शनिवार, 12 अक्टूबर 2013

समुन्दर से आये महाशैतान फिलिं न से जूझ रहे लोगों के साथ एकजुटता जरुरी।

             विगत१२ अक्तूबर की  शाम से आज देर रात और अल-सुबह  तक समुद्र से आये महाशैतान  'फिलिंन'   के  भारत  के पूर्वी राज्य तटों से टकराने से देश के सात राज्यों और तीस शहरों को विनाशकारी मंजर देखना पड रहा  है।  आगामी दस साल लगेगें फिर से उठ खड़े होने में.  गनीमत है की इस समुद्री तूफ़ान से जन हानि बहुत कम हुई और निसंदेह प्रशंशा की जानी चाहिए केंद्र सरकार की  ,राज्य सरकार की मौसम विभाग की  ,मीडिया की  और  सेनाओं की।  वक्त रहते लोगों को सुरक्षित स्थान पर नहीं ले जाया गया होता  तो मंजर भयावह और महाविनाशकारी होता।  उखड़ी हुई सड़कें ,टेलीफोंन बिजली ,उद्द्योग,शिक्षण संस्थान ,अस्पताल और  सम्पूर्ण व्यवस्था के बुनियादी  ढाँचे की बर्बादी रोकने का कोई उपाय नहीं नजर आ रहा है।  फिर भी संतोष की बात है की इंसानी जिन्दगी को बचाने में देश को पहली बार सफलता मिली है। हालांकि अभी तक ११ लोगों के मारे जाने की खबर है  किन्तु पांच लाख लोगों के पुनर्वास ,उनकी भूंख प्यास तथा जीवन की  न्यूनतम आवश्यक सुविधाएँ  वक्त पर पहुंचाना पहली प्राथमिकता है यदि यह काम ठीक से हो गया तो समझो इस विनाश कारी तूफ़ान पर आंशिक विजय हासिल करने में भारत को सफलता मिल गई।  आशा है जिस तरह  अमेरिका ने केटरीना की चुनौती को स्वीकार किया था ,हम भारत के जन-गन उससे भी बेहतर कर  सकेंगे।                    
भारत और नासा  समेत दुनिया भर के मौसम विज्ञानियों  के पूर्वानुमान और विनाश  की चेतावनी के मुताबिक  'महातूफ़ान ''फायलिन ' ने उडीसा के गोपालपुर से लेकर आंध्र के श्रीकाकुलम तक अपनी विनाशलीला का तांडव दिखा कर ही दम लिया। भारत सरकार ,मीडिया ,मौसम विभाग और सेनाओं ने इस दफा शायद   यह मन्त्र लिया था  :- "डरो  मत मुकाबला करो ,जीत इंसान की ही होगी ,कुदरती शैतान की उम्र कुछ घंटों की  ही हुआ करती है जबकि इंसानियत का जीवन अनंत है "एन डी एम् ऐ की ५० टीमें  और एन डी आर ऍफ़ की५० टीमें तथा २३०० जवान इस सामुद्रिक तूफ़ान से मुकाबले के लिए सर पर कफ़न बांधकर ,पारादीप से लेकर दक्षिण कृष्णा जिले तक तैनात  किये गए। गंभीर श्रेणी के इस महाविनाशकारी तूफ़ान  से डरकर कुछ लोग भले ही मंत्रोच्चार में वक्त  बर्बाद करते रहे हों किन्तु सेना की और सरकार की  तैयारियां निसंदेह जरुरी और  संतोषप्रद कही जा सकती । 
                   भारत में  अब धीरे -धीरे  चमत्कार या ईश्वरीय इच्छा पर  साइंटिफिक नजरिये को  बढ़त हासिल  होने लगी  है। अब लोगों ने "भगवान् भरोसे मरने से अच्छा लड़ते हुए मर जाने"  के बेहतर विकल्प को स्वीकारना शुरू कर दिया है।  १९९९ में जब उड़ीसा में ऐसा ही  भयानक तूफ़ान   आया था तब १०००० जाने गईं थी। प्राकृतिक आपदा प्रबन्धन पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया था। इसलिए जन -धन की  भारी तबाही हुई थी। उस समय केंद्र में  एनडीए सरकार थी। उस सरकार पर  ईश्वर भक्त साधुओं ,बाबाओं का ज्यादा प्रभाव था।  वे   ज्यादा आस्तिक और  धर्मभीरु  थे. फिर भी ईश्वर ने उनका और मरने वालों का  साथ नहीं दिया। इस बार केंद्र में  मनमोहन -सोनिया जी की सरकार है और शायद  दोनों को ही भगवान् के बजाय सेनाओं पर और  वैज्ञानिक तोयारियोन पर  भरोसा था इसलिए उडीसा ,आंध्र और बंगाल में ज्यादा तबाही नहीं हो पाई। इस घटना में भले ही आज पांच लाख लोग बेघर हैं ,हजारों पीड़ित हैं ,भूंख ,प्यास और बीमारी आम है किन्तु सरकार और सेना की नियत पर संदेह नहीं किया जा सकता।  देश की जनता  , राजनीतिक  पार्टियां  , केंद्र और राज्य  सरकार  यदि  कुछ समय के  लिए अपने स्वार्थ खूंटी  पर  टांग दे तो   श्रीकाकुलम  , विजयवाडा   , विशाखापत्तनम  ,गंजाम ,पूरी ,भुवनेश्वर ,पारादीप  और गोपालपुर फिर से उठ खड़े होंगे  इसमें कोई संदेह नहीं।

 लंका विजय से पूर्व श्रीराम ,लक्ष्मण,हनुमान ,सुग्रीव और विभीषण  चिंतातुर थे की लंका तक पहुँचने  के लिए समुद्र 'देवता' को पार कैसे किया जाए ? लक्ष्मण ने अपने  स्वभाव के अनुरूप अपने धनुष की प्रत्यंचा पर बाण चढ़ाया और समुद्र को शोखने की अनुमति 'श्रीराम' से माँगी।  श्रीराम ने लक्ष्मण के  इस उपाय को तुरंत  ख़ारिज  कर दिया और स्वयम हाथ जोड़कर  समुद्र से पार उतरने वावत विनम्र प्रार्थना की।  समुद्र ने जब  अनुमति नहीं  दी तो श्रीराम ने लक्ष्मण के फार्मूले को ही  अपनाया -
              बोले राम सकोप तब ,भय बिन होय न प्रीत।   विनय न मान खगेस तब ,गये तीन दिन बीत।।
            लछमन बाण सरासन आनु। शोखों बारिधि विशिख कृशानु।
  याने हे ! लक्ष्मण धनुष बाण लाओ ! इस समुद्र की तो मैं ऐसी की तैसी करके ही रहूंगा। उनके इस रौद्र  रूप  पर लक्ष्मण कितने मुग्ध हुए होंगे ये तो नहीं कह सकता किन्तु  समुद्र की प्रतिक्रया अवश्य ही  जग जाहिर है। समुद्र ने श्रीराम के सामने हाथ जोड़े और नल -नील तथा वानरों की मदद से  सेतु निर्माण का सुझाव दिया। सेतु निर्माण सफल रहा और 'लंका विजय' में मददगार रहा.युगों -युगों से ये गाथा  न केवल  भारत न केवल हिन्दू घरों में बल्कि  तमाम  पूर्व एसियाई   देशों में सनातन से कही सुनी जा रही है।उसी की याद में दशहरे पर 'रावण दहन ' का चलन उत्तर भारत में  है। यह कथा सर्वकालिक और सर्वविदित है। इस आख्यान को दुहराना या उसे महिमा मंडित करना मेरा मकसद नहीं, मेने   इस घटना का जिक्र मात्र  यह स्थापित करने के लिए किया है की प्राचीनकाल में  भी जब सुसभ्य  'आर्य'  लोग 'भाववाद'  या दैवीय चमत्कार को तिलांजलि देकर अपने मानवीय बाहुबल और वैज्ञानिक भौतिकवादी सामर्थ पर यकीन किया करते थे तो आज के इस घोर वैज्ञानिक ,प्रगत ,उन्नत तकनीकी युग में घर-घर में ,गली-गली में ,गाँव -शहर में धर्मान्धता और  अवैज्ञानिकता का बोलबाला क्यों है ? प्राकृतिक या मानव निर्मित संकट  या भय के ऊपर 'आश्था' के बादल क्यों मंडराने लगते हैं ? चाहे पड़ोसी बदमास देशों के छुपे आक्रमण हों ,चाहे सूखा हो , चाहे बाढ़ हो ,चाहे सुनामी हो ,चाहे केदारनाथ या हिमालयी प्राकृत आपदा हो या कोई भयावह समुद्री तूफ़ान हो - भारत के जन- मानस में धर्मभीरुता का बोलबाला ज़रा  ज्यादा  ही पाया जाता है। सूखा पड़ा तो कहने लगे 'कलयुग आ गया है 'बाढ़ आई तो कहने लगे देवता अप्र्शन्न हैं 'हरेक संकट का  कारण देवीय आश्था में निहित  हुआ करता है। किन्तु ये भावात्मक अन्धविश्वाश अब अद्र्कने लगा है।
                         गनीमत है की  देश पर अंध श्रद्धा,चमत्कार और स्वयम भू भगवानों   या  साम्प्रदायिक मानसिकता के नेताओं ,ढोंगी बाबाओं और पाखंडी स्वामियों की पसंद का नेतत्व  और उनकी पसंदीदा सरकार  नहीं है  । वरना ये ढोंगी लोग जादू-टोने से ,स्तुति आरती से ,घंटे -घड़ियाल से देश की और जनता की रक्षा वैसे ही करते जैसे वे अतीत में विदेशी आक्रमणों के दौर में या प्राकृतिक आपदाओं में  करते आये हैं। आसाराम , रामदेव,उमा भारती ,नित्यानंद ,भीमानंद ,गाजी फ़कीर ,निर्मल बाबा या पाखंडी फादरों की  इस दौर में चलती तो सोचना चाहिए की  वे देश  का  और देश की आवाम का क्या हश्र करते ?आस्तिकता के खोल में घोर पापियों के परजीवी झुण्ड केवल शाब्दिक  लफ्फाजी से अपनी भडास निकाल  लिया  करते हैं। रामदेव तो फाय्लिन तूफ़ान के लिये सोनिया या राहुल को जिम्मेदार बताएँगे और आसाराम अपनी कुकर्म जनित  जेल यात्रा को   इस महातूफान के आगमन को जोड़ेंगे।  हिन्दुत्ववादी पी एम् इन वेटिंग तो  मुसलमानों को ही इस सामुद्रिक आपदा के लिए  जिम्मेदार मानेगे।
                              १२  अक्तूबर -२०१३ को शाम ६ बजे आज १३ अक्तूबर के सुबह ६ बजे तक -   बंगाल की खाडी  को चीरकर २० किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार  से  चला साइक्लोन -  महातूफ़ान  'फीलिन ' जब उडीसा ,आंध्र,बंगाल और तमिलनाडु तट  से टकराने आया तो आज के वैज्ञानिक -प्रबुद्ध  भारत ने  उस की पूजा अर्चना नहीं की।  उसे दैवीय प्रकोप  मानकर अपने आपको काल कवलित होने के लिए नियति या भाग्य के भरोसे  नहीं छोड़ दिया  गया । बल्कि संभावित संकट का  वक्त रहते घंटों पहले पूरा-पूरा वैज्ञानिक आकलन याने सटीक पूर्वानुमान किया गया। तीनों सेनाओं को अलर्ट किया गया ,चिकित्सा ,संचार,परिवाहन ,रेस्क्यू और पुनर्स्थपान से सम्बंधित तमाम तैयारियों को कंसोलिडेट किया गया। राज्य सरकारें,केंद्र सरकार ,मौसम विभाग, डिजिटल ,प्रिंट और इलेक्ट्रानिक  मीडिया  -सभी ने शानदार भूमिका अदा कर संभावित  भारी तबाही से देश को बचाने का पुरजोर प्रयास किया।     
                   कुदरती  महाविनाश अभी तक चीन अमेरिका और जापान भी नहीं रोक पाए हैं यदि भारत के लोगों ने इस दफे कुछ सार्थक किया है तो पीठ थपथपाने में कोई कंजूसी क्यों ? इसका श्रेय देश के वैज्ञानिक नजरिये को, देश के प्रबुद्ध मीडिया को और जागृत राजनीतिक नेतत्व को जाता है।   जो लोग इस आपदा प्रबंधन के दौरान भी मुनाफाखोरी करने लग जाते हैं ,लूटपाट करने लग जाते हैं ,जो अमानवीय हैं उन नरक के कीड़ों से देश को बचाने के लिए अब भारत के न्यायविद,मीडिया ,राजनीतिग्य और जनता जागरूक होने लगे हैं।   निसंदेह   वर्तमान पूंजीवादी और लूटखोरी की  व्यवस्था  के कारण  भारत   चौतरफा मुसीबतों से घिरा हुआ है   किन्तु यदि वह धर्मान्धता ,साम्प्रदायिकता के नकारात्मक तत्वों से मुक्त होकर। विज्ञानसम्मत रस्ते पर आगे बढ़ता है तो इसका भवष्य उज्जवल है।

              अपने अंधकारमय अतीत से मुक्त होकर वैज्ञानिक नजरिये से ही भारत और विश्व का उद्धार संभव है।  पचास साल पहले - बचपन में जब गाँव -जंगल या खेत -हार से   रात  के अँधेरे में  गेल -घाट पर    कभी   अकेले-दुकेले  आना जाना होता था तो  पीपल के पत्ते के खड़कने या उल्लू के बोलने पर भी  सिर्फ 'भूत-पलीत ' का ही ख्याल आता था। रास्ते में नाग देवता मिल जाएँ या गोह देवी  , सभी में केवल दुर्दांत 'देवदर्शन' ही  हुआ करते   थे। इस ' भय के भूत '  का निवारण जिस हनुमान चालीसा या दुर्गा चालीसा से किया जाता था वो सिस्टम अभी भी बरकरार है।  अभी भी उसी तर्ज पर उसी संवेदना  और उसी शिद्दत से   'दैहिक-दैविक-भौतिक' ताप का निवारण किया जा रहा है। शायद जिसे सदियों पहले गाँव के पाषाण युगीन  'सयानों' ने ईजाद किया होगा।  इन दिनों भले ही हर नौजवान ग्रामीण की जेब में  एक अदद मोबायेल हो ,भले ही वो मिडिल फ़ैल,हाई स्कूल फ़ैल या  गैर स्नातक  [क्योंकि शहर के  प्रतिश्पर्धि मुकाबले में  आज गाँव का  विद्द्यार्थी कैसे टिक सकता है ?]  ही क्यों न हो ? बिना पक्षपात के   सभी वर्गों ,मजहबों और अंधश्रद्धाओं  से ताल्लुक रखने वालों   को   यह  डर अलग-अलग  जाती और धर्म के अनुसार अनुभूत अवश्य  हुआ करता है.  संकट मोचन या समस्या   निवारण के तरीके  एक जैसे  ही  है।  याने ओझा,बाबा  मौलवी ,झाड-फूंक   . . .! ॐ हिलीम -कलीम फट स्वाहा. शरणम गच्छमि…! या जय-जय हुनमान गुसाईं . . . !  या जय काली -कलकत्ते वाली! या जल्ले जलाहू   आई वला को  …!
                                             जब तक चेतना  है,जब तक विवेक है डरना स्वाभाविक है किन्तु भय मुक्ति के विश्वसनीय और कारगर साधनों का अभाव या  अकाल इस वैज्ञानिक युग में होना   नितांत शर्मनाक है। इस डर के तात्कालिक समाधान  प्रकारांतर से  मजहबी आश्थाओं  के  अनुसार   भिन्न -भिन्न हुआ करते  हैं।  हो सकता है देश और दुनिया में शायद इस भारतीय पुरातनपंथ की मान्यताओं  से मिलते-जुलते और भी  देश हों ,शहर हों ,गाँव हों ,सभ्यताएं हों ।  हो सकता है की उन्होंने अपने नैसर्गिक  भय को वैज्ञानिक अनुसंधानों की शान पर  चढ़ाकर भौंथरा कर दिया हो किन्तु   मेरे भारत के   गाँव  उत्तर-दक्षिण  ,पूरब -पश्चिम   सभी दिशाओं में आज भी अपने जातीय विभाजन    और  सामाजिक संकीर्णता से आबद्ध होने के कारण 'भभूत'के चंगुल में फंसा हुआ  है।  मैं मध्यप्रदेश के  बुंदेलखंड क्षेत्र ,बिहार के  दरभंगा  या उड़ीसा   स्थित  कालाहांडी इत्यादि   अति पिछड़े  क्षेत्रों  के  गाँव की आर्थिक  दुरावस्था से  बंगाल -केरल - गुजरात   महाराष्ट्र या पंजाब  के उन शुशिक्षित विकसित  गाँवों  की   जबरन तुलना नहीं करूंगा जो भारतीय कंगाली के महासागर में आकाश दीप की भांति   चमक  रहे हैं।   लेकिन मैं दावा करता हूँ की तमाम प्रकार  के 'रोग-दोष-दुखों'के प्रथमोपचार में अगड़े-पिछड़े ,गरीब-अमीर और उंच-नीच का कोई फर्क नहीं।  सर्वत्र समानता है,साम्यवाद है।
                                याने अंधश्रद्धा ,पाखंड और  अवैज्ञानिकता  से मुक्त होने की ताकत किसी में नहीं है  । घर-घर टेलीविज़न हो जाएँ ,हर हाथ में घड़ी हो ,हर जेब में मोबाइल हो फिर भी इंसानी, शैतानी ,जमीनी ,आसमानी और आग-हवा पानी  से उत्पन्न संकट  से निजात  पाने के  लिए -कलियुग केवल नाम अधारा। . . . .  सुमरि-सुमरि नर उतरहिं पारा।। …. … !
                                                 मैं  अपने पैतुक  गाँव की चर्चा कर रहा  हूँ। उसमें  अधिकंस  हिन्दू और जैन  हीशेष बचे   हैं . पचास साल पहले  एक मुसलमान जुलाहा और एक ईसाई प्रायमरी  शिक्षक भी  हुआ करता था।  ये दोनों ही अपने हिन्दू पूर्वजों  का बड़े गर्व से बखान  किया करते थे।  जैन अधिकांस व्यापारी  ,साहूकार और पढ़े-लिखे और सम्पन्न  थे। वे जैन मंदिर में आये दिन 'मुनियों -जैन संतों ; का चातुर्मास या 'सिद्धचक्र-विधान मंडल' जैसा कुछ न कुछ आयोजन किया करते थे।  वे केवल डाकुओं से डरते थे क्योंकि इलाके में दूर-दूर तक न तो पुलिस  थी और ना पुलिसथाना।   जैन समाज के लोग  सूर्यास्त के बाद न तो खाना खाते थे और न घर से ही  निकलते । संकट आने या डाकुओं का डाका पड़ने पर वे "नमो अरिहंतारम ….  नमो श्री  सिद्धाणं का जाप करते।  मुस्लिम  जुलाहा स्वभाव से  तो निडर था।  किन्तु  "असलाम बालेकुम"  की जगह  'जैराम जी की' बोला  करता । क्योंकि उसके अलावा गाँव में  और कोई मुसलमान था ही नहीं।   झाडफूंक और  मन्त्र   ताबीज में उसकी श्रद्धा अपार थी।  ला इलाह। …। …… …इलिलाह। …।  जल्ले  जलालहू  …!   इत्यादि मन्त्र का जाप करता  और किसी सूफी मजार पर धुप -लोभान देना उसकी खानदानी परम्परा में शुमार   था। ईसाई  मास्टर जिसके पूर्वज दो पीढी पहले हिन्दू हरिजन हुआ करते थे अब भी लोगों से मिलने पर  'राम-राम' किया  करता  किन्तु   बात  बात में अपने गले में लटके क्रास को  भी चूमाँ करता।  अपने दोनों हाथों को कभी दायें-बाएं फैलाता और कभी सीने पर काल्पनिक क्रोस बनाता।  अँधेरे में उसेअपने  इन् नए ईसाई  प्रतीकों  पर  और उजाले   में पुराने हिन्दू प्रतीकों का सहारा हुआ करता।
                                           हिन्दू समाज  जो की   'तेरह -जात'में  बटा हुआ था।   उसमें जमींदार ,पुरोहित से लेकर 'हरिजन ' तक सभी 'बजरंगबली ' और दुर्गा के भक्त हुआ करते थे। सभी को गीता रामायण का कुछ न कुच्छ जरुर  मुखाग्र याद हुआ करता था। सभी बड़े ज्ञानी-ध्यानी बातूनी धपोर शंखी  हुआ करते।  सबसे ज्यादा वैमनस्य और अलगाव केवल हिन्दू समाज में ही था।  हिन्दू तेरह जात में  विभक्त थे। पुरानी परम्परा का आदर्श गाँव।  याने  ब्राह्मण , ठाकुर,बनिया,तेली , अहीर ,लुहार ,बढ़ई , चर्मकार ,बनसोड ,धोबी ,नाइ , खंगार   हरिजन  और आदिवासी [सौंर-रावत ] सभी थे । ब्राह्मण कान्यकुब्ज,सर्युपारी,सनाडय , जिजोतिया ,भट्ट और जोशी  इत्यादि उपवर्गों में विभाजित थे।  सभी जात के आस्तिक श्र्द्धावानों का  भय की स्थति में या  लोकोत्तर समस्याओं  के  निदान  की स्थति में  या तो हनुमान चालीसा का सहारा  था या दुर्गा चालीसा  का !
                गाँव में भले ही  हल-बैल  की जगह टेक्टर ,हार्वेस्टर ने ले ली हो  , ढिबरी की जगह विद्दुत बल्ब दमकने लगा हो  ,रेडिओ की जगह टेलीविज़न  का शोर हो रहा हो  और हरेक की जेब में मोबाइल  भिनभिना रहा हो  किन्तु अभी भी भारतीय जन- मानस को अपने अप पर नहीं बल्कि उन चीजों पर भरोसा कायम है जो केवल छलावा ही हैं।

                   श्रीराम तिवारी    

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