सोमवार, 18 अप्रैल 2016

यह जातीय विमर्श तो सामन्ती दौर के जख्मों को कुरदने जैसा है।


 विगत बिहार विधान सभा चुनाव में एनडीए की हार और पिछड़े-दलित महागठबंधन की जीत के बाद भारतीय राजनीति में जातीय विमर्श और तेज हो गया है। जातीय महागठबंधन की जीत से उत्साहित नीतीश बाबू अब राष्ट्रीय नेता बनने के सपने देखने लगे हैं। अपनी हार से सबक लेकर संघ शुभ चिंतकों ने  भी हिन्दू समाज की एकजुटता पर अधिक जोर लगाना शुरू कर दिया है। तदनुसार इसी योजना के तहत ही प्रधान मंत्री मोदी जी ने १४ अप्रैल को महू [इंदौर] में बाबा साहिब अम्बेडकर जन्मभूमि पर दलित राजनीति का आह्वान किया है। वैसे तो बाबा साहिब का जन्म दिन हर साल मनाया जाता रहा है। लेकिन अब तक केवल नीले- सफ़ेद हाथी छाप झंडे ही दिखाई देते रहे हैं। किन्तु  इस बार अम्बेडकर जन्म स्थली पर  नीले झंडे बहुत कम थे,दस बीस ही रहे होंगे । दो-चार लाल झंडे भी इधर-उधर दिख रहे थे।  दो -चारा तिरंगे भी नजर आ रहे थे। किन्तु  भगवा झंडे हजारों में थे। इन केशरिया -भगवा  झंडों को थामने वाले हाथ  लाखों में थे। प्रदेश के कोने-कोने से ,दूर-दूर से आये हजारों दलित-आदिवासियों की यह विराट नरमेदनि क्या बाबा साहिब के प्रति श्रद्धावनत होकर  महू पहुंची थी ? या यह मध्यप्रदेश भाजपा का प्रधान मंत्री  मोदी जी के समक्ष शक्ति प्रदर्शन था ? इसका जबाब तो प्रदेश के मुखिया शिवराजसिंह चौहान ही दे सकते हैं। कुछ लोग तो इस राजनैतिक शक्ति प्रदर्शन के फेर में उसी दिन दुर्घटनाओं में मारे भी गए। और कुछ भूंख -प्यास एवं सड़क हादसों में भी  घायल  हुए !

 समाजशास्त्री कहते हैं कि इस सरकारी जुगाड़ की भीड़ को डॉ बी आर अम्बेडकर की विचारधारा से कुछ लेना-देना नहीं है। जन चर्चा  है कि यह सब तो सरकारी तंत्र और राजकीय कोष  के दुरूपयोग की जीवंत झांकी है। वेशक आरोप में दम है। क्योंकि महू में बाबा साहिब भीमराव अम्बेडकर  के जन्म दिन के इस भव्य -विराट आयोजन में प्रदेश सरकार के मुखिया शिवराज सिंह चौहान और उनके नेतत्व में पूरी सरकार ने  इस कार्यक्रम को सफल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी । नतीजा  भी प्रचण्ड ही रहा , इन-गिने लाल-नीले और तिरंगे झंडों पर केशरिया झंडों की अनगिनत घटायें उमड़-घुमड़ रहीं थीं। नीले रंग के झंडे या नीला हाथी का तो वैसे भी इस क्षेत्र में  कभी कोई खास असर नहीं रहा। क्योंकि मालवा -निमाड़ की भूमि तो दशकों से 'संघम शरणम गच्छामि'' ही रही है । किन्तु इसमें आष्चर्य क्या है ? यही तो पूँजीवादी लोकतंत्र की खासियत है ! आदर्शवादी उतोपिया और सत्ता की राजनीति तो सदा अन्योन्याश्रित  ही रहे हैं। उनके अनुसार जब एक हिंसक  डाकू रत्नाकर बाल्मीकि हो सकता है तो कोई दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी दल  आम्बेडकरवादी -दलित-पिछड़ा वादी क्यों नहीं हो सकता ?

 महू में सम्पन्न बाबा साहिब जन्मोत्सव के  इस आयोजन से पहले कभी किसी दलित नेता या पार्टी ने ऐंसा  कोई कार्यक्रम नहीं किया। मोदी जी भारत के पहले प्रधान मंत्री रहे हैं जो १४ अप्रैल को बाबा साहिब अम्बेडकर जन्म भूमि पर उपस्थ्ति हुए  । उन्होंने इस अवसर पर जो कुछ भी कहा वह भारत की जातीय-असमानता और  आरक्षण की राजनीति का लब्बो लुआब हो सकता है। उनके इस प्रयोजन से हिन्दू समाज में  कितनी सामाजिक समरसता का संचार होगा ? बाबा साहिब के सपनों को  रूप -आकार मिलेगा  या नहीं ? इन सवालों के उत्तर - अभी तो समभव नहीं ! किन्तु नीतीश,लालू,मुलायम,मायावती जैसे जातिवादी नेताओं की जातीय इजारेदारी के पर कतरे जाने का पूरा इंतजाम 'संघ परिवार' ने बखूबी  कर लिया  है।

 आजादी के तुरंत बाद इंदौर -मालवा -निमाड़ क्षेत्र में  लाल झंडे की  मजबूत पकड़ रही है । किन्तु अब लाल झंडा इस क्षेत्र में सड़कों पर खुदे पड़े गढ्ढों के किनारे या किसी अन्य  खतरे के प्रतीक रूप में ही इस्तेमाल हो रहा है।  वेशक  कभी  यह  लाल झंडा मेहनतकशों की सर्वहारा क्रांति का प्रतीक रहा है। और भविष्य भी दुनिया में केवल  उसी का है। किन्तु अभी फिलहाल तो भगवा-केशरिया झंडों के ही अच्छे दिन आये हैं। जो राष्ट्रध्वज याने तिरंगा झंडा कभी भारतीय सम्प्रभुता, स्वतंत्रता -धर्मनिरपेक्षता -लोकतंत्रात्मक गणतंत्र का प्रतीक रहा है, अभी तो वह भी थरथरा रहा है। अम्बेडकर जन्म भूमि पहुंचे अधिकांश  दलित-आदिवासीयों  के हाथ में सिर्फ  केशरिया झंडा ही था। क्या उन्हें मालूम है कि कभी यह ध्वज आर्यों की विश्व विजय का प्रतीक रहा है ? क्या वे यह जानते हैं कि कालांतर में यह केशरिया झंडा  ही कभी आर्य , बौद्ध ,जैन और हिन्दू सनातन सभ्यता का संवाहक रहा है ? यह अतीत में कभी -सत्य शील,शौर्य ,बलिदान और  वैराग्य  इत्यादि मूल्यों का प्रतीक भी रहा है। क्या दिनांक - १४ अप्रेल -२०१६ को  महू में सम्पन्न बाबा साहिब को समर्पित विराट श्रद्धांजलि सभा में उपस्थ्ति लाखों दलित- आदिवासियों को मालूम है कि  बाबा साहिब अम्बेडकर की इस झंडे में कितनी रूचि थी ?और यदि कोई रुचि  नहीं थी -तो  क्यों  नहीं  थी ?

 वास्तव में  १४ अप्रैल को मोदी जी के  नेतत्व  में संघ और भाजपा के बौद्धिकों  ने  महात्मा बुद्ध के अनुयाई बाबा साहिब अम्बेडकर की जन्म भूमि -महू में केशरिया झंडे फहराकर एक तीर से कई  निशाने साधे  हैं। जिस तरह आदि शंकराचार्य ने एक प्रछन्न बौद्ध के रूप में -घोर नास्तिक और 'वेद विरोधी' महात्मा बुद्ध को सनातन -हिन्दू धर्म के 'दशावतार' में शामिल कराया ,ठीक उसी  तरह हिंदुत्व के आधुनिक दिग्विजयी -श्री नरेंद्र मोदी जी भी हिंदुत्व की विजय पताका को बाबा साहिब अम्बेडकर की जन्म भूमि महू में फहराकर बाबा साहिब को हिन्दुओं का ग्यारहवाँ  अवतार बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं।इस जातीय और पुरोगामी विमर्श में  'संघ' ने यूपी बिहार के तमाम  जातीयतावादी नेताओं  को  भी पीछे छोड़ दिया है। हिन्दू समाज के सामाजिक अंतर्द्वंद' को 'संघ' ने बड़ी चतुराई से'टेकिल' किया है। उन्होंने इस प्रयोजन से हिदुत्व के एकीकरण' की चेष्टा  भी की है। लेकिन अभी यह तय होना बाकि है कि उन्हें सफलता मिली या नहीं। चुनावी गणित के अनुसार भाजपा और संघ को  फिलहाल  मध्यपर्देश में  इकतरफा जन समर्थन हासिल है। किन्तु असम ,बंगाल,केरल ,यूपी और अन्य राज्यों के विधान सभा चुनावों में उनकी इस सामाजिक इंजीनियरिंग का असर देखा जाना अपेक्षित है। इस संदर्भ में देश के कुछ प्रगतिशील - धर्मनिरपेक्ष विद्वान -विचारक लोग  केवल 'संघ परिवार' पर ही जातीयता की राजनीति और   साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का आरोप  लगा  रहे हैं। मैं उनसे भिन्न राय रखता हूँ।

वास्तव में संघ परिवार पर उक्त  इकतरफा आरोप लगाकर  सच का सामना करना असम्भव है। संघ ने महू में जो किया ,बिहार में लालू ,नीतीश और कांग्रेस ने भी वही किया वह क्या था ? ममता जो बंगाल में करती रही है और मुलायम जो यूपी में करते रहे हैं वह क्या है ? द्रमुक और एआईडीएमके वाले तमिलनाडु में जो करते रहे हैं, शिवसेना वाले  जो महाराष्ट्र में करते रहे हैं ,हरियाणा के जाट -विश्नोई जो करते वहाँ करते रहे हैं ,और अकाली जो पंजाब में करते रहे हैं ,वह क्या है ? भारत की राजनीति में वामपंथ के अलावा बाकी सभी दलों ने जातीय दल-दल में खूब डुबकी लगाई है। अब तक केवल  वामपंथ ही था जो  धर्म-मजहब जात  से ऊपर उठकर सभी वर्ग के गरीबों की आवाज हुआ करता था।वामपंथ ही दुनिया के तमाम मेहनतकशों -किसानों ,वंचितों -शोषितों-पीड़ितों की आवाज  हुआ करता था। मार्क्सवाद -लेनिनवाद  की शिक्षाओं में जातीय -मजहब की राजनीति को,दलित - सवर्ण  की राजनीति को त्याज्य मान गया है।  मार्क्सवाद में इन शब्दों को  ही कोई स्थान नहीं है। यह जातीय  विमर्श  घोर  दकियानूसी और पुरोगामी है। यह जातीय विमर्श तो सामन्ती दौर के जख्मों को कुरदने जैसा है। यह समाज को बाँटने और देश को तोड़ने जैसा कृत्य है। यदि कोई धन से निर्धन है , यदि कोई किसी शक्तिशाली जात या  समाज से पीड़ित है,तो समाजवादी या साम्यवादी व्यवस्था में उसका निदान सुनिश्चित है। एक सुंदर  वर्गविहीन समाज की स्थापना का मकसद भी वही है ,जोकि बाबा साहिब अम्बेडकर चाहते थे। कामरेड स्टालिन जाति  से मोची थे। लेकिन  वे आरक्षण की वैशाखी से या किसी की अनुकम्पा से  सोवियत संघ के राष्ट्रपति नहीं बने थे। अपितु मार्क्सवाद -लेनिनवाद  की शिक्षाओं के प्रकाश में सोवियत सर्वहारा वर्ग ने और उनके हरावल दस्ते ने उन्हें विश्व सर्वहारा का हीरो बन दियाथा । भाजपा ,कांग्रेस ,लालू ,नीतीश,माया -मुलायम की तरह वामपंथ को  भी जातीय  विमर्श के दल-दल में डूबने का शौक चर्राया है ,यह बेहद त्रासद स्थिति है। यह वैज्ञानिक सोच नहीं हो सकती।

श्रीराम तिवारी
 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें