बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

अब चेतें का होत है , काँटन लीनी घेर।।


  विगत एक वर्ष के दौरान देश भर में साम्प्रदायिक दंगों की मानो  बाढ़  सी आ गई है.   देश के विभन्न हिस्सों में साम्प्रदायिक घटनाओं में चिंताजनक बढ़ोत्तरी हुई है ,जम्मू में किस्तबाढ़ ,बिहार में बेतिया - नाबादा , मध्यप्रदेश  में हरदा ,खरगोन ,देवास ,इंदौर तथा  खंडवा इत्यादि कस्वों  में हिन्दू मुस्लिम भाईचारा मानों  क्षत -विक्षत  हो  चुका   है ।   यु पी में   मुजफ्फरनगर  का हिन्दू मुस्लिम दंगा तो हाल के वर्षों का सबसे बदतरीन साम्प्रदायिक उन्माद है  जो  गोधरा -गुजरात के दंगों जैसा  ही वीभत्स  है। इस दंगें में पचास से अधिक मौतें हो चुकीं हैं , सेकड़ों की संख्या में जवान ,बूढ़े ,बच्चे और औरतें घायल हुईं हैं  ,हजारों बेघर हुए हैं  और लाखों को मानसिक पीड़ा पहुँची है। जब ये मुजफ्फरनगर रुपी रोम जल  रहा था तब यूपी में  सत्तारूढ़  सपा के 'नीरो'  सीबीआई की मेहरवानी  पर आनंदित हो रहे थे।  आय से अधिक सम्पत्ति के  आरोप  से मुक्त होने की  खुशी  में  चैन  की  बंशी  बजा रहे थे. उधर अखिलेश सरकार तो बुरी तरह नाकाम है ही इधर देश के गृह मंत्री जी ने 'शानदार' वयान  देकर आग में घी डालने का काम किए है।  जिस समय सुशील कुमार शिंदे जी राज्यों और केंद्र शाशित प्रदेशों  को  निर्देशित कर रहे थे की "बेगुनाह मुस्लिमों को पुलिस परेशान न करे" ठीक उसी समय खंडवा जेल में बंद सिम्मी के  कुख्यात  ७  आतंकवादी जेल तोड़कर भाग निकले ,एक को तो पकड लिया गया किन्तु बाकी ६ अभी भी पुलिस पकड़ से बाहर हैं। इनको छुड़ाने में किसी बड़े आतंकवादी गिरोह का पता भी पुलिस को चल गया है।
                                       केन्द्रीय गृह मंत्री और यु पीऐ  सरकार के इस विचार का सम्मान किया जाना चाहिए की अल्पसंख्यक या मुस्लिम बेगुनाहों को वेवजह परेशान न किया जाए।  किन्तु उन्हें ये भी बताना चाहिए किसने कब कहाँ किस अल्पसंख्यक बेगुनाह को परेशान किया जिसके कारण उन्हें ये निर्देश देने पड़े।  उन्हें ये भी बताना होगा की  यदि  बहुसंख्यक हिन्दू   बेगुनाह है तो क्या  उसे वेवजह परेशान किये जाने पर उन्हें या सरकार को कोई आपत्ति नहीं होगी। क्या धर्मनिरपेक्षता  की  उनकी नजर में यही  मुस्लिम सापेक्षता है ?क्या  उनकी धर्मनिरपेक्षता यही  याने तथाकथित मुस्लिम  तुष्टीकरन  ही है ?  यदि यही आरोप   संघ परिवार कांग्रेस या अन्य धर्मनिपेक्ष कतारों पर लगाता है तो उसे प्रमाणीकरण की क्या जरुरत है ? भले ही संघ परिवार के आरोप अतिरंजित   हैं ,स्वार्थ प्रेरित और  पूर्वाग्रही हो सकते हैं किन्तु शिन्देजी के। विचारों  ' से ज्यादा खतरनाक तो नहीं हैं।   संघ परिवार गोधरा कांड ,मोदी ,मस्जिद और हिंदुत्व को गरियाने से और अल्पसंख्यकों   का भयदोहन  करने से क्या देश में अमन कायम हो सकता है ?
                      पश्चिमी उत्तर् प्रदेश में   वर्तमान साम्प्रदायिक दंगों की  शुरुआत  एक मुस्लिम लड़के द्वारा किसी हिन्दू लड़की को  छेड़ने से  हुई थी।  बताया जाता है की  लड़की के भाई उस मुस्लिम युवक को समझाने  गए तो  उस लड़के ने  न केवल  बदतमीची की अपितु गुंडई पर उतर आया। लड़की के  भाइयों  का  गुस्सा भी  सातवें   आसमान पर जा पहुंचा। वो लफंगा   मारा गया। अभी तक यह मामला केवल दो परिवारों के  बीच  का ही चल रहा  था किन्तु  छेड़छाड़ करने वाले मुस्लिम  लड़के के मारे जाने पर  मुस्लिम समुदाय  के  तमाम  गुंडों   ने  लड़की के भाइयों को घेर लिया और दोनों  की ह्त्या कर दी ।इस घटना से उत्तेजित पश्चिमी उत्तरप्रदेश के हिन्दू समाज  खास तौर से जाट समाज में  क्रोध  की लहर दौड़ गई.  न केवल मुजफ्फरनगर बल्कि आसपास के ९० गाँवों में साम्प्रदायिक  उन्माद की आग  जा पहुंची।जब तक सरकार ,पुलिस  और  प्रशासन की नींद  खुलती   तब तक  अधिकांस पश्चिमी उत्तरप्रदेश साम्प्रदायिक उन्माद की भेंट चढ़ चुका था। इसे शांत करने की वजाय अधिकांस राजनैतिक पार्टियों के नेता-कार्यकर्ता  अपने-अपने राजनैतिक शुभ-लाभ के गणित में जुट गए।
         साम्प्रदायिक तौर से  दोनों पक्षों के लोग भावनाओं में बहते चले गए। इस दौरान जाट -खाप पंचायतों के आयोजन भी जोर  शोर्  से आहूत   किये जाने लगे. उधर मुस्लिम समुदाय के लोगों को भी उनके कट्टरपंथी रहनुमा उकसाने लगे।  चूँकि उत्तरप्रदेश में  समाजवादी पार्टी की सरकार है और उसकी अघोषित  नीतियों में केवल यादव और मुस्लिम संरक्षण का प्रावधान है। अतएव कांग्रेस ,भाजपा ,बसपा  के चौधरियों में से कोई भी अखिलेश सरकार से न्याय और सुशासन की  उम्मीद नहीं करने वाला था।  चौधरी अजीतसिंह , चौ राकेश सिंह ,चौ टिकैत  पर अपने समुदाय का  भारी दबाव पडा और इसीलिये  ये सभी दंगा रोकने में असमर्थ रहे।   मुलायम सिंह और उनका परिवार केवल वयान् बाजी में व्यस्त रहा। भाजपा विधायक -  संगीत सोम की सक्रियता की  वजह से  संघ परिवार और मोदी के प्रतिनिधि अमित शाह को भी इस मामले से जोड़ा जाने लगा।  यह सर्वविदित है की पश्चमी उत्तरप्रदेश ,हरियाणा और पंजाब के जाट किसी 'हिंदुत्व वादी ' केम्प से कभी  नहीं जुड़े। उनका 'धर्म भले ही हिन्दू  या मुस्लिम हो किन्तु  वे अपने प्राचीन  खाप सिद्धांत से ही संचालित होते हैं। अधिकांस  मुसलमानों के गोत्र और सरनेम भी अपने 'पूर्वज ' जाट या हिन्दुओं के ही हैं।  उनकी  समाज व्यवस्था को संचालित करने के लिएअपने-अपने वर्तमान मजहब या धर्म के अनुसार   खापों की  जनतांत्रिक परम्परा  नियामक का काम करती रही है।अक्सर प्रेम प्रसंग  ही दोनों मजहबों में तकरार  का कारण बन जाया  करता है।   इन खापों की मीडिया और प्रगतिशील वुद्धिजीवी  भले आलोचना करे किन्तु इनका एक सकारात्मक पक्ष भी है।  ये बहुत जिम्मेदार , गैर साम्प्रदायिक  और सिद्धांत निष्ठ  जनतांत्रिक जन संगठन से कम नहीं हैं। ये किसी भी राजनैतिक पार्टी में अपने धर्म मजहब या खाप के कारण नहीं बल्कि नेता और कार्यकर्ता के प्रभाव  और  पार्टियों की किसान सम्बन्धी नीतियों से  जुड़ते  रहे  हैं।  अक्सर  भारतीय  दंड संहिता से  इन खापों का सामंजस्य  नहीं बैठ पाता और यही कारण है की एकजुट आक्रामक स्थिति में क़ानून असहाय हो जाया करता है।
               मुजफ्फरनगर और आसपास के  गाँवों में  जब अल्पसंख्यकों को संरक्षण देने के  बहाने - एस एम् एस , एम्  एम्  एस,तथा सोसल मीडिया के मार्फ़त कट्टरपंथियों  के  भड़काऊ और उत्तेजक संदेशों का आदान प्रदान होता दिखा तो अधिकांस जाट समुदाय एकजुट होकर तथाकथित  'अल्पसंख्यक आक्रमकता' या 'लव जिहाद '  के खिलाफ खडा हो गया। दोनों ही पक्षों  में  व्यापक तौर से जब दुष्प्रचार  चरम पर पहुंचा तो   शैतानी  साम्प्रदायिकता की आग बेकाबू  होती चली गई।   उधर आजम खान   दबाव झेल  रहे थे तो इधर संगीत सोम  तथा  अन्य चौधरियों को भी विरोधियों ने क़ानून तोड़ने पर विवश कर दिया। सभी को अपने-अपने वोट बेंक की चिंता सताने लगी।  देश प्रेम ,सामाजिक समरसता ,सहिष्णुता शब्द काफूर हो गए।  उत्तरप्रदेश  की सरकार और प्रशासन दोनों  ही अपनी विश्वशनीयता खोते चले गए।  दोनों पक्षों के कट्टरपंथी समान रूप से इन दंगों के लिए जिम्मेदार हैं किन्तु  अखिलेश सरकार ने एकतरफा कार्यवाही कर केवल-कांग्रेस ,भाजपा ,बसपा  नेताओं पर  ही रासुका और अन्य धाराओं में धर पकड़ की इसलिए मामला अब साम्प्रदायिकता से निकलकर  यूपी सरकार बनाम शेष विपक्ष  हो चूका है।   अखिलेस सरकार केवल   जाट और हिन्दू नेताओं को  ही यदि क़ानून का -अमन का पाठ  पढ़ाती रहेगी तो शांति और अमन क्या खाक स्थापित कर पायेगी। असल दोषियों को तलाश कर उन  पर कार्यवाही करना ही सच्चा राजधर्म हो सकता है।  अखिलेश या मुलायम के लिए  ये काम मुश्किल जरुर है किन्तु असम्भव नहीं।
                                   २७ अगस्त -२०१३ से शुरू हुआ साम्प्रदायिक  टकराव मुजफ्फर नगर से   चलकर  २९ सितम्बर २०१३ तक   मेरठ  जा पहुंचा। संगीत सोम की गिरफ्तारी और उन पर रासुका लगाने ,खाप महा पंचायत  पर रोक लगाने से पूरा मेरठ इलाका  तनावग्रस्त होता चला गया। यूपी  सरकार बनाम  खाप पंचायतों के  खूनी संघर्ष   में केवल दमन और आतंक का  माहौल   है।  मेरठ के सर्घना गाँव में आहूत विराट खाप पंचायत को धारा १४४ के मार्फ़त तितर-वितर करने के  बहाने  ,क़ानून और व्यवस्था कायम करने केबहाने,अल्पसंख्यकों   को मरहम लगाने के बहाने , अखिलेश सरकार और उत्तरप्रदेश प्रशासन ने जो बर्बर लाठी चार्ज और गोली  चालन किया है वो आगामी  आम चुनावों में अखिलेश सरकार और सपा के सफाए का इंतजाम भी सावित हो सकता है। जलियाँ वाला बाग़ का नर संहार  ,जनरल डायर   के रोल  फिर से   दुहराए जा रहे हैं ।   पक्ष -विपक्ष   के  आरोपों में साम्प्रदायिक राजनीती के निहतार्थ आसानी से समझे जा सकते हैं। 
                       भारतीय लोकतंत्र की वास्तविक स्थति स्वीकार की जानी चाहिए की ये 'बहुलतावादी ' धर्मनिरपेक्ष   राष्ट्र तो है किन्तु इसे इन मूल्यों से सुसज्जित करने में देश के 'सहिष्णुतावादी ,देशभक्त और जनवादी -प्रगतिशील विचार के लोगों' की भूमिका  ही  प्रमुख रही है। आज यह विचार हासिये पर है और दोनों और कट्टरपंथ के पैरोकार राजनीती के मैदान में  ताल थोक  रहे  हैं। देश में आंतरिक अलगाव के लिए यही दिग्भ्रमित तत्व जिम्मेदार है जो सत्ता के गलियारों में भी सुशोभित हो रहे हैं।   

  शायद ऐसे ही    दुखांत   मंजर   देखकर  कविवर रहीम ने लिखा होगा :-

        केरा  तबहूँ न चेतिया ,जब धिग जामी बेर।

       अब चेतें का  होत है , काँटन लीनी  घेर।।
             

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