स्वतंत्र भारत के राजनैतिक इतिहास के अध्येताओं की नैतिक जिम्मेदारी है कि अपने समकालीन राजनैतिक परिप्रेक्ष्य को जन-आकांक्षाओं के केनवास पर वैचारिक रंगों को शिद्दत के साथ प्रत्यारोपित करते हुए 'सच का सामना' करें.तमाम सुधि चिंतकों से अनुरोध है की वर्तमान दौर के - पांच राज्य विधान सभा चुनावों के नतीजों को - भारत के अपने विविधता पूर्ण सामाजिक संरचनात्मक ढाँचे में देखें. इस परिणिति को - नव-तकनीक सम्पन्न उत्तर आधुनिक मीडिया की भूमिका,नेतृत्वकारी वैक्तिक छवियाँ,सत्ताधारी दलों की चूकों तथा जन-आकांक्षाओं के समवेत स्वरों में -उद्घोषित करें.विगत ६ मार्च को प्राप्त हुए चुनावी नतीजों से न केवल देश की दशा बल्कि आगामी लोकसभा के चुनावों की पूर्व पीठिका का भी बीजारोपण हुआ है , विभिन्न राज्यों के जन-मानस की मनोदशा भी परिलक्षित हुई है.दोनों बड़े राष्ट्रीय दलों- कांग्रेस ,भाजपा को छोटे राज्यों से ही संतोष करना पड़ाहै. तीसरी राष्ट्रीय ताकतका प्रमुख स्त्रोत - वाम मोर्चा तो लगभग हासिये पर ही चला गया है...गोवा में भाजपा और मणिपुर में कांग्रेस और उत्तरांचल में दोनों की बराबरी ,के मायने हर वह शख्स आसानी से समझ सकता है जो भारतीय राजनीती का ककहरा जानता है.पंजाब में बादल परिवार और यूपी में मुलायम परिवार को मिली सफलता से भारतीय लोकतंत्र में जहांपरिवारवाद का बोलबाला दृष्टिगोचर हुआ वहीँ तीसरे मोर्चे के परवान चढ़ने की भी संभावना प्रवल हुई है.
आगामी दिनों में राष्ट्रीय एकता और मज़बूत भारत के सामने भयावह चुनोतियाँ के दरपेश होने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता. क्या अखिलेश यादव को मालूम है कि वैश्वीकरण और बाजारीकरण के प्रतिस्पर्धी दौर में 'समाजवादी समाज 'के निर्माण की प्राथमिकताएं क्या हैं? क्या उन्हें मालूम है की वैश्विक आर्थिक संकट की मार से उत्तरप्रदेश के मजदूरों ,किसानों और नौजवानोंतथा प्रदेश की २० करोड़ जनता को कैसे उबारेंगे?वे जिस जात,धरम [यादव=मुस्लिम] की वोटर युति पर सवार होकर सत्तासीन हुएहैं, क्या उसकी उद्दाम आकांक्षों को पूरा कर सकेंगे ? जबकि मायावती जी के शाशनकाल में उत्तरप्रदेश का खजाना लगभग खाली हो चूका है.क्या चुनावी वादों की पूर्ती किसी जादुई व्यक्तित्व या कोरे नारों से संभव है?
हालाँकि समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और सपा -अध्यक्ष मुलायमसिंह के सुपुत्र अखिलेश यादव का उत्तरप्रदेश का ३३ वां मुख्यमंत्री बनना न केवल यूपी के लिए,न केवल मुलायम परिवार के लिए ,न केवल तीसरे मोर्चे के लिए अपितु भारत की जनतांत्रिक व्यवस्था के लिए अत्यंत शुभ सूचक सिद्ध हो सकता है,वशर्ते अखिलेश यादव का व्यक्तित्वऔर समाजवादी पार्टी की नीतियाँ वास्तव में वही हों जो इन चुनावों के दौरान परिलक्षित किये गए हैं .तात्कालिक रूप से मायावती के कुशाशन से आजिज़ आकर और अखिलेश यादव का निहायत ही धीर,गंभीर,जिम्मेदार ,विनम्र और परिपक्व चेहरा देखकर यु पी की जनता ने न केवल मुलायम परिवार के अतीत की गुंडई को नज़र अंदाज़ किया ,अपितु कांग्रेस के सर्वश्रेष्ठ तुरुप के इक्के-श्री राहुल गाँधी का दिल तोड़ने का जोखिम भी लिया.बसपा की हार पर मायावती जी कहती हैं कि मेरी हार के लिए भाजपा और कांग्रेस जिम्मेदार हैं;कि इन दोनों ने मुसलमानों के आरक्षण के सवाल पर विपरीत वयान्बाजी की थी अतः मुसलामानों ने डरकर सपा का दामन थाम लिया और में [मायावती]हार गई वर्ना दलितों के वोट तो मुझे पूरे के पूरे मिलेहैं .मायावती जी का वयान सौ फीसदी सही हो सकता था वशर्ते वे उसमें ये भी जोड़ देतीं की"मेने [मायावती] अपने पांच साल के कार्यकाल में जितना भृष्टाचार किया उतना किसी भी पार्टी ने अतीत में कभी नहीं कियाऔर भविष्य में मेरे अलावा और कोई कर भी नहीं सकेगा क्योंकि अंध समर्थन का वोट बेंक सिर्फ और सिर्फ मेरे पास ही है.बाकि व्यक्तियों,दलों और विचारधाराओं का वोट बैंक स्थाई नहीं है.
कांग्रेस हाई कमान ने भी जैसी की उम्मीद थी अपनी हार पर निराशा जाहिर की.खास तौर से राहुल गाँधी के तूफानी प्रयासों के मद्देनजर यूपी में कांग्रेस को वांछित जन समर्थन की उम्मीद थी किन्तु सांगठनिक आभाव,बढ़ती महंगाई ,उम्मीदवारों की आपसी तकरार और राहुल के इर्द -गिर्द चापलूसों की भरमार ने न केवल कांग्रेस बल्कि राहुल गाँधी जैसे वेहतरीन उभरते नेता का पटिया उलाल कर दिया.मीडिया ने भी शुरूं से ही मुलायम का खुलकर समर्थन किया.कांग्रेस के खिलाफ स्वामी रामदेव,अन्ना हजारे और केजरीवाल लगातार आक्रमण करते रहे और वो अब भी जारी है.मजेदार तथ्य ये है की कांग्रेस तो 'जन-लोकपाल' बिल लोक सभा में लाइ भी थी किन्तु लालू,मुलायम और भाजपा ने उसकी ऐसी की तैसी कर डाली थी.तब भाजपा का ये कहना की 'लोकपाल बिल पास कराना हमारी जिम्मेदारी में नहीं आता' किस नीति और नियत का देव्त्क है?
जो लोग उस समय 'लोकपाल बिल 'के विरोध में सबसे ज्यादा बोले उनमें मुलायमसिंह यादव सबसे उपर हैं.क्या अन्ना ,केजरीवाल और रामदेव को मुलायम परिवार की जीत में लोकपाल के चीथड़े उड़ते नजर नहीं आ रहे हैं?
अब अबूझ तत्व ये है कि इन पांच राज्यों के चुनावों में तथाकथित लोकपाल या भृष्टाचार के लिए सिर्फ कांग्रेस को ही निशाना क्यों बनाया जाता रहा ?स्वामी रामदेव ने राहुल के खिलाफ सेकड़ों फव्तियाँ कसी किन्तु अखिलेश और मुलायम के खिलाफ कभी एकभी शब्द उन्होंने नहीं बोला. जबकि मुलायम के अतीत में झाँकने पर बाबा रामदेव कोई परमानंद की प्रप्ति नहीं कर सकेंगे !निसंदेह राहुल की तुलना में अखिलेश को' यूनिफार्म लेवल प्लेइंग फील्ड' प्राप्त था अतेव यह स्वभाविक है की उन्हें कोई व्यग्रता नहीं थी ,आराम से सहज व्योहार से अपने चुनाव अभियान में सफल रहे..जबकि राहुल के सामने न केवल यूपी ,न केवल कांग्रेस ,न केवल भारत बल्कि स्वयम के भविष्य निर्धारण की चुनौती थी,उनकी माताजी श्रीमती सोनिया गाँधी बीमार थीं,उनकी केंद्र में सत्तारूढ़ सरकार की पूंजीवादी नीतियों से देश की और यूपी की जनता पस्तहाल थी अतः यह स्वभाविक है की वे कई मर्तवा असहज और अनपेक्षित व्यौहार करते हुए जग हंसाई के पात्र बनते रहे.औरकांग्रेस की पराजय के जिम्मेदारभी वे ही ठहराए जा रहे हैं!क्या यह सरासर न इंसाफी नहीं है? अन्ना हजारे,केजरीवाल और स्वयम्भू स्वनामधन्य रविशंकर जैसे बाबा लोग साधू पथ से विचलित होकर केवल कांग्रेस विरोध कीही माला जपेंगे तो संदेह होना स्वभाविक है की ये तत्व किस विचार या शक्ति से प्रेरित हैं.स्वामी रामदेव तो निसंदेह यादव होने के नाते मुलायम सिंह यादव के जातीय बंधू धर्म का निर्वाह करने के आकांक्षी रहे हैं किन्तु सांसारिकता से बंधन मुक्ति की कामना वाले अन्य महा पुरुषों का कांग्रेस द्रोह समझ से परे है!
इसी दरम्यान वामपंथी श्रम संगठनों ने महंगाई,वेरोजगारी,श्रम कानूनों का पालन,विनिवेश ,पेंशन और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को दिए जा रहे वेळ आउट पकेज को लेकर देश भर में जबरदस्त आन्दोलन ,धरना,प्रदर्शन और हड़ताल[२८ फरवरी]आयोजित कर डाले .इससे वामपंथ को, श्रमिक वर्ग को क्या फायदा हुआ ये तो में नहीं जानता किन्तु इतना अवश्य जानता हूँ की कांग्रेस और भाजपा को भारी क्षति हुई है और क्षेत्रीय पार्टियों-अकाली,सपा जैसों को भारी सफलता मिली है.इससे पूर्व विगत २५ वर्षों में अनेक क्षेत्रीय दलों ने अपने -अपने अलगाववादी लबादों में विभिन्न सूबों को ढँक रखा है.क्षेत्रीय,भाषाई,नस्लीय,धार्मिक और आस्मां विकाश के बहाने भारत राष्ट्र की संप्रभुता को खोखला किया जाता रहा है.केवल कांग्रेस,भाजपा और वामपंथियों के पास ही भारत -राष्ट्र के निर्माण और उसके संरक्षण की नीतियाँ और कार्यक्रम हैं .भले ही इन तीनों के विचार बिलकुल जुदा-जुदा हैं किन्तु इनके बारे में देश को संशय नहीं था.किन्तु जबसे गठबंधन दौर चला है इन तीनों का ही स्खलन हुआ है यही वजह है की तीनों राष्ट्रीय ताकतें आज हासिये पर है और जातिवादी,क्षेत्रीयतावादी,मुलाय्म्परिवार,बादल परिवार,जय ललिता परिवार,ममता परिवार ,पटनायक परिवार,अब्दुल्ला परिवार,ठाकरे परिवार और सबसे ऊपर माया परिवार सभी अपने विजन और धारणाओं के अलमबरदार हैं.क्या ये दल-दल जानते हैं की नव-उदारवाद का भारत कितना शिकार बन चूका है? क्या इन दलों के अपरिपक्व सुप्रीमों को मालूम है की भारत के दुनियाभर में और उसके अन्दर आवाम के और देश के दुश्मन कौन हैं?अभी विगत दिनों जब केंद्र सरकार ने शांति और अमन कायम करने बाबत राज्यों और केंद्र में समन्वय बिठकर उचित क़ानून की बात चलाई तोकुछ मुख्यमंत्रियों [गैर कांग्रेसियों] ने एन.सी टी सी.अर्थात राष्ट्रीय आतंकवाद विरोधी केंद्र का घोर विरोध किया. क्या ममता ?क्या नितीश?क्या जयललिता ? क्या मोदी -सभी ने भारत के मजबूत संघीय ढाँचे की खिल्ली उड़ाई!खैर इन क्षेत्रीय क्षत्रपों से देशभक्ति की उम्मीद करना अपने आप को धोखा देने जैसा है किन्तु देश के आंतरिक बिखराव की तब इन्तहां हो जाती है जब कोई कट्टर राष्ट्रवाद के कंधे पर चढ़कर सत्ता में पहुंचा हो और जब देश को किसी खास उपचार की जरुरत हो तो वो व्यक्ति और दल संघीय ढाँचे से ऊपर राज्यों की स्वायत्ता का गुणगान करने लगे.इस विषय पर नरेंद्र मोदी जी और भाजपा के कुछ प्रवक्ताओं के बयानों पर 'संघ परिवार'ने शायद गौर नहीं फ़रमाया वर्ना ये लोग भारत राष्ट्र की संप्रभुता से खिलवाड़ करने की हिम्मत ही नहीं कर पाते.क्षेत्री'य दलों से भले ही हमें भारत राष्ट्र' के शाश्क्तिकरण में वांछित सहयोग नहीं मिले किन्तु राष्ट्रीय दलों और राष्ट्रवादियों को तो इसकी फ़िक्र अवश्य होनी चाहिए.इन घटना क्रमों,विधान-सभा चुनावों की हारजीत से देश की जनता को सावधान रहकर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिवेश में आकलन करना चाहिए.निहित स्वार्थों और गैर जिम्मेदार व्यक्तियों,दलों और समूहों को सत्ता से दूर रखा जाना चाहिए.
जिन्हें तथाकथित जनादेश [विधान सभा में] मिला है और यदि वे किसी राज्य के सिरमौर बना दिए गए है तो उनको यह सदैव स्मरण रखना चाहिए की उनकी ,उनके परिवार की ,उनके प्रदेश की सुरक्षा और समृद्धिके लिए एक मज़बूत 'भारत राष्ट्र' की आवश्यकता बहुत जरुरी है.
श्रीराम तिवारी
आगामी दिनों में राष्ट्रीय एकता और मज़बूत भारत के सामने भयावह चुनोतियाँ के दरपेश होने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता. क्या अखिलेश यादव को मालूम है कि वैश्वीकरण और बाजारीकरण के प्रतिस्पर्धी दौर में 'समाजवादी समाज 'के निर्माण की प्राथमिकताएं क्या हैं? क्या उन्हें मालूम है की वैश्विक आर्थिक संकट की मार से उत्तरप्रदेश के मजदूरों ,किसानों और नौजवानोंतथा प्रदेश की २० करोड़ जनता को कैसे उबारेंगे?वे जिस जात,धरम [यादव=मुस्लिम] की वोटर युति पर सवार होकर सत्तासीन हुएहैं, क्या उसकी उद्दाम आकांक्षों को पूरा कर सकेंगे ? जबकि मायावती जी के शाशनकाल में उत्तरप्रदेश का खजाना लगभग खाली हो चूका है.क्या चुनावी वादों की पूर्ती किसी जादुई व्यक्तित्व या कोरे नारों से संभव है?
हालाँकि समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और सपा -अध्यक्ष मुलायमसिंह के सुपुत्र अखिलेश यादव का उत्तरप्रदेश का ३३ वां मुख्यमंत्री बनना न केवल यूपी के लिए,न केवल मुलायम परिवार के लिए ,न केवल तीसरे मोर्चे के लिए अपितु भारत की जनतांत्रिक व्यवस्था के लिए अत्यंत शुभ सूचक सिद्ध हो सकता है,वशर्ते अखिलेश यादव का व्यक्तित्वऔर समाजवादी पार्टी की नीतियाँ वास्तव में वही हों जो इन चुनावों के दौरान परिलक्षित किये गए हैं .तात्कालिक रूप से मायावती के कुशाशन से आजिज़ आकर और अखिलेश यादव का निहायत ही धीर,गंभीर,जिम्मेदार ,विनम्र और परिपक्व चेहरा देखकर यु पी की जनता ने न केवल मुलायम परिवार के अतीत की गुंडई को नज़र अंदाज़ किया ,अपितु कांग्रेस के सर्वश्रेष्ठ तुरुप के इक्के-श्री राहुल गाँधी का दिल तोड़ने का जोखिम भी लिया.बसपा की हार पर मायावती जी कहती हैं कि मेरी हार के लिए भाजपा और कांग्रेस जिम्मेदार हैं;कि इन दोनों ने मुसलमानों के आरक्षण के सवाल पर विपरीत वयान्बाजी की थी अतः मुसलामानों ने डरकर सपा का दामन थाम लिया और में [मायावती]हार गई वर्ना दलितों के वोट तो मुझे पूरे के पूरे मिलेहैं .मायावती जी का वयान सौ फीसदी सही हो सकता था वशर्ते वे उसमें ये भी जोड़ देतीं की"मेने [मायावती] अपने पांच साल के कार्यकाल में जितना भृष्टाचार किया उतना किसी भी पार्टी ने अतीत में कभी नहीं कियाऔर भविष्य में मेरे अलावा और कोई कर भी नहीं सकेगा क्योंकि अंध समर्थन का वोट बेंक सिर्फ और सिर्फ मेरे पास ही है.बाकि व्यक्तियों,दलों और विचारधाराओं का वोट बैंक स्थाई नहीं है.
कांग्रेस हाई कमान ने भी जैसी की उम्मीद थी अपनी हार पर निराशा जाहिर की.खास तौर से राहुल गाँधी के तूफानी प्रयासों के मद्देनजर यूपी में कांग्रेस को वांछित जन समर्थन की उम्मीद थी किन्तु सांगठनिक आभाव,बढ़ती महंगाई ,उम्मीदवारों की आपसी तकरार और राहुल के इर्द -गिर्द चापलूसों की भरमार ने न केवल कांग्रेस बल्कि राहुल गाँधी जैसे वेहतरीन उभरते नेता का पटिया उलाल कर दिया.मीडिया ने भी शुरूं से ही मुलायम का खुलकर समर्थन किया.कांग्रेस के खिलाफ स्वामी रामदेव,अन्ना हजारे और केजरीवाल लगातार आक्रमण करते रहे और वो अब भी जारी है.मजेदार तथ्य ये है की कांग्रेस तो 'जन-लोकपाल' बिल लोक सभा में लाइ भी थी किन्तु लालू,मुलायम और भाजपा ने उसकी ऐसी की तैसी कर डाली थी.तब भाजपा का ये कहना की 'लोकपाल बिल पास कराना हमारी जिम्मेदारी में नहीं आता' किस नीति और नियत का देव्त्क है?
जो लोग उस समय 'लोकपाल बिल 'के विरोध में सबसे ज्यादा बोले उनमें मुलायमसिंह यादव सबसे उपर हैं.क्या अन्ना ,केजरीवाल और रामदेव को मुलायम परिवार की जीत में लोकपाल के चीथड़े उड़ते नजर नहीं आ रहे हैं?
अब अबूझ तत्व ये है कि इन पांच राज्यों के चुनावों में तथाकथित लोकपाल या भृष्टाचार के लिए सिर्फ कांग्रेस को ही निशाना क्यों बनाया जाता रहा ?स्वामी रामदेव ने राहुल के खिलाफ सेकड़ों फव्तियाँ कसी किन्तु अखिलेश और मुलायम के खिलाफ कभी एकभी शब्द उन्होंने नहीं बोला. जबकि मुलायम के अतीत में झाँकने पर बाबा रामदेव कोई परमानंद की प्रप्ति नहीं कर सकेंगे !निसंदेह राहुल की तुलना में अखिलेश को' यूनिफार्म लेवल प्लेइंग फील्ड' प्राप्त था अतेव यह स्वभाविक है की उन्हें कोई व्यग्रता नहीं थी ,आराम से सहज व्योहार से अपने चुनाव अभियान में सफल रहे..जबकि राहुल के सामने न केवल यूपी ,न केवल कांग्रेस ,न केवल भारत बल्कि स्वयम के भविष्य निर्धारण की चुनौती थी,उनकी माताजी श्रीमती सोनिया गाँधी बीमार थीं,उनकी केंद्र में सत्तारूढ़ सरकार की पूंजीवादी नीतियों से देश की और यूपी की जनता पस्तहाल थी अतः यह स्वभाविक है की वे कई मर्तवा असहज और अनपेक्षित व्यौहार करते हुए जग हंसाई के पात्र बनते रहे.औरकांग्रेस की पराजय के जिम्मेदारभी वे ही ठहराए जा रहे हैं!क्या यह सरासर न इंसाफी नहीं है? अन्ना हजारे,केजरीवाल और स्वयम्भू स्वनामधन्य रविशंकर जैसे बाबा लोग साधू पथ से विचलित होकर केवल कांग्रेस विरोध कीही माला जपेंगे तो संदेह होना स्वभाविक है की ये तत्व किस विचार या शक्ति से प्रेरित हैं.स्वामी रामदेव तो निसंदेह यादव होने के नाते मुलायम सिंह यादव के जातीय बंधू धर्म का निर्वाह करने के आकांक्षी रहे हैं किन्तु सांसारिकता से बंधन मुक्ति की कामना वाले अन्य महा पुरुषों का कांग्रेस द्रोह समझ से परे है!
इसी दरम्यान वामपंथी श्रम संगठनों ने महंगाई,वेरोजगारी,श्रम कानूनों का पालन,विनिवेश ,पेंशन और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को दिए जा रहे वेळ आउट पकेज को लेकर देश भर में जबरदस्त आन्दोलन ,धरना,प्रदर्शन और हड़ताल[२८ फरवरी]आयोजित कर डाले .इससे वामपंथ को, श्रमिक वर्ग को क्या फायदा हुआ ये तो में नहीं जानता किन्तु इतना अवश्य जानता हूँ की कांग्रेस और भाजपा को भारी क्षति हुई है और क्षेत्रीय पार्टियों-अकाली,सपा जैसों को भारी सफलता मिली है.इससे पूर्व विगत २५ वर्षों में अनेक क्षेत्रीय दलों ने अपने -अपने अलगाववादी लबादों में विभिन्न सूबों को ढँक रखा है.क्षेत्रीय,भाषाई,नस्लीय,धार्मिक और आस्मां विकाश के बहाने भारत राष्ट्र की संप्रभुता को खोखला किया जाता रहा है.केवल कांग्रेस,भाजपा और वामपंथियों के पास ही भारत -राष्ट्र के निर्माण और उसके संरक्षण की नीतियाँ और कार्यक्रम हैं .भले ही इन तीनों के विचार बिलकुल जुदा-जुदा हैं किन्तु इनके बारे में देश को संशय नहीं था.किन्तु जबसे गठबंधन दौर चला है इन तीनों का ही स्खलन हुआ है यही वजह है की तीनों राष्ट्रीय ताकतें आज हासिये पर है और जातिवादी,क्षेत्रीयतावादी,मुलाय्म्परिवार,बादल परिवार,जय ललिता परिवार,ममता परिवार ,पटनायक परिवार,अब्दुल्ला परिवार,ठाकरे परिवार और सबसे ऊपर माया परिवार सभी अपने विजन और धारणाओं के अलमबरदार हैं.क्या ये दल-दल जानते हैं की नव-उदारवाद का भारत कितना शिकार बन चूका है? क्या इन दलों के अपरिपक्व सुप्रीमों को मालूम है की भारत के दुनियाभर में और उसके अन्दर आवाम के और देश के दुश्मन कौन हैं?अभी विगत दिनों जब केंद्र सरकार ने शांति और अमन कायम करने बाबत राज्यों और केंद्र में समन्वय बिठकर उचित क़ानून की बात चलाई तोकुछ मुख्यमंत्रियों [गैर कांग्रेसियों] ने एन.सी टी सी.अर्थात राष्ट्रीय आतंकवाद विरोधी केंद्र का घोर विरोध किया. क्या ममता ?क्या नितीश?क्या जयललिता ? क्या मोदी -सभी ने भारत के मजबूत संघीय ढाँचे की खिल्ली उड़ाई!खैर इन क्षेत्रीय क्षत्रपों से देशभक्ति की उम्मीद करना अपने आप को धोखा देने जैसा है किन्तु देश के आंतरिक बिखराव की तब इन्तहां हो जाती है जब कोई कट्टर राष्ट्रवाद के कंधे पर चढ़कर सत्ता में पहुंचा हो और जब देश को किसी खास उपचार की जरुरत हो तो वो व्यक्ति और दल संघीय ढाँचे से ऊपर राज्यों की स्वायत्ता का गुणगान करने लगे.इस विषय पर नरेंद्र मोदी जी और भाजपा के कुछ प्रवक्ताओं के बयानों पर 'संघ परिवार'ने शायद गौर नहीं फ़रमाया वर्ना ये लोग भारत राष्ट्र की संप्रभुता से खिलवाड़ करने की हिम्मत ही नहीं कर पाते.क्षेत्री'य दलों से भले ही हमें भारत राष्ट्र' के शाश्क्तिकरण में वांछित सहयोग नहीं मिले किन्तु राष्ट्रीय दलों और राष्ट्रवादियों को तो इसकी फ़िक्र अवश्य होनी चाहिए.इन घटना क्रमों,विधान-सभा चुनावों की हारजीत से देश की जनता को सावधान रहकर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिवेश में आकलन करना चाहिए.निहित स्वार्थों और गैर जिम्मेदार व्यक्तियों,दलों और समूहों को सत्ता से दूर रखा जाना चाहिए.
जिन्हें तथाकथित जनादेश [विधान सभा में] मिला है और यदि वे किसी राज्य के सिरमौर बना दिए गए है तो उनको यह सदैव स्मरण रखना चाहिए की उनकी ,उनके परिवार की ,उनके प्रदेश की सुरक्षा और समृद्धिके लिए एक मज़बूत 'भारत राष्ट्र' की आवश्यकता बहुत जरुरी है.
श्रीराम तिवारी
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