शुक्रवार, 24 जून 2011

.भृष्टाचार विरोध के बहाने जनतंत्र पर हमला ..बहुत नाइंसाफी है.

नवउदारवादी,बाजारीकरण की आधुनिकतम व्यवस्था में मानवीय संवेदनाओं और मूल्यों का प्रवाह अवरुद्ध सा होता जा रहा है.
एक ओर आमरण अनशन की धमकियों का कोलाज़ व्यक्ति विशेष की मर्जी को पोषित नहीं किये जाने पर बदनुमा दाग बनता जा रहाहै,दूसरी ओर सम्पदा के विन्ध्याचल मेहनतकश जनता के सूर्य का रास्ता रोकने पर अडिग हैं.गरीब बच्चों के एडमीशन नहीं हो रहे 
,कालेजोंस्कूलों में या तो जगह नहींया पहुँच वालों ,पैसे वालों  ने  अपनीअपनी जुगाड़ जमा ली है.महंगी किताबें,आसमान छूती फीस और कोचिंग की मारामारी में अब प्रतिस्पर्धा सिर्फ उच्च मद्ध्य्म वर्ग 
तक सिमिट गई है.पेट्रोल,डीजल,केरोसिन और रसोई गैस में हो रही मूल्यवृद्धि  हर महीने  अपने कीर्तिमान पर पहुँच रही है.अब विदेशी काले धन ,भृष्टाचार और लोकपाल के लिए अनशन की नौटंकी करने वाले चुप हैं.
                      वेशक भृष्टाचार ने पूरे देश को निगल लिया है किन्तु उसके खिलाफ संघर्ष करने का माद्दा किसी व्यक्ति विशेष या संविधानेतर सत्ता केंद्र में नहीं हो सकता.हजारे और रामदेव के दिखावटी दांतों में दम नहीं कि उसकी चूल भी हिला सकें.वेशक एक जनतांत्रिक समाज में सभी को ये हक़ है किदेशकेहितअनहितकोअपनेअपने ढंग से अभिव्यक्त करे.अन्ना,रामदेवया अन्य समकालिक स्वयम भू अवतारी{नेता नहीं?}पुरुषों कोभी अपनी राय रखने का अधिकारहै.किन्तुकिसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह संभव नहीं कि एकव्यक्तिया समूह कीरायको सवा अरब लोगों पर जबरन थोप दी जाए.किसी गैर राजनीतिक वफादारी या किसी खास राजनीतिक पार्टी के अजेंडे को आगे बढ़ानेके लिए जन-लामबंदी गैर बाजिब है.यदि कोई व्यक्ति 
जिसे धार्मिक ,आध्यत्मिक या योग विद्द्या से लाखों लोगों की वफादारी हासिल है तो वह इस वफादारी का इस्तेमाल निहित स्वार्थियों की राजनैतिक आकांक्षा पूर्ती का साधन नहीं बना सकता.
यदि अपने अराजनैतिक कृत्य से आकर्षित जन-समूह को वह किसी अन्य खास और गुप्त राजनैतिक अजेंडे के प्र्योनार्थ  इस्तेमाल करने की चेष्टा करेगा तो सिवाय पूंजीवादी अमानवीय भृष्ट व्यवस्था के साक्षात्कार के उसकी नज़रों में बाकी सब शून्य होता चला जायेगा.
     एक धर्मनिरपेक्ष राजनैतिक व्यवस्था के भीतर शासक वर्ग को भी यह अख्तियार नहीं की किसी खास बाबा या स्वयम्भू नेता की जिद पूर्ती करे.यदि कोई दल या सरकार किसी खास धरम मज़हब या गुट की धमकियों के आगे झुकती है या राजनैतिक छुद्र लाभ के लिए नकारात्मक नीतिगत समझौता करती है तो  यह भी निखालिस तुष्टीकरण नहीं तो और क्या है?
     हमारा निरंतर ये प्रयास रहना चाहिए कि भृष्टाचार,कालेधन और अन्य किसी भी मूवमेंट के नाम पर ठगी न हो.वास्तविक संघर्ष की पहचान तो तभी सम्भव है जब पूंजीवादी मूल्योंकि ,महंगाई की,वेरोजगारी की ,धार्मिक संस्थानों में अवैध धन की और परलोक सुधरने के नाम पर खुद का यह लोक सुधारने वालों की भी इन अनशनों ,धरनों और धमकियों में जिक्र हो.
        
              श्रीराम तिवारी

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