मंगलवार, 5 अप्रैल 2016

पाकिस्तान अब चीन -अमेरिका और इस्लामिक आतंक की विध्वंशकारी प्रयोग स्थली बनकर रह गया है।

''तेरे आजाद बन्दों की, न ये दुनिया न वो दुनिया।

 यहाँ जीने की पावंदी , वहाँ   मरने  की  पावंदी।। ''


 स्वर्गीय अल्लामा इकबाल साहब की इन दो पंक्तियों  का अर्थ कुछ इस प्रकार हो सकता  है। शायद रूहानी ही हो कि मृत्यु लोक में कोई भी अजर-अमर नहीं है.अर्थात यहाँ जीने की पावंदी है। और जन्नत या स्वर्ग  में सब अजर अमर हैं ,याने वहाँ मरने की पावंदी है। लेकिन मुझे अल्लामा इकबाल साहब की ये पंक्तियाँ 'भारत माता की जय' पर भी लागू प्रतीत होती हैं। जेएनयू में  'भारत माता की जय ' के अलावा और कोई  नारा नहीं चलेगा। क्योंकि  दिल्ली पुलिस का यही  कानून है।और दिल्ली पुलिस केंद्र की भाजपा सरकार के अधीन है। अभिप्राय यह कि जेएनयू में लोकतंत्र और अभिव्यक्ति पर पाबंदी  है नारा  नहीं लगाओगे तो पिटोगे !एनआईटी श्रीनगर में ''भारत माता की जय '' बोलने पर भाजपा समर्थित  कश्मीर सरकार की पुलिस गैर कश्मीरी छात्रों पर लाठी चार्ज करती है याने वहाँ 'राष्ट्रवाद' पर पाबंदी है। भारत माता की जय बोलोगे तो पिटोगे ! मतलब साफ़ है कि चाहे समर्थक हों या विरोधी -इस दौर में किसी की खैरियत नहीं !

 भारत को उसके धर्मनिरपेक्ष स्वरूप से विचलित करने के दुष्प्रयास  तो उसके निर्माण के बाद से ही शुरूं हो गए थे। आजादी के बहुत पहले से ही धूर्त अंग्रेजों ने एक तरफ  बहुसंखयक हिन्दुओं को धार्मिक आधार पर संगठित होने के लिए उकसाया, और दूसरी ओर मुस्लिम लीग को बहला -फुसलाकर पाकिस्तान रुपी मुल्क का झुनझुना पकड़ा दिया। ब्रिटिश साम्राज्य के सिपहसालारों ने  पाकिस्तान रुपी भस्मासुर का निर्माण मुसलमानों की ख़ुशी के लिए नहीं किया था। उन्होंने इस्लाम को आदर देने के उद्देश्य से  भी यह धतकरम नहीं किया था। उन्होंने तो  मुस्लिम लीग और कट्टर मजहबी नेताओं की ब्रिटिश चाटुकारिता के बतौर इनाम-इकराम के रूप में पाकिस्तान रुपी विध्वंशक राष्ट्र भीख में दिया गया था। ब्रिटिश हुक्मरानों का  मकसद था कि हिंसक पड़ोसी के रूप में यह पाकिस्तान अपने निकटतम पड़ोसी -धर्मनिरपेक्ष शांतिप्रिय  राष्ट्र भारत  को लगातार  परेशान करने के काम आयेगा । और इस  तरह इस भारतीय उपमहाद्वीप में अनवरत अशांति बनी रहेगी और तब उन्हें वापिस यहाँ चौधराहट के लिए फिर से 'बुलौआ 'मिलेगा। आजादी से लेकर अब तक भारत केवल शांति पाठ ही किये जा रहा है।जबकि  पाकिस्तानी  फौज से डरे हुए पाकिस्तानी नेता और उसी फौज के पालतू मजहबी आतंकी भारत के खिलाफ छद्म युद्ध लड़ रहे  हैं।पाकिस्तानी फौज को अमेरिकी इमदाद तो है ही ,किन्तु अब चीन ने मानो उसे गोद ले रखा है।  इसके वावजूद  भी भारत की अमनपसंद धर्मनिरपेक्ष आवाम  यदि पड़ोसियों के साथ सौहाद्र और अमन  चाहती है तो यह एक जिम्मेदार राष्ट्र की गौरव शाली परम्परा का उद्घोष है।लेकिन इस स्थति में भारत का नव निर्माण सम्भव नहीं !

सारी दुनिया जानती है कि खुँखार आतंकी ओसामा-बिन-लादेन पाकिस्तानी फौज के संरक्षण में छुपा हुआ था। और अमरीका फौज ने  पाकिस्तान में घुसकर उस दुष्ट लादेन को मार  गिराया था। जबकि पाकिस्तान के नेता और फौजी  अंत तक खीसें निपोरते हुए  कहते रहे कि 'हम लादेन नहीं देख्याँ 'याने लादेन  उनके यहाँ नहीं था । भारत में आतंक  मचाने वाले हाफिज सईद,अजहर मसूद ,दाऊद इब्राहिम और जेश -ए -मुहम्म्द के सभी पाक प्रशिक्षित अन्य आतंकियों को पाक्सितान की फौज  खुले आम संरक्षण दे रही है। उन्हें भारत के खिलाफ निरंतर इस्तेमाल  किया जा रहा है। लेकिन फौजी बूटों तले रौंदी जा रही पाकिस्तानी जम्हूरियत व  सरकार इस सच्चाई को स्वीकार करने से डरती है। पंडित नेहरू से लेकर ,इंदिराजी,मोरारजी,राजीव गांधी ,नरसिम्हाराव व अन्य पूर्व प्रधान मंत्रियों को ही नहीं,बल्कि अपने गुरु अटल बिहारी की पाक विदेश नीति को भी असफल बताने वाले - बड़बोले ,तीसमारखां और छप्पन इंची सीने वाले 'महाबली'अब पाकिस्तान के समक्ष दण्डवत मुद्रा में क्यों  हैं ?

वर्तमान एनडीए की मोदी सरकार पाकिस्तान और चीन को 'साधने' में  पूरी तरह विफल रही है । अलगाववाद की आग कश्मीर में पहले से और ज्यादा भड़क गयी है।  कम-से कम अभी तक  श्रीनगर एनआईटी में तो अमन  था। किन्तु जेएनयू और अन्य  विश्वविद्यालयों की तर्ज पर वहाँ भी क्रिकेट जैसे खेल की  हार जीत को लेकर  बेफिजूल की नारेबाजी ने अलगाववाद  की आग को हवा दी है। जो लोग विपक्ष में रहकर  हमेशा पाकिस्तान को सबक सिखाने की डींगें हाँकते  रहे हैं,उन्हें  अब तो  स्वीकार कर लेना चाहिए कि पाक्सितान की नापाक हरकतों के लिए भारत के पूर्व प्रधान मंत्री या भारत की अमनपसंद जनता की लाचारगी  नहीं बल्कि पाकिस्तानी  फौज की 'द्वेषपूर्ण' कूटनीति ही  जिम्मेदार है। भारत  के तमाम स्वयम्भू 'राष्ट्रवादियों' को अपने ही  द्वारा कहे गए दुर्बचनों पर  न केवल प्रायश्चित करना चाहिए, बल्कि एक सच्चे देशभक्त भारतीय  की तरह अपने वरिष्ठों के प्रति आदरभाव और कृतज्ञता व्यक्त करने में  भी संकोच नहीं  करना चाहिए ! भारत के सम्पूर्ण विपक्ष को साथ लिए बिना , भारत की आवाम को विश्वाश में लिए बिना -'एकला चलो रे ' की अधिनायकवादी प्रवृति  के बलबूते  पाकिस्तान और चीन की कूटनीति का उचित जबाब नहीं दिया जा सकता ! विदेशों में पर्यटन करते हुए अपनी शेखी बघारने और विकास का ढपोरशंख बजाने से  न तो सर्वसंमावेशी विकास हो सकेगा और ना ही भारत राष्ट्र की एकता- अखंडता अक्षुण हो सकेगी ।

वर्तमान एनडीए सरकार ने मोदी जी की निजी छवि बनाने के फेर में अपने वतन को ही दाँव पर लगा दिया है। बिना सोचे समझे ,बिना दूरदृष्टि के, सिर्फ अपनी महत्ता सावित करने और अपने ही पूर्ववर्ती भारतीय नेताओं को पाकिस्तान विषयक मामलों में असफल सिद्ध करने की दुर्भावनापूर्ण चेष्टा की जाती रही है। इसी का ही यह  परिणाम  है कि पाकिस्तान बार-बार शांति प्रक्रिया का मजाक उड़ा रहा है। भारत के ये दिग्भर्मित अनुभवहीन नेता पाकिस्तान की उस 'जेआईटी' को भारत आने की अनुमति  देते हैं ,जिसमें बदनाम आईएस के खुर्राट एजेंट होते हैं। हमारे नेता उन्हें पठानकोट ले जाते हैं। आईएस के  महा हरामी पाकिस्तानी अधिकारी हमारी आवभगत का मजाक उड़ाते है और पाकिस्तान लौटकर वैश्विक मीडिया के सामने  सफ़ेद झूँठ बकते हैं। वे उलटा भारत पर आरोप लगाते हैं कि ''भारत ने खुद  ही पठानकोट में आतंकी हमले का  ड्रामा '' ! वर्तमान  भारतीय  नेतत्व  न केवल पाकिस्तान की कुटिल चालों को  समझने में असफल रहा है , बल्कि अजहर मसूद और जेश-ए -मुहम्म्द  के मामले में चीन की पैंतरेबाजी  को समझने में भी नाकाम  रहा है। वर्तमान नेतत्व के पास  इनसे  निपटने की कोई कारगर रणनीति नहीं है। भारतीय संसद को  पाकिस्तान,चीन और पाकपरस्त आतंक की त्रयी से निपटने के लिए कोई सार्थक रणनीति अवश्य बनाना  चाहिए। उन्हें अपने पूर्व वर्ती प्रधान मंत्रियों का अनादर नहीं करना चाहिए। बल्कि अटल बिहारी बाजपेई के साथ परवेज मुशर्रफ ने जो सलूक किया था वो , और पंडित नेहरू के साथ चाउ -एन -लाइ ने जो सलूक किया था वो,  कभी नहीं भूलना चाहिए।

स्वाधीनता संग्राम का इतिहास जानने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि  भारत,पाकिस्तान -राष्ट्र  १५ अगस्त १९४७ को ही पैदा हुए हैं। बल्कि भारत तो सही मायने में तो २६ जनवरी -१९५० को  ही गणतंत्र घोषित हुआ था। एक लम्बे  रक्तरंजित दौर के बाद ,बड़ी मुश्किलों से ,अनगिनत कुरबानियों के बाद 'भारत' एक सम्प्रभु  राष्ट्र के रूप में संसार के सामने प्रकट हुआ था। साम्प्रदायिक  और जातीयता के उन्माद  से पीड़ित यह दीन -हीन राष्ट्र क्या किसी  जय-जयकार का हकदार हो सकता है ? पाकिस्तान नामक  'अवैध मुल्क ' तो किसी क्रूर नाजायज औलाद की तरह फौजी और आतंकी बूटों तले कसमसा रहा है ,क्या उसे पाकिस्तान -जिंदाबाद का नारा लगाने का हक है ? वहाँ सिर्फ दिखावे की डेमोक्रेसी  है। विगत शताब्दी के उत्तरार्ध में इन जाहिल फौजियों और काहिल आतंकियों की नापाक हरकतों से परेशान  होकर ही 'बंग बंधू' शेख मुजीबउर रहमान और इंदिराजी ने सोवियत संघ की मदद से उस नापाक - पाक्सितान के दो टुकड़े किये थे। और बांग्लादेश बनाया गया था।उसी प्रतिशोध की आग में  पाकिस्तान अब तक जल रहा है। पाकिस्तान  अब  कोई सम्प्रभु राष्ट्र नहीं है। उसने पीओके चीन  को दे दिया है। पाकिस्तान  अब  चीन -अमेरिका और इस्लामिक आतंक की विध्वंशकारी प्रयोग स्थली बनकर रह गया है।

अमेरिका ,चीन ,पाकिस्तान और आतंक की चंडाल चौकड़ी ने  मिलकर  भारत को  निरंतर परेशान किया है। अतीत में  पंडित नेहरू ,इंदिराजी ,राजीव ,अटलजी और डॉ मनमोहनसिंह ने भी  उक्त चांडाल चौकड़ी  का दंश भोगा है। किन्तु तब मोदी जी जैसे लोग  इन प्रधान मंत्रियों का खूब उपहास किया  करते थे- ' हमें सत्ता दो-हम   पाकिस्तान में  घुसकर आतंकियों को मारेंगे'' ! अब उनके बोल बचन से कई गुना उलट  हो रहा है। पाक्सितान को शांतिपाठ पढ़ाने के लिए मोदी जी बिन बुलाये  लाहौर क्या गए । नतीजे में कभी उधमपुर कभी कश्मीर कभी पठानकोट और कभी श्रीनगर एन आई टी में उनसे पाकिस्तान को  जबाब देते नहीं बन रहा है। वर्तमान सरकार  को  सूझ  ही नहीं रहा कि  भारत के बाहर और भारत के अंदर की इस  भारत विरोधी ज्वाला को कैसे भी शांत किया जाये ! पाक्सितान और उसके  आतंकी नेताओं को बचाने में चीन भी यूएनओ में लगातार भारत विरोधी भूमिका में है। मोदी सरकार की  चीन ,पाकिस्तान और मजहबी आतंकवाद पर रत्ती भर पकड़ नहीं है।

यह  याद रखा जाना चाहिये की भारत और उसके सभी नवोदित पड़ोसी राष्ट्रों का निर्माण किसी स्वतंत्र सम्प्रभु राष्ट्र के बटवारे से नहीं हुआ है। बल्कि सदियों से गुलाम रहे  आर्यावर्त , जमबूदीपे  ,भरतखंडे ,भारतवर्ष  जैसे विभिन्न  नामों से उल्लेखित  इस उपमहाद्वीप  के विखण्डन से ही दक्षेस के इन सभी राष्ट्रों -भारत, नेपाल  , बांग्लादेश,तिब्बत,नेपाल , भूटान  और पाकिस्तान का जन्म हुआ है। किन्तु यह समझ से परे  है कि जब बाकी के सभी दक्षेस देश पुरुषवाचक  ही हैं ,तो  भारतवर्ष ,इंडिया या हिन्दुस्तान को जबरन  'भारत माता' के रूप में परिवर्तित करने की कौनसी मजबूरी थी ? जब १९७१ के युद्ध में भारत ने पाकिस्तान को बुरी तरह शिकस्त दी  तब दुनिया ने कहा ''भारत जीत गया ,पाकिस्तान हार गया ' !यह किसी ने नहीं कहा कि भारत माता जीती!जब क्रिकेट में भारत जीता तो किसी ने नहीं कहा  भारत माता जीत गयी !  यह सभी ने कहा और लिखा कि  इण्डिया जीता या भारत जीता ! बांग्ला साहित्यकार बंकिम बाबू  ने  भारत राष्ट्र ,भारतवर्ष ,इंडिया अथवा हिन्दोस्तान को देवी दुर्गा के रूप में चित्रित कर अपने साहित्यिक सौंदर्य को  चरम पर पहुँचाया होगा। किन्तु बंकिम बाबू  के  इस देवी  तुल्य राष्ट्र रूप को भारतीय संविधान सभा ने मान्य नहीं किया।  

 बंकिम बाबू की सोच भी सही है कि गुलामी से पहले यह धरती शस्य श्यामला या नखलिस्तान ही थी। और इसके गुलाम होने का  विशेष कारण भी यही था। क्योंकि जो  बर्बर हमलावर  मध्य  एसिया और पश्चिम से आये वे रेगिस्तानों के यायावर कबीले ही थे। ये हमलावर जब 'सिंधु नदी' किनारे के उस पार पहुंचे  तब उनके लिए यह विशाल हरा-भरा भूभाग गुलिस्ताँ ,हेवन ,चमन,जन्नत और पता नहीं क्या-क्या था ? और वे इस हर-भरे भरतखण्ड या आर्यावर्त को -'इंडस'>हिंड्स>हिंदस >हिन्द >हिन्दोस्तान  पुकारते हुए इस पर भूँखे  भेड़ियों की तरह  झपट पड़े । वे अपने साथ हिंसा,बर्बरता जहालत,जातिवाद, साम्प्रदायिकता और घृणा की बीमारी भी लाये । ये अमानवीय बीमारियाँ सदियों बाद अब भी  इस उपमहाद्वीप पर लाइलाज नासूर के रूप में मौजूद  हैं।

मुगलों के पतन की सांध्यवेला में साम्प्रदायिकता की रक्तरंजित विभीषिका से आक्रान्त इस भारतीय भूभाग को ईस्ट इंडिया कम्पनी ने जिस दुर्दशा में पाया था,उसे स्वर्णिम भारत नहीं बल्कि पतनशील हिन्दोस्तान कहा जा सकता है। इसलिए किंगडम के अंतिम उत्तराधिकारी लार्ड  मांउंट वेटन भी इसे  उसी बदतर हालात में छोड़ गए। फर्क सिर्फ इतना रहा कि जब ये अंग्रेज व्यापारी के रूप में भारत आये थे तो अपने साथ ब्रिटिश रहन-सहन के साथ-साथ बिजली ,रेल ,टेक्टर,बस, ट्रक,जीप ,पम्प, बन्दूक ,घड़ी,कैमरा फिल्म,रेडिओ ,डाक-तार,टेलीफोन , अंग्रेजी -भाषा -ज्ञान  ,कानून -संविधान ,एलोपेथिक  चिकित्सा इत्यादि बहुमूल्य चीजें भी साथ  लाये थे। आज जो कुछ भी भौतिक उपादान  हमारे भारतीय महाद्वीप के  घरों,सड़कों,नगरों और देशों  में है वह सब अंग्रेजों की  देन है। जबकि अंग्रेजों से पूर्व के - कासिम ,गोरी,गजनी ,बाबर -उजवेग ,तुर्क,मंगोल,पठान ,अफगान और तातार हमलावर  केवल लूट -खसोट ,नारी उत्पीड़न , जहालत,जातिवाद ,साम्प्रदायिकता ,मजहबी अंधश्रद्धा और बारूद की गंध ही अपने साथ लाये थे ।तोपें - बारूद तो बाबर ही भारत लाया था। एक और फर्क है कि वे यहीं मर खप गए और  अपनी तमाम जाहिल और हिंसक परमपरायें यहीं छोड़ गए। इसके विपरीत अंग्रेज वापिस अपने देश   चले गए और तमाम ,मशीनरी,क़ानून -व्यवस्था और उन्नत किस्म की साइंस -टेक्नालाजी छोड़ गए।

किन्तु जाते-जाते ये अंग्रेज  हिन्दू-मुस्लिम सम्प्रदायिकता की सड़ांध और जातिवाद की दावाग्नि सुलगाकर चले गए। यदि अंग्रेज चाहते तो विभाजन होता ही नहीं। पाकिस्तान भी नहीं बनता। बांग्लादेश बनने का तो सवाल ही नहीं उठता । चूँकि अंग्रेज विश्व  विजेता थे। अपनी विजय को यादगार बनाने और गुलाम राष्ट्र को शक्तिशाली न होने देने की गन्दी मानसिकता के कारण उन्होंने  ऐंसा दुर्भागयपूर्ण  प्रयोग किया है। उन्होंने दुनिया के हर कोने में  यही किया है। वे भारत में जाति वाद की समस्या को फ्रांसीसी क्रांति या यूरोपियन रेनेसाँ की तर्ज पर सुलझाने के बजाय  इसे  रिजर्वेशन [आरक्षण] की वैतरणी में  धकेलकर  चले गए। और जाते-जाते यह यूरोपियन 'राष्ट्रवाद' का झुनझुना  भी पकड़ा गए। अंगर्जों का  संवैधानिक राष्ट्रवाद तो फिर भी ठीक -ठाक  ही है । किन्तु  जब से पाकिस्तान प्रशिक्षित आतंकवाद ने जोर पकड़ा है ,कश्मीर में  भारत  के खिलाफ कमीनी  हरकतें बढ़ीं  हैं ,तबसे भारत के दक्षिणपंथी वर्ग को हिटलर-मुसोलनी याद आने लगे हैं. और कुछ अल्पसंखयक नेताओं की सन्देहास्पस्द हरकतों के कारण  'अंधराष्ट्रवाद' अँगड़ाइयाँ लेने लगा है।

  वास्तव में  यह एक  गलत धारणा  है कि किसी एक विशाल सुसंगठित भूभाग को विभाजित कर दो देश बनाए गए। जब अंग्रेज यहाँ  नहीं आये थे तब भी भारत,इंडिया अथवा हिन्दुस्तान में केवल मुगल खानदान की ही सल्तनत नहीं थी । बल्कि दक्षिण में निजाम हैदराबाद ,बीजापुर,मैसूर ,त्रावणकोर,तंजावुर,सतारा और पूना इत्यादि रियासतें खुदमुख्तारी में थीं। पूर्व और पश्चिम में जरूर  अंग्रेजों ने  व्यापारिक कोठियाँ बन लीं थीं। वास्तव में अंग्रेजों ने ही सबसे पहले इस महाद्वीप को एक 'राष्ट्र' की शक्ल में देखने का काम किया। इस उपमहाद्वीप में किसी खास  देश के बारे में कोई 'राष्ट्रवाद' की अवधारणा  कभी थी  ही नहीं। १८५७ में जो स्वाधीनता की लड़ाई लड़ी गयी वह अंग्रेज बनाम देशी  राजाओं की लड़ाई थी। किसी को अपना ग्वालियर प्यारा था तो वह अंग्रेजों से दोस्ती करके मजे में रहा । किसी को अपनी झांसी प्यारी थी ,लेकिन अंग्रेजों से बैर ठाना  इसलिए वह मरते-मरते कहती रही 'मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी ''! दरसल भारतभूमि तो सनातन से है ,किन्तु एक मुद्रा ,एक कानून ,एक राष्ट्र और एक शासक यहाँ कभी नहीं रहा। मुगलों से पहले जो हिन्दू राजा थे वे आपस में बहुत बैर रखते थे। इसलिए  विद्वान ऋषिओं ने इन  एक चक्रवर्ती चुनने का सुझाव दिया। इसके लिए दो उपाय थे। एक तो आम सहमति और दूसरा अष्वमेध यज्ञ अथवा राजसूय यज्ञ। जो  राजा सबसे जयादा शक्तिशाली होता वह राजसूय या अष्वमेध यज्ञ करके अपना 'जयस्तंभ'गड देता था। किन्तु एक देश एक राष्ट्र  कभी नहीं बन पाया  ! यदि बन जाता तो तुर्क,मंगोल ,पठान नहीं आ पाते और अंग्रेज ,डच ,फ्रेंच ,पुर्तगीज भी नहीं आ पाते। और आज कोई भी भारत माता की जय बोलने से मना नहीं करता।

यह सुविदित है कि  जब अंग्रेज  इस भारतीय उपमहाद्वीप से जाने लगे तो जाते-जाते इसका कचूमर बना गए। हिन्दू-मुस्लिम को लड़ाकर ,भारत -पाकिस्तान तो  वे आजादी डिक्लेयर करने से पहले ही  बना चुके थे। लगभग ६००  देशी राजाओं को खुली छूट  थी कि  वे चाहें तो 'भारत' में मिल जाएँ ,चाहें तो पाकिस्तान में मिल जाएँ। और यदि वे चाहें तो 'आजाद' राष्ट्र के रूप में भी रह सकते हैं। अधिकांश देशी राजे-रजवाड़े तो पटेल,नेहरू और जनता के दवाव के आगे झुकते गए। और भारत में शामिल हो गए। किन्तु कुछ  राजाओं ने 'भारतीय संघ ' में शामिल होने से  इंकार कर  दिया। कुछ राजा भारत-पाकिस्तान से अलग अपना आजाद मुल्क बनाए रखना चाहते थे। जैसे कि राजा हरिसिंग कश्मीर को आजाद मुल्क रखना चाहते थे ,लेकिन फारुख अब्दुल्ला के पिता और उमर  अब्दुल्ला के दादा 'शेख' अब्दुल्ला कश्मीर का  भारत में सशर्त विलय चाहते थे। तिब्बत  भूटान,सिक्किम और नेपाल के राजाओं ने अपनी -अपनी रियासतों  को  स्वतंत्र 'राष्ट'  का जाम पहना  दिया। चूँकि तिब्बत को चीन ने दबोच लिया ,इसलिए इंदिराजी ने सिककम को  भारत में मिला लिया। कुछ शेष  सामन्त जैसे कि निजाम हैदराबाद ,नवाब जूनागढ़ ,नवाब भोपल इत्यादि भी या तो पाकिस्तान की ओर  झुके थे या आजाद मुल्क चाहते थे  ,किन्तु नवजात भारत  की मेहनतकश जनता ने ,किसानों ने एकजुट होकर उनके मंसूबे असफल कर दिए। और राष्ट्र एकीकरण का  श्रेय कांग्रेस ,पटेल और नेहरू इत्यादि ले उड़े। लिए राष्ट राज्य तो  विविधता का महाकुंभ है !

 यह  दावा करना तो बहुत  मुश्किल है कि 'भारत माता की जय' नहीं बोलने वाला देश का गद्दार ही होगा। क्योंकि अधिकांश  पैदायशी [?] राष्ट्रवादी हिन्दू संत महात्मा भी संसार त्यागकर जब ब्रह्मलीन हो जाते हैं तो वे देश से परे होकर संसार से भी उपराम हो जाते हैं। तब वे ईश्वर के विभिन्न रूप -नामों का जाप करते हुए इस मायामय जगत का मोह छोड़कर आत्म  कल्याण की कामना करते हैं। चूँकि इस आध्यात्मिक यात्रा के किसी भी पड़ाव  पर  'भारत माता की जय' बोलने का आदेश  उन्हें किसी भी हिन्दू शास्त्र ,वेद ,पुराण ,स्मृति , उपनिषद  ने नहीं दिया। इसलिए वे 'भारत माता की जय' कभी नहीं बोलते। फिर भी किसी माई के लाल की औकात नहीं कि उन्हें 'देशद्रोही' कह सके !  प्रत्येक चार साल बाद आयोजित कुम्भ मेले में लाखों साधु संत स्नान करने के लिए कभी प्रयाग ,कभी नासिक और कभी उज्जैन आकर कुम्भ स्नान करते हैं। करोड़ों श्रद्धालु उनके दर्शन के लिए कुम्भ  में  आते हैं । सभी अपने-अपने अखाड़ों के नारे लगाते  हैं । किन्तु 'भारत माता की जय'  का नारा कोई भी नहीं लगाता। यदि कोई शख्स इस तरह का नारा कुम्भ के अवसर पर लगाता भी है तो वह इसलिए नहीं कि यह कुम्भ की परम्परा में है या धर्मानुकूल है ,बल्कि विशुद्ध राजनीति  उद्देश्य से ही इस तरह का धतकरम  कुम्भ मेले में कोई धूर्त व्यक्ति कर सकता है। सनातन धर्म के अधिकांश  नारे राजनीति से  बिलकुल अलग हैं उनमें  'विश्व कल्याण'  और  प्राणिमात्र का कल्याण निहित होता है। हिन्दू धर्म के मूल सिद्धांतों में  घृणा का यह राजनीतिक ओछापन  कहीं नहीं है।  चूँकि  उज्जैन सिंहस्थ कुम्भ मेले  में मौजूद दो करोड़ श्रद्धालु हिन्दुओं में से कोई एक चिड़िया का पूत भी यह नारा नहीं लगा  रहा है। इसलिए क्या हम उन्हें देशद्रोही कह सकते हैं ?

भारत के कुछ 'भाई' लोग अपने देश की गंगा जमुनी तहजीव को न समझते हुए उसकी जड़ों में साम्प्रदायिकता और 'अंधराष्ट्रवाद' का मठा  डालने की फिराक में रहते हैं। इसी तरह हिन्दू -सनातन परम्परा का ज्ञान नहीं होने पर अधर्म को धर्म बताते रहते हैं। उनकी इस कूढ़मगज क्रिया की प्रतिक्रिया में कुछ अल्पसंख्य्क  कटटरपंथी महा मूर्ख लोग 'भारत माता की जय' को  भी मजहब से जोड़कर देखने लगते  हैं। ऐंसे ही  नादान लोग देश को आदर देने वाले  नारे को लगाने से इंकार कर खुद को देशद्रोही  सिद्ध करने में लगे रहते हैं। यह तो यकीन से नहीं कहा जा सकता कि 'भारत माता की जय' बोलने से इंकार करने वाला  हर वंदा  गद्दार ही होगा। लेकिन इस नारे का  हरएक विरोधी देशभक्त  ही होगा ,इसकी भी कोई गारंटी नहीं है।

यह भी दावा करना मुश्किल है कि  'भारत माता  की जय'का नार लगाने वाले सभी देशभक्त ही होते हैं। 'पनामा लीक्स ' की काली सूची में दर्ज ५०० सौ  महान भारतीय नायक,महानायक क्या वहाँ देशभक्ति का झंडा गाड़ रहे थे ? बड़ी  विचित्र बात है कि  इन ५००  भारतीय चोट्टों में कोई मुसलमान नहीं है। इनमें किसी दलित  के होने का भी सवाल नहीं है। मुझे पूरा यकीन है कि कोई  ब्राह्मण भी इस सूची में शायद ही होगा।  इस काली सूची में सिंह हैं ,जैन हैं , सिंघल हैं  ,अडानी हैं , महानायक  बच्चन हैं ,बहु बच्चन हैं , थापर हैं , केजरिवाल [अरविन्द नहीं ] हैं। और हमारे इंदौर  वालों को भी इस काले कारनामें का अपयश मिला है क्योंकि इस सूची में इंदौर के सकलेचा हैं , सांखला हैं  ,जैन  और मल्होत्रा भी हैं। चूँकि इन  बेईमानों ने जीवन भर 'भारत माता  की जय 'बोली है , अतः ये सभी देशभक्त हैं। सहारा श्री ,विजय माल्या , सत्यम राजू  ,ऐ राजा ,दयानिधि मारन  ये सभी परम देशभक्त हैं। और जिन्होंने ललित मोदी ,सुब्रतोराय सहारा और विजय  माल्या की जूँठन खाई वे सभी नेता देशभक्त हैं। क्योकि वे  भी  'भारत माता की जय 'बोला करते हैं !

  हे देश के गद्दारो  !  भले  ही तुम सब अपने अपने  काले-पीले धंधे  में लगे हो !  भले ही तुम कानून को जूते की नोक पर रखते  हो !  फिर भी  ये  भॄस्ट व्यवस्था  तुम्हारा बाल -बाँका नहीं कर  सकती ! शर्त सिर्फ इतनी सी है कि  भृष्ट नेताओं,अफसरों और सुंदरियों के आगे जूँठन फेंकते रहो ! और 'भारत  माता की जय' अवश्य बोला करो !  बाकी की चिंता इस सिस्टम पर छोड़ दो ,जो कहता है कि -'योगक्षेमवहाम्यम् ''श्रीराम तिवारी !

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