शुक्रवार, 16 मार्च 2012

सावधान ! पूंजीवाद तो खेती की ज़मीन भी खा रहा है...!

यह जग जाहिर है कि इस दौर में  अंतर्राष्ट्रीय आवारा वित्त पूँजी  के सरोकार नितांत नव-उपनिवेशवादी हैं.इस नए अमानवीय और ' लालच' के अवतार ने बड़ी ही वेशर्मी से 'जन-कल्याण' का वो चोला भी उतार फेंका है जो उसने 'शीत-युद्ध' के दौरान तत्कालीन "सोवियत संघ" समेत तमाम साम्यवादी कतारों को नीचा दिखाने के लिए ओढ़ रखा था .पाश्चात्य पूंजीवादी राष्ट्रों के    जिन अर्थ शाश्त्रियों  ने इस नव्य-उदारवाद का कांसेप्ट बुना था उनकी दुरात्मायें  अब 'वाल स्ट्रीट ' के प्रभु वर्ग को ही नहीं ,अमेरिकाऔर यूरोप को ही नहीं बल्कि चीन जैसे अर्ध साम्यवादी और भारत जैसे अर्ध-पूंजीवादी+अर्ध-सामंती देश  के सत्तारूढ़ राजनीतिज्ञों को सपनों में आ-आ कर डरा रहीं हैं. वैसे तो इस विश्व-व्यापी 'नव्य-उदारवाद' का जन्म विगत शताब्दी के अंतिम दशक कि शुरुआत में ही हो चूका था किन्तु भारत में उसे परवान चढाने में जिन राजनैतिक ताकतों का हाथ रहा वे 'कांग्रेस और भाजपा' दोनों ही बराबर के जिम्मेदार हैं ,इन दोनों ही राजनैतिक शक्तियों के आर्थिक चिन्तक और प्रेरणा  स्त्रोत केवल एक  ही सज्जन हैं -वर्तमान प्रधानमंत्री डॉ मनमोहनसिंह. ये सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री जरुर रहे होंगे किन्तु अब नहीं ,अब केवल और केवल इस नव्य-उदारवादी ,बाजारवादी पूंजीवाद के शानदार पैरोकार  होकर विश्व -बैंक और अन्तर्रष्ट्रीय मुद्रा कोष  के कुशल मार्केटिंग मेनेजर जैसे लगने लगे हैं.
             भारत  में वैसे तो गुलामी के दिनों में ही  स्थानीय सामंतवाद  के घोड़े पर चड़कर ब्रिटिश साम्राज्य का हिमायती पूंजीवाद इस शस्य स्यामल -सुजलाम-सुफलाम भारतीय धरती को बुरी तरह निचोड़ने में लग चूका था  किन्तु इस नए पूंजीवाद की आयु तो मात्र २० वर्ष ही  है.अब यह न केवल जवान हो चूका है बल्कि निहायत ही घटिया दर्जे का बदचलन  और आवारा भी हो चूका है.वर्तमान दौर में यह राज्य-सत्ताओं के मार्फ़त  आम जनता की छोटी-छोटी मिल्कियतों पर न केवल  अपनी कुदृष्टि डाल रहा है बल्कि सार्वजनिक सम्पदा और जमीनों पर   जबरन कब्जा कर परोक्ष रूप से  देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय निगमों और इजारेदार पूंजीपतियों बड़े  ज़मींदारों ,ठेकेदारों   तथा विभिन्न  माफियाओं  की तिजोरियों को  लबालब भरने में जुटा है.  राज्य सत्ता के राजनैतिक दलाल और भृष्ट प्रशाशनिक मशीनरी के नापाक कारिंदे इन पूंजीपतियों और बड़े भू-स्वामियों से मोटी रकम की दलाली पाते हैं .जो नेता,दल ,अफसर या कर्मचारी इस नापाक गठजोड़ से सहमत नहीं  उसे या तो सिस्टम से अलग कर दिया जाता है या दुनिया से उठा दिया जाता है.
                                             पूंजीपति और बड़े फार्म हाउसों के मालिक अपनी लागत और मुनाफा वसूलने के साथ -साथ अपने आर्थिक साम्राज्य में बेतहाशा बृद्धि करने के बाबत आम जनता की खाल उधेड़ रहे हैं.एक तरफ राजनैतिक दलालों के मार्फ़त सार्वजनिक उपक्रमों को चुपके-चुपके  निजी हाथों में सौंपने का सिलसिला जारी है,दूसरी ओर सकल राष्ट्रीय विकाश दर की बढ़त के बहाने, आधारभूत अधोसंरचना निर्माण के बहाने विदेशी क़र्ज़ का फंदा देश की भावी पीढ़ियों के मथ्थे मढ़ा जा रहा है.यह तो  वर्तमान दौर के सर्वग्रासी- सर्वनाशी नव्य-उदारवाद की एक आंशिक झलक मात्र है,देश के हर प्रान्त ,हर शहरऔर हर इलाके में लोभ-लालच के महारथियों का नंगा नाच जारी है.
                               बुंदेलखंड के सागर संभाग में कभी २-४ बीडी उद्द्योग के केंद्र थे.तेंदुपत्ता ,ज़र्दा और बीडी के काम में लाखों लोगों का श्रम लगा हुआ था . बीडी बनाने बाले तो  असमय  ही क्षय या टी.बी से बेमौत मर-खप गए किन्तु बीडी निर्माताओं ने राजनैतिक पार्टियों [कांग्रेस और भाजपा] का दामन थामकर न केवल आम जनता की जमीनों बल्कि सार्वजनिक संपदा और जमीनों पर अपना आधिपत्य जमा लिया.अब वे किंग मेकर की भूमिका में हैं.इन पूंजीपतियों ने हजारों एकड़ जमीन के फार्म हॉउस और सेकड़ों एकड़ जमीनों पर खनन के निमित्त कब्ज़ा कर रखा है.पुलिस -प्रशाशन और राजनीती इनके इशारों पर चलती है .कोई मुख्यमंत्री का दोस्त  बन गया कोई स्वयम सांसद या मिनिस्टर.अब तो ' सैयां भये कोतवाल' नहीं 'अपन हथ्था तो जग्नाथ्था' की कहावत चरितार्थ हो रही है.
                    विगत २-३ माह से इंदौर  और उसके इर्द-गिर्द देश भर के नामी-गिरामी लार टपकाऊ ,जमीन  खाऊ
लोगों की आमद-रफत बढ़ गई है.सुना है क़ि टी सी एस आएगी,विप्रो आएगी और इनफ़ोसिस भी आ रही है. स्वयम राज्य सरकार पलक पांवड़े बिछाकर इन आई टी कम्पनियों को लाल कालीन बिछा चुकी है.गोया इन कम्पनियों के आगमन से इंदौर और मध्यप्रदेश की जनता मालामाल हो जाएगी! किसानों की जमीन जबरन छीनकर उन्हें खेती बाड़ी से महरूम किया जा रहा है.इसकी किसी को फ़िक्र नहीं की इंदौर-देवास-पीथमपुर में कितने कारखाने बंद हो गए हैं.उन्हें पूर्व में दी गई हजारों एकड़ जमीन अब खेती के काम की नहीं रही और कारखाने बंदी से ओउद्द्योगिक उत्पादन भी नहीं हो पा रहा है.विगत पांच सालों से आई टी पार्क नाम से करोड़ों की इमारत सेकड़ों एकड़ जमीन में बनकर तैयार है उसका न तो कोई लेवाल है और न ही उस जमीन पर अब कभी खेती हो सकेगी.इससे सबक सीखने के बजाय राज्य सरकार को किसानों की खेती योग्यऔर सेकड़ों एकड़  उपजाऊ भूमि जबरन अधिगृहीत करके इन आई टी कम्पनियों को तस्तरी में रखकर देने की बड़ी व्यग्रता है.
                              आई टी उद्योग की देश को कितनी जरुरत है?खाद्यान्न की देश को कितनी जरुरत है? यह सामान्य बुद्धि का मानव भी समझ सकता है.चाहे आई टी उद्योग हो या पूर्व वर्ती परंपरागत कल-कारखानें हों क्या यह जरुरी है की वेशकीमती उपजाऊ भूमि पर ही स्थापित किये जाएँ? इस आई टी उद्योग का स्याह पहलु बंगलुरु के लोग ने भी देख लिया.भू माफिया और राजनीतिज्ञों की मेहरवानी से जमीनों के भाव  इतनी तेजी से बड़े की आम आदमी के लिए एक छोटा सा फ्लेट प्राप्त कर पाना भी असंभव हो गया.पहले इंदौर को कपडा उद्योग के लिए जाना जाता था ,अब तो खंडहर भी नहीं हैं की बता सकें की ईमारत बुलंद थी!जिस जमीन पर ये बड़ी-बड़ी कपडा मिलें स्थापित हुई थीं वो हज्रारों एकड़ जमीन भू माफियाओं के मार्फ़त सस्ते में हथिया ली गई थी अब उस पर  विशालकाय बहुमंजिला इमारतें और माल्स बनाये जा चुके हैं जो की करोड़ों -अरबों में बेचे जा रहे हैं .यह सर्व विदित है की भृष्ट नौकरशाही और राजनीती के नापाक गठजोड़ की इक्षा के बिना अब पत्ता भी नहीं हिल रहा है.
              इंदौर  के नज़दीक   पीथमपुर को भारत में  अमेरिका या जापान केआधुनिकतम तकनालोजी केन्द्रों   की तरह  उत्कृष्ट उद्द्योग केंद्र बनाने का स्वप्न देखने वालों ने छोट-बड़े सभी किसानों कोजबरन  वर्षों पहले उनकी जमीनों   से  बेदखल कर दिया था.इस जमीन पर थोड़े-बहुत उद्द्योग और कारखाने शुरुआत में जरुर खुले थे किन्तु शाशन-प्रशाशन के भृष्ट आचरण और परिवर्तिकाल के लालची उद्द्योगपतियों-राजनीतिज्ञों की  अदूरदर्शिता  से  धीरे-धीरे वे सभी बंद होते चले गए.आधारभूत अधोसंरचनात्मक  विकाश भी एक प्रमुख कारण रहा है.यह कारण अभी भी बरकरार है.परिणामस्वरूप हज़ारों  एकड़  खेती की वेशकीमती जमीन पर न तो अब खेती संभव है और न ही कोई कारगर उद्द्योग स्थापित  किये जाने  का प्रयास हो रहा है.
       पीथमपुर  की तरह ही इंदौर का भी यही हाल है.इस शहर के इर्द-गिर्द १०० किलोमीटर के दायरे में अत्यंत उपजाऊ भूमि थी.इस भूमि का' बहुत बड़ा हिस्सा तो भू-माफिया ' खा'गया.अब बची-खुची जमीनों पर देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय निगमों की  गिद्ध द्रष्टि  है.इंदौर को सिलिकान वेळी में बदलने   का  सपना  दिखाकर धुल धूसरित कर
डाला है.अच्छी खासी खेती का कबाड़ा किया सो किया,परपरागत कपडा-मीलों  को बंद कर तमाम हजारों एकड़ जमीन पर धडाधडकांक्रीट की   बहुमंजिला इमारतें और माल्स बन कर निर्धन जनता को और बेरोजगार हो चुके मिल मजदूरों का उपहास करते नजर आ रहे हैं. अलबत्ता  अहिल्या बाई होलकर के  जिस  पुरातन सुन्दर शहर  की तुलना मुबई से  की जाती थी ',मिनी बॉम्बे ' कहा जाता था वह  आज गड्ढों  से परिपूर्णहै. सड़कें,धुंआ छोडती-बसें,कारें,धुल,धुंआ,धुंध और बीमारियों का बोलबाला है. बेरोजगार-मजदूर और किसान आये दिन आत्म हत्या कर रहे हैं,चोरी,लूट,सेंधमारी,नकबजनी,हत्या और बलात्कार जैसी घटनाओं की बाढ़ आ गई है. यह वर्तमान दौर के सर्वग्रासी- सर्व भक्षी पूंजीवाद का सम्पूर्ण चित्रण नहीं है यह तो एक शहर,एक काल-खंड और एक विशेष परिस्थति के बरक्स उसकी आंशिक झलक मात्र है.
           एक आई टी कम्पनी को सुपर कारीडोर पर जमीन चाहिए .उस कम्पनी का मालिक या सी.ई.ओ यहाँ आता है .राज्य सरकार के मंत्री उसकी चरण वंदना करते हैं.ऐंसा फोटो भी अखवारों में छपता है.उस पूंजीपति के स्वागत में लाल कालीन बिछ जाया करते हैं.कम्पनी मालिक जितनी भी जमीन मांगता है उतनी उसे आनन् -फानन दिए जाने के अनुबंध हो जाते हैं.सरकार,कलेक्टर,विकाश प्राधिकरण,नगर-निगम,तथा पंजीयक रजिस्टार समेत सभी कारकून एकजुट होकर किसानों को हकालकर एक बाड़े में घेरकर  ओने-पाने दामों में उनकी वेशकीमती अत्यंत उपजाऊ जमीन हस्तगत करके उस पूंजीपति को सौंपने के उपरान्त चेन की सांस लेते हैं.सारी जमीन खेती की है,सिंचित है,उपजाऊ है,किन्तु अब ये बंज़र कर दी जाएगी.आई टी क्षेत्र के विकाश के नाम पर ,युवाओं को रोजगार मिलने के नाम पर  यह यदि बहुत जरुरी भी था तो उस जमीन पर क्यों नहींबनाते  जो यत्र-तत्र सर्वत्र युसर-बंज़र  पड़ी हुई है या जिस पर शहरी  भू माफिया या देहाती दवंगों का कब्ज़ा है?
             कल-कारखाने बनाए जा सकते हैं, आधनिक तकनीकी उपकरण और तत्सम्बन्धी उद्योग लगाए जा सकते हैं,ये सब इंसानी दिमाग और फितरत के वश में है किन्तु खेती योग्य उर्वरा भूमि को एक बार सीमेंटीकरण कर देनें पर उसका हालत वैसे ही हो जाएगी;-
        बिगरी बात बने नहीं , लाख करे किन कोय!
         रहिमन फाटे दूध का ,मथे  न माखन  होय!!
                                                                               श्रीराम तिवारी

4 टिप्‍पणियां:

  1. वाहियात समझ है इन सरकारो की. पूंजीवादी तरीके से औद्योगिकीकरण को ही आज की सरकारों ने अंतिम एवं पवित्र सत्य मान लिया है. कारण इन कार्पोरेट्स से मिलने वाले किकबैक्स... सत्यम का हाल इन गधो को नजर नही आता ... विकास कभी भी उर्वरा भुमि की कीमत पर नही हो सकता है... इन नालायक कार्पोरेट्स को यदि अपनी किसी औद्योगिक ईकाई को स्थापित करने मे 10 एकड भुमि की जरूरत होती है तो 200 एकड की मांग करते है और बेशर्म सरकारे उन्हे इतनी गैरजरूरी भूमि उपलब्ध कराने में खुद को गौरवांवित मह्सूस करती है. इन मक्कार कार्पोरेट्स को पहले मुफ्त भुमि दो, फिर स्थापन एव सन्चालन के समय सारे करो मे छूट दो फिर जब ( अय्याश खर्चो के कारण )घाटे मे आ जाये तो इन्हे राहत पैकैज दो...अजीब दास्ता है...

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  2. Thank you sinhaji,It is the tradgedy the neo-librization convert the agriculture land into finance capital.Future of next generation will be going to much crisus.

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  3. तथाकथित विकास ने कृषि भूमि को निगलना शुरू कर दिया है। शासन को कृषि भूमि की रक्षा करनी चाहिये और तम्बाकू की खेती को पूरी तरह प्रतिबन्धित करना चाहिये। राजस्व के लालच में गरीबों की ज़िन्दगी को दाँव पर नहीं लगाया जा सकता।

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