अपने जीवन को संवारने और निखारने में कुछ शख्स पूरा जीवन गुजार देते हैं ,वक्त आने पर ये अभागे अपने पूर्ववर्ती आजमाए हुए नुख्से या तो विस्मृति के गर्त में खो दिया करते हैं या उन मूल्यों और सिद्धांतों को वक्त आने पर इस्तेमाल करने पर अप्रसांगिक पाते हैं. कुछ लोग इतने खुशनसीब होते हैं की उन्हें बिना मरे स्वर्ग और बिना एडियाँ रगड़े जीवन संग्राम में सब कुछ सहज ही प्राप्त हो जाया करता है. अनुभवजन्य अन्वेषणों का समाजीकरण होना मानवीय समग्र चेतना का विशिष्ठ चरित्र और स्वभाव हुआ करता है किन्तु मार्क्सवादी दर्शन परम्परा की अनेक सकारात्मक और कल्याणकारी स्थापनाओं के बरक्स 'ज्ञान'का अधिनायकीकरण एक बड़ा गति-अवरोधक सावित हुआ है.आम जनता के सहज बोधगम्य संदेशों का बौद्धिक ज़टलीकरन होते जाना भी प्रतिक्रांतियों का उत्प्रेरक रहा है.आशा है की इस दौर में चल रहे विमर्शों में इस मुद्द्ये पर गौर फ़रमाया जाएगा.खास तौर से सी पी आई एम् की २० वीं कांग्रेस जो की ४-९ अप्रैल -२०१२ में सम्पन्न होने जा रहीहै उससे अपेक्षा है कि.इन जमीनी सच्चाइयों पर विज्ञान और दूरसंचार क्रांति के बरक्स गौर फरमाया जाये.
आज के नव्य-उदारवादी बाजारीकरण के दौर में भी भारतीय या विश्व के विखंडित समाज की परम्परागत सामंतीय नकारात्मकता सर चढ़कर बोल रही है.सामंत युग में जमींदार,रजवाड़े,अमीर-उमराव और राजा- महाराजा जिस अमानवीय और निरंकुश आचरण से तत्कालीन आम-जनता -मेहनतकशों-मजदूरों ,किसानो और व्यापारियों का शोषण किया करते थे ;वो हत्या,बलात्कार,लूट,रिश्वतखोरी,जमाखोरी शोषण और भयानक दरिंदगी का सिलसिला इस दौर में भी वद्स्तूर जारी है. इस अमानवीय शोषण -उत्पीडन का कारण इंसानी फितरत है इस सोच के मद्देनज़र छुटकारा पाने के अतीत में जो प्रयास किये गए उन्हें भले ही 'क्रांति'जन-क्रांति या 'महान क्रांति ' कहा गया है.किन्तु क्या वे वास्तविक क्रांतियाँ कहीं जा सकती हैं?
इतिहास गवाह है कि प्रत्येक दौर के निरंकुश शाशकों को मेहनतकश आवाम के क्रांतिकारी संघर्षों ने
" मानवता,स्वतंत्रता,बंधुता और समानता "के सबक सिखाये हैंकिन्तु वोअन्याय और शोषण का सिलसिला तो आज भी निरंतर जारी है. ,वर्तमान नव्य-उदारवादी- पूंजीवादी -वैश्विक बाजारीकरण की आर्थिक-राजनैतिक व्यवस्था के परिणाम न केवल वर्तमान मनुष्य के लिए अपितु भावी पीढ़ियों के लिए भी घातक होंगे इस सम्भावना के बरक्स इस निजाम को बदलने की कार्यवाहियां कामोवेश हर मुल्क में,हर समाज में ,हर महाद्वीप में और हर उद्योग में सतत जारी हैं.भारत में वाम पंथ[खास तौर से सी पी आई एम्] के नेत्रत्व में मेहनतकश मजदूर,किसान,ठेका मजदूर,सरकारी-गैरसरकारी कर्मचारी/अधिकारी धीरे -धीरे संगठित हो रहे हैं . बढ़ती हुई महंगाई,श्रम कानूनों को उद्द्योगपतियों के पक्ष में पलटना,आर्थिक संकट या आर्थिक मंदी का भार मेहनतकश आम जनता पर धकेलना,गरीबों का और ज्यादा gareeb होना और अमीरों की ameeri में गुणात्मक बृद्धि ने संयुक्त संघर्ष के साथ-साथ देश और ,समाज के भीतर वर्गों के आपसी द्वन्द की परिणिति को शाशक वर्गों के पक्ष में ले जाने वाले दक्षिणपंथी अवयवों के सामाजिक -सांस्कृतिक आतंक की मार झेलने से इनकार करना शुरू कर दिया है.सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक क्षेत्रों में भले ही कोई बहुत बड़ा उलटफेर नजर नहीं आता हो किन्तु विगत २८ फरवरी-२०१२ की शानदार 'अखिल भारतीय ओउद्योगिक हड़ताल 'में देश के १० करोड़ मेहनतकशों की शिरकत ने शाशक वर्ग को चेतावनी दे दी है की .....केन्द्रीय श्रम संगठनों की व्यापक एकता से इस देश की आम जनता में संघर्षों के लिए साह्स का संचार हुआ है और उम्मीद है की यह संघर्षों के इतिहास में चमकदार मील का पत्थर सावित होगा. और एक दिन वो सुबह होगी जब श्रम के सम्मान में आकाशवाणी का उद्घोष होगा .....हम मेहनतकश जग बालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे .....इक खेत नहीं ...इक देश नहीं ...हम सारी दुनिया मांगेंगे.....
कमाने वाला खायेगा....लूटने वाला जाएगा....
नया जमाना आयेगा....आयेगा भई आयेगा....
लाल लाल लहराएगा...इन्कलाब आएगा.....
श्रीराम तिवारी
आज के नव्य-उदारवादी बाजारीकरण के दौर में भी भारतीय या विश्व के विखंडित समाज की परम्परागत सामंतीय नकारात्मकता सर चढ़कर बोल रही है.सामंत युग में जमींदार,रजवाड़े,अमीर-उमराव और राजा- महाराजा जिस अमानवीय और निरंकुश आचरण से तत्कालीन आम-जनता -मेहनतकशों-मजदूरों ,किसानो और व्यापारियों का शोषण किया करते थे ;वो हत्या,बलात्कार,लूट,रिश्वतखोरी,जमाखोरी शोषण और भयानक दरिंदगी का सिलसिला इस दौर में भी वद्स्तूर जारी है. इस अमानवीय शोषण -उत्पीडन का कारण इंसानी फितरत है इस सोच के मद्देनज़र छुटकारा पाने के अतीत में जो प्रयास किये गए उन्हें भले ही 'क्रांति'जन-क्रांति या 'महान क्रांति ' कहा गया है.किन्तु क्या वे वास्तविक क्रांतियाँ कहीं जा सकती हैं?
इतिहास गवाह है कि प्रत्येक दौर के निरंकुश शाशकों को मेहनतकश आवाम के क्रांतिकारी संघर्षों ने
" मानवता,स्वतंत्रता,बंधुता और समानता "के सबक सिखाये हैंकिन्तु वोअन्याय और शोषण का सिलसिला तो आज भी निरंतर जारी है. ,वर्तमान नव्य-उदारवादी- पूंजीवादी -वैश्विक बाजारीकरण की आर्थिक-राजनैतिक व्यवस्था के परिणाम न केवल वर्तमान मनुष्य के लिए अपितु भावी पीढ़ियों के लिए भी घातक होंगे इस सम्भावना के बरक्स इस निजाम को बदलने की कार्यवाहियां कामोवेश हर मुल्क में,हर समाज में ,हर महाद्वीप में और हर उद्योग में सतत जारी हैं.भारत में वाम पंथ[खास तौर से सी पी आई एम्] के नेत्रत्व में मेहनतकश मजदूर,किसान,ठेका मजदूर,सरकारी-गैरसरकारी कर्मचारी/अधिकारी धीरे -धीरे संगठित हो रहे हैं . बढ़ती हुई महंगाई,श्रम कानूनों को उद्द्योगपतियों के पक्ष में पलटना,आर्थिक संकट या आर्थिक मंदी का भार मेहनतकश आम जनता पर धकेलना,गरीबों का और ज्यादा gareeb होना और अमीरों की ameeri में गुणात्मक बृद्धि ने संयुक्त संघर्ष के साथ-साथ देश और ,समाज के भीतर वर्गों के आपसी द्वन्द की परिणिति को शाशक वर्गों के पक्ष में ले जाने वाले दक्षिणपंथी अवयवों के सामाजिक -सांस्कृतिक आतंक की मार झेलने से इनकार करना शुरू कर दिया है.सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक क्षेत्रों में भले ही कोई बहुत बड़ा उलटफेर नजर नहीं आता हो किन्तु विगत २८ फरवरी-२०१२ की शानदार 'अखिल भारतीय ओउद्योगिक हड़ताल 'में देश के १० करोड़ मेहनतकशों की शिरकत ने शाशक वर्ग को चेतावनी दे दी है की .....केन्द्रीय श्रम संगठनों की व्यापक एकता से इस देश की आम जनता में संघर्षों के लिए साह्स का संचार हुआ है और उम्मीद है की यह संघर्षों के इतिहास में चमकदार मील का पत्थर सावित होगा. और एक दिन वो सुबह होगी जब श्रम के सम्मान में आकाशवाणी का उद्घोष होगा .....हम मेहनतकश जग बालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे .....इक खेत नहीं ...इक देश नहीं ...हम सारी दुनिया मांगेंगे.....
कमाने वाला खायेगा....लूटने वाला जाएगा....
नया जमाना आयेगा....आयेगा भई आयेगा....
लाल लाल लहराएगा...इन्कलाब आएगा.....
श्रीराम तिवारी
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