प्राचीन काल में भारतीय उपमहाद्वीप में सैकड़ों देश हुआ करते थे । सब के अलग अलग सिक्के भी हुआ करते थे । सबकी अपनी-अपनी 'धरती माताएं' अलग -अलग हुआ करतीं थीं ! तब कोई 'भारत माता नहीं थी । किसी की अयोध्या ,किसी की मथुरा ,किसी का हस्तिनापुर ,किसी का इंद्रप्रस्थ , किसी का मगध , किसी की काशी,किसी का कौशल ,किसी का गांधार ,किसी का राष्ट्रकूट ,किसी का अंग, किसी का बंग,किसी का विदर्भ , किसी का बुंदेलखंड ,किसी का चोल,चेदि ,पांड्य और किसी का कलिंग हुआ करता था । इन सबके ऊपर कोई विजय हासिल कर लेता था तो उसे ही चक्रवर्ती सम्राट कहा जाता था। लेकिन इसके लिए उसे कई इम्तहान देने पड़ते थे। अष्वमेध और राजसूय यज्ञ करने पड़ते थे। उसके लिए पूरे उप महाद्वीप के सभी देशों पर विजय हासिल करनी पड़तीथी। तब भी वह सिर्फ नाम का ही चक्रवर्ती सम्राट हुआ करता था. क्योंकी विदेशी हमलों के वक्त पराजित राजा लोग उस चक्रवर्ती सम्राट की हार देखने को हमेशा लालायित रहते थे। पृथ्वीराज चौहान व् जयचन्द इस तथ्य के ऐतिहासिक प्रमाण हैं।
वेशक सामन्त युग के अधिकांश राजे-रजवाड़े घोर स्वार्थी ,निरंकुश ,अय्यास और शोषणकारी हुआ करते थे। किंतु कुछ अपवाद भी थे। वे मानवीय मूल्यों का , नैतिकता का बड़ा सम्मान करते थे। उनके वंशानुगत रीति रिवाज -त्याग और बलिदान के लिए विख्यात हैं।जैसे कि पराजित राजा को माफ़ कर देना। नारी पर हथियार न उठाना ,हथियार छोड़कर भागने वाले पर पीछे से वार न करना,इत्यादि कायदों के लिए तो कुछ राजवंश दुनिया में प्रसिद्ध रहे हैं। ऐंसे ही राजाओं को प्रजा विष्णु का अवतार मान लेती थी। राजा अपने आप को 'विष्णु' स्वरूप माने या न माने ,किन्तु उसके चारण -दरवारी भाट लोग उसे ईष्वर तुल्य ही मानते थे। ! श्रीकृष्ण भी गीता में इसका समर्थन करते हैं। ''नराणाम च नराधिपति '' । वे कहते हैं कि हे पार्थ -सभी मनुष्यों में जो -जो 'राजा ' हैं वो मैं ही हूँ।
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अर्थात मनुष्यों का जो राजा हुआ करता था वो अपने आप को श्रीकृष्ण [विष्णु का लीला अवतार] समझने लगा हो तो इसमें क्या आष्चर्य ? जब कोई राजा अपने आपको विष्णु का अवतार मानता होगा तो उसे 'श्रीराम चन्द्र ' का उदात्त चरित्र भी याद रखना पड़ता होगा ! अर्थात कुछ सामन्तों और राजाओं ने राजकाज चलाने के लिए जिस राजनीती को अंगीकृत किया होगा उसमें 'रामराज्य 'की कुछ नैतिकता भी हुआ करती थी। हरिशचन्द्र , रघु ,दिलीप ,जनक ,राम ,शकुंतला पुत्र भरत ,युधिष्ठिर , विक्रमादित्य ,कर्ण ,जैसे पौराणिक और मिथकीय पात्र ही नहीं ,अपितु आचार्य चाणक्य के शिष्य -चन्द्रगुप्त मौर्य ,सम्राट अशोक,हर्षवर्धन ,राष्ट्रकूट राजा रामचन्द्र , चोल राजा कृष्ण्देव राय ,मुगल सम्राट अकबर ,चंदेल राजा परिमल , चाँद बीबी ,अहिल्या बाई होलकर जैसे कुछ ऐतिहासिक राजा-रानियों का जीवन चरित्र उदात्त और मानवीय हुआ करता था। उस मध्ययुगीन सामन्ती दौर में कठोर निरंकुशता के बावजूद भी न्याय की कुछ तो महक अवश्य थी।
किन्तु २१वी शताब्दी की पूँजीवादी लोकतंत्रात्मक व्यवस्थाओं में न्याय केवल शक्तिशाली का ही पक्षधर होकर रह गया है। शिक्षा,स्वास्थ्य और सभी जरुरी सुविधाएँ केवल सम्पन्न वर्ग तक ही सीमित हैं। केवल आरक्षित वर्ग ही इस चक्रव्यूह को भेदकर कुछ हासिल कर सका है। लेकिन अधिकांश मजदूरों -गरीब किसानों को इस लोकतान्त्रिक व्यवस्था में और पुरानी सामन्ती व्यवस्था में कोई फर्क नजर नहीं आ रहा है। कुछ बुजर्ग लोग तो वर्तमान राज्य व्यवस्था से अंगेरजी राज की व्यवस्था को ही बेहतर मानते हैं। उनके लिए यह तथाकथित आजादी केवल दिखावटी है। बाजारबाद ,उद्दाम पूँजीबाद, कारपोरेट सिस्टम और जाति -सम्प्रदाय द्वारा निर्मित एवं शक्तिशाली राजनैतिक गिरोह द्वारा नियंत्रित इस नीरस व्यवस्था की मरुभूमि में कमजोर वर्गों के पक्ष में सरकार तो क्या अब ईश्वर भी नहीं है। केरल के प्रसिद्ध पुत्तिगर मंदिर में आतिशबाजी के नाम पर भेंट चढ़ गए सैकड़ों लोगों की लाशों को देखकर पता नहीं किस देवता की भूंख शांत हुई ? इन लाशों को देखकर सरकारें शायद मरने वालों के परिजनों की कुछ मदद कर देंगीं । किन्तु उधर देश के सूखा पीड़ित गाँवों की गरीब जनता जो एक -एक बाल्टी पानी के लिए तरस रही है,उसके आंसू पोंछने का वक्त किसी भी मंत्री या नेता के पास नहीं है। सत्तारूढ़ मंत्री नेता केवल विकास के नारे और जुमले पोस्ट कर रहे हैं। वे खर्चीले हवाई जहाज में उड़ रहे हैं। वे एयरकंडीशंड कमरों में शयन कर रहे हैं। वे शुद्ध पेय जल से स्नान कर रहे हैं। देश की जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। लोग केवल राज्य नियंत्रित हिंसा के ही शिकार नहीं हो हो रहे ,बल्कि वे इस धर्मांध पतनशील दौर में उस ईश्वर के हाथों बेमौत मारे जा रहे हैं। जिसका सृजन खुद इंसान ने ही किया है। अब तो इंसान को चेत जाना चाहिए कि अपनी बुद्धि ,विवेक को धर्मान्धता और पूँजीवाद की भड़ैती में न गँवाए। तमाम शोषित और विपणन वर्ग के समक्ष केवल एक ही रास्ता है शोषण की ताकतों के खिलाफ निर्मम संघर्ष ! इसके सिवा दूसरा कोई और विकल्प नहीं है। श्रीराम तिवारी !
वेशक सामन्त युग के अधिकांश राजे-रजवाड़े घोर स्वार्थी ,निरंकुश ,अय्यास और शोषणकारी हुआ करते थे। किंतु कुछ अपवाद भी थे। वे मानवीय मूल्यों का , नैतिकता का बड़ा सम्मान करते थे। उनके वंशानुगत रीति रिवाज -त्याग और बलिदान के लिए विख्यात हैं।जैसे कि पराजित राजा को माफ़ कर देना। नारी पर हथियार न उठाना ,हथियार छोड़कर भागने वाले पर पीछे से वार न करना,इत्यादि कायदों के लिए तो कुछ राजवंश दुनिया में प्रसिद्ध रहे हैं। ऐंसे ही राजाओं को प्रजा विष्णु का अवतार मान लेती थी। राजा अपने आप को 'विष्णु' स्वरूप माने या न माने ,किन्तु उसके चारण -दरवारी भाट लोग उसे ईष्वर तुल्य ही मानते थे। ! श्रीकृष्ण भी गीता में इसका समर्थन करते हैं। ''नराणाम च नराधिपति '' । वे कहते हैं कि हे पार्थ -सभी मनुष्यों में जो -जो 'राजा ' हैं वो मैं ही हूँ।
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अर्थात मनुष्यों का जो राजा हुआ करता था वो अपने आप को श्रीकृष्ण [विष्णु का लीला अवतार] समझने लगा हो तो इसमें क्या आष्चर्य ? जब कोई राजा अपने आपको विष्णु का अवतार मानता होगा तो उसे 'श्रीराम चन्द्र ' का उदात्त चरित्र भी याद रखना पड़ता होगा ! अर्थात कुछ सामन्तों और राजाओं ने राजकाज चलाने के लिए जिस राजनीती को अंगीकृत किया होगा उसमें 'रामराज्य 'की कुछ नैतिकता भी हुआ करती थी। हरिशचन्द्र , रघु ,दिलीप ,जनक ,राम ,शकुंतला पुत्र भरत ,युधिष्ठिर , विक्रमादित्य ,कर्ण ,जैसे पौराणिक और मिथकीय पात्र ही नहीं ,अपितु आचार्य चाणक्य के शिष्य -चन्द्रगुप्त मौर्य ,सम्राट अशोक,हर्षवर्धन ,राष्ट्रकूट राजा रामचन्द्र , चोल राजा कृष्ण्देव राय ,मुगल सम्राट अकबर ,चंदेल राजा परिमल , चाँद बीबी ,अहिल्या बाई होलकर जैसे कुछ ऐतिहासिक राजा-रानियों का जीवन चरित्र उदात्त और मानवीय हुआ करता था। उस मध्ययुगीन सामन्ती दौर में कठोर निरंकुशता के बावजूद भी न्याय की कुछ तो महक अवश्य थी।
किन्तु २१वी शताब्दी की पूँजीवादी लोकतंत्रात्मक व्यवस्थाओं में न्याय केवल शक्तिशाली का ही पक्षधर होकर रह गया है। शिक्षा,स्वास्थ्य और सभी जरुरी सुविधाएँ केवल सम्पन्न वर्ग तक ही सीमित हैं। केवल आरक्षित वर्ग ही इस चक्रव्यूह को भेदकर कुछ हासिल कर सका है। लेकिन अधिकांश मजदूरों -गरीब किसानों को इस लोकतान्त्रिक व्यवस्था में और पुरानी सामन्ती व्यवस्था में कोई फर्क नजर नहीं आ रहा है। कुछ बुजर्ग लोग तो वर्तमान राज्य व्यवस्था से अंगेरजी राज की व्यवस्था को ही बेहतर मानते हैं। उनके लिए यह तथाकथित आजादी केवल दिखावटी है। बाजारबाद ,उद्दाम पूँजीबाद, कारपोरेट सिस्टम और जाति -सम्प्रदाय द्वारा निर्मित एवं शक्तिशाली राजनैतिक गिरोह द्वारा नियंत्रित इस नीरस व्यवस्था की मरुभूमि में कमजोर वर्गों के पक्ष में सरकार तो क्या अब ईश्वर भी नहीं है। केरल के प्रसिद्ध पुत्तिगर मंदिर में आतिशबाजी के नाम पर भेंट चढ़ गए सैकड़ों लोगों की लाशों को देखकर पता नहीं किस देवता की भूंख शांत हुई ? इन लाशों को देखकर सरकारें शायद मरने वालों के परिजनों की कुछ मदद कर देंगीं । किन्तु उधर देश के सूखा पीड़ित गाँवों की गरीब जनता जो एक -एक बाल्टी पानी के लिए तरस रही है,उसके आंसू पोंछने का वक्त किसी भी मंत्री या नेता के पास नहीं है। सत्तारूढ़ मंत्री नेता केवल विकास के नारे और जुमले पोस्ट कर रहे हैं। वे खर्चीले हवाई जहाज में उड़ रहे हैं। वे एयरकंडीशंड कमरों में शयन कर रहे हैं। वे शुद्ध पेय जल से स्नान कर रहे हैं। देश की जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। लोग केवल राज्य नियंत्रित हिंसा के ही शिकार नहीं हो हो रहे ,बल्कि वे इस धर्मांध पतनशील दौर में उस ईश्वर के हाथों बेमौत मारे जा रहे हैं। जिसका सृजन खुद इंसान ने ही किया है। अब तो इंसान को चेत जाना चाहिए कि अपनी बुद्धि ,विवेक को धर्मान्धता और पूँजीवाद की भड़ैती में न गँवाए। तमाम शोषित और विपणन वर्ग के समक्ष केवल एक ही रास्ता है शोषण की ताकतों के खिलाफ निर्मम संघर्ष ! इसके सिवा दूसरा कोई और विकल्प नहीं है। श्रीराम तिवारी !
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