सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर चुनाव आयोग ने 'नोटा ' का विकल्प देने का फैसला किया है , तदनुसार ईबीएम मशीन में उसका प्रावधान तो पहले ही किया जा चूका है । इस प्रावधान से उत्पन्न सवालों के परिप्रेक्ष में -कि यदि कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं तो जन-भावनाएँ प्रकट करने का तरीका क्या हो ? ईवीएम मशीन में ' राईट टू रिजेक्ट'के विकल्प कि व्यवस्था के उपरान्त उपजे सवालों को हल करने में जुटे चुनाव आयोग ने यह फैसला किया है कि भले ही किसी विशेष बूथ पर या किसी विशेष विधान सभा सीट पर या किसी लोक सभा सीट पर स्टेंडिंग केंडीडेटस को मिले वोटों से 'नोटा' के वोट ज्यादा हों किन्तु फिर भी उम्मीदवारों में से जिसे ज्यादा वोट हासिल होंगे वह विजयी घोषित कर दिया जाएगा।
अर्थात यदि किसी चुनाव में कुल १०० वोट पड़े और नोटा [राईट टू रिजेक्ट याने इनमें से कोई नहीं ] को ५०% से ज्यादा वोट मिले तो शेष अल्पमत वोटों में से जिसे ज्यादा वोट मिलेंगे वो विजयी घोषित किया जाएगा । मान लो नोटा को ६० वोट मिले और शेष ४० में से किसी उम्मीदवार को २१ वोट मिले तो वह भारतीय लोकतंत्र में विजयी प्रत्याशी होगा। यह प्रावधान वहाँ लागू नहीं होगा जहां निर्विरोध चुनाव होंगे।तकनीकी रूप से चुनाव आयोग का फैसला सही हो सकता है किन्तु 'बहुमत' के आधार पर चलने वाला लोकतंत्र इसमें कहाँ फिट बैठता है ?क्या यह कदम लोकतन्त्रात्मक व्यवस्था को परिभाषित करता है ? क्या यह जन -भावनाओं और जनादेश को खंडित रूप में स्वीकारने का एक और आत्मघाती कदम नहीं होगा ?
निसंदेह अपराध जगत और राजनीति कि अपावन मैत्री से भारतीय लोकतंत्र में हद दर्जे कि गिरावट और विकृतियाँ दरपेश हुईं हैं। दागी ,भृष्टाचारी ,अपराधी या अकर्मण्य नेता को 'रिजेक्ट' करने का अधिकार निसंदेह जनता को मिलना ही चाहिए ,किन्तु जब तक मतदान प्रणाली कि खामियों और प्रशासनिक लापरवाहियों पर अंकुश नहीं लगाया जाता तब तक नोटा का प्रयोग 'बंदरों के हाथ में उस्तरा ' से ज्यादा कुछ नहीं है. यह आरोप सही भी हो सकता है कि विगत दो दशक से भारतीय नीति नियंताओं और सत्तारूढ़ - राजनैतिक शक्तियों द्वारा अपनाये जा रहे उदारीकरण-भूमंडलीकरण-निजीकरण और वैश्वीकरण से समग्र सिस्टम में आर्थिक बर्बादी के बवंडर आये हों - भृष्टाचार, अलगाववाद और असमानता के तूफ़ान आये हों -नारी उत्पीडन , धर्मान्धता ,साम्प्रदायिकता और जातीयता के जलजले आये हों !किन्तु यह भी सौ फ़ीसदी सच है कि इस तथाकथित "नव्य-उदारवादी - पूँजीवादी" व्यवस्था ने ही मानवीय जीवन के कुछ मूलभूत सकरात्मक बदलाव के समाधान भी मुहैया करवाए हैं। देश को इस दौरान जो सकारात्मक न्यायिक - सक्रियता , मीडिया की बाजारगत प्रतिद्वन्दिता और अतिउन्नत सूचना प्रोद्योगिकी एवं समृद्ध संचार क्रांति की सर्वत्र-सार्वदेशिक -सर्वकालिक उपलब्धता का वरदान प्राप्त हुआ है, वो भारतीय लोकतंत्रात्मक सिस्टम में सकारात्मक आशाओं का केंद्र बन गया है। इन सकारात्मक अवयबों के सहयोग से भी भारत में सामाजिक -राजनैतिक बदलाव और रक्तविहीन- अहिंसक क्रांति की शुरुआत सम्भव है. ईवीएम मशीन में तकनीकी बदलावों से यह लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता।
देश में इन सकारात्मक उपलब्धियों के अनुप्रयोग का वक्त आ चूका है। नवम्वर-दिसंबर -२०१३ में हो रहे पाँच राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव और अगले साल होने जा रहे राष्ट्रव्यापी - लोक सभा चुनावों की शक्ल शायद अब पूर्ववत नहीं रहेगी। चूँकि प्रजातांत्रिक चुनावों की खामियों का बेजा फायदा उठाकर अब तक दवंग और आपराधिक किस्म के 'दागी' लोग भी राजनीति की परिधि के अन्दर सत्ता केंद्र तक पहुँच जाया करते थे किन्तु आइन्दा इनकी 'छटनी ' की संभावनाएं बनती जा रही हैं। हालांकि प्रजातंत्र में अंतिम फैसला 'बहुमत' का ही माना जाता है किन्तु यदि अल्पमत का प्रतीकात्मक विरोध नजर अंदाज कर केवल मामूली बहुमत को 'असीम' अधिकार दिया जाता है तो संघर्ष की सम्भावना स्वाभाविक है.इसीलिये मतदाताओं को 'राइट टू रिजेक्ट ' की ओर नहीं बल्कि 'सबसे कम बुरे' को चुनने कि ओर प्रेरित किया जाना चाहिए।
एक नकारात्मक खबर पढने -सुनने में आई है। किसी शहर के स्वनाम धन्य पढ़े-लिखे बुजुर्ग - वुद्धिजीवी ,साहित्यकार ,वरिष्ठजन , डॉ ,इंजीनियर और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बैठक में निर्णय लिया कि वे 'नोटा' याने 'कोई नहीं ' का विकल्प चुनेगें। उनकी आम राय है कि वर्तमान में उनके समक्ष वोट मांगने आने वाले प्रमुख दल - भाजपा और कांग्रेस के उम्मीदवार या तो अकर्मण्य हैं या भृष्टाचार में लिप्त हैं। दोनों ही दलों को भृष्ट और बेईमान शक्तिशाली वर्ग का संरक्षण प्राप्त है। कुछ दलों के प्रमुख नेता याने 'पी एम् इन वेटिंग' आयँ -बायँ ,ऊल-जलूल बक रहे हैं अन्य दलों के प्रत्यासी या निर्दलीय प्रत्यासी भले ही सापेक्ष्तः कुछ ठीकठाक हों किन्तु वे हर बार हार जाते हैं और अपनी जमानत भी नहीं बचा पाते। इसीलिये उनकी सामूहिक समझ बनी है कि इन हरल्ले उम्मीदवारों को वोट देना भी बेकार है क्योंकि उनका जीतना अब भी मुश्किल है। इन 'समझदार ' लोगों की यह समझ नितांत नकारात्मक और अलोकतांत्रिक है। वे 'आदर्श' उम्मीदवार के लिए 'उटोपिया 'के शिकार हैं।
भारत में राज्यों की विधान सभाओं और देश की लोक सभा के चुनाव कुछ विशेष अपवाद छोड़कर , सामन्यतः पाँच साल में ही होते हैं। चुनाव आयोग लगातार इस दिशा में सक्रिय रहता है कि 'शून्य त्रुटी ' का लक्ष्य कैसे प्राप्त हो ? आदर्श चुनावों के लिए लगभग साढ़े चार साल तक तो चुनाव आयोग वोटर लिस्ट ,आई डी कार्ड,मतपेटियां ,पोलिंग बूथ तथा घर-घर जाकर नव् वयस्कों ,मृतकों की छानबीन में जुटा रहता है. अंतिम ६ महीने में चुनाव आयोग के साथ सम्पूर्ण पुलिस व्यवस्था,प्रशाशनिक मशीनरी भी सब काम छोड़कर इन चुनावों में जुट जाती है। इतना सब कर चुकने के बाद चुनाव आयोग ,मीडिया और प्रजातन्त्रवादी शक्तियाँ भी मान-मनुहार करती हैं कि पधारिये !आइये !अपनी पसंद का उमीदवार और सरकार चुनिए। अब इतना सब कुछ करने के बाद केवल 'नोटा' का वटन ही दवाना है तो उसके निहतार्थ क्या हैं ?ऐंसा करने वाला या तो ये मानता है की सत्ता में जो है/हैं वो नाकाबिल हैं और विपक्ष में जो है /हैं वो भी नाकाबिल हैं। एक अकेला वही दूध का धुला है !
यदि 'नोटा ' के पक्ष में बहुमत आ गया और सभी उम्मीदवार पराजित हो गए तो क्या व्यवस्था के दोषों का निवारण हो जाएगा ? यदि किसी सीट विशेष में यह हुआ की 'नोटा ' के पक्ष में ज्यादा वोट हैं तो भी उसके वोट को नजर अंदाज कर जब जीत-हार का फैसला होना ही है तो ईवीएम में नोटा के बटन का क्या मतलब ?यदि फिरसे उम्मीदवार खड़े होते-चुनाव होते या उम्मीदवार ही इस तरह के होते कि आपत्ति कि गुंजायश कम होती तो शायद बात बन जाती। चूँकि अभी तो भारत के राजनैतिक पटल पर कालिमा ही कालिमा है अतः देश में हर जगह से यही परिणाम आने लगे तो कोई आश्चर्य नहीं और तब भारतीय लोकतंत्र का क्या होगा ?
बहुत पुरानी और सार्वदेशिक युक्ति है कि "पापी को पत्थर वो मारे जिसने पाप ना किया हो " वेशक जिस मतदाता ने कभी झूंठ न बोला हो ,भारतीय संविधान के किसी भी कानून का कभी उलंघन न किया हो,कभी लाइन से हटकर-रेल का ,बस का ,फिल्म का या क्रिकेट का टिकिट न लिया हो ,रिश्वत न ली हो -न दी हो , कभी सडक पर राँग साइड न चला हो , बिना हेलमेट दुपहिया वाहन पर और बिना बेल्ट कार में न बैठा हो ,दहेज़ न लिया हो -न दिया हो , बिजली -पानी-सड़क -सम्पत्ति कर देने में चूक न की हो, जिसने स्वयम के परिश्रम और पसीने से अर्जित अन्न का ही सेवन किया हो ,पढाई के दौरान नक़ल या अपने सहपाठी से सवालों का मिलान -जुलान इत्यदि न किया हो। जो समझता है कि वह किसी भी उम्मीदवार से बेहतर है तो यह तो देश के सौभाग्य की बात है। ऐंसे व्यक्ति को या व्यक्तियों को एकजुट होकर स्वयम सत्ता में आना चाहिए .स्वयं राजनीति में आकर भ्रष्टाचारियों को राजनीती से उखाड़ फेंकना चाहिए।
निसंदेह वर्तमान राजनीति में तो अधिकांस संदेहास्पद और संदिग्ध चरित्र के ही नेता और नेत्रियाँ हैं। ये सभी अपनी वंश बेल बढाते जा रहे हैं। किन्तु इनसे निपटने के लिए 'नोटा ' का विकल्प कारगर कैसे हो सकता है ?क्या ई वी एम् मशीन का 'नोटा ' वटन दवाने या नहीं दवाने से देश में राम, कृष्ण, गौतम, गाँधी ,नानक ,मुहम्मद या महावीर अवतरित होने लग जायेंगे ?राष्ट्रीय दलों के व्यक्तियों के व्यक्तिगत चरित्र से बढ़कर उनकी नीतियाँ -कार्यक्रम और मेनिफेस्टो हैं। जिस दल के कार्यक्रम -नीतियाँ-नेता और मेनिफेस्टो कम खराब हैं आप उसे चुन सकते हैं । कांग्रेस है ,भाजपा है ,वामपंथ है ,क्षेत्रीय दल हैं ,निर्दलीय हैं और 'आप' जैसे नए दल हैं ,मतदाता चाहें तो इनमें 'सबसे कम बुरा' चुनकर देश के प्रति और प्रजातंत्र के प्रति अपनी अपना दायित्व पूरा कर सकते हैं। नोटा कोई उचित समाधान नहीं है। तात्पर्य ये कि इस संसार में :-
जड़ चेतन गुण दोषमय ,विश्व कीन्ह करतार।
संत -हंस -गुण गहहीं पय ,परिहरि वारि विकार।।
यह संसार भलाई -बुराई से मिलकर बना है ,महान और देशभक्त नर-नारियों को चाहिए की केवल सापेक्ष अच्छाई को चुने , याने जो कम बुरा हो उसे चुने। प्रजातंत्र में राष्ट्रीय स्तर पर भले ही भाजपा ,कांग्रेस निर्मम पूँजीवाद के अलमबरदार हैं , किन्तु दिल्ली में 'आप' के अरविन्द केजरीवाल भी तो हैं , उन्होंने अभी ऐंसा कोई घोटाला नहीं किया कि कम से कम दिल्ली विधान सभा चुनाव में कांग्रेस,भाजपा के साथ उन्हें भी नकारा जाए याने 'नोटा ' की नौबत आये ! हमारा यकीन है कि पूरे देश में ,सभी राज्यों में हर जगह एक न एक बेहतर याने "कम बुरा" उम्मीदवार जरुर है. वशर्ते जनता अपने विवेक से मूल्यांकन करे न की चुनावी -दुष्प्रचार से प्रभावित होकर मतदान में शिरकत करे।
श्रीराम तिवारी