आधुनिकतम प्रगतिशील विचारों के पोषक तथा 'बियांड द विज़न' रखने वालों को बेहतर मालूम है कि भारत और भारत की जनता के प्रगति पथ के अवरोधक तत्व कौन-कौन से हैं.लेकिन सिर्फ जानने और मानने से ही अभीष्ट की सिद्धि नहीं हो जाती! यदि अवरोध नहीं हट सके तो कोई खास फर्क नहीं पढता किन्तु यदि अवरोध तीव्रता से बढ़ते ही रहें और और प्रतिगामी ताकतें एकजुट होकर सर उठाने लगें तो सकारात्मक परिवर्तनों के लिए संघर्ष रत विचारों की लकीर पीटने के बजाय यह उचित होगा किमौजूदा दौर के जनांदोलनों को सहयोग किया जाए. 'if you can not deafet ,you join them'वेशक जो लोग अतीत की बर्बर -अमानवीय ,काल्पनिक ,सामंती और चमत्कारिक व्यवस्थाओं में भारत के संरक्षण-संवर्धन-पुनर्स्थापन की आशा रखते हैं उन्हें अधोगामी या पुरातन पंथी कहा जाता है!इनके अविवेकी दार्शनिक ध्रुव पर अन्धविश्वाश ,पुरातन रूढ़िवादिता,भेड़चाल,अवैज्ञानिकता और दासत्वबोध का चुम्बकीय क्षेत्र हुआ करता है!यदि ऐंसे ध्रुव वर्तमान दौर की राजनैतिक-सामजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था के नकारात्मक व्युत्पन्न समेटकर यदा-कदा राजनैतिक,सामाजिक,या आर्थिक क्रांति का सपना दिखाते हैं ,तो बजाय तठस्थ रहने के,बजाय निर्मम विरोध के यह ज्यादा सर्वहितकारी होगा कि इन 'हलचलों'{अन्ना एवं रामदेव के संघर्षों} में भी सकारात्मकता के निहित बीजों को खोजने की कोशिश की जाए. जन आकांक्षाओं को संवेदनाओं के धरातल पर न केवल वैचारिक शिद्दत केसाथ अपितु अपने उपलब्ध समस्त वैज्ञानिक संसाधनों के साथ भरसक प्रयास किये जाने की आवश्यकता है.खेद है कि देश के वृहद और दमित शोषित सर्वहारा की ओर से इन प्रासंगिक और ज्वलंत सवालों को उठाने वालों को संदेह की नज़र से देखा जा रहा है.हालाँकि देश के संगठित मजदूर-किसान आन्दोलन ने पहले से ही ५ मुद्दों -महंगाई,श्रम कानूनों में सुधार,विनिवेश,भृष्टाचार और पब्लिक दिस्ट्रीव्युसन सिस्टम में सुधारों को लेकर निरंतर अपना संघर्ष जारी रखा है और आगामी दिनों में वे इन मुद्दों पर राष्ट्रव्यापी संघर्ष को और तेज करने वाले हैं.किन्तु देश और दुनिया में आज जिस सूचना माध्यम और प्रोन्नत मीडिया की तूती बोल रही उसके सहयोग बिना सफलता की उम्मीद कम ही है.इससे बेहतर ये हो सकता है कि कोरे राष्ट्रवादी और अराजनैतिक समूहों और व्यक्तियों के बिखरे हुए आंदोलनों को एकजुट कर मजदूर वर्ग अपनी लड़ाई को सही दिशा देने का प्रयास करे.यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि देश पर किसी बाहरी आक्रमण की स्थिति में जो भी देश का संवैधानिक तंत्र है भले ही वो देशी शाशकों के हित साधन मेंही निरत क्यों न हो ,आंतरिक संघर्ष को उस आपातकाल में स्थिगित किया जाना चाहिए.हर कीमत पर अहिंसा और भारतीय मूल्यों के साथ संवैधानिक दायरे में ही किसी बड़े क्रांतीकारी सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक और कानूनी परिवर्तनों को अंगीकृत किया जाना चाहिए.सामूहिक नेत्रत्व पर व्यक्ति का प्रभाव नहीं होने देना चाहिए.
उन्नीसवीं शताब्दी में अंधाधुन्द वैज्ञानिक आविष्कारों के परिणामस्वरूप जब आवश्यकताओं ने आवागमन और संचार साधनों को खास से आम बना दिया तो सामाजिक,आर्थिक क्रांति ने सामंतशाही को श्रीहीन कर दिया.सामंतवाद को अपने वैभव के कंगूरे से बेदखल करने के लिए जहां -जहां जनता ने व्यपारियों और कम्पनियों को तवज्जो दी,वहाँ-वहाँ पूंजीवादी प्रजातांत्रिक व्यवस्था कायम होती चली गई.सम्पूर्ण यूरोप और दक्षिण अमेरिकी महादीप से लेकर पूर्वी गोलार्ध में भी व्यवस्था परिवर्तन में पूंजीवाद की भूमिका रही थी.चूँकि भारत एक गुलाम देश था अतेव यहाँ पर सिस्टम चलाने के लिए सामंतशाही को जिन्दा रखा गया.स्वधीनता संग्राम के दौरान जब दुनिया में दूसरा विश्व युद्ध चल रहा था तब भारत के साहित्यकारों,विलायत पलट वकीलों और कुछ हद तक मजदूरों-किसानों के अपने-अपने सीमित संघर्षों ने ब्रिटिश हुक्मरानों को बाध्य किया कि इंग्लैंड की तर्ज पर भारत में भी 'न्याय का शासन हो'भारत में भी मानवीय मूल्यों की कद्र हो.
रहिमन अँसुआ नयन धर,जिय दुःख प्रकट करेय!
जाहि निकारो गेह तें ,कस न भेद कही देय!!
श्रीराम तिवारी
उन्नीसवीं शताब्दी में अंधाधुन्द वैज्ञानिक आविष्कारों के परिणामस्वरूप जब आवश्यकताओं ने आवागमन और संचार साधनों को खास से आम बना दिया तो सामाजिक,आर्थिक क्रांति ने सामंतशाही को श्रीहीन कर दिया.सामंतवाद को अपने वैभव के कंगूरे से बेदखल करने के लिए जहां -जहां जनता ने व्यपारियों और कम्पनियों को तवज्जो दी,वहाँ-वहाँ पूंजीवादी प्रजातांत्रिक व्यवस्था कायम होती चली गई.सम्पूर्ण यूरोप और दक्षिण अमेरिकी महादीप से लेकर पूर्वी गोलार्ध में भी व्यवस्था परिवर्तन में पूंजीवाद की भूमिका रही थी.चूँकि भारत एक गुलाम देश था अतेव यहाँ पर सिस्टम चलाने के लिए सामंतशाही को जिन्दा रखा गया.स्वधीनता संग्राम के दौरान जब दुनिया में दूसरा विश्व युद्ध चल रहा था तब भारत के साहित्यकारों,विलायत पलट वकीलों और कुछ हद तक मजदूरों-किसानों के अपने-अपने सीमित संघर्षों ने ब्रिटिश हुक्मरानों को बाध्य किया कि इंग्लैंड की तर्ज पर भारत में भी 'न्याय का शासन हो'भारत में भी मानवीय मूल्यों की कद्र हो.
मिंटो रेफोम्स ,ट्रेड बिल एक्ट या बंगाल विभाजन जैसे अनेक दमनात्मक क़दमों की प्रतिक्रिया के गर्भ से भारत में पूंजीवादी व्यवस्था कायम होती चली गई किन्तु आजादी के बाद जहां शहरों ने पूंजीवादी विकाश का रास्ता अपनाया वहीँ गाँव में जमींदारी व्यवस्था अपने संशोधित रूप में देश की मेहनत कश जनता का यथावत शोषण करने में जुटी .इस तरह भारत में एक साथ दोनों शोषणकारी व्यवस्थाओं का समिश्रण हावी रहा.जिन्होंने इस वर्ण संकरीय व्यवस्था को पोषित किया वे पूंजीवादी-सामंती सरमायेदार विगत ६५ वर्षों से देश की सत्ता पर कभी कांग्रेस,कभी जनता पार्टी,कभी भाजपा,कभी गठबंधन और कभी एनडीए -यूपीए के नाम से काबिज रहे है.चूँकि जनता इन सभी से उकताने लगी है सो कभी कोई गांधीवादी ,कभी कोई स्वामी को आगे बढाकर देश पर काबिज स्वार्थी ताकतें अब नए अवतार में आकर लूट का सिलसिला जारी रखने के लिए प्रयत्नशील हैं. आजादी के ५-१० साल बाद ही वे लोग जो स्वाधीनता संग्राम में कुटते-पिटते रहे ,जेल गए और फिर भी जीवित बच रहे उन्होंने कहना आरम्भ कर दिया था कि 'इससे अच्छा तो अंग्रेजी राज था' 'इतनी महंगाई तब नहीं थी'इतना भाई-भतीजाबाद और भृष्टाचार तो अंग्रेजी राज में नहीं था' ये जुमले मेने स्वयम अपने कानो से तब सुने थे जब भारत की आजादी सिर्फ २० बरस की थी. पंडित जवाहरलाल नेहरु के मरणोपरांत देशी अंग्रेजों ने देश की अपढ़ औरवर्गों में विभाजित जनता को लूटने में कोई कसर नहीं छोडी.आजादी के फ़ौरन बाद जब अंग्रेज देश छोड़ कर चले गए तो देश के उस समय जो भी पढ़े -लिखे लोग थे उन्हें सरकारी उच्च सेवाओं में चुन लिया गया .यह स्वभाविक ही था कि उच्च जातियों -ब्राहमण,बनिया ,ठाकुर ,कायस्थ,जैन और कुछ दवंग पिछड़ी जातियों के पढ़े लिखे उन्हें लोगों को अधिकांस सरकारी सेवाओं में मौका मिला जो तदनुरूप पढ़े लिखे थे.समाज के सम्पन्न शहरी भद्र-जनोंऔर ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े जमींदारों की ओलादों को ही यह सौभाग्य प्राप्त था कि अंग्रेजों की जगह पर ये स्वदेशी प्रभु वर्ग देश को लूटें और निरीह-असहाय मेहनतकश जनता के खून पसीने की कमाई से बड़े -बड़े कृषि फार्म खरीदें,शहरों में बहुमंजिला भवन बनाये और स्विस बैंक में काला धन जमा करें.इसी व्यतिक्रम के लिए इन दिनों राजनैतिक कुकरहाव जारी है.इसकी काट के रूप में जिन विद्द्वानों ने 'जन-लोकपाल बिल'उठाया उसको अमली जामा पहनाने के लिए अनशन और धरने-आन्दोलन किये उसे देश के विराट संगठित मजदूर आन्दोलन का समर्थन क्यों नहीं मिलना चाहिए?
आजादी के बाद से २०११ तक भारत में जितने भी सरकारी कर्मचारी -अफसर और सार्वजानिक उपक्रमों के कार्मिक हुए हैं देश कि लूटी गई दौलत का ९०%धन उनके पास है पहले ये वेतन भोगी रहे ,फिर पेंशन भोगी होते हुए 'टीनू-आनद -जोशी 'की तरह अरबों की सम्पदा अपने ऐयाश वारिशों को छोड़ गए है.मात्र ५%भृष्टाचार राजनीतिज्ञों ने और ५%भृष्टाचार -मजबूरी वश सर्वहारा वर्ग के हिस्से आता है.रातों रात अपने रुत्वे और पहुँच की ताकत से जिन लोगों ने अरबों की संपदा खड़ी कर ली है वे अब वारेन बफेट और बिल गेट्स की तर्ज पर पूंजीवाद द्वारा भृष्टाचार से संचित धन को उसके असली हकदारों को वापिस कराने का सपना देखने लगे हैं.वे समझते है कि क़ानून बनाने या प्राणायाम से यह करिश्मा हो जाएगा.जिन्होंने देश की संपदा लूटकर समृद्धि के पहाड़ खड़े कर लिए ;उन्हें यदि कोई बाबा रामदेव या कोई अन्ना हजारे सही राह दिखा सकता है तो मुझे कोई आपत्ति क्यों होना चाहिए? जब हम अन्ना का साथ नहीं देंगे तो कांग्रेस उनको ले भागेगी और रामदेव बाबा को हम दुत्कारेंगे तो भाजपा उन्हें गले क्यों नहीं लगाएगी?रहिमन अँसुआ नयन धर,जिय दुःख प्रकट करेय!
जाहि निकारो गेह तें ,कस न भेद कही देय!!
श्रीराम तिवारी
वस्तुतः पूंजीवादी शक्तियों ने अन्ना एवं रामदेव को आगे ही इसलिए किया है ताकि पूंजीवाद को जनाक्रोश से बचाया जा सके.दोनों में से कोई भी धार्मिक भ्रष्टाचार का विरोध नहीं करना चाहता जो आर्थिक भ्रष्टाचार की जननी है.धार्मिक भ्रष्टाचार का ही परिणाम है लखनऊ के प्रो.की पुत्री का ठगा जाना,लूटना और अपना तिरस्कार कराना .जब तक दोनों आंदोलनकारी धार्मिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाने को राजी न हों उन्हें सहयोग करने का अर्थ होगा उनकी चाल में फंसना.
जवाब देंहटाएंआदरणीय माथुर जी आप सही कह रहे हैं,किंतु अब हमेंभी यह समझने की ज़रूरत है कि हमारी प्रासंगिकता के लिए यह
जवाब देंहटाएंनितांत ज़रूरी है कि अन्ना हज़ारे या बाबा रामदेव चाहे जैसें भी हों किंतु जनता की असहनीय बैचेनी को ये लोग अपने तरीके से
परिभाषित करते हुए भारत की वर्तमान भृष्ट व्यवस्था को बदलने जैसी बातें कर वामपंथ के अजेंडे को अपना बताकर आगे
से देश की दक्षिण पंथी ओर पूंजीवादी पार्टियों को नये विश्वषनीय कलेवर में पेश कर सकते हैं. क्या वामपंथ को यह सब चुपछाप देखते रहना चाहिए?नहीं!नहीं!नहीं!यही मेरे आलेख की विषय वस्तु है. आपसे निवेदन है कि ज़मीनी सचाईयों के मद्देनज़रमार्ग दर्शन करें..