गान करते हुए श्रेष्ठ होते चले गए। और जो नियमों को नहीं मान सके वे अनायास ही पद दलित होते गए। हर तरह से तिरस्कृत और सताए गए लोगों में हींन भावना , कुंठा ,प्रतिहिंसा और घृणा की धारणा बनती चली गयी। इसकी एक और खास वजह थी । तत्तकालीन सभ्य समाज अपने मूल्यों और परम्परागत रीति-रिवाजों के प्रति अटल बने रहना चाहता था । याने 'प्राण जाय पर बचन न जाहि'।
रीति-रिवाजों-नियमों की अवहेलना करने पर समाज द्वारा दण्डित व्यक्ति ही 'निम्नकोटि 'अथवा त्याज्य या अछूत मान लिया जाता था। चूँकि उत्तर वैदिक समाज श्रम विभाजन की वर्ण आधारित व्यवस्था पर आधारित था इसलिए सजायाफ्ता लोग भी कदाचित अंतिम वर्ण अर्थात 'शूद्रवर्ण' में ही गिने जाने लगे होंगे।जो निम्न्वर्न का व्यक्ति बेहतर मानवीय मूल्यों से युक्त होता उसे गाध ,नारद ,विश्वामित्र,जावालि मरीचि और वाल्मीकि की तरह आर्य धर्मध्व मान लिया जाता था। जो उच्च वर्ण का व्यक्ति -महिला या पुरुष आर्य परम्पराओं या मूल्यों से पथविचलित होजाता उसे शूद्र वर्ण में धकेल दिया जाता था। सुदास ,सहस्त्रबाहु, ययाति ,इंद्र ,अहिल्या ,चन्द्रमा ,बुध ,राहु,केतु जैसे अनेक वैदिक और पौराणिक उदाहरण उल्लेखनीय हैं। काल प्रवाह में यह व्यवस्था शोषण का साधन बनती चली गयी।जब ब्रिटेन में पूँजीवादी क्रांति हुई ,फ्रांसीसी क्रांति हुई ,अमेरिकन क्रांति हुई ,सोवियत क्रांति हुई तब दुनिया से उपनिवेशवाद और दास प्रथा का भी अंत होता चला गया ।चूँकि भारत में दासप्रथा नाम मात्र की ही थी ,इसलिए उसके वैकल्पिक रूप में ही यहाँ दलित-शूद्र जैसे निम्न वर्ण उल्लेख में आये। इन यूरोप के पुनजागरण काल ने और फ्रांसीसी क्रांति के उदात्त मूल्यों ने न केवल भारतीय श्रमजीवी वर्ग,बल्कि दलित-शोषित समाज को भी मुक्ति का मार्ग दिखाया है।
सवर्ण-दलित ही नहीं ,बल्कि आर्य -अनार्य के रूप में भी यह भारतीय समाज बुरी विभाजित रहा है। ,अतः इस वर्गीय समाज में सामाजिक समरसता बिलकुल नहीं है। राजनीति में जातीय धुर्वीकरण और जातीय आधार पर आरक्षण की राजनीति ने भारतीय लोकतंत्र का मजाक बन डाला है। यूपी का मुलायम परिवार ,भारत का सबसे बड़ा जातीय परिवार है। कहने को मायावती 'सिंगल' हैं ,किन्तु उनका परिवार भी केवल यूपी बिहार तक सीमित नहीं है। उनके रिस्ते पंजाब,कश्मीर ,हरियाणा और महाराष्ट्र तक फैले हुए हैं। लालू -नीतीश और बादल -ठाकरे भी अब व्यक्तियों के नाम नहीं बल्कि सामाजिक ताकतों के नाम हैं। जैसे स्थापित करने की चेष्टा को हमेशा प्रगतिशील कदम माना गया है। मनुवाद बनाम ब्राह्मणवाद एक भ्रामक अवधारणा है श्रीराम तिवारी !
उत्तर वैदिक काल से लेकर ईसापूर्व पांचवीं -छठी शताब्दी तक अधिकांश भारतीय कबीलाई समाजों का वैदिक वर्ण व्यवस्था में पर्याप्त रूपांतरण हो चुका था। संस्कृत भाषा का विशद वाङ्ग्मय और उसके वैदिक सूत्र ही इस धारा के प्रमुख उत्प्रेरक -पथप्रदर्शक रहे हैं। शिक्षित भद्रलोक के लिए वेद ,उपनिषद, स्मृति ,आरण्यक संहिताएँ और पुराणों के दिशा निर्देश अनुकरणीय रहे हैं। इस प्राच्य सभ्य वाङ्ग्मय में आदिम साम्यवाद व सामाजिक समरसता दोनों मौजूद थे। इसमें रंचमात्र जातीय या सामाजिक असमानता नहीं थी । यह विशुद्ध आध्यात्मिक उत्थान की वैश्विक यात्रा थी। विकासवादी धारा के समानांतर देश काल परिश्थिति के प्रभाव से कुछ 'आदिम-कबीलाई ' समाजों ने सभ्यता के प्रारंभिक दौर में 'लोक -मान्यताएँ स्थिर बना लीं थीं। उन्हें पत्थर की लकीर बनाकर सदा के लिए आत्मसात कर लिया गया । अतः उनकी अन्वेषण क्षमता प्रायः जड़वत होने लगी । और उनकी यह तुष्ट जीवन शैली ही अतीत के अंधानुकरण को मजबूत करती रहीं। जबकि क्रांतिकारी आर्य कबीले अपनी सृजनशीलता और वैज्ञानिक सोच से ऐतिहासिक विकास के हर मोड़ पर सभ्यता की उत्तरोत्तर छलाँग लगाते चले गए । सिर्फ ऋग्वेद की वैश्विक प्रमाणिकता ही नहीं बल्कि वेदांत के अनुशीलन करने वाले वैदिक समाज की उत्कृष्ट रचनाधर्मिता को भी संसार की समस्त पुरातन सभ्यताओं में सर्वोच्च सम्मान प्राप्त है। निसंदेह यह वैदिक समाज ही अतीत के भद्रलोक में सबसे पहले दीक्षित होना प्रारम्भ हुआ था। कालांतर में वर्णाश्रम की तरह वर्ण व्यवस्था उसकी अपनी वैज्ञानिक खोज रही।यह पुरातन सामाजिक विज्ञान के आदिम अनुसंधानों का प्रयोग मात्र था। इसे विकृत और पतनशील बनाने वाले विदेशी आक्रान्ता ही हैं।
पांच हजार साल पुरानी उक्त वर्ण व्यवस्था के अवशेषों-भग्नावेशों को अब 'ब्राह्मणवाद' कहा जा रहा है। विगत कुछ वर्षों से राजनीतिक मकसद के लिए कुछ लोग इसे मनुवाद के नाम से भी गरियाते देखे गए हैं। अनार्य या अवैदिक सामाजिक धारा में जो वैदिक सूत्रों को नहीं मानते थे , जो अपभ्रंस ,पाली,प्राकृत,द्रविड़ और अन्य गैर संस्कृत भाषाओँ से योगरूढ़ हुए , वे ग्राम्य जनों और आदिवासी समाजों की 'लोक मान्यताओं' का प्रमुख आधार बने रहे । कालान्तर में वेदांत के ही कुछ विज्ञान सम्मत -प्रगत -अनीश्वर वादी सूत्रों को कपिल,कणाद ,चार्वाक, बुद्ध ,महावीर और नानक ने क्रमश : सांख्य ,नास्तिक,बौद्ध ,जैन और सिख पंथ की स्थापना की । और भारतीय समाज की ये दोनों प्रमुख सामाजिक धारायें-वैदिक और अवैदिक के दवंद से ही जातीय-समाज व्यवस्था के उत्थान -पतन की प्रक्रिया जारी रही हैं। लेकिन वह अंतर्दवन्द कारी होते हुए भी उतनी जटिल या भयावह नहीं थी। तब दासीपुत्र जाबालि,नारद ,विदुर को उनके ज्ञान की बदौलत 'आर्यपुत्रों 'से भी श्रेष्ठ मान मिला करता था।
विदेशी आक्रमण कारियों ने वेदमत और लोकमत के दवंद की इन दोनों धाराओं से बेजा फायदा उठाया। अपने निहित स्वार्थों के लिए हर विदेशी आक्रान्ता कबीले और कॉम ने भारतीय समाज की इन धाराओं के सनातन द्वन्द और इस वर्ण -जाति व्यवस्था से खूब फायदा उठाया । चूँकि इसे यथावत बनाए रखने में ही उनका स्वार्थ सध रहा था ,इसलिए किसी भी विदेशी आक्रमणकारी ने इस जातीय व्यवस्था को छूने की भी हिम्मत नहीं दिखाई। जातिवाद समाप्त करने या उसे मानवीय रूप प्रदान करने की बुद्ध ,गोरक्षनाथ ,रामानन्द ,
कबीर,रैदास और नानक जी ने बहुत कोशिश की थे। लेकिन उनके अनुयाई तो और ज्यादा नयी नयी जात -पंथ बनाते चले गए। जो दमित ,दलित और शोषित थे उन्हें कभी सम्मान नहीं मिला। अब यदि जातीवादी आधार पर आरक्षण से यह सम्मान वापसी होती है तो शुभस्य शीघ्रम !
भारत के जातीय विमर्श को समझने के लिए अधिकांश समाज शास्त्रियों ने अंग्रेजों और यूरोपियन का विशेष अनुकरण किया है। प्रगतिशील वामपंथी समाज शास्त्री अपने अहंकार में डूबकर वेद ,उपनिषद और मनुस्मृति को पढ़ना तो दूर उसे छूना भी प्रतिगामी समझते हैं। अतएव वे पुरातन भारतीय समाज की सांस्कृतिक धाराओं को यूरोप और पश्चिम के चस्मे से देखने के लिए बाध्य हैं। भारत के दक्षिणपंथी तथाकथित भगवा दल वाले तो और ज्यादा कूप मण्डूक हो रहे हैं , वे यूरोप की सांइस -टेक्नॉलजी का भरपूर उपयोग करते हुए ,अपने पुरातन आर्य ऋषियों के चमत्कारों का अतिश्योक्तिपूर्ण बखान करने में मग्न रहते हैं। आरक्षण सिद्धांत पेश करने वाले जातीयतावादी नेताओं ने भी जातीय वैमनस्य बढ़ाने में हदें पार कीं हैं। इसीलिये इस कृत्य के लिए कुछ हद तक ये तीनों धड़े जिम्मेदार हैं। लेकिन भारत की जातीय व्यवस्था को अमानवीय बनाने के लिए तो विदेशी आक्रान्ता -हमलावर सर्वाधिक जिम्मेदार रहे हैं।
ब्राह्मणों ,क्षत्रियों,वैश्यों के खिलाफ भारत के शेष समाजों को खड़ा करने में कभी बौद्धों और शक-हूणों ने भी भारी मशक्कत की है । इस्लामिक हमलावर कबीलों और सुलतानों ने भी इसमें खूब रोटियाँ सेंकीं । लेकिन ईस्ट इण्डिया कम्पनी और अंग्रेजों की भूमिका सबसे खास रही ।अंग्रेज कूटनीति का असर ही था कि वे शुरुं में हजार दो हजार अंग्रेज ही आये और ३३ करोड़ [तत्कालीन] भारतीयों को गुलाम बना लिया। उन्होंने मुसलमानों हिन्दुओं द्रविड़ों ,मराठों और सिखोंको अलग-अलग धड़े में बांटने के लिए भारतीय इतिहास को चालाकी से मिथ बता दिया। यह सवाल उठना लाजमी है कि जब भारतीय या हिन्दुओं के वेद ,पुराण,संहिताएं मिथ हैं ,उनकी सब मान्यताएं मिथ हैं ,तो फिर उनके आधार पर खड़ी जातीय व्यवस्था ऐतिहासिक कैसी हो गयी ? यदि यह जातीय सामाजिक वयवस्था एक सच है तो उसका जनक भारतीय वैदिक वाङ्ग्मय मिथ कैसे हुआ ?
आजादी के आंदोलन के दौरान कुछ जातीय नेता ,कुछ मजहबी और साम्प्रदायिक नेता ,कुछ अंग्रेजी चापलूस अंग्रेजों की दुर्नीति का शिकार हो गए। उन्होंने कांग्रेस और गांधी जी को खूब परेशान किया। वेशक इस जातीय और समाज की दयनीय स्थिति के लिए कुछ ब्राह्मण भी दोषी अवश्य होंगे। किन्तु सामाजिक शोषण के लिए महज ब्राह्मणों को दोष देना सरासर अन्याय है। यह सर्व विदित है कि आरक्षण की वैशाखी लिए 'मनुवाद' की कल्पना गढ़ी गयी है। जबकि मनुवाद व ब्राह्मणवाद का कोई सार्थक और सीधा संबंध नहीं है । मनु एक राजा थे ,क्षत्रिय थे। तपस्या की होगी सो वे ऋषि हो गए। उन्होंने एक आचार संहिता बना दी ,कुछ लोगों को पसंद आयी। कुछ ने नहीं माना। इसमें ब्राह्मण कहा से आ गए ? मनु स्मृति पढ़े बिना ही उस पर दोषपूर्ण रुबाइयां लिखना एक किस्म का सामाजिक अपराध ही है। सामाजिक -आर्थिक शोषण तो सारे संसार में व्याप्त है ,क्या यह सब ब्राह्मणों ने ही किया है ? क्या अफ्रीका के नेल्सन मंडेला को ,क्यूबा के फीदल कास्त्रो को या अमेरिका के मार्टिन लूथर 'किंग' को भारत के निर्धन वामनों ने जेलों में डाला था ?क्या ये सभी मनुवाद के शिकार हुए ?
भूमंडलीकरण और बाजारीकरण के दौर में ,२० वीं -२१ वीं शताब्दी में भी भारत की कुछ प्राचीन -सामन्तयुगींन धाराओं का असर देखा जा सकता है। सामाजिक लोक व्यवहार में 'भद्रलोक 'और 'भदेस' दोनों ही धाराओं ने हर किस्म की वैज्ञानिक क्रांति का हमेशा ही विरोध किया है। उन्होंने आधुनिक भौतिक वैज्ञानिक क्रांति को तो आत्मार्पित कर लिया ,किन्तु हर किस्म की नकारात्मक मान्यताओं व छुआछूत की परम्परा को ज्यों का त्यों शाश्वत 'अछूत' ही बनाए रखा है । यह निर्मम और शोषणकारी -अमानवीय सिलसिला -मामूली हेर -फेर के साथ २१ वीं सदी में भी यथावत जारी है। बड़े ही अचरज की बात है कि जो वर्ण व्यवस्था किसी भी समाज विशेष को संतुष्ट नहीं कर पाई। वह सामन्तकालीन समाज व्यवस्था मरी हुई बंदरिया की मानिंद अभी भी अपने अतीत के व्यामोह से चिपकी हुई है। अतीत में प्रबुद्ध कबीलों ने जब इस व्यवस्था को जरूरत के अनुसार ईजाद किया होगा, शायद जिन्हे यह पसंद नहीं आयी वे तब के प्रथम विद्रोही या क्रांतिकारी रहे होंगे। लेकिन ऐंसे विद्रोही कबीले हर दौर में पिछड़ते ही चले गए। जिन् बाह्य आक्रमणकारी -तोरमाण ,शक-हूण -कुषाण , उज्वेग और मुगल जैसे बर्बर कबीलों ने इस तत्कालीन चातुर्वर्ण्य सभ्यता' को अपना लिया और वे यहाँ के शासक भी बन बैठे। और जिन तुर्क,गुलाम और मंगोलों ने इसे बहुत बाद में अपने तरीके से अपनाया उन्हें दारा शिकोह या शरमद जैसी शहादत प्राप्त हुई । आंशिक रूप से इस वर्ण व्यवस्था का कायल हो जाने के कारण ही हुमांयू पुत्र अकबर को हिन्दुस्तान में इतना बड़ा मुकाम और रुतवा हासिल हुआ । आमेर के राजपूत राजा भारमल की पुत्री जोधा से अकबर की शादी कोई परी कथा या प्रेम कहानी नहीं है, बल्कि यह जातीय और वर्णव्यवस्था के सामने अकबर की कदमबोसी कही जा सकती है।
जिन् स्थानीय आदिवासियों और अन्य भारतीय समुदायों ने इसे तहेदिल से स्वीकार नहीं किया वे मानव समूह अपने पिछड़ेपन के लिए उन्हें दोष नहीं दे सकते जो खुद ही सनातन से सताए हुए हैं। इस आजाद भारत में अब भी कुछ लोग अपने-आपको दलित-पिछड़े मानकर ही चल रहे है। वे यदि इस वर्ण-जाति आधारित व्यवस्था को ही नकार दें तो उन्हें आरक्षण की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। यह बड़ी विचित्र स्थिति है कि जो लोग इस वर्ण जाति की व्यवस्था से तृस्त हैं वे इसे नकारने के बजाय आरक्षण सिद्धांत पेश कर रहे हैं। मानों इस आरक्षण रुपी हर्जाने से उन्हें सामाजिक सम्मान अपने-आप प्राप्त होने लग जाएगा !ऐंसा आभासित होता है कि भारत में कुछ सम्पन्न और खाते -पीते लोगों को पिछड़ा- दलित कहलाने का पैदायशी शौक है। वास्तव में ऊंच नीच -छुआछूत तो राष्ट्रीय अभिशाप है। लेकिन आरक्षण के बहाने इसे और मजबूत क्यां बनाया जा रहा है ? भारत में अमीरी या धन -दौलत से सामाजिक सम्मान शायद ही किसी को मिला हो ! तात्या टोपे ,मंगल पांडेय गरीब थे या अमीर इससे नहीं बल्कि आजादी के लिए शहादत दी इससे सम्मान के पात्र हो गए। शहीद चन्द्रशेखर आजाद ,भगतसिंह ,सुखदेव ,राजगुरु को भरपेट खाना कभी नहीं मिला बल्कि देश की आजादी के लिए वे अनेक कष्ट झेलते हुए शहीद हो गए। उन्हें जो सम्मान प्राप्त है वह किसी आरक्षण धारी को कभी नहीं मिल सकता। केवल अधिकार की बात करना सच्ची वतनपरस्ती उन्हीं है। देश के लिए त्याग करना पर ही सम्मान का हक मिल सकता है।
वास्तव में सामाजिक हींन बोध ही बेहद पतित अवस्था है। जब कोई कहता है कि ' मै पिछड़ा या दलित हूँ' तो इस पतित नकारात्मक सोच के साथ ही वह मानसिक रूप से विकलांग [अब दिव्यांग] होने लगता है। लेकिन जब कोई चिराग पासवान या जीतनराम माझी कहता है कि ''हम अब आरक्षण नहीं चाहते ''- ''हमारी जगह दूसरे गरीबों को आरक्षण मिलना चाहिए '' - तो इतना कह देने मात्र से ही उनका सामाजिक कद ऊँचा होने लग जाता है। फिर वह किसी ब्राह्मण से कमतर नहीं रह जाता। वह अपने चिराग नाम को सार्थक कर लेता है। उसे अब पासवान शब्द भी पावन लगता है। जब जीतनराम माझी स्वेच्छा से आरक्षण सुविधा का त्याग करते हैं तो वह दलित नहीं रह जाते। बल्कि जीतनराम हो जाते हैं। और अब उन्हें माझी शब्द से दलित होने का नहीं बल्कि श्रेष्ठ होने का भाव होने लगता है। यही उत्कृष्ट मानसिक अवस्था है जो मनुष्य मात्र को सामाजिक तौर पर श्रेष्ठ बना सकती है। आरक्षण की वैशाखी से कोई किसी दौड़ में जीत हासिल नहीं कर सकता। आर्थिक शोषण से मुक्ति का एकमात्र मार्ग है सर्वहारा क्रांति। एकमात्र यही एक साधन है जिससे सभी वर्गों-वर्णों के लोगों को एक साथ सामाजिक ,आर्थिक और हर किस्म की असमानता से निजात दिलाई जा सकती है। कार्ल मार्क्स - एंगेल्स ,लेनिन और भगतसिंह ने इसे वैज्ञानिक नजरिए से भली भांति प्रस्तुत किया है।यह तय है कि बिना किसी ठोस समग्र क्रांति के सामाजिक न्याय केवल दिवा केवल स्वप्न ही है।
कोई भी व्यक्ति जब सम्पूर्ण राष्ट्र, सकल शोषित समाज को एकीभाव से देखने लगता है तो उसका सनातन दारिद्र और पिछड़ापन भी अपने आप दूर होने लगता है। जब वह नानक ,कबीर ,रैदास ,ज्योतिबा फुले,सावित्री वाई फुले या बाबा साहिब अम्बेडकर हो जाता है ,तो उसके 'वर्ण' या जात की नहीं बल्कि उसके शौर्य और शील की जय जयकार होती है। लेकिन लोग जब तक आरक्षण की वैशाखी की कामना करते रहेंगे तब तक मानसिक रूप से दलित-पिछड़े ही बने रहेंगे ! इस राह पर कुछ देर के लिए पेट की छुधा शांत हो सकती है ,किन्तु मानसिक संतोष कदापि उन्हीं मिल सकता।
कुछ लोग अवश्य भारतीय संविधान की बदौलत ही इस व्यवस्था में ठीक से खड़े हो पाए हैं। किन्तु शताब्दियों से विद्रोही रहे कुछ भारतीय आज भी इस सिस्टम में प्रवेश नहीं कर पाये हैं। शायद वे अभी भी अपनी प्राचीन विरासत से चिपके रहना चाहते हैं। या अपने पुरातन ढर्रे को यथावत रखना चाहते होंगे ! झाबुआ ,काल हांडी , अबूझमांड और सरगुजा के आदिवासी आज भी अपनी पुरातन पध्दति से हीं चलते जा रहे हैं। वे मनुस्मृति को नहीं जानते। उन्हें उस से कोई शिकायत भी नहीं। हालाँकि इन आदिवासियों के बीच 'रक्तिम ' सशत्र क्रांति का प्रचार करने वाले माओवादी भी वर्षों से काम कर रहे हैं। लेकिन ये नक्सलवादी शिक्षित युवा अपने ही सजातीय आदिवासियों को गुमराह कर रहे है। वे उन्हें अब तक वोल्शेविक नहीं बना सके। 'मनुवाद' से लड़ने की घृणित जातीयतावादी ढपोरशंख भी वे नहीं बजा पाये। दरअसल इन आदिवासियों को , देश के अन्य करोड़ों ग्रामीण दलितों को -जो खेती बाड़ी -मजदूरी से जीवन यापन करते हैं ,तथाकथित 'मनुवाद से या ब्राह्मणवाद से कोई लेना देना नहीं है। उनका टकराव तो इस पूँजीवादी सामन्ती अर्थ व्यवस्था से है और उन्हें इससे लड़ने के लिए तैयार करने के बजाय जातिवादी नेता 'वर्ण संघर्ष की धुन छेड़ते रहते हैं।
तमाम पूँजीवादी पार्टियों के नेताओं और जातीय -संगठन द्वारा सामाजिक क्रांति के बहाने थोक बंद वोटों के लिए आरक्षण की आग को हवा दी जा रही है। जातीयता की आंच पर सभी राजनीतिक दल रोटी सेंक रहे हैं। लेकिन वंचितों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनका देश है भी या नहीं ! यदि देश है भी तो वह गुलाम है या आजाद ? ईश्वर और उसके खास एजेंट-ब्राह्मण के होने या न होने से भी इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। इस विपन्न वर्ग में करोड़ों दलित-आदिवासी तो हैं ही किन्तु उनके जैसे करोड़ों गरीब सवर्ण -मजदूर -किसान भी हैं। इनकी एकता जातीय आरक्षण की राह पर असम्भव है। क्योंकि आरक्षण की लौह दीवार ही उनके आपसी वैमनस्य का कारण भी है ,और भारतीय सर्वहारा वर्ग की यही सबसे कारुणिक बिडंबना है।देश काल परिस्थितियों की आवश्य्कता अनुसार समाज के अंदर की सहज द्वंद्वात्मकता रुपी चिंगारी कभी-कभी तीखी भी होती रही है। हरएक दौर में ताकतवर -व्यक्तियों,समाजों और राष्ट्रों को कमजोर व्यक्तियों,समाजों और राष्ट्रों ने 'क्रांति' की चुनौती दी है। कालांतर में समाज व्यवस्था संचालन के निमित्त वर्ण व्यवस्था का जन्म हुआ। प्रारम्भ में तो आर्थिक श्रम -विभाजन के हेतु से सिर्फ तीन वर्ण-ब्राह्मण,क्षत्रिय वैश्य ही प्रचलन में रहे। किन्तु काल प्रवाह की लम्बी एतिहासिक यात्रा के उपरान्त अनेक कारणों से चौथा वर्ण ''शूद्र' अवतरित हुआ। किसी कवि की उस निरुक्ति को प्रमाणिक और विज्ञान सम्मत नहीं कहा जा सकता ,जिसमें कहा गया है कि 'ब्राह्मण ब्रह्म मुख्य से ,क्षत्रिय भुजाओं से ,वैश्य जंघा से और शूद्र चरणों से उत्पन्न हुए हैं। ''
तो यह सब कुछ -कुछ रोमन और यूनानी समाज जैसा ही था। किन्तु कालांतर में जब नदी घाटी सभ्यताओं से आगे नागर सभ्यताओं का उदय हुआ तब अन्य विजेता कबीलों ने विजित जनों और द्विजेतर वर्णों पर आधिपत्य जमा लिया। श्रम शोषण की शुरुआत भी यहीं से आरम्भ हुई। कार्ल मार्क्स ने भी सरसरी तौर पर भारतीय आदिम साम्यवादी वर्ण व्यवस्था के इस क्रमिक विकाश पर नजर डाली है। लेकिन उन्होंने इस जातीय -वर्ण की व्यवस्था को इस नजर से नहीं देखा , जिस नजर से भारत के जातीयतावादी लेखक -चिंतक सोच रहे हैं।
उत्तर वैदिक काल के उपरान्त -उत्तर भारत का आदिम कबीलाई समाज ,दक्षिण भारत का कबीलाई समाज ही नहीं बल्कि पूर्व -पश्चिम के कबीलाई समाजों में भी वर्ण व्यवस्था को समाहित किया जाने लगा था। तब शायद अछूत शब्द का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था । लेकिन दस्यु , दास ,सुदास [अच्छे दास] कोल - किरात ,भिल्ल , सेवक, इत्यादि शब्दों का चलन शनेः-शनेः बढ़ता चला गया। आदिम समाज को 'राज्य 'के द्वारा शासित करने और व्यवस्था के रूप में स्थापित होने के कारण एक नया शब्द 'शूद्र भी इस वर्ण व्यवस्था का लगभग स्थाई अंग बन गया। तब चातुर्वर्ण्य व्यवस्था एक आवश्यक बुराई के रूप में समाज का अस्तित्व बन गयी। आदिम कबीलाई युद्धों की अनवरत जय-पराजय से ही इस चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का निर्माण हुआ है । इसमें ब्राह्मण ,क्षत्रिय या वैश्य वर्ण की कोई भूमिका नहीं। इस वर्णाश्रम व्यवस्था को कालांतर में जो बीभत्स और घृणित रूप प्राप्त हुआ उसके लिए विदेशी आक्रमणकारी पूर्ण रूप से जिम्मेदार हैं। जिस दौर में मध्य एसिया के यायावर लुटेरे- कबीले मारकाट मचाते हुए भारत के उत्तर -पश्चिमी भूभाग पर चढ़ दौड़े ,उस दौर के खण्ड-खण्ड बिखर भारत को अहिंसा ,सत्य ,अस्तेय -बृह्मचर्य ,अपरिग्रह ,क्षमा ,दया और शील जैसे मानवीय मूल्यों ने सराबोर कर रख था। विप्र ,ब्राह्मण ,ऋषि,मुनि,संत,महात्मा सिद्ध ,अरिहंत और भन्ते जैसे लोगों द्वारा केवल भारतीय समाज को ही नहीं बल्कि राजाओं-सामन्तों और जनपदों के श्रेष्ठियों को अहिंसा का पाठ पढ़ाया जा रहा था। विदेशी खूँखार भेड़ियों के लिए मैदान खाली था। नतीजे में भारत को सदियों की गुलामी भोगनी पडी।
चूँकि अहिंसा और पंचशील जैसे सिद्धांतों के दौर में ही भारत गुलाम बना ,इसलिए अभी यह तय होना बाकी है कि भारत की इस सदियों की गुलामी के लिए कौन जिम्मेदार है? कभी विदेशी कबीलाई आक्रमण ,कभी किसी मजहबी उन्माद की आयातित आंधी और कभी भारतीय वर्ण व्यवस्था की जड़ता और कभी अहिंसा के सिद्धांत ही इस समाज को को पददलित किये जाने के जिम्मेदार रहे हैं। इसमें ब्राह्मण वर्ग की भूमिका सिर्फ इतनी थी कि वे केवल अध्यात्म ,दर्शन , चिकित्सा ,गणित और धर्म सूत्रों -मन्त्रों की तो खूब बेहतरीन रचनाएं करते रहे किन्तु सनकी राजाओं और बिखरे हुए समाज पर उनकी कोई पकड़ नहींकभी नहीं रही । आचार्य चाणक्य याने कौटिल्य जैसे दो -चार अपवाद होंगे ,जिन्हें राष्ट्र निर्माण का अवसर मिल पाया । यदि यह सिलसिला जारी रहता तो गुलामी की नौबत ही न आती। तब शायद आधुनिक साइंस के चमत्कार यूरोप से पहले भारत में हो गए होते ! दरसल मनुवाद तो बुद्ध -महावीर के दौर में ही खत्म हुआ और 'अहिंसा परमो धर्म : के नारों की बाढ़ आ गयी। जो विदेशी आक्रमणकारियों को मुफीद थी।
उत्तर वैदिक काल के बहुत अर्से बाद अवैदिक धार्मिक पाखंडवाद ने और भौगोलिक विविधता एवं परिवेश की जटिलतम भिन्नता का फायदा उठाकर इस वैविध्यपूर्ण भारतीय 'हिन्दू 'समाज को पंगु बना डाला। इन तत्वों ने इसे सांस्कृतिक आर्थिक और सामाजिक रूप से बेहद जटिल एवं संकीर्णतावादी बना डाला।वर्ण व्यवस्था के दोषों के लिए और विदेशियों की गुलामी के लिए भी वही तत्त्व जिम्मेदार हैं। जो इन दिनों जातीय आरक्षण की राजनीति कर रहे हैं। इस बदनाम वर्ण वयवस्था के संस्थापक या निर्माता ऋषि -मुनि या ब्राह्मण कभी नहीं रहे। प्रगतिशील इतिहासकार -साहित्य्कार बार-बार कह चुके हैं कि वे पुराणों को इतिहास नहीं मानते ! जब पुराणों को इतिहास नहीं मानते तो मनुस्मृति को 'मिथ' क्यों नहीं मानते ? दरसल सामन्तों के आपसी युद्ध और कबीलाई समाज की बर्बरता तथा विदेशियों की गुलामी ने ही इस जाति वर्ण की व्यवस्था को पुष्पित पल्ल्वित किया है। घोर आरक्षणवादी नेता -लालू-मुलायम यदि सच्चे यादव हैं तो बताएं कि महाभारत काल में - कृष्ण और सुदामा में से कौन इस व्यवस्था का असली संचालक और पोषक था ? लालू ,मुलायम,और राबड़ी जी यह बताएं कि सुदामा ने किसका कब कितना शोषण किया ? सोलह हजार एक सौ आठ रानियां किसकी थीं ? गरीब सुदामा ब्राह्मण की या की द्वारकाधीश श्रीकृष्ण यादव की ? वर्ण व्यवस्था का आनंद किसने लूटा? निर्धन सुदामा [ब्राह्मण] ने या श्रीकृष्ण [ यादव] ने ? भीख मांगने वाले ब्राह्मण इस घृणित जातीय व्यवस्था के लिए कदापि जिम्मेदार नहीं हैं। मनुवाद - ब्राह्मणवाद एक काल्पनिक दुष्प्रचार है जो अंग्रेजों का रचा हुआ प्रपंच था। क्योंकि आजादी की लड़ाई में फांसी चढ़ने वाले अधिकांश ब्राह्मण ही थे। मंगल पांडे ,तात्या टोपे ,रानी झांसी ,नाना साहिब पेशवा ,चाफेकर बंधू ,तिलक, रवींद्रनाथ टेगोर,महर्षि अरविन्द ,गोखले,विद्यासागर और खुद गांहदी जी भी कर्म से शुद्ध ब्राह्मण ही थे। ब्राह्मणों को नाथने के लिए ही अंगर्जों ने न केवल दलितों बल्कि अन्य जातियों को उकसाया था।
हर दौर के विदेशी यायावर कबीलों के आक्रमण उपरान्त जो विदेशी जीत गए वे आर्य ऋषि-मुनियों द्वारा -राजपुत्रों' या क्षत्रियों में समाहित कर लिए गए । युध्दों में जो पराजित देशी-विदेशी जीवित रहे , वे गुलाम बनाए जाते रहे। और चौथे दर्जे याने 'शूद्र वर्ण ' में डाल दिए गए। कालांतर में 'आदिवासी' अनार्य ,यवन और द्रविड़ भी भारतीय समाज का इसी तर्ज पर हिस्सा बनते चले गए। जब व्यवस्था में मूल्यों,आदर्शों और आर्थिक मुद्दों को लेकर टकराव हुआ तो सामाजिक 'खापों' या गोत्रों का संस्थापन होने लगा। इस तरह जातीय -गोत्रीय कटटरता का आग्रह बढ़ता चला गया। जब नियम-संयम ,आचार-विचार और धर्म के आधार पर कटटरता बढ़ी तो समाज में श्रेष्ठता के अभिमान और वंचित-पराजित को लतियाने की जिद ने जातीय असहिष्णुता को जन्म दिया। नियमों का पालन करने वाले 'रघुकुल रीति' का महिमा गान करते हुए श्रेष्ठ होते चले गए। और जो नियमों को नहीं मान सके वे अनायास ही पद दलित होते गए। हर तरह से तिरस्कृत और सताए गए लोगों में हींन भावना , कुंठा ,प्रतिहिंसा और घृणा की धारणा बनती चली गयी। इसकी एक और खास वजह थी । तत्तकालीन सभ्य समाज अपने मूल्यों और परम्परागत रीति-रिवाजों के प्रति अटल बने रहना चाहता था । याने 'प्राण जाय पर बचन न जाहि'।
रीति-रिवाजों-नियमों की अवहेलना करने पर समाज द्वारा दण्डित व्यक्ति ही 'निम्नकोटि 'अथवा त्याज्य या अछूत मान लिया जाता था। चूँकि उत्तर वैदिक समाज श्रम विभाजन की वर्ण आधारित व्यवस्था पर आधारित था इसलिए सजायाफ्ता लोग भी कदाचित अंतिम वर्ण अर्थात 'शूद्रवर्ण' में ही गिने जाने लगे होंगे।जो निम्न्वर्न का व्यक्ति बेहतर मानवीय मूल्यों से युक्त होता उसे गाध ,नारद ,विश्वामित्र,जावालि मरीचि और वाल्मीकि की तरह आर्य धर्मध्व मान लिया जाता था। जो उच्च वर्ण का व्यक्ति -महिला या पुरुष आर्य परम्पराओं या मूल्यों से पथविचलित होजाता उसे शूद्र वर्ण में धकेल दिया जाता था। सुदास ,सहस्त्रबाहु, ययाति ,इंद्र ,अहिल्या ,चन्द्रमा ,बुध ,राहु,केतु जैसे अनेक वैदिक और पौराणिक उदाहरण उल्लेखनीय हैं। काल प्रवाह में यह व्यवस्था शोषण का साधन बनती चली गयी।जब ब्रिटेन में पूँजीवादी क्रांति हुई ,फ्रांसीसी क्रांति हुई ,अमेरिकन क्रांति हुई ,सोवियत क्रांति हुई तब दुनिया से उपनिवेशवाद और दास प्रथा का भी अंत होता चला गया ।चूँकि भारत में दासप्रथा नाम मात्र की ही थी ,इसलिए उसके वैकल्पिक रूप में ही यहाँ दलित-शूद्र जैसे निम्न वर्ण उल्लेख में आये। इन यूरोप के पुनजागरण काल ने और फ्रांसीसी क्रांति के उदात्त मूल्यों ने न केवल भारतीय श्रमजीवी वर्ग,बल्कि दलित-शोषित समाज को भी मुक्ति का मार्ग दिखाया है।
सवर्ण-दलित ही नहीं ,बल्कि आर्य -अनार्य के रूप में भी यह भारतीय समाज बुरी विभाजित रहा है। ,अतः इस वर्गीय समाज में सामाजिक समरसता बिलकुल नहीं है। राजनीति में जातीय धुर्वीकरण और जातीय आधार पर आरक्षण की राजनीति ने भारतीय लोकतंत्र का मजाक बन डाला है। यूपी का मुलायम परिवार ,भारत का सबसे बड़ा जातीय परिवार है। कहने को मायावती 'सिंगल' हैं ,किन्तु उनका परिवार भी केवल यूपी बिहार तक सीमित नहीं है। उनके रिस्ते पंजाब,कश्मीर ,हरियाणा और महाराष्ट्र तक फैले हुए हैं। लालू -नीतीश और बादल -ठाकरे भी अब व्यक्तियों के नाम नहीं बल्कि सामाजिक ताकतों के नाम हैं। जैसे स्थापित करने की चेष्टा को हमेशा प्रगतिशील कदम माना गया है। मनुवाद बनाम ब्राह्मणवाद एक भ्रामक अवधारणा है श्रीराम तिवारी !