पूँजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था का संचालन करने वाली राजनीति के एक प्रमुख सिद्धांतकार और भाष्यकार - 'निकोलो मैकियावेली'की मशहूर स्थापना है कि ''पूँजीवादी राजनीति का नैतिकता से कोई संबंध नहीं ''!अर्थात जो कोई व्यक्ति अथवा संगठन पूँजीवादी संसदीय लोकतंत्र की राजनीति का खिलाड़ी है -उसे भृष्ट ,बेईमान और चरित्रहीन होना ही होगा। सरल शब्दों में कहा जाए तो मेकियावेली का कथन यह है कि पूँजीवादी संसदीय लोकतंत्र का न्याय'-समानता और उदात्त चरित्र जैसे सनातन मानवीय मूल्यों से कोई लेना -देना नहीं है।
इस सिद्धांत की अवहेलना करते हुए यदि कोई धर्मभीरु आदर्शवादी [ रामराज्य वादी]सख्स दावा करता है कि ''मैं न तो खाऊँगा और न किसी को खाने दूँगा '' तो समझो वह सफ़ेद झूंठ बोल रहा है। मेकियावेली पूंजीवाद के सिद्धांतकार -समर्थक थे। अतएव वे उसके आदर्श आइकॉन भी रहे हैं। अब यदि कोई कहे कि मेकियावेली झूंठा था ! तब उसे स्वाभाविक रूप से मार्क्सवादियों के साथ खड़ा होना पडेगा। लेकिन इस तरह का जिगर उसी का होगा जो मेकियावेली को नकार दे ! याने कारपोरेट कम्पनियों,अम्बानियों-अडानियों ,टाटाओं -बिरलाओं और मित्तलों -माल्याओं की भड़ैती छोड़ दे ! और यह कायाकल्प तभी सम्भव हो सकेगा जब वह पूँजीवाद के ६३ को दव्न्दात्मक भौतिकवाद के ३६ में बदल डाले । अर्थात वर्ग सहयोग को त्यागकर वर्ग संघर्ष की रह चले !
मार्क्स - एंगेल्स और लेनिन ने अनेक बार कहा है कि पूँजीवाद भले ही सामंतवाद की कोख से पैदा हुआ हो ,भले ही पूंजीवाद ने अपने जनक 'सामंतवाद' को ही खा लिया हो , लेकिन यह पूँजीवाद खुद अमरवेलि की तरह परजीवी और अनैतिकतावादी ही है। यह खुद सर्वहारा के श्रम शोषण की कीमत पर और समाज या राष्ट्र के उत्पादन संसाधनों पर कब्जे की कीमत पर जिन्दा है। वर्तमान दौर में तेजी से बढ़ रही आबादी ,मजहबी-धार्मिक अंधश्रद्धा और अति उन्नत सूचना संचार तकनीकी की बदौलत वैश्विक पूँजी को सब पर बढ़त प्राप्त है। इसमें हर किस्म के जनाक्रोश को द्रवित कर डालने की क्षमता है। और इस दौर के उद्दाम पूँजीवाद को १९वी शताब्दी के अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत से परिभाषित किये जाने की दरकार भी नहीं है। अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत अब कालातीत हो चुका है। कारपोरेट पूँजी कोई आसमानी उल्कापिंड नहीं है। २१ वीं शताब्दी के इन दो दशकों में तमाम वैश्विक कॉरपोरेट कम्पनियाँ ने भारत जैसे राष्ट्रों की जन -सम्पदा को बाजारू तिकड़मों से सीधे - सीधे हस्तगत किया है। इस आवारा वित्त पूँजी ने राज्य सत्ता के सभी संस्थानों पर पहले से ही कब्जा कर रखा है। और सार्वजनिक बैंकों के वित्तीय घालमेल के द्वारा भी इस उद्दाम पूँजीवाद का निस्तरण हो रहा है। इस आवारा पूँजी का अधिकांश मीडिया पर पहले से ही मजबूत नियंत्रण है। जन असंतोष को द्रवीभूत करने में मीडिया की भूमिका रही है । और विभिन्न जन आंदोलनों के मार्फत भी जन असंतोष का गुब्बारा समय-समय पर फूटता ही रहता है। इसलिए भारत सहित दुनिया के तमाम अन्य देशों में फिलहाल अभी किसी किस्म की जनवादी -साम्यवादी क्रांति असम्भव है।
फिर भी दक्षिणपंथी प्रतिक्रिया वादी लोग और कारपोरेट सेक़्टर के लोग हमेशा डरे रहते हैं। यह चोर की दाढ़ी में तिनके जैसा ही है।चूँकि संसदीय लोकतंत्र की प्रक्रिया में सभी विचारधाराओं और दलों का अपना-अपना कुछ तो स्थाई जनाधार अवश्य होता है। इसीलिये जनाधार वाले हर एक राष्ट्रीय दल की प्रासंगिकता और सम्भावनाएं हमेशा बनी रहती है। इसका सबसे जीवंत प्रमाण है भाजपा। सन १९८४ में भाजपा को सिर्फ दो सीट पर विजय मिली थी। किन्तु सन् २०१४ में उसे २८२ सीट पर प्रचण्ड बहुमत मिला। संसदीय लोकतंत्र के रस्ते तो इस देश में कभी भी कुछ भी हो सकता है। आवारा वित्त पूँजी से दोस्ती गाँठ ले तो कोई भी सत्ता का स्वाद चख सकता है । लेकिन भारत में वाम-जनवादी विचारों को बहुमत का समर्थन मिलना असम्भव है। क्योंकि वे इस आवारा वित्त पूँजी और उसके कदाचार पर ही तो वार करते रहे हैं। और यदि खुदा न खास्ता कभी बहुमत मिल भी गया तो आशंका है कि बेनेजुएला,तुर्की,ब्राजील और उत्तर कोरिया जैसी हालत न हो !
पश्चिम बंगाल में वामपंथ ने ३५ साल शानदार स्वच्छ साफ़ ईमानदार शासन दिया है। फिर क्या वजह है कि बंगाल की जनता ने वाम के सापेक्ष तृणमूल जैसी निकृष्ट पार्टी को चुना ? और सीपीएम के महान क्रांतिकारी नेताओं से ज्यादा ममता जैसी उच्श्रंखल औरत को तरजीह दी ? इन सवालों के जबाब देश की जनता को जब तक नहीं मिलते तब तक वामपंथ को संसदीय फोरम के मंच पर कोई खास सफलता नहीं मिल सकती।वामपंथ को यह भी संधारण करना चाहिए कि जिस तरह वो संसदीय लोकतंत्र में अभिव्यक्ति पर हमला बर्दास्त नहीं करते ,दक्षिणपंथी संकीर्णतावाद को पसंद नहीं करते ,जिस तरह वह उद्दाम पूँजीवाद को हेय समझते है ,उसी तरह भारत की जातिवादी-धर्मभीरु जनता भी 'साम्यवाद 'के अधीन अभिव्यक्ति के खतरे को निष्कंटक नहीं समझती। साम्यवादी कटटरवाद और संकीर्णतावाद को भी भारतीय आवाम संदेह की दॄष्टि से देखती है।
वैसे भी उदार संसदीय लोकतंत्र के रहते किसी भी क्रांति की सम्भावना नहीं है। मेकियावेली के अनुसार कुटिल राजनीति नैतिकता की परवाह नहीं करती । उसके लिए हरकिस्म की राजनीति अनैतिक अड्डा है। सवाल है कि भारत के जो हिन्दुत्ववादी धर्मभीरु नेता अभी सत्ता में हैं ,उन्हें गीता -उपनिषद - वेद-पुरान का अनुसरण करना चाहिए या कि मेकियावेली का ? यदि वे हिन्दुत्ववादी मर्यादाओं के आग्रही हैं तो उद्दाम नग्न पूँजीवाद के सामने था-था थैया क्यों किये जा रहे हैं ? रामराज बैठे त्रिलोका ,,,,,' का अनुशरण क्यों नहीं करते ? यदि रामराज के सिद्धांतों का अनुशरण सम्भव नहीं तो फिर मार्क्सवाद ही क्या बुरा है ? कम से कम गरीबों-दलितों के उद्धार कुछ तो सम्भावना है ! वैसे भी आर्थिक सामाजिक समानता का वैज्ञानिक सिद्धांत सिर्फ वामपंथ के पास ही है।
श्रीराम तिवारी
इस सिद्धांत की अवहेलना करते हुए यदि कोई धर्मभीरु आदर्शवादी [ रामराज्य वादी]सख्स दावा करता है कि ''मैं न तो खाऊँगा और न किसी को खाने दूँगा '' तो समझो वह सफ़ेद झूंठ बोल रहा है। मेकियावेली पूंजीवाद के सिद्धांतकार -समर्थक थे। अतएव वे उसके आदर्श आइकॉन भी रहे हैं। अब यदि कोई कहे कि मेकियावेली झूंठा था ! तब उसे स्वाभाविक रूप से मार्क्सवादियों के साथ खड़ा होना पडेगा। लेकिन इस तरह का जिगर उसी का होगा जो मेकियावेली को नकार दे ! याने कारपोरेट कम्पनियों,अम्बानियों-अडानियों ,टाटाओं -बिरलाओं और मित्तलों -माल्याओं की भड़ैती छोड़ दे ! और यह कायाकल्प तभी सम्भव हो सकेगा जब वह पूँजीवाद के ६३ को दव्न्दात्मक भौतिकवाद के ३६ में बदल डाले । अर्थात वर्ग सहयोग को त्यागकर वर्ग संघर्ष की रह चले !
मार्क्स - एंगेल्स और लेनिन ने अनेक बार कहा है कि पूँजीवाद भले ही सामंतवाद की कोख से पैदा हुआ हो ,भले ही पूंजीवाद ने अपने जनक 'सामंतवाद' को ही खा लिया हो , लेकिन यह पूँजीवाद खुद अमरवेलि की तरह परजीवी और अनैतिकतावादी ही है। यह खुद सर्वहारा के श्रम शोषण की कीमत पर और समाज या राष्ट्र के उत्पादन संसाधनों पर कब्जे की कीमत पर जिन्दा है। वर्तमान दौर में तेजी से बढ़ रही आबादी ,मजहबी-धार्मिक अंधश्रद्धा और अति उन्नत सूचना संचार तकनीकी की बदौलत वैश्विक पूँजी को सब पर बढ़त प्राप्त है। इसमें हर किस्म के जनाक्रोश को द्रवित कर डालने की क्षमता है। और इस दौर के उद्दाम पूँजीवाद को १९वी शताब्दी के अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत से परिभाषित किये जाने की दरकार भी नहीं है। अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत अब कालातीत हो चुका है। कारपोरेट पूँजी कोई आसमानी उल्कापिंड नहीं है। २१ वीं शताब्दी के इन दो दशकों में तमाम वैश्विक कॉरपोरेट कम्पनियाँ ने भारत जैसे राष्ट्रों की जन -सम्पदा को बाजारू तिकड़मों से सीधे - सीधे हस्तगत किया है। इस आवारा वित्त पूँजी ने राज्य सत्ता के सभी संस्थानों पर पहले से ही कब्जा कर रखा है। और सार्वजनिक बैंकों के वित्तीय घालमेल के द्वारा भी इस उद्दाम पूँजीवाद का निस्तरण हो रहा है। इस आवारा पूँजी का अधिकांश मीडिया पर पहले से ही मजबूत नियंत्रण है। जन असंतोष को द्रवीभूत करने में मीडिया की भूमिका रही है । और विभिन्न जन आंदोलनों के मार्फत भी जन असंतोष का गुब्बारा समय-समय पर फूटता ही रहता है। इसलिए भारत सहित दुनिया के तमाम अन्य देशों में फिलहाल अभी किसी किस्म की जनवादी -साम्यवादी क्रांति असम्भव है।
फिर भी दक्षिणपंथी प्रतिक्रिया वादी लोग और कारपोरेट सेक़्टर के लोग हमेशा डरे रहते हैं। यह चोर की दाढ़ी में तिनके जैसा ही है।चूँकि संसदीय लोकतंत्र की प्रक्रिया में सभी विचारधाराओं और दलों का अपना-अपना कुछ तो स्थाई जनाधार अवश्य होता है। इसीलिये जनाधार वाले हर एक राष्ट्रीय दल की प्रासंगिकता और सम्भावनाएं हमेशा बनी रहती है। इसका सबसे जीवंत प्रमाण है भाजपा। सन १९८४ में भाजपा को सिर्फ दो सीट पर विजय मिली थी। किन्तु सन् २०१४ में उसे २८२ सीट पर प्रचण्ड बहुमत मिला। संसदीय लोकतंत्र के रस्ते तो इस देश में कभी भी कुछ भी हो सकता है। आवारा वित्त पूँजी से दोस्ती गाँठ ले तो कोई भी सत्ता का स्वाद चख सकता है । लेकिन भारत में वाम-जनवादी विचारों को बहुमत का समर्थन मिलना असम्भव है। क्योंकि वे इस आवारा वित्त पूँजी और उसके कदाचार पर ही तो वार करते रहे हैं। और यदि खुदा न खास्ता कभी बहुमत मिल भी गया तो आशंका है कि बेनेजुएला,तुर्की,ब्राजील और उत्तर कोरिया जैसी हालत न हो !
पश्चिम बंगाल में वामपंथ ने ३५ साल शानदार स्वच्छ साफ़ ईमानदार शासन दिया है। फिर क्या वजह है कि बंगाल की जनता ने वाम के सापेक्ष तृणमूल जैसी निकृष्ट पार्टी को चुना ? और सीपीएम के महान क्रांतिकारी नेताओं से ज्यादा ममता जैसी उच्श्रंखल औरत को तरजीह दी ? इन सवालों के जबाब देश की जनता को जब तक नहीं मिलते तब तक वामपंथ को संसदीय फोरम के मंच पर कोई खास सफलता नहीं मिल सकती।वामपंथ को यह भी संधारण करना चाहिए कि जिस तरह वो संसदीय लोकतंत्र में अभिव्यक्ति पर हमला बर्दास्त नहीं करते ,दक्षिणपंथी संकीर्णतावाद को पसंद नहीं करते ,जिस तरह वह उद्दाम पूँजीवाद को हेय समझते है ,उसी तरह भारत की जातिवादी-धर्मभीरु जनता भी 'साम्यवाद 'के अधीन अभिव्यक्ति के खतरे को निष्कंटक नहीं समझती। साम्यवादी कटटरवाद और संकीर्णतावाद को भी भारतीय आवाम संदेह की दॄष्टि से देखती है।
वैसे भी उदार संसदीय लोकतंत्र के रहते किसी भी क्रांति की सम्भावना नहीं है। मेकियावेली के अनुसार कुटिल राजनीति नैतिकता की परवाह नहीं करती । उसके लिए हरकिस्म की राजनीति अनैतिक अड्डा है। सवाल है कि भारत के जो हिन्दुत्ववादी धर्मभीरु नेता अभी सत्ता में हैं ,उन्हें गीता -उपनिषद - वेद-पुरान का अनुसरण करना चाहिए या कि मेकियावेली का ? यदि वे हिन्दुत्ववादी मर्यादाओं के आग्रही हैं तो उद्दाम नग्न पूँजीवाद के सामने था-था थैया क्यों किये जा रहे हैं ? रामराज बैठे त्रिलोका ,,,,,' का अनुशरण क्यों नहीं करते ? यदि रामराज के सिद्धांतों का अनुशरण सम्भव नहीं तो फिर मार्क्सवाद ही क्या बुरा है ? कम से कम गरीबों-दलितों के उद्धार कुछ तो सम्भावना है ! वैसे भी आर्थिक सामाजिक समानता का वैज्ञानिक सिद्धांत सिर्फ वामपंथ के पास ही है।
श्रीराम तिवारी
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