सोमवार, 27 जून 2011

इंसानियत की राह में धर्म के गतिरोधक.

 इंसान  ने अपनी पृकृति प्रदत्त नैसर्गिक वौद्धिक बढ़त से जब पृथ्वी पर थलचरों ,जलचरों और नभचरों पर विजय हासिल की  होगी तो उसके सामने नित नई-नई प्राकृतिक ,कबीलाई और पाशविक वृत्तियों की  चुनौतियां भी आयीं  होगी.पहिये और आग के आविष्कार से लेकर परिवार,कुटुंब,समाज,राष्ट्र और 'वसुधेव कुटुम्बकम' तक आते -आते इंसान जागतिक स्तर पर भौतिकवादी,ईश्वरवादी,अनीश्वरवादी,भोगवादी,अपरिग्राहवादी,करुनावादी और प्रुकृतिवादी बन बैठा होगा.
पुरातन पाषाण कालीन बर्बर आदिम कबीलाई समाजों ने भोगौलिक और अन्यान्य कारणों से जब आग,पानी,हवा,समुद्र,नदियाँ ,पर्वतों से हार मानी होगी तभी वह किसी अदृश्य अबूझ अलौकिक परा शक्ति के चक्कर में पड़ा होगा. इस पृष्ठभूमि पर आधारित धर्मों-दर्शनों के पास अपनी प्रकृति निष्ठता का अवदान मौजूद है.इन प्राचीन धर्म-दर्शनों में मानवीय उदात्त आदर्शों ,त्याग,बलिदान और समस्त संसार को सुखमय -निर्भय करने का अतुलनीय आह्वान किया गया है.इन प्राचीन धर्मों में 'सनातन-भारतीय-वैदिक धर्म' पारसी धर्म,और यहूदी धर्म प्रमुख है.
    कहने को भारत समेत अखिल विश्व में  दर्जनों धर्म -मजहब हैं किन्तु वे सभी अपनी -अपनी परिधि में किसी खास गुरु,पैगम्बर,या उसके संस्थापक की शिक्षाओं पर केन्द्रित रहते हुए ,निरंतर आक्रामक रहते हैं.क्योकि उन्हें  अपने धर्म मज़हब की जीवन्तता के अलावा उससे जुड़े अन्य सरोकारों की निरंतर फ़िक्र रहती है. कुछ धर्म मजहब तो पूर्ण रूपेण शस्त्र आधारित रहे हैं.कुछ ही हैं जिन्होंने अपने पूर्ववर्ती प्राचीन धर्मों की शास्त्र परम्परा की नक़ल की है.
 जो मध्य युगीन सामंती दौर के धर्म मज़हब हैं उनमें अपने  कुटुंब और समाज की रक्षा हेतु किया गए सांसारिक प्रयासों का अवदान निहित है.पहले वाले पुरातन धर्म-दर्शन खास तौर से भारतीय सनातन धर्म का ऐलान थ कि;-

    
  अयं निजः परोवेति  गणना  लघु चेतसाम !
 उदार चरितानाम तू वसुधैव कुटुम्बकम !!

प्राचीन वैदिक ऋषि कहता है:-

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया !
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु ,माँ कश्चिददुख्भागवेत !!

 भारतीय 'सनातन धर्म'जिसे कतिपय विदेशी आक्रान्ताओं और विधर्मियों ने  हिन्दू धर्म' बना दिया है
आज न केवल स्वयम अपने ही नादान अनुशरण कर्ताओं से बल्कि अपने अनुषंगी उप्धर्मों से परेशान है.दुनिया में कुछ धर्म केवल आतंक और उन्माद की शक्ल अख्त्यार कर चुके हैं वे भी भारत में आने के बाद तो और ज्यादा ही आक्रामक और कंजर्वेटिव हो गए हैं.इन सभी मध्ययुगीन व्यक्ति आधारित धर्म-मज्हवों के निरंतर प्रहारों से  दुनिया के प्राचीन धमों{हिन्दू,यहूदीइत्यादि}ने भी अतीत के आदर्शवाद,पुन्य्वाद,मानवतावाद और करुना-प्रेम के सिद्धांतों को परे धकेल दिया हैजो धर्म अपने अनुयाइयों को सुबह -सुबह प्रार्थना में सिखाता था कि "सभी सुखी हों -सभी निरोगी हों'  वह अब  तिजारत,सियासत और प्रतिहिंसा का कीर्तीमान गढ़ रहा है.

    आज धरम मजहब के नाम पर सरकारी जमीन और भोली भाली जनता को सरे आमलुटते  देखा जा सकता है. आजादी के बाद पाकिस्तान से भागकर आने वालों में धार्मिक कट्टरता का असर होना लाजिमी  था किन्तु ततकालीन नेहरु सरकार ने इस तरफ ध्यान नहीं दिया कि जो लोग पाकिस्तान से विस्थापित होकर आ रहे हैं वे सरकारी जमीनों पर कब्ज़ा कर कालोनियां काट कर अरब पति बनजायेंगे.साथ ही जहां सड़क बनने की योजना थी   वहाँ मंदिर,मस्जिद,चर्च,और गुरुद्वरा बना कर जनता और देश के विकाश में निरंतर बाधाएँ खडी करेंगे.
  आज देश के हर शहर में जबकि  जमीनों के भाव आसमान पर हैं और विकाश के लिए सड़कों का चौडीकरण नितांत आवश्यक है ,ऐंसे में कुछ धर्मांध और स्वार्थी लोगों कि पूरी कोशिश रहती है कि भले सड़क का काम सालों -साल रुका रहे,लेकिन उनके पूजा स्थल[मंदिर,मस्जिद,गुरुद्वारा,चर्च}को आंच नहीं आना चाहए.आज कोई भी आकर देख ले मेरे शहर इंदौर में ये बीभत्स नज़र आज भी मौजूद है.
               इंदौर के किनारे से होकर एक राष्ट्रीय राजमार्ग गुजरा है जिसे आगरा-बाम्बे रोड कहते हैं.
राज्य सरकार ,केंद्र सरकार और स्थानीय प्रशाशन के संयुक्त प्रयाशों से [सभी राजनैतिक पार्टियों के सहयोग से}यह रोड बी आर टी एस योजनान्तर्गत सिक्स लेन किया जा रहा है.यह काम लगभग चार सालों से चल रहा है इस रोड के चोड़ीकरण  में अरबों रूपये खर्च हो चुके हैं.यह देवास से महू तक कुछ इस प्रकार बंना है कि शहर की दुर्दशा हो रही है.इस रीड पर जहां कहीं मंदिर थे {जैन और हिन्दू} वे तो हटा दिए गए किन्तु जहां कहीं मस्जिद और गुरुद्वारा हैं उन्हें बीच सड़क पर ज्यों
का त्यों छोड़कर सड़क कहीं बहुत चौड़ी तो कहीं इतनी सकरी बनाई गई   है कि अतिक्रमण स्पष्ट नज़र आता है. हजार मिन्नत खुशामद के बावजूद ये धर्म स्थल हट नहीं प् रहे हैं.
    क्या मंदिर ,मस्जिद,गुरुद्वारा  बीच सड़क पर होना जरुरी है?तरक्की और आम आदमी की सुविधा के लिए यदि सड़क चौड़ी हो जायेगी तो कोनसा धर्म कहता है कि नहीं हमें तो सड़क नहीं बीच सड़क पर अपने धर्म की दूकान चलाना है.
    हम तो धरम के ठेकेदार हैं,हमें बड़ा मज़ा आता है जब कलेक्टर-एसपी हमारी चिरोरी करते हैं.और हम उन्हें दुत्कार कर दंगा भड़काने की धमकी देते हैं. यही पर अमन पसंद नागरिक ,धर्मनिरपेक्ष नागरिक को नरेंद्र मोदी भाने लगता है.गुजरात में साम्प्रदायिक उन्माद को किसी ने सही नहीं नहीं माना किन्तु पूरे गुजरात में सभी धर्मस्थलों को सड़कों से हटाने में नरेंद्र मोदी जी ने जिस धर्मनिरपेक्षता का शिद्दत से पालन किया क्या शिवराजसिंह चौहान को मध्य प्रदेश और खास तौर से इंदौर में लागू करने के लिए किसी के हुक्म की दरकार है ?
           क्या धर्मस्थलों को सड़क किनारेया बीच सड़क पर  ही होना जरुरी है?धर्म मज़हब क्या हठधर्मिता का ही दूसरा नाम है?
          बच्चा बोला देखकर मस्जिद [मंदिर,गुरुद्वरा,चर्च] आलीशान!
         एक अकेले खुदा का ,इतना बड़ा  मकान!!!



    क्या बंनाने आये थे ?क्या बना बैठे? कहीं मंदिर बना बैठे ,कहीं मस्जिद बना बैठे!
    हमसे तो परिंदे अच्छे ,जो कभी मंदिर पै जा बैठे,कभी मस्जिद पै जा बैठे!!
  
          श्रीराम तिवारी

शनिवार, 25 जून 2011

प्रधानमंत्री जी को अखिल भारतीय संयुक्त अभियान समिति का पत्र.

 देश की मौजूदा आर्थिक और सामाजिक बदहाली के लिए जिम्मेदार प्रतिगामी आर्थिक नीतियों के खिलाफविगत कई महीनों से एटकऔर सीटू यूनियन  लगातार देश भर में संयुक संघर्ष  चला रहीं थी.इन संगठनो पर  दक्षिण पंथी श्रम संगठनो और मीडिया का आरोप था कि ये तो कम्युनिस्ट पार्टियों और वामपंथी विचारधारा के  अनुषंगी श्रम संगठनो का संघर्ष है. जब विगत २३ फरवरी को इन श्रम संगठनों ने सारे देश के मेहनतकशों का दिल्ली में घेरा डालने का आह्वान कियाथा, तो कांग्रेस समर्थित "इंटक" ने अपनी पार्टी और अपनी  यु पी ये सरकार की जन-विरोधी ,मजदूर विरोधी महंगाई-भृष्टाचार बढाने वाली आर्थिक नीतियों के खिलाफ इन संघर्ष शील श्रम संगठनो से एका कर पार्लियामेंट मार्च में हिस्सेदारी की थी.इंटक के राष्ट्रीय अध्यक्ष संजीव जी को केंद्र सरकार और कांग्रेस पार्टी की ओर से धमकी दी गई थी कि वामपंथ समर्थित श्रम संगठनो का साथ दिया तो इंटक अध्यक्ष पद और राज्य सभा सीट छें ली जायेगी.संजीव जी ने निर्भयता से देश के करोड़ों कामगारों का साथ दिया और ज्यादा शिद्दत से नकारात्मक आर्थित्क नीतियों से लड़ने में 'संयुक्त अभियान समिति'का साथ दे रहे हैं.
       विगत अप्रैल -मई में संगठित श्रम संगठनो को तब और बल मिला जब आर एस एस समर्थित 'भारतीय मजदूर संघ 'ने इस संयुक्त अभियान समिति में शामिल होकर देश के मजदूरों-किसानो और
हैरान -परेशान आवाम की संगठित लामबंदी में अपने सहयोग का ऐलान किया.अब भाजपा ,कांग्रेस और वामपंथ भले ही वर्तमान दौर की  जर-जर व्यवस्था पर एकजुट कार्यवाही के लिए एक जाजम पर न आ सकें किन्तु समस्त केन्द्रीय श्रम संगठन तो अपने 'कामन मिनिमम प्रोग्राम 'पर एकजुट कार्यवाही का संकल्प ले ही चुके हैं.
          विगत २३ जून-२०११ को बी एम् एस ,इंटक,एटक,सीटू,एच एम् एस ,बैंक,बीमा,बी एस एन एल ,केन्द्रीय कर्मचारी,राज्य सरकारों के कर्मचारी,सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों समेत देश भर के किसान मजदूर संगठनो की ओर से "अखिल भारतीय संयुक्त अभियान समिति"ने माननीय मनमोहनसिंह जी ,प्रधान मंत्री ,भारत सरकर ,७ रेसकोर्स रोड ,नई दिल्ली को ज्ञापन प्रस्तुत कर दिया है. ज्ञापन का मज़मून निम्नानुसार है:-
     
    माननीय प्रधान मंत्री जी ,
                                               जैसा कि आपको सुविदित है कि केन्द्रीय श्रम संगठनो द्वारा २००९ से निम्नांकित मुद्दों को लेकर  निरंतर जन-अभियान चलाया जा रहा है.इस अभियान के तहत आज २३ जून -२०११ को हम राष्ट्र व्यापी विरोध प्रदर्शन करते हुए केंद्र सरकार और सभी राज्य सरकारों से अनुरोध करते हैं कि विश्यान्तार्गत उचित कार्यवाही करें.इन मुद्दों में विशेष कर  महंगाई के मुद्दे पर गंभीरता पूर्वक कार्यवाही कर उस पर तत्काल अंकुश लगाए जाने की जरुरत है.कोई ठोस कार्यवाही नहीं होने  की दशा में 'संयुक्त अभियान समिति' उग्र आन्दोलन करने को बाध्य होगी.जिसकी समस्त जिम्मेदारी स्थानीय प्रशाशन,प्रांतीय प्रशाशन और भारत सरकर की होगी.

१-देश में महंगाई  निरंतर बढ्ती जा रही है ,पेट्रोलियम उत्पादों में तेजी से वृद्धि की जा रही है.बढ़ती हुई महंगाई के कारण आम आदमी का जीवन यापन दुश्वार हो गया है.अतः महंगाई पर रोक लगाने के लिए अपने अधिकारों का उचित उपयोग करें.

२-देश में श्रम कानूनों का पालन ठीक से नहीं हो रहा है ,मजदूर-कर्मचारियों का बदतर शोषण हो रहा है,असंगठित क्षेत्र में न्यनतम मजदूरी का भुगतान नहीं किया जा रहा है,निवेदन है कि श्रम कानूनों का पालन सुनिश्चित करने के कदम उठायें.

३-विद्द्य्मान स्थायी किस्म के रोजगार को  तेजी से समाप्त  किया जा रहा है स्थाई किस्म के कामों को ठेका पद्धति से निष्पादित किया जा रहा है .असंगठित क्षेत्र के लिए जो भी सामाजिक सुरक्षा सम्बन्धी कानूनी प्रावधान सन २००८ में किये गए थे उनका पालन नहीं हो रहा है.मुआवजे की राशी प्राप्त करना अब कामगारों के लिए टेडी खीर बन गया है.नाममात्र का मुआवजा भी बड़े लें-देन का शिकार हो चूका है.संगठित क्षेत्र की तरह असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करना सरकार का दायित्व है.

४-सार्वजनिक उपक्रम भिलाई स्टील तथा अन्य दूसरे उपक्रम जो लाभ में चल रहे हैं उनका विनिवेश करना उचित नहीं.उनके शेयर भी निजी हाथों में बेचे जा रहे हैं ,तत्काल रोक लगाईं जाए.

५-पेंशन राशी में वृद्धि एवं कर्मचारी भविष्यनिधि की धनराशी को शेयर बाज़ार में लगाने की योजना पर अमल न किया जाए.

६-बैंकों में निजीकरण आउट सोर्सिंग की खंडेलवाल समिति की सिफारिशें रद्द करनेकी मांग को लेकर   बैंक कर्मचारी ०७-जुलाई को हड़ताल पर जा रहे हैं ,सभी केन्द्रीय श्रम संगठन और संयुक्त अभियान समिति उनका समर्थन करती है.बीमा क्षेत्र और बी एस एन एल  में तथाकर्थित सुधारों के  नाम पर की जा रहीं प्रतिगामी सिफारसों का 'संयुक्त अभ्याँ समिति 'विरोध करती है

     उपरोक्त ज्ञापन में सन्निहित मांगों और सुझावों पर अविलम्ब कार्यवाही हेतु 'अखिल भारतीय संयुक्त अभियान समिति' आपसे विनम्र अनुरोध करती है.यथाशीघ्र  सकारात्मक परिणाम नहीं मिलने की स्थिति में संयुक्त संघर्ष तेज होगा.

              अभिवादन  सहित ..........भवदीय ...................{संयुक्त अभियान समिति के सदस्य संघ}

    बी एम् एस          एटक        इंटक        सीटू         एच एम् एस

          {नोट ;-यह ज्ञापन विगत २३ जून को सारे देश में प्रदर्शनों और जुलूसों के साथ अपने -अपने जिलों में कमिश्नरों के माध्यम से प्रधानमंत्री जी  की ओर अग्रेषित किया गया}
              श्रीराम तिवारी

शुक्रवार, 24 जून 2011

.भृष्टाचार विरोध के बहाने जनतंत्र पर हमला ..बहुत नाइंसाफी है.

नवउदारवादी,बाजारीकरण की आधुनिकतम व्यवस्था में मानवीय संवेदनाओं और मूल्यों का प्रवाह अवरुद्ध सा होता जा रहा है.
एक ओर आमरण अनशन की धमकियों का कोलाज़ व्यक्ति विशेष की मर्जी को पोषित नहीं किये जाने पर बदनुमा दाग बनता जा रहाहै,दूसरी ओर सम्पदा के विन्ध्याचल मेहनतकश जनता के सूर्य का रास्ता रोकने पर अडिग हैं.गरीब बच्चों के एडमीशन नहीं हो रहे 
,कालेजोंस्कूलों में या तो जगह नहींया पहुँच वालों ,पैसे वालों  ने  अपनीअपनी जुगाड़ जमा ली है.महंगी किताबें,आसमान छूती फीस और कोचिंग की मारामारी में अब प्रतिस्पर्धा सिर्फ उच्च मद्ध्य्म वर्ग 
तक सिमिट गई है.पेट्रोल,डीजल,केरोसिन और रसोई गैस में हो रही मूल्यवृद्धि  हर महीने  अपने कीर्तिमान पर पहुँच रही है.अब विदेशी काले धन ,भृष्टाचार और लोकपाल के लिए अनशन की नौटंकी करने वाले चुप हैं.
                      वेशक भृष्टाचार ने पूरे देश को निगल लिया है किन्तु उसके खिलाफ संघर्ष करने का माद्दा किसी व्यक्ति विशेष या संविधानेतर सत्ता केंद्र में नहीं हो सकता.हजारे और रामदेव के दिखावटी दांतों में दम नहीं कि उसकी चूल भी हिला सकें.वेशक एक जनतांत्रिक समाज में सभी को ये हक़ है किदेशकेहितअनहितकोअपनेअपने ढंग से अभिव्यक्त करे.अन्ना,रामदेवया अन्य समकालिक स्वयम भू अवतारी{नेता नहीं?}पुरुषों कोभी अपनी राय रखने का अधिकारहै.किन्तुकिसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह संभव नहीं कि एकव्यक्तिया समूह कीरायको सवा अरब लोगों पर जबरन थोप दी जाए.किसी गैर राजनीतिक वफादारी या किसी खास राजनीतिक पार्टी के अजेंडे को आगे बढ़ानेके लिए जन-लामबंदी गैर बाजिब है.यदि कोई व्यक्ति 
जिसे धार्मिक ,आध्यत्मिक या योग विद्द्या से लाखों लोगों की वफादारी हासिल है तो वह इस वफादारी का इस्तेमाल निहित स्वार्थियों की राजनैतिक आकांक्षा पूर्ती का साधन नहीं बना सकता.
यदि अपने अराजनैतिक कृत्य से आकर्षित जन-समूह को वह किसी अन्य खास और गुप्त राजनैतिक अजेंडे के प्र्योनार्थ  इस्तेमाल करने की चेष्टा करेगा तो सिवाय पूंजीवादी अमानवीय भृष्ट व्यवस्था के साक्षात्कार के उसकी नज़रों में बाकी सब शून्य होता चला जायेगा.
     एक धर्मनिरपेक्ष राजनैतिक व्यवस्था के भीतर शासक वर्ग को भी यह अख्तियार नहीं की किसी खास बाबा या स्वयम्भू नेता की जिद पूर्ती करे.यदि कोई दल या सरकार किसी खास धरम मज़हब या गुट की धमकियों के आगे झुकती है या राजनैतिक छुद्र लाभ के लिए नकारात्मक नीतिगत समझौता करती है तो  यह भी निखालिस तुष्टीकरण नहीं तो और क्या है?
     हमारा निरंतर ये प्रयास रहना चाहिए कि भृष्टाचार,कालेधन और अन्य किसी भी मूवमेंट के नाम पर ठगी न हो.वास्तविक संघर्ष की पहचान तो तभी सम्भव है जब पूंजीवादी मूल्योंकि ,महंगाई की,वेरोजगारी की ,धार्मिक संस्थानों में अवैध धन की और परलोक सुधरने के नाम पर खुद का यह लोक सुधारने वालों की भी इन अनशनों ,धरनों और धमकियों में जिक्र हो.
        
              श्रीराम तिवारी

गुरुवार, 23 जून 2011

ज़न-लोकपाल मसौदे पर जनता की राय भी ली जानी चाहिए..

अप्रैल के प्रथम सप्ताह में अन्ना और उनके साथियों द्वारा किये गए जन्तर-मंतर पर धरना और तत विषयक जन-लोकपाल विधेयक पर मेने 'मात्र-जन-लोकपाल विधेयक से भृष्टाचार ख़त्म नहीं हो सकता' शीर्षक से आलेख लिखा था जो प्रवक्ता. कॉम ,हस्तक्षेप.कॉम,जनवादी.ब्लागस्पाट.कॉम पर अभी भी उपलब्ध है.तब से लेकर अब तक विगत दो महीनो में जो कुछ भी भारत में तत विषयक घटनाक्रम घटित हुए उनका परिणाम कुल मिलकर देश के हित में और भृष्ट ताकतों के खिलाफ परिलक्षित होता हुआ लगता है.इस सम्बन्ध में यह नितांत जरुरी है कि जो लोग किसी खास व्यक्ति ,खास राजनैतिक दल और किसी खास खेमे से विलग केवल राष्ट्र के हितों को सर्वोपरि
मानते हैं उन्हें विना किसी भय-पक्षपात ,निंदा-स्तुति और प्रत्यक्ष व परोक्ष स्वार्थ के वगैर इस वर्तमान दौर के जनांदोलन  -जो देश के संगठित मजदूर वर्ग के द्वारा बहुत सालों से उठाया जाता
रहा है और अब अन्ना हजारे,बाबा रामदेव तथा कुछ-कुछ सत्तापक्ष-विपक्ष की कतारों में भी उसकी अनुगूंज सुनाई दे रही है -को अपनी मेधा शक्ति से परिष्कृत करना चाहिए.केवल नित नए हीरो गढ़ना या किसी खास व्यक्ति या दल की चापलूसी करना उनका काम है जो देश को दिशा देने का दावा नहीं करते किन्तु जिन्हें लोकतंत्रात्मक गणराज्य ,संविधान,कार्यपालिका,न्याय पालिका,व्यवस्थापिका और राष्ट्र की सांस्कृतिक,धार्मिक ,भाषिक,वेशज और क्षेत्रीय विविधता का ज्ञान है;वे और जिन्हें दुनिया के नक़्शे पर वास्तविक भारत की तस्वीर का भान है वे इस दौर में अपने गाम्भीर्य अन्वेषण से इतिहास के परिप्रेक्ष्य में 'जन-लोकपाल'या किसी वैयक्तिक धरना-अनशन को सुव्य्विस्थित रूप और आकार प्रदान कराने में अपनी एतिहासिक भूमिका अदा करें.

  यह सर्वविदित है कि 'लोकपाल विधेयक मसौदा संयुक्त समिति' की अभी तक सम्पन्न नौ अनौपचारिक मीटिंगों  के परिणाम स्वरूप सिविल सोसायटी और सरकार के बीच द्वंदात्मकता की स्थिति बनती जा रही है.एक ओर माननीय 'ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स' की अनुशंषाओं पर सत्तापक्ष का कहना है कि सिविल सोसायटी और केंद्र सरकार "असहमति के लिए सहमत" हो गई है.दूसरी ओर किसन वापट बाबूराव हजारे {अन्नाजी]  के नेत्रत्व में 'सिविल सोसायटी'के आरोप हैं कि सरकार हमारे तमाम सुंझावों से इतर अपना अलग एक सरकारी  मसौदा पेश कर भृष्टाचार के खिलाफ
    गाँधी दर्शन में  किसी शासक या अधिनायकवादी निजाम को झुकाने का अंतिम अस्त्र "अनशन"ही है.आप इस अस्त्र का इस्तेमाल रोज-रोज नहीं कर सकते.यदि अन्ना और उनकी टीम मानती है कि उनकी ८०%मांगेंमान ली गईं हैं. अर्थात लोकपाल विधेयक के अधिकांश हिस्से के  वांछित प्रारूप को सिविल सोसायटी के अनुरूप ड्राफ्टिंग किया जा रहा है तो प्रश्न क्यों नहीं उठेगा कि बार-बार अनशन की धौंस {खास तौर से १६ अगस्त से} क्यों दी जा रही है?क्या यह वैयक्तिक तानाशाही या ब्लेक मैलिंग नहीं है?माना कि अन्ना और उनके साथियों के सौभाग्य से केंद्र में एक निहायत ही अपराधबोध पीड़ित शाशन तंत्र है और सत्तापक्ष में अन्ना जैसों को सहज सम्मान प्राप्त है ,किन्तु जब सरकार ने उनके पहले वाले अनशन को सम्मान दिया ,उनकी बातें मानी और अब तो लोकपाल बिल भी लगभग अवतरित होने को ही है ,तो यदि अब अन्नाजी कहें कि  सरकर{पूरे देश की वैधानिक प्रतिनिधि}मेरी सब शर्तों को माने ;वर्ना में अनशन पर बैठ जाऊँगा ,क्या यह देश की जनता का अपमान नहीं?सरकार ने कहा है कि सभी दलों से राय लेकर आपकी असहमतियों पर उचित कार्यवाही करेंगे.मैं {श्रीराम तिवारी} कहता हूँ कि सिर्फ राजनैतिक दलों से ही क्यों?पूरे देश से पूंछा जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री ,चीफ जस्टिस आफ इंडिया और सांसदों को लोकपाल के दायरे में आना चाहिए कि नहीं?मैं नहीं कहता कि ये सब पवित्रतम हैं या पाप पंक से परे हैं ;किन्तु मैं इतना तो जानता हूँ कि देश के वर्तमान संविधान के अनुसार संसद ही सर्वोच्च है.क्या संसद से ऊँचा लोकपाल हो सकता है?संसद देश की जनता चुना करती है अतेव वह देश की जनता के प्रति जबाबदेह है .लोकपाल ,चुनाव कमीशन ,सुप्रीम कोर्ट और लेखा एवं महानियंत्रक समेत जितने भी स्वायत  शाशन प्रतिष्ठान हैं वे संसद के प्रति और प्रकारांतर से देश की जनता के प्रति उत्तरदायी है.
   भृष्टाचार मिटाने के लिए सबको मिलकर उपाय करना चाहिए ,देश भृष्टाचार में आकंठ डूबा है,हम अपने-अपने तई लड़ भी रहे हैं लेकिन "भारत में भृष्टाचार पाकिस्तान से भी बड़ा खतरा है"कहकर अन्नाजी न केवल भारत की प्रतिष्ठा धूमिल कर रहें हैं बल्कि पाकिस्तान की जनता को भी उकसाने का  काम कर रहे हैं.
       जब सिविल सोसायटी की ८०%शर्तें और सुझाव मान्य कर लिएगए हैं तो बाकी २०%के लिए देश की जनता को अपना पक्ष रखने का हक़ है या नहीं?अभी तक भारतीय संविधान में यही वर्णित है कि जनता का प्रतिनिधित्व लोक सभा करेगी .क्या अन्नाजी  या सिविल सोसायटी लोक सभा से भी बड़े हैं?यदि वर्तमान सरकार कि सदाशयता को जरुरत से ज्यादा परखोगे तो अन्नाजी १६ अगस्त को आप अनशन नहीं कर पायेंगे.सिर्फ सरकार ही क्यों जनता भी आपसे जानना चाहेगी कि आप एक ही मामले में इतनी जल्दी और बार-बार 'अनशन'नामक गांधीवादी ब्रह्मास्त्र का इस्तमाल क्यों कर रहे हैं?क्या भृष्टाचार सिर्फ २-५ साल में ही बढ़ा है?क्या भारतीय संविधान ने देश को आगे  नहीं बढाया?क्या यह भारतीय  संविधान की महानता नहीं है कि आप एक मामूली से एन जी ओ संचालक आज इस देश की  सम्प्र्भुत्व सरकार को आँखें दिखा रहे हैं ,न केवल आँखें दिखा रहे हैं बल्कि ऐसे शो कर रहे हैं की आप ही एकमात्र गांधीवादी हैं .एक ही मामले को लेकर बार-बार अनशन उसके प्रभाव को भी भोंथरा बना देता है.गाँधी जी ने अकेले अनशन या सत्याग्रह से ब्रिटिश साम्राज्यवाद का मुकबला नहीं किया था.उन्होंने बमुश्किल दो या तीन बार ही इसका प्रयोग किया था .तभी जब सारे वैधानिक और लोकतान्त्रिक रास्ते बंद मिले.सारी दुनिया जानती है कि लाखों मजदूरों-किसानो ने ,मुबई नेवी की हड़ताल ने,युवा क्रांतिकारियों की शहादत ने देश को आजादी दिलाई थी .फिर भी देशकी जनता ने अपने परप्रिय अहिंसावादी 'अनशन'सिध्धांत को सबसे ज्यादा सम्मान दिया.अन्नाजी गांधीवादी हैं तो इसका मतलब ये तो नहीं कि मनमोहनसिंह जी ब्रिटिश वायसराय है या सोनिया गाँधी कोई महारानी एलिजावेथ हैं जो अधिनायकवादी तौर तरीके से भारत पर काबिज थे.यह देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है क्योकि यहाँ दुनिया का अब तक का श्रेष्ठतम संविधान है यदि उसे बदलने की बात हो रही हो तो देश की जनता से भी पूंछा जाना चाहिए .यदि कपिल सिब्बल ,वीरप्पा मोइली ,सलमान खुर्शीद या प्रणव मुखर्जी यह जानते हैं तो ये तो उनकी काबिलियत में गिना जाना चाहिए और यदि अन्ना या उनके सलाहकार भले ही वे बड़े-बड़े वकील -वैरिस्टर हों यदि वे देश की जनता को इग्नोर करते हैं  तो भृष्टाचार का कोई भी बाल बांका नहीं कर सकेगा.
   देश जिन्दा है क्योंकि अभी भी अधिकांश लोग ईमानदार हैं.सभी राजनैतिक दलों में यदि बदमाश और भृष्ट भरे पड़े हैं किन्तु मुठ्ठी भर ईमानदार भी हैं जिन्हें अन्ना और रामदेव से ज्यादा फ़िक्र है.किस मंत्री ने इतना कमाया जितना रामदेव.आशाराम,या प्रशांति निलियम वाले चमत्कारी बाबा के गुप्त तहखानो से निकल रहा है?क्या लोकपाल में यह तथ्य शामिल किया गया है कि जितने भी धार्मिक स्थल हैं  {सभी धर्मों के }उनकी जांच लोकपाल करेगा.?संपदा के राष्ट्रीयकरण की कोई मांग सिविल सोसायटी ने उठाई है?
क्या जिन लोगों ने सरकारी नोकरियों की तिकड़मों से   देश की उपजाऊ जमीन के बड़े -बड़े कृषि फार्मों व्यापारिक प्रतिष्ठानों और शेयर बाज़ार में बेनामी संपदा जमा कर रखी है उन पर कोई अंकुश इस लोकपाल बिल ने तजबीज किया है?
       इन सभी तथ्यों को नज़र अंदाज़ क्यों किया जा रहा है?क्या अन्ना और सिविल सोसायटी के स्वनामधन्य साथी-केजरीवाल ,शशिभूषण और जस्टिस संतोष हेगड़े बता पायेगे कि वे जो -जो मांगें सरकार के समक्ष रख रहे हैं उनकी पात्रता इनको है?यदि मान भी लें की अन्ना और सिविल सोसायटी  को ये सब मांगें रखने और मनवाने के लिए अनशन का अधिकार है तब प्रश्न  ये उठता है कि सरकार और 'जी ओ एम् 'को उनकी हर बात -हर मांग मान कर पूरा करने या कराने का अधिकार है?मैं कहता हूँ कि सरकार को इस तरह का कोई जनादेश नहीं दिया गया कि आप संविधान में आमूल चूल परिवर्तन कर डालें.
   वेशक मजबूत लोकपाल विधेयक की दरकार इस देश को है.इस दिशा में जिन व्यक्तियों या संस्थाओं ने संघर्ष किये वे स्तुत्य हैं 'असहमति के लिए सहमत हो जाना 'भी देश में एक बड़ी उपलब्धी है.लोकपाल विधेयक मसौदा तैयार करने के लिए सिविल सोसायटी,सरकार दोनों ही अलग-अलग या एक साथ ड्राफ्टिंग करने के लिए आज़ाद हैं किन्तु न केवल संसद बल्कि देश की जनता
 के अनुमोदन बिना इसको संवैधानिक दर्जा दे पाना नामुमकिन है .सरकार ने अब तक जो भी फैसले लिए हैं उसमें न केवल उसका सहयोग अन्ना  जी को मिला है बल्कि भृष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में भी यूपीए सरकार की  सदिक्षा प्रतिध्वनित हो रही है संविधान की रक्षा करना भी सरकार का ही दायित्व है और वर्तमान सरकार काफी हद तक इस बाबत सजग है.सर्वदलीय बैठक और उसके उपरान्त संसद के मानसून सत्र में 'लोकपाल विधेयक' पेश किये जाने की सरकार की मन्सा
पर संदेह करना उचित नहीं.अनशन की धमकी तो बिलकुल भी उचित नहीं .यह तो प्रकारांतर से अनशन और लोकशाही कि अवमानना है.आशा है अन्नाजी सब्र से काम लेंगे और देश की जनता को भी साथ लेकर चलेंगे.
                          
               श्रीराम तिवारी

सोमवार, 20 जून 2011

अन्ना -स्वामी रामदेव ओर देश के सर्वहारा वर्ग को एक मंच पर आना चाहिए!

  आधुनिकतम प्रगतिशील विचारों के पोषक तथा 'बियांड द विज़न' रखने वालों को बेहतर मालूम है कि भारत और भारत की जनता के प्रगति पथ के अवरोधक तत्व कौन-कौन से हैं.लेकिन सिर्फ जानने और मानने से ही अभीष्ट की सिद्धि नहीं हो जाती! यदि अवरोध   नहीं हट सके  तो कोई खास फर्क  नहीं पढता किन्तु यदि अवरोध तीव्रता से बढ़ते ही रहें  और और प्रतिगामी ताकतें एकजुट होकर सर उठाने   लगें तो सकारात्मक परिवर्तनों  के लिए संघर्ष रत विचारों  की लकीर पीटने  के बजाय यह उचित होगा किमौजूदा दौर के जनांदोलनों को सहयोग किया जाए. 'if you can not deafet ,you join them'वेशक जो लोग अतीत की बर्बर -अमानवीय ,काल्पनिक ,सामंती और चमत्कारिक व्यवस्थाओं में भारत के संरक्षण-संवर्धन-पुनर्स्थापन की आशा रखते हैं उन्हें अधोगामी या पुरातन पंथी कहा जाता है!इनके अविवेकी दार्शनिक ध्रुव पर अन्धविश्वाश ,पुरातन रूढ़िवादिता,भेड़चाल,अवैज्ञानिकता और दासत्वबोध का चुम्बकीय क्षेत्र हुआ करता है!यदि ऐंसे ध्रुव वर्तमान दौर की राजनैतिक-सामजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक व्यवस्था के नकारात्मक व्युत्पन्न समेटकर यदा-कदा राजनैतिक,सामाजिक,या आर्थिक क्रांति का सपना दिखाते हैं ,तो बजाय तठस्थ रहने के,बजाय निर्मम विरोध के यह ज्यादा सर्वहितकारी होगा कि इन 'हलचलों'{अन्ना एवं रामदेव के संघर्षों} में भी सकारात्मकता के निहित बीजों को  खोजने की कोशिश की जाए. जन आकांक्षाओं  को संवेदनाओं  के धरातल  पर न केवल वैचारिक शिद्दत  केसाथ अपितु अपने उपलब्ध समस्त वैज्ञानिक संसाधनों  के साथ भरसक प्रयास किये जाने की आवश्यकता है.खेद है कि देश के  वृहद और दमित शोषित सर्वहारा की ओर से इन प्रासंगिक और ज्वलंत सवालों को उठाने वालों को संदेह की नज़र से देखा जा रहा है.हालाँकि देश के संगठित मजदूर-किसान आन्दोलन ने पहले से ही ५ मुद्दों -महंगाई,श्रम कानूनों में सुधार,विनिवेश,भृष्टाचार और पब्लिक दिस्ट्रीव्युसन सिस्टम में सुधारों को लेकर निरंतर अपना संघर्ष जारी रखा है और आगामी दिनों में वे इन मुद्दों पर राष्ट्रव्यापी संघर्ष को और तेज करने वाले हैं.किन्तु देश और दुनिया में आज जिस सूचना माध्यम और प्रोन्नत मीडिया की तूती बोल रही उसके सहयोग बिना सफलता की उम्मीद कम ही है.इससे बेहतर ये हो सकता है कि कोरे राष्ट्रवादी और अराजनैतिक समूहों और व्यक्तियों के बिखरे हुए आंदोलनों को एकजुट कर मजदूर वर्ग अपनी लड़ाई को सही दिशा देने का प्रयास करे.यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि देश पर किसी बाहरी आक्रमण की स्थिति में जो भी देश का संवैधानिक तंत्र है भले ही वो देशी शाशकों के हित साधन मेंही  निरत क्यों न हो ,आंतरिक संघर्ष को उस आपातकाल में स्थिगित किया जाना चाहिए.हर कीमत पर अहिंसा और भारतीय मूल्यों के साथ संवैधानिक दायरे में ही किसी बड़े क्रांतीकारी सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक और कानूनी परिवर्तनों को अंगीकृत किया जाना चाहिए.सामूहिक नेत्रत्व पर व्यक्ति का प्रभाव नहीं होने देना चाहिए.
                   उन्नीसवीं शताब्दी में अंधाधुन्द वैज्ञानिक आविष्कारों के परिणामस्वरूप जब आवश्यकताओं ने आवागमन और संचार साधनों को खास से आम बना दिया तो सामाजिक,आर्थिक क्रांति ने सामंतशाही को श्रीहीन कर दिया.सामंतवाद को अपने वैभव के कंगूरे से बेदखल करने के लिए जहां -जहां जनता ने व्यपारियों और कम्पनियों को तवज्जो दी,वहाँ-वहाँ पूंजीवादी प्रजातांत्रिक व्यवस्था कायम होती चली गई.सम्पूर्ण यूरोप और दक्षिण अमेरिकी महादीप से लेकर पूर्वी गोलार्ध में भी व्यवस्था परिवर्तन में पूंजीवाद की भूमिका रही थी.चूँकि भारत एक गुलाम  देश था अतेव यहाँ पर सिस्टम चलाने के लिए सामंतशाही को जिन्दा रखा गया.स्वधीनता संग्राम के दौरान जब दुनिया में दूसरा विश्व युद्ध चल रहा था तब भारत के साहित्यकारों,विलायत पलट वकीलों और कुछ हद तक मजदूरों-किसानों के  अपने-अपने सीमित संघर्षों ने ब्रिटिश हुक्मरानों को बाध्य किया कि इंग्लैंड की तर्ज पर भारत में भी 'न्याय का शासन हो'भारत में भी मानवीय मूल्यों की कद्र हो.
     मिंटो रेफोम्स ,ट्रेड बिल एक्ट या बंगाल विभाजन जैसे अनेक दमनात्मक क़दमों की प्रतिक्रिया के गर्भ से भारत में पूंजीवादी व्यवस्था  कायम होती चली गई किन्तु आजादी के बाद जहां शहरों ने पूंजीवादी विकाश का रास्ता अपनाया वहीँ गाँव में जमींदारी व्यवस्था अपने संशोधित रूप में देश की मेहनत कश जनता का  यथावत शोषण करने में जुटी .इस तरह भारत में एक साथ दोनों शोषणकारी  व्यवस्थाओं का समिश्रण हावी रहा.जिन्होंने इस वर्ण संकरीय व्यवस्था को पोषित किया वे पूंजीवादी-सामंती सरमायेदार विगत ६५ वर्षों से देश की सत्ता पर कभी कांग्रेस,कभी जनता पार्टी,कभी भाजपा,कभी गठबंधन और कभी एनडीए -यूपीए के नाम से काबिज रहे है.चूँकि जनता इन सभी से उकताने लगी है सो कभी कोई गांधीवादी ,कभी कोई स्वामी को आगे बढाकर देश पर काबिज स्वार्थी ताकतें अब नए अवतार में आकर लूट का सिलसिला जारी रखने के लिए प्रयत्नशील हैं. आजादी के ५-१० साल बाद ही वे लोग जो स्वाधीनता संग्राम में कुटते-पिटते रहे ,जेल गए और फिर भी जीवित बच रहे उन्होंने कहना आरम्भ कर दिया था  कि 'इससे अच्छा तो अंग्रेजी राज था' 'इतनी महंगाई तब नहीं थी'इतना भाई-भतीजाबाद और भृष्टाचार तो अंग्रेजी राज में नहीं था' ये जुमले मेने स्वयम अपने कानो से तब सुने थे जब भारत की आजादी सिर्फ २० बरस की थी. पंडित जवाहरलाल नेहरु के मरणोपरांत देशी अंग्रेजों ने देश की अपढ़ औरवर्गों में  विभाजित जनता को लूटने में कोई कसर नहीं छोडी.आजादी के फ़ौरन बाद जब अंग्रेज देश छोड़ कर चले गए तो देश के उस समय जो भी पढ़े -लिखे लोग थे उन्हें सरकारी उच्च सेवाओं में चुन लिया गया .यह स्वभाविक ही था कि उच्च जातियों -ब्राहमण,बनिया ,ठाकुर ,कायस्थ,जैन और कुछ दवंग पिछड़ी जातियों के पढ़े लिखे उन्हें लोगों को अधिकांस सरकारी सेवाओं में मौका मिला जो तदनुरूप पढ़े लिखे थे.समाज के सम्पन्न शहरी भद्र-जनोंऔर ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े जमींदारों की ओलादों को ही यह सौभाग्य प्राप्त था कि अंग्रेजों की जगह पर ये स्वदेशी प्रभु वर्ग देश को लूटें और निरीह-असहाय मेहनतकश जनता के खून पसीने की कमाई से बड़े -बड़े कृषि फार्म खरीदें,शहरों में बहुमंजिला भवन बनाये और स्विस बैंक में काला  धन जमा करें.इसी व्यतिक्रम के  लिए इन दिनों राजनैतिक कुकरहाव जारी है.इसकी  काट के रूप में जिन विद्द्वानों ने 'जन-लोकपाल बिल'उठाया उसको अमली जामा पहनाने के लिए अनशन और धरने-आन्दोलन किये उसे देश के विराट संगठित मजदूर आन्दोलन का समर्थन क्यों नहीं मिलना चाहिए?
                   आजादी के बाद से २०११ तक भारत में जितने भी सरकारी कर्मचारी -अफसर और सार्वजानिक उपक्रमों के कार्मिक हुए हैं देश कि लूटी गई दौलत का ९०%धन उनके  पास है पहले ये वेतन भोगी रहे ,फिर पेंशन भोगी होते हुए 'टीनू-आनद -जोशी 'की तरह अरबों की सम्पदा अपने ऐयाश वारिशों को छोड़ गए है.मात्र ५%भृष्टाचार राजनीतिज्ञों ने और ५%भृष्टाचार -मजबूरी वश सर्वहारा वर्ग के हिस्से आता है.रातों रात अपने रुत्वे और पहुँच की ताकत से जिन लोगों ने अरबों की संपदा खड़ी कर ली है वे अब वारेन बफेट और बिल गेट्स की तर्ज पर पूंजीवाद द्वारा भृष्टाचार से संचित धन को उसके असली हकदारों   को वापिस कराने का सपना देखने लगे हैं.वे समझते है कि क़ानून बनाने या प्राणायाम से यह करिश्मा हो जाएगा.जिन्होंने देश की संपदा लूटकर समृद्धि के पहाड़ खड़े कर लिए ;उन्हें यदि कोई बाबा रामदेव या कोई अन्ना हजारे सही राह दिखा सकता है तो मुझे कोई आपत्ति क्यों होना चाहिए? जब हम अन्ना का साथ नहीं देंगे तो कांग्रेस उनको ले भागेगी और रामदेव बाबा को हम दुत्कारेंगे तो भाजपा उन्हें गले क्यों नहीं लगाएगी?
    रहिमन अँसुआ नयन धर,जिय दुःख प्रकट करेय!
  जाहि निकारो गेह तें ,कस न भेद कही देय!! 
     
         श्रीराम तिवारी      
            

बुधवार, 15 जून 2011

स्वामी निगमानंद का बलिदान..याद रखेगा-हिन्दुस्तान...

     "काटे मलय परशु सुन भाई! निज गुण देहि सुगंध वसाई!!
"ताते सुर शीसन चढत,जग वल्लभ श्रीखंड!
  अनल दाहि पीटत घनहिं,परशु बदन यह दंड!!
  
                         उपरोक्त चौपाई और उसके नीचे जो दोहा मानस से उद्धृत किया गया है दोनों ही बहुत सरलतम हिंदी में और प्रासंगिकता के लिए प्रस्तुत आलेख की पृष्ठभूमि के बेहतरीन प्रस्तर निरुपित हो रहे हैं.भावार्थ  ये है कि जो परशु अर्थात कुल्हाड़ी चन्दन को काटती है तो चन्दन उससे नाराज न होकर उलटे अपनी सुगंध से सुवासित कर देता है परिणाम स्वरूप परशु की नियति ये होती है कि उसे लोहे की भट्टी में तपा-तपा कर घन से पीटा जाता है..चन्दन को उसके साधू स्वभाव {पर हित कारण कष्ट सहना}के कारण देवों के मस्तक पर धारण योग्य मन जाता है.
  जिस तरह आम सांसारिक गृहस्थ नर-नारियों में सभी निहित स्वार्थी नहीं होते उसी तरह सन्यासियों-स्वामियों-बाबाओं में सभी बदमाश या साधू के वेश में शैतान नहीं होते.कुछ गिने चुने असली सन्यासी ,त्यागी,विश्व कल्याण चेता भी होते हैं .हाँ!यह बात जुदा है कि कोई भी धार्मिक -आध्यात्मिक -सन्यासी महज राष्ट्रवादी होता है या कि समस्त संसार के लिए बल्कि समस्त ब्रह्मांड के लिए तप करता है औरयदि  उसके लिए कोई भी शत्रु नहीं होता  तो वह स्वनाम धन्य हो जाता है.
 ऐंसे समदर्शी और सर्वप्रिय सज्जन या साधू पुरुष के लिए श्रीमद  भागवदपुराण में महात्मन वेद व्यास ने लिखा है-
  कुलं पवित्रं जननी कृतार्था, वसुंधरा  पुण्यवती च तेन!
अपार सम्वितु सुख्साग्रेअश्मिन,लीनमपरे ब्रह्मणिअस्य चेतः!!
 अर्थात कुल धन्य हो जाते हैं, माता धन्य हो जाती है,वह धरती और देश धन्य हो जाते हैं
 जहाँ त्याग और परहित मेंअपना  सर्वस्व स्वाहा करने वाले महान सपूत {स्वामी निगमानंद जैसे}जन्म लेते हैं.
                                     वह धरती बाँझ हो जाती है ,वह देश बर्बाद हो जाता है वह समाज ,कुल और सभ्यता नष्ट हो जाती हैं जहां परनिंदक और धन लोभी ढोंगी बाबा जन्म लेते हैं.
  
    स्वामी निगमानंद कोई आसमान से चाँद -तारे तोड़कर लाने की जिद नहीं कर रहे थे.वे तो उस तथा कथित गंगा मैया को -जो न केवल भारतीय उपमहाद्वीप की आत्मा है बल्कि हिन्दू धर्म की जननी  है-उसे उन खनन माफियाओं से बचाने और गंगा की जीवन्तता के लिए सत्तारूढ़ उत्तराखंड की भाजपा सरकार से मांग कर रहे थे.वे कोई राजनैतिक महत्वाकांक्षा को ढाल बनाकर अनशन का ढोंग नहीं कर रहे थे.वे तो उस गंगा को जो सदियों से भारतीय  वर्तमान दौर के घोर अधोगामी पूंजीवादी कार्पोरेट सिस्टम ने जिसे अपने क्षुद्र स्वार्थों के लिए भयानक प्रदूषण का शिकार बनाकर जिस पतित पावनी गंगा को आज गटर गंगा में तब्दील कर दिया है-उसे बचाने की जद्दोज़हद कर रहे थे.हरिद्वार के ३४ वर्षीय संत स्वामी निगमानंद बिगत १९ फरवरी से उक्त पवित्रतम ध्येय के लिए अनशन पर थे.उनकी मांग थी कि  तपोवन से हरिद्वार तक गंगा को आदर्श रूप में प्रदूषण मुक्त कराया जाए तथा कुम्भ मेला क्षेत्र में जारी स्टोन क्रेशर द्वारा अवैध खनन पर रोक लगाईं जाए.अनशन के ६८ वें दिन २७ अप्रैल को उनकी सेहत बिगड़ने पर जिला प्रशाशन ने उन्हें स्थानीय अस्पताल में दाखिल करा दियाथा.यहाँ स्थिति गंभीर होने पर २ मई को उन्हें देहरादून के उसी हिमालयन अस्पताल में भर्ती कराया गया जहां पर बाद में ६ जून को बाबा रामदेव भर्ती किये गए थे.इस अस्पताल में उनके साथ क्या हुआ ?उन्हें कोमा कि स्थिति में पहुँचने पर भी उस भाजपा या उत्तराखंड सरकार ने उनकी सुध क्यों नहीं ली जो इन्ही साधुओं और बाबाओं के कंधे पर चढ़कर विभिन्न राज्यों में सत्ता में पहुंची है और केंद्र की सत्ता की चिर अभीलाशनी है?जब रामदेव और निगमानंद एक ही समय में एक ही अस्पताल में और एक ही तरह की अनशनकारी भूमिका में भर्ती थे तो तब तक -जब तक स्वामी निगमानंद के प्राण पखेरू नहीं उड़ गए तब तक न केवल उत्तराखंड सरकार,न केवल रमेश पोखरियाल "निशंक",न केवल संघ परिवार और भाजपा,न केवल मीडिया-अखवार-चेनल्स,बल्कि उस साधू समाज ने जो अपने आचरण में सम दर्शी और वीतरागी  होना चाहिए वो साधू समाज -संत समाज सिर्फ बाबा रामदेव की परिचर्या और उनके कुसल मंगल की कामना में संलग्न रह कर स्वमी निगमानंद को क्यों भूल गया?
     स्वामी रामदेव की स्थिति कि पल-पल खबर देने को आतुर पूँजी का भडेत मीडिया बड़ी चालाकी से स्वामी निगमानंद की शहादत को भुनाने में जुट गया है,भाजपा और उतराखंड सरकार तो फिर भी इस घटना से सहमी हुई है और  इस गफलत  पर शर्मिंदा भी हैं कि समय रहते हमने ऐंसा क्यों नहीं किया जैसा बाबा रामदेव के समर्थन में पूरे देश में पूरी शिद्दत से अपने हितार्थ किया था.
     धीरे-धीरे स्वामी निगमानंद के बलिदान से भाजपा और उसकी उत्तराखंड सरकार का सच सामने आता जा रहा है.बाबा रामदेव को पहले दिन ही कोमा में चले जाने कीझूंठी घोषणा करने वाले "निशंक"रामदेव सेवा में चौबीसों घंटे तैनात क्यों रहे?वे अपने ही राज्य के इतने बड़े मसले को नज़र अंदाज कर न केवल भागीरथी की उपेक्षा के लिए बल्कि महान शहीद स्वामी निगमानंद की मौत के लिए भी सीधे-सीधे जिम्मेदार हैं.साथ ही वे सभी साधू -संत ,स्वामी,श्री-श्री,बगुला भक्त एन आर आई योगेश्वर,और पैसे वालों की चिरोरी करने वाला मीडिया -सबके सब इस दौर में देश दुनिया को भुलाकर केवल एक व्यक्ति कि खुशामद करने वाले अपनी एतिहासिक अक्षम्य त्रुटि के लिए अभिसप्त क्यों नहीं होना चाहिए?रामदेव की मिजाजपुर्सी और तीमारदारी इसलिए की गई कि  ये बाबा पैसे वाला है,सोनिया गाँधी,मनमोहनसिंह ,दिग्विजयसिंह और देश कि निर्वाचित सरकार को गाली देता है,ये बाबा आगामी चुनाव में राजनैतिक फायदे का हैजबकि स्वामी निगमानंद तो कोई काम का नहीं;उलटे खनन माफिया और उत्तराखंड सरकार की मिली भगत को उजागर करने पर आमादा है,ऐंसे स्वामी या बाबा भाजपा के किसी काम के नहीं.भारत के तमाम साधुओ सुनो!सन्यासियों सुनो!रामभक्तो-कृष्ण भक्तो सुनो!यदि तुम गंगा पुत्र स्वामी निगमानंद कि राह चलोगे तो मोक्ष पाओगे!यदि तुम मिलियेनार्स बाबा रामदेव के साथ रहोगे तो इस लोक में राज्य सुख पाओगे!हे !अमृत पुत्रो!यदि संभव हो तो सन्यासियों ,योगियों,और बाबाओं के पीछे खड़े स्वार्थियों को पहचानो!!जय गंगा मैया!जय स्वामी निगमानंद!!
      श्रीराम तिवारी

सोमवार, 13 जून 2011

नई आर्थिक नीतियों पर प्रहार करें अन्ना हज़ारे और बाबा रामदेव तो ही भृष्टाचार पर अंकुश लग सकता है.

  विगत दिनों भारतीय मीडिया बहुत व्यस्त रहा.२-जी,कामनवेल्थ,जैसे कई मुद्दे  जिनमें भृष्टाचार सन्निहित था ;उस पर देश और दुनिया में काफी चर्चा रही.बीच-बीच में विधान सभा चुनाव,पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद,नक्सलवाद,क्रिकेट,बालीबुड और बाबाओं के राजनीतिकरण को भी मीडिया ने भरपूर चटखारे लेकर जनता के बीच परोसा किन्तु इन सबसे ज्यादा आकर्षक और धारदार और क्रांतिकारी सूचनाएँ दो ही रेखांकित की गई.पहली ये कि न्यायपालिका के उच्च स्तर पर
यह धारणा आकार लेने लगी है कि  न केवल भुखमरी पर बल्कि भृष्टाचार पर क्रन्तिकारी शिकंजा कसे जाने की बेहद जरुरत है.दूसरी सबसे ज्यादा काबिले गौर सूचना ये रही किअमेरिका द्वारा पाकिस्तान के अन्दर घुसकर जिस तरह ओसामा को ख़तम किया गया क्या उसी तर्ज़ पर भारत ऐंसी कार्यवाही कर सकता है?इसी से जुड़ा हुआ किन्तु विकराल मसला ये भी रहा है कि यदि पाकिस्तान का परमाणुविक वटन आतंकवादियों के हाथ आ गया तो दुनिया की और दक्षिण एशिया की तस्वीर क्या होगी? 
                    भारत में भ्रष्टाचार  और राजनीती  का चोली दामन का साथ है.यह कोई अप्रत्याशित या अनहोनी बात नहीं है.जिस पूंजीवादी प्रजातंत्र को १९४७ में भारत ने अंगीकृत किया यह अपने प्रेरणा स्त्रोत राष्ट्रों-ब्रिटेन,अमेरिका,कनाडा और स्वीडन में भी रहा है,अभी भी है और आगे भी तब तक रहेगा जब तक कोई वैकल्पिक -सामाजिक,आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था स्थापित नहीं की जाती.इन राष्ट्रों में चूँकि प्रति व्यक्ति आमदनी और असमानता का अनुपात लगभग १:७ है जबकि भारत में एक टॉप पूंजीपति और एक रोजनदारी मजदूर की आमदनी में अरबों-खरबों का अंतर है. इसके आलावा जमीन,व्यवसाय और विभिन्न प्रकार की नौकरियों में न केवल भौतिक बल्कि मानसिक असमानता की जड़ें बहुत गहरे तक समाई हुई हैं.इन्ही कंटकाकीर्ण दवाओं को झेलने में असमर्थ जन-मानस अपनी वैचेनी को अभिव्यक्त करने के लिए तास के पत्तों की तरह उन्ही राजनीतिज्ञों को फेंटकर वोट के मार्फ़त सत्ता शिखर पर बिठा देता है ;जिन पर ५ साल पहले अविश्वाश व्यक्त कर चूका होता है.बार -बार ठगे जाने के बाद १५-२० साल में जनता के सब्र का बाँध टूट जाता है और वह किसी अवतार,महानायक या चमत्कारिक नेत्रत्व की मृग तृष्णा में किसी छद्मवेशी स्वामी का अन्धानुकर्ता या नए पूंजीवादी राजनैतिक ध्रवीकरण की रासायनिक प्रक्रिया का रा  मटेरिअल बन कर रह जाता है.
                          जिस लोकपाल बिल की इन दिनों इतनी मारामारी हो रही है,वो कांसेप्ट ४० साल पुराना हो चूका है.१९६८ में ही देश में भृष्टाचार इतना बढ़ चूका था कि कांग्रेस को सत्ता से हटना पड़ा और संविद सरकारों का प्रादुर्भाव हुआ.लेकिन संविद सरकारों ने देश को निराश किया तो कांग्रेस ने समाजवादी चोला पहिनकर ,क्रांतिकारी नारों से देश की जनता को भरमाया.सत्ता में पुनर वापसी  कर पकिस्तान के दो टुकड़े कर इंदिराजी ने भारत की ,कांग्रेस की और स्वयम की शान में चार चाँद लगा दिए किन्तु भृष्टाचार ,भाई-भतीजावाद और शोषण फिर भी जारी रहा.जिस रणनीति के तहत आजकल अन्नाजी और उनकी देखादेखी दूसरे तथाकथित "सच्चे-देशभक्त-बाबा लोग"जनता की आकांक्षा को शे रहे हैं कमोवेश जयप्रकाश नारायण ने भी इसी तरह के विन पेंदी वाले लोटे जुटाए थे.जिस जनता पार्टी को सत्ता में बिठाकर उन्होंने सम्पूर्ण क्रांति के गीत  गाये थे उसके क्रांतीकारी आह्वान में जिन्होंने अपने झंडे-डंडे तक फेंक दिए थे वे सनातन असंतुष्ट दोहरी सदस्यता के बहाने,समाजवाद के बहाने ,किसान राज्य के बहाने और आपातकाल निवृत्ति के बहाने चारों खाने चित होकर बड़े बे आबरू होकर २-३ साल में ही राजनीती के अखाड़े में ढेर हो गए.फिर इंदिराजी के नेत्रत्व में और संजय गाँधी के कृतित्व में कांग्रेस सत्ता {१९८०}में प्रतिष्ठित हो कर ,शहर,गाँव और मीडिया में भृष्टाचार की धुन पर नाचने लगी.१९४७ से अब तक का भारतीय राजनैतिक इतिहास दर्शाता है कि चाहे वे वी पी सिंह हों ,लोहिया हों,अटलजी हों चंद्रशेखर हों ,मोरारजी हों चरणसिंह हों या कोई भी गैर कांग्रेसी हों {मार्क्सवादियों के अलावा}सबके सब सत्ता में आने के लिए कांग्रेस के कुशाशन और भृष्टाचार पर जनता को दिलासा देकर देश में कोहराम खड़ा करते रहे किन्तु जब सत्ता में आये तो कांग्रेस से ज्यादा भृष्ट और धोखे बाज निकले.कांग्रेस ने भले ही देश को ज्यादा कुछ न दिया हो ,भले ही भृष्ट तरीकों से सांसद खरीदे हों ,भले ही भाई-भतीजावाद बढाया हो किन्तु देश में साम्प्रदायिकता की आग को दावानल नहीं बनने दिया.यह आकस्मिक नहीं है कि कांग्रेस और नेहरु -गाँधी परिवार को साम्प्रदायिक और अलगाव वादियों के हाथों अपनी जान गवाना पढी.
       मैं न तो कांग्रेसी हूँ और न उसका समर्थक बल्कि उसकी मनमोहनी आर्थिक नीतियों का कट्टर विरोधी हूँ.मेरा मानना है कि भले ही मनमोहनसिंह जी की नई आर्थिक नीति से लाभान्वित होकर देश में सबसे ऊपर के तबके में १००-२०० लोग शामिल हो चुके हों,भले ही माध्यम वर्ग की तादाद बड़ी हो ,भले ही समग्र रूप से भारत ताकतवर हुआ हो किन्तु यह भी  अकाट्य सत्य है कि घोर निर्धनता,भयानक  महंगाई और असहनीय भृष्टाचार के लिए  नए दौर कि नई आर्थिक नीतियाँ ही जिम्मेदार हैं.
                         वर्तमान दौर के जन आंदोलनों कि श्रंखला में सबसे पहला स्थान है संगठित ट्रेड यूनियन आन्दोलन द्वारा किये जाते रहे महंगाई,भृष्टाचार और निजीकरण विरोधी संघर्षों का.इसमें आंशिक सफलता तो मिली किन्तु व्यवस्था गत परिवर्तन के लायक ताकत नहीं जुट पाई ,क्योंकि माध्यम  वर्ग का एक बड़ा तबका जन संघर्षों से कतराकर बाबावादी कदाचार में शुतुरमुर्ग की तरह अपनी गर्दन घुसेड़कर -हा!भृष्टाचार!की धुन पर मुग्ध है.चूँकि मीडिया का अधिकांस हिस्सा बड़े पूंजीवादी घरानों का चारण मात्र है अतेव मेहनतकशों के संगठित संघर्षों में उसकी टी आर पी का कोई भविष्य नहींहोने से इस प्रकार के सत्ता प्रतिष्ठान विरोधी संघर्षों को हाई लाइट करने में उसकी रूचि क्यों कर होगी?
                  यदाकदा न्यायपालिका की ओर से की गई सरकार जगाऊ टिप्पणियों को जनता ने ,खास तौर से असंगठित सर्वहारा और मध्यम वर्ग ने भी सर माथे लिया और उसी का दोहन करने में माहिर कुछ एन जी ओ धारको ,उनके मित्र वकीलों और साम्प्रदायिकता की सीप से निकले बाबा रुपी मोतियों ने बिना यह जाने की भृष्ट पूंजीवादी व्यवस्था की नई आर्थिक नीतियों के भारतीय  निर्माता तो स्वयम डॉ मनमोहन सिंह हैं.  जो अमेरिका प्रेरित   सोनिया समर्थित है आर्थिक नीति है उसमें भृष्टाचार की फर्टिलिटी भरपूर है.इस ताने-बाने को जाने विना अन्ना हजारे और रामदेव यादव जैसे लोग सत्ता को उखाड फेंकने की पुरजोर कोशिश किया करते हैं.उनके पीछे वे परजीवी गिद्ध खड़े हैं जो स्वयम शिकार नहीं करते बल्कि शिकारी कोई भी हो नागनाथ या सांपनाथ वे तो सिर्फ और सिर्फ परभक्षी ही रहेंगे.
           आज भारतीय प्रधानमंत्री को दुनिया में सुलझा हुआ ,ईमानदार और समझदार माना जा रहा है.वे बड़ी चतुराई से ,विनम्रता से,गंभीरता से और गठबंधन धर्म की वास्तविकता से देश को दुनिया  के साथ -साथ चलने लायक तो बना ही चुके हैं अतः उनकी तथाकथित विनाशकारी आर्थिक नीतियों से बेहतर आर्थिक -सामाजिक और राजनैतिक वैकल्पिक नीतियां जिनके पास  हों कृपया वे ही इस सरकार और कांग्रेस नेत्रत्व को कोसें,अन्यथा देश की समझदार जनता का सहयोग किसी अपरिपक्व -अधकचरी सूचनाएं परोसने वाले बडबोले स्वयमभू को   नहीं मिल सकेगा.निसंदेह भृष्टाचार की गटर गंगा में वे सब भी नंगे हैं जो रातों रात न केवल शौह्रात्मंद बल्कि दौलतमंद भी हो चुके हैं .ऐसे लोग प्रधानमंत्री को ,यु पी ऐ की चेयर पर्सन श्रीमती सोनिया गाँधी को और पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह को या समस्त सरकार को कोसने के बजाय अमेरिका,जापान,जर्मनी,फ़्रांस या ब्रिटेन के सत्ता परिवरतन से सबक सीखें क्योंकि भारतीय पूंजीवादी प्रजातंत्र उन्ही की नक़ल मात्र है.
       यदि कोई व्यक्ति ,संस्था या समाज वास्तव में भृष्टाचार मुक्त भारत चाहता है तो उसे पहले शोषण मुक्त भारत का मार्ग प्रशस्त  करना होगा.उसे यह जानना ही होगा कि वर्तमान दौर में व्याप्त भयानक भृष्टाचार,बढ़ती हुई बेतहासा महंगाई और आर्थिक असमानता को नई आर्थिक नीतियों ने ही परवान चढ़ने दिया है.अकेले सोनिया ,मनमोहन या यु पी ऐ सरकार ही इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं बल्कि कुछ हद तक इन नीतियों के अलमबरदार वे भी हैं जो आजकल बाबा रामदेव और अन्ना  हजारे जैसों के कंधे पर बन्दूक रखकर सत्ता-सुन्दरी के ख्वाब देख रहे हैं .विश्वाश न हो तो प्रमोद महाजन से लेकर चन्द्रबाबु नायडू के व्यक्तित्व व् कृतित्व को एक बार खंगालने में कोई हर्ज़ नहीं.
       श्रीराम तिवारी

मंगलवार, 7 जून 2011

लोकसभा चुनाव में अभी तीनसाल बाकी हैं -भाजपा को अभी से नाचने ओर खुशी मनाने का औचित्य क्या है?

    बाबा रामदेव  को दिल्ली पुलिस द्वारा हेलीकाप्टर से वाया देहरादून उनके हरिद्वार स्थित दड्वे तक ससम्मान पहुंचाए जाने पर देश के तमाम विपक्षियों को केंद्र सरकार पर हमला करने का कोई औचित्य नहीं था. निसंदेह ४-५ जून २०११ की अर्धरात्रि को रामलीला मैदान में जो कुछ हुआ उसको किसी ने भी उचित और तार्किक नहीं माना.माओवादियों से लेकर नरम वामपंथियों ने और गरम धर्मांध धडों से लेकर वसपा,सपा,जद ,अकाली,और भाजपा ने अपनी -अपनी समझ औरयोग्यतानुसार
प्रतिक्रिया व्यक्त की थी.अब बाबाजी को ३-४ दिनों में अनशन पर रहते हुए जबरन देहरादून के अस्पताल में ले जाया गया है.बाबाजी शीघ्र स्वस्थ हों ,दीर्घायु हों और फिर से देश और समाज की सेवा में जुटें इस आशा और विश्ववास के साथ उनके द्वारा खड़े किये गए ११७३६ करोड़ के विशाल आर्थिक साम्राज्य की भी में वंदना करता हूँ.
                                      मेने  न केवल बाबा रामदेव ,न केवल अन्ना हजारे अपितु यदा-कदा जिस किसी भी गैर राजनैतिक व्यक्ति या संगठन ने सामाजिकता, साम्प्रदायिकता या  आध्यात्मिकता का मुखौटा लगाकर  अपनी लक्ष्मण रेखा को पार किया है,सदैव उसकी मुखालफत ही की है.हिंदी साहित्य के महान आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार वर्तमान दौर के सत्ता विरोधी संघर्ष की अगुवाई करने वाले दो स्वयम्भू योद्धा -अन्ना हजारे और स्वामी रामदेव निषेध की नकारात्मकता के प्रतिनिधि कहे जा सकते हैं.शुक्लजी ने श्रद्धा और प्रेम में जो अन्तर रेखांकित किया था वह यदि कोई भौतिक रूप से साकार देखना चाहता हो तो "अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के चरित्र-व्यक्तित्व-कृतित्व"का तुलनात्मक अध्यन करे.अन्ना हजारे में लोगों की श्रद्धा सहज ही उत्पन्न होती गई और बाबा रामदेव {उनकी संपत्ति से} से प्रेम करने वाले जुड़ते चले गए.
यहाँ यह बताने की जरुरत नहीं कि श्रद्धा में व्यापार या लेनदेन नहीं होता और किसी खास व्यक्ति या विचाधारा में यदि अन्य लोग भी श्रद्धा रखते हैं तो किसी को उज्र नहीं होता.प्रेम एकांगी होता है प्राणी मात्र जिससे प्रेम करता है वह नहीं चाहता कि उसके अभीष्ट से कोई और भी प्रेम करे.प्रेम में लेन-देन चलता है.वह भौतिक और आध्यात्मिक या सामाजिक और राजनैतिक किसी भी रूप में हो सकता है.
                     आजादी के बाद से ही जहां देश में शोषण की ताकतें और मजबूत हुई हैं वहीं शोषित जनों की तादाद बढ़ी है .शोषितों ने संगठित संघर्ष निरंतर चलाये हैं.असंगठित वर्ग को भी संगठित करने का काम देश के विशाल ट्रेडे यूनियन आन्दोलन ने किया है और आज जो भी देश में सकारात्मक तत्व जिन्दा हैं वे सब इन्ही महान संघर्षों के अनवरत सिलसिले का परिणाम है.प्रजातंत्र और उसके चारों स्तंभों को  मजबूत करने में भी देश की ईमानदार ,मेहनत कश जनता ने अनेकों कुर्वानियाँ दीं हैं.चूँकि सोवियत पराभव से दुनिया में पूंजीवाद को चुनौती कहीं पर नहीं थी अतेव भारत के सर्वहारा वर्ग के संघर्षों को देश में पूंजीवादी व्यवस्था जन्य"भृष्टाचार ,महंगाई और आभाव" को पराजित नहीं किया जा सका. परिणाम स्वरूप आम जनता के बीच मौजूद जन-बैचेनी को पूंजीवाद ने बड़ी चतुराई और चालाकी से अपने पालतू बाबाओं और तथा कथित उज्जवल -धवल चरित्रों {अन्ना और रामदेव जैसे }की ओर ठेल दिया .इसमें पूंजीवाद ने अपने मानस पुत्र हिंदी मीडिया का भरपूर इस्तेमाल किया.अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषाओँ ने फिर भी संयम दिखाया.
       मेरी नजर में बाबा रामदेव या अन्ना हजारे से श्री लाल कृष्ण आडवानी और बुद्धदेव भट्टाचार्य  ज्यादा जिम्मेदार ,ज्यादा देशभक्त ,ज्यादा वुद्धिमान  और ज्यादा ईमानदार हैं.भले ही इन दोनों राजनीतिज्ञों की विचारधारा में ३६ का आंकड़ा है किन्तु इन दोनों ने अपनी दीर्घायु में देश और समाज को कभी अपने खुद के स्वार्थ  के लिए कभी नहीं ठगा.जितना सम्भव हुआ अपने -अपने ढंग से देश और समाज के लिए निरंतर संघर्ष किया.अब यदि कोई बाबा या समाज सुधारक देश में अवतरित होकर कहे कि सारे राजनीतिग्य भ्रष्ट हैं और सबने विदेशों में कला धन जमा करा रखा है सो हम अनशन या सत्याग्रह करके उसे देश में लायेंगे और देश में भृष्टाचार के लिए अमुक व्यक्ति जिम्मेदार है अतः जब तक वो हमारे चरणों में लोट नहीं लगता ,हमारा अनशन{नाटक}जारी रहेगा.
       मेने सिर्फ दो नेताओं के नाम दिए हैं ऐंसे हर पार्टी में हैं और कम से कम कांग्रेस -भाजपा और माकपा में तो जरुर हैं.क्योकि इन पार्टियों के अपने संविधान और मेनिफेस्टो भी होते हैं ,जिनके अनुसार समय समय पर बड़े से बड़े नेता को बाहर का दरवाजा देखना पड़ता है.माकपा के सोमनाथ हों या भाजपा के जश्वन्तसिंह कांग्रेस के अर्जुनसिंह एक बार बाहर होकर अन्दर बड़ी मुश्किल से लौट पाए किन्तु अपना सब कुछ लुटाकर.आज भले ही आडवानी जी 'पी एम् इन वेटिंग' ही हैं और बुद्धदेव  सातवीं बार राईटर्स बिल्डिंग में लाल झंडा फहराने में विफल रहे हों किन्तु उनके विचार कभी भी कालातीत
नहीं होंगे.भाजपा और माकपा को किसी अन्ना या रामदेव को फालो न करते हुए अपने स्वयम के स्टैंड लेना चाहिए.
भाजपा को  या किसी भी विपक्षी पार्टी को यह उचित नहीं की किसी एक गैर राजनैतिक व्यक्ति या संगठन के द्वारा  जमाई गई जाजम पर था -था थैया करे,
       भाजपा नीत एन ड़ी ऐ गठबंधन को भृष्टाचार के मुद्द्ये  पर पूरे  देश में या दिल्ली के राजघाट पर नाचने कून्दने की जरुरत नहीं ,क्योंकि अटल सरकार ने अपने ६ साल के क्रूर कार्यकाल में ६ पैसे का काला धन विदेशों से वापिस लाने में रूचि नहीं दिखाई .अब जबकि अन्ना और रामदेव ने आम जनता में न केवल सत्ता पक्ष {यु पी ऐ}बल्कि भाजपा सहित सम्पूर्ण विपक्ष को अप्रासंगिक बना दिया तो उन सम्वैधानैतर सत्ता अभिलाषियों की भीड़ जुटाऊ भूमिका पर फ़िदा हो रहे हैं.इतिहास साक्षी है की हिटलर मुसोलनी ,लेक बालेसा,खुमैनी ,भिंडरावाला,प्रभाकरण और पोप ने जब कभी सत्ता या प्रतिष्ठा पाई है तो उसकी परवरिश करने वाले संवैधानिक सत्ता केंद्र और राजनीतिक संगठनो की भूमिका अनिवार्य रही है .भारत में  प्रजातंत्र को चुनौती देने वाले नक्सलवादियों और धर्म-आदर्शवाद के धपोर्शंखियों -व्यक्तिवादियों को जन समर्थन उतना नहीं है जितना की मीडिया बता रहा है ,हाँ!यदि भाजपा या विपक्ष चाहे तो इन बाबाओं या गैर जिम्मेदार राजनीतिज्ञों  को हीरो बनाकर देश की तकदीर बदल सकती है.भले ही वो तस्वीर वर्तमान से भी ज्यादा बदरंग हो .
                   श्रीराम तिवारी


  

रविवार, 5 जून 2011

अब मत कहना की कमजोर सरकार है दिल्ली में-समझे बाबा रामदेव...!

    विभिन्न न्यूज चेनल्स पर दो तस्वीरें और तत्संबंधी दो अलग -अलग व्यक्तियों के वक्तव्य भी सुने.मामला  रामलीला मैदान में, दिल्ली पर बाबा रामदेव के  अनशन; दिनांक ०४-०६-११ की आधी रात का है.आज ०५-०६-११ को बाबाजी हरिद्वार  में मीडिया को बता रहें हैं कि दिल्ली पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये जाने के भय से वे {रामदेव}मंच से कूंदे और वहाँ उपस्थित "चेलियों"के बीच छिप गए.उन्हें भय था कि शायद पुलिस उन्हें मुठभेड़ में कहीं मार ही न दे सो उन्होंने किसी महिला के कपडे पहिन लिए {घूघट भी डाला था कि नई?}और अपने आपको अनेक ललनाओं के बीच छिपा लिया.यह तस्बीर और तत्संबंधी बाबा रामदेव का वयान बिलकुल सही लगता है.
      दूसरी तस्बीर में बाबा की एक चेली चीख-चीख कर केंद्र सरकार और दिल्ली पुलिस पर आरोप लगा रही है कि पुलिस ने बाबा को मंच से नीचे फेंका था और पुलिस ने बाबा और उनके चेले-चेलियों को डंडों से पीटा है. इस महिला के वयान पर मुझे कतई विश्वाश नहीं,क्योंकि बाबाजी ने जो कहा वो तो ये कि में स्वयम जान बचाने के लिए कुंदा था.दूसरी सबसे बड़ी प्रमाणिकता ये है कि पूरे ३५ घंटे चले इस 'रामदेव लीला'काण्ड में किसी पुलिस वाले ने बाबा रामदेव तो छोडो उनके एक भी चेले या चेली पर हाथ नहीं उठाया.यदि उठाया है और जैसा कि कुछ निहित स्वार्थी तत्व बाबा के अनशन में पलीता लगने से खिसयाकर केंद्र सरकार और यूपीए कि  चेयर पर्सन पर मिथ्या आरोप लगा रहे हैं यदि उनके पास सबूत हैं तो दिल्ली पुलिस और केंद्र सरकार को क़ानून के घेरे में लेने का उपक्रम क्यों नहीं करते?
                  यह सच है कि आज के पूंजीवादी शोषणकारी शासन-तंत्र में भृष्टाचार सर्वव्यापी नासूर कि तरह स्थाई हो चूका  है.भारत में तो इस भृष्टाचार ने विगत १० साल में ६७ मिलियेनार्स  खड़े कर दिए हैं.दूसरी ओर देश में ६०%आबादी को दर-दर कि ठोकरें खानी पड़ रही हैं.आज देशके १० प्रान्तों में भाजपा और १० में कांग्रेस का राज है.बाकि में मिली जुली या केंद्र कि तरह गठबंधन सरकारें हैं .एकमात्र त्रिपुरा में सी पी एम् की सरकार को छोड़ बाकी सभी में या तो भाजपा या कांग्रेस का सीधा दखल है.एक प्रकार से देश में एक ही वर्ग अर्थात पूंजीपति वर्ग का राजनीती में वर्चस्व हो चूका है.कांग्रेस और भाजपा में फर्क सिर्फ इतना है कि कांग्रेस में वोट कबाडू शीर्ष नेत्रत्व है और भाजपा में अटलजी के बाद शीर्ष पर कोई चमकदार चेहरा नहीं ;जो आम चुनावो में जन-मानस को उद्देलित करते हुए भाजपा को केंद्र की सत्ता पर बिठा दे!आदरणीय आडवानी जी उम्रदराज हो चुके हैं,सुष्माजी ,जेटलीजी .राजनाथजी ,यशवंत सिन्हाजी और शौरीजी सब एक दुसरे से बढ़-चढ़कर हैं सो संघ ने इनके ऊपर उनसे छोटा नितिन गडकरी सर पे बिठा दिया.क्षेत्रीय क्षत्रपों की महत्वाकांक्षाओं का ओर-छोर नहीं है.अतेव संघ ने बाबा रामदेव और उनके भारत स्वाभिमान आन्दोलन में अपने स्वयम सेवकों को भेजकर बाबाजी को योग से राजयोग की ओर चलने में उत्प्रेरण का काम किया.कांग्रेस के शातिर मेकियावेलियों और चाणक्यों के सामने  साम्प्रदायिक विपक्ष के हथकंडे कामयाब नहीं हो पा रहे हैं.जब कांग्रेस को पहली पारी में वामपंथ ने झटका दिया था तो भाजपा ने अपने कुछ सांसद गैर हाजिर कर कांग्रेस को बचा लिया था {देखें २८ जुलाई -२००८ की संसदीय कार्यवाही ,अध्यक्षता -सोमनाथ चटर्जी ने की थी } अब जबकि २-जी ,कामनवेल्थ ,आदर्श सोसायटी और विदेशी बैंकों में जमा कालेधन पर सम्पूर्ण विपक्ष ने यूपीए द्वतीय पर हल्ला बोला तो कांग्रेस को बचाने के लिए पुराने गांधीवादी अन्नाजी हजारे जन्तर-मंतर पर अवतरित हो गए.कहने को ,देखने -दिखाने को ,उन्हीने युपीऐ  और कांग्रेस को भृष्टाचार के लिए कोसा भी और 'जन-लोकपाल विधेयक 'के हेतु कांग्रेस से नूरा- कुश्ती  की किन्तु ये पब्लिक है सब जानती है की अन्नाजी का मतलब क्या है?संघ और भाजपा की शह पर रामदेव ने भी उन्ही मुद्दों पर अपने लोम-विलोम कर्ताओं को दिल्ली के रामलीला मैदान में आहूत कर भाजपा की बेटरी चार्ज करने की कोशिश भरपूर की किन्तु कांग्रेसी मायावियों के मुकाबले में वे राजनैतिक फिसड्डी सावित हुए और परिणाम ये है की आज बाबाजी का योग और बाबाजी का अथाह धन{११ हजार करोड़} कोई काम नहीं आ रहा है ,उलटे लगता है की उनकी ये दोनों ही खूबियाँ उन्हें जेल भिजवाने का कारण बन सकती हैं.
          देश का विद्वत वर्ग और ईमानदार जन-मानस भी यही चाहता है कि इस महा भ्रष्ट व्यवस्था से उन्हें निजात मिले किन्तु जनता अब किसी चमत्कारी  बाबा,योगी या समाज सेवक पर विश्वास  कैसे करे जबकि उसे हर बार कोई न कोई महाचालू आकर ठग जाता है.
    बहुरुपिया बाबाओं की पोल खुलते ही जनता का समर्थन भी ऐंसे क्षीण हो जाता है जैसे की गधे के सर से सींग'
                     विगत ४-५ जून की दरम्यानी रात को दिल्ली पुलिस ने बाबाजी के पास राम लीला मैदान में योग शिविर वावत परमीसन की समय सीमा याद दिलाने हेतु जब लिखित सूचना भेजी तो बाबाजी ने बजाय क़ानून का पालन करने के मंच से देश के संविधान और संवैधानिक रूप से जनता द्वारा चुनी गई सरकार को चुनौती तक दे डाली कि जो कुछ उखाड़ना हो सो उखाड़ लो हम तो अभी और मजमा लगायेंगे.जनता कि तालियों और मूर्खों द्वारा जय-जैकार के भूंखे बाबाजी के योग का भूत खाकी वर्दी देखकर ही भाग खड़ा हुआ और बाबाजी ने भगवा वस्त्र उतर कर लेडीज वस्त्रों में अपनी जान बचाई. बड़ी -बड़ी बातें करने वाले ,अमर शाहेदों को आदर्श मानने वाले ,ईंट से ईंट बजाने और महाक्रान्ति का शंखनाद करने वाले बाबा राम,देव आपतो महा कायर और झूंठे निकले.आप जो ये बार -बार आंसू बहाकर मीडिया के सामने बखान कर रहे हैं कि आपको अमुक से अपनी जान का खतरा है वो स्पष्ट दर्शाता है कि आपको उन पवित्र और महान उद्देश्यों से - जिनके लिए गणेश शंकर विद्द्यार्थी ,भगत सिंह ,महतमा गाँधी ,इंदिरा गाँधी और कामरेड अजीत सरकार जैसें लाखों बलिदानियों ने अपना प्राणोत्सर्ग किया है-अपनी जान ज्यादा प्यारी है.आपको ये हक़ नहीं कि आप अपने मंच पर शहीदों के चित्र लगाएं.आपको देशभक्ति के प्र्बचन का कोई नैतिक अधिकार नहीं..हाँ!यदि आप दिल्ली पुलिस से कहते कि आप अपनी ड्यूटी कीजिये तो भी हम आपको कम से कम देश का नागरिक तो मान ही लेते.यदि आप सिंह गर्जना के साथ हुंकार भरते और देश के गद्दारों को ललकारते हुए  वहीं मंच पर डटेरहते तो आपको देश के महर्षियों में गिना जाता.आपने दूसरी बड़ी गलती यह की कि आपने स्पस्ट झूंठ बोला.आप शाम ०७.०० बजे तक यह कहते हए मंच के पीछे चले गए कि आपकी और सरकार की मीटिंग होने जा रही है.जबकि आपके और सरकार के बीच तो पहले से ही समझौता हो चूका था कि आपको सिर्फ सत्याग्रह का नाटक ४ जून कि शाम तक ही करना है और जब आप अपना नाटक पूरा कर लें तो आपको सरकार की ओर से आपकी मांगों को पूरा किये जाने का ऐलान भर करना है ,स्वयम आपके निर्देश पर आचार्य बाल्क्रष्ण जी ने यह लिखित पत्र श्री कपिल सिब्बल {केन्द्रीय कानून एवं संचार मंत्री}कोदिया था.आपने बड़ी बेशर्मी  से
मीडिया के सामने एक बार नहीं अनेक बार झूंठ पर झूंठ  बोला है.जैसे आप वैसे  आपके चेले -चेलियाँ  .तभी  तो जब आप कहते हैं कि में मंच से कुंदा और महिलाओं  में छिप गया  तब  आपकी चेलियाँ और मीडिया का ढपोरशंखी  धड़ा कह  रहा है कि बाबा रामदेव को पुलिस ने मंच से नीचे फेंका .
           बाबा रामदेव आप तेजी  से रसातल  की ओर जा रहे हो.जिस  अन्ना  हजारे की आप नक़ल  करते हुए भारत में भ्रुस्ताचार  मिटने  का स्वांग  कर रहे थे  वो अन्ना  हजारे और उनकी मंडली  भले  ही ऊपर से आपकी ऐसी  की तैसी   किये जाने पर सरकार को कोस  रही है किन्तु आपका  समार्थन  कर उन्होंने अपनी पोजीशन    मजबूत  कर ली  है.
         कहने का मतलब ये है कि अन्ना  हजारे के नेत्रत्व में देश कि जनता भ्रुस्थ्चार  कि लड़ाई  लड़ेगी  और बाबाजी आप अपना मजमा अब न एन .सी .आर . में लगाएं या जेल में आपका  मान -सम्मान  तो गया  ही ,बल्कि  देश का भी कुछ -कुछ नुक्सान  हुआ है क्योकि   देश कि जनता का एक बड़ा  हिस्सा  आपको अपना आधुनिक  ब्रांड  मानने लगा था .अब सब ओर सन्नाटा  पसरा  है.शेष  है राजनीती कि .सत्ता कि असीम  ताकत .आपने बार-बार सरकार की उदारता  का फायदा  उठाया अब सरकार और क़ानून को भी समझने  कि कोशिश करो  .इसी  में तुम्हारी  भलाई  है.                                                                       श्रीराम  तिवारी 

शनिवार, 4 जून 2011

मसखरे लफ़फाज़ ओर ढोंगी बाबाओं से ज़न-क्रांति की उम्मीद करने वालो सावधान!

     जब -जब इस धरती पर कोई नया भौतिक आविष्कार हुआ ,इंसान को लगा कि 'दुःख भरे दिन बीते रे भैया ,अब सुख आयो रे' इसी तरह जब-जब किसी निठल्ले आदमी ने धर्म-अध्यात्म के कंधेपरचढ़करअपनी शाब्दिक लफ्फाजी से समाज में आदर्श राज्यव्यवस्था स्थापित करने और परिवर्ती व्यवस्था 
को उखाड़ फेंकने  का आह्वान किया तो तत्कालीन समाज के सकरात्मक परिवर्तनों की प्रक्रिया को ठेस पहुंची.मानव सभ्यताओं के राजनैतिक इतिहास में इन दोनों घटनाक्रमों के अंतहीन सिलसिले का ही परिणाम है आज की विश्व व्यवस्था.भारत  के ज्ञात इतिहास का निष्कर्ष भी यही है.जब-जब धर्म और अध्यात्म ने राजनीति में हस्तक्षेप किया तब-तब अन्याय और अत्याचार में ,शोषण के सिलसिले में  तेजी से बृद्धि होती चली गई.कई बार तो भारत [भरतखंड या जम्बू द्वीप]को इस वाहियात मक्कारी से पराजय का मुख देखना पड़ा.
      मुहम्मद -बिन-कासिम ने जब सोमनाथ पर आक्रमण का ऐलान किया तो तत्कालीन गुर्जर नरेश
सौराष्ट्र वीर भीमसेन देव ने  सोमनाथ की रक्षा का संकल्प व्यक्त किया.उनके निकट सहयोगी आचार्य गंग भद्र ने उन्हें युद्ध से विमुख करने की वह  एतिहासिक गलती की जो बाद में भारत की बर्बादी का सबब बनी.सोमनाथ मंदिर के पुजारियों ने और आचार्य गंग भद्र ने यह विश्वाश व्यक्त किया था कि जो भगवान् सोमनाथ सारे संसार की रक्षा कर सकता है ,क्या वह अपनी स्वयम की रक्षा नहीं कर सकेगा? जैसा की सारे  संसार को मालुम है कि न केवल मुहम्मद-बिन-कासिम बल्कि उसके बाद मुहम्मद गौरी , गजनवी और मालिक काफूर ने भरपल्ले से न केवल सोमनाथ न केवल काशी,मथुरा,द्वारका,अयोध्या बल्कि सुदूर दक्षिण में मह्बलिपुरम से लेकर देवगिरी तक भारत की अत्यंत समृद्ध सांस्कृतिक और आध्यत्मिक  धरोहर को कई-कई बार लूटा.इसके मूल में विजेताओं की भोग लिप्सा और उनकी जहालत को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है किन्तु विजित कौम भी अपने तत्कालीन तथाकथित 'दंड-कमंडल'या संघम शरणम् गच्छामि के अपराध से मुक्त नहीं हो सकती.
इन दिनों भारत में वही २ हजार साल पुरानी खडताल बजाई जा रही है,जिसमें कोरी शाब्दिक लफ्फाजी और मक्कारी के अलावा कुछ भी नहीं है.जबकि  निकट पश्चिम में काल- व्याल कराल
के रूप में 'हत्फ' गौरी" गजनी'जैसे मिसाइल लांचर और घातक परमाणु बमों के जखीरे तैयार हो रहे हैं. यहाँ भारत कि जनता को धरम कीर्तन और नाटक-नौटंकी में उलझाया जा रहा वहाँ पाकिस्तान  में साम्प्रदायिक तत्वों की कोशिश है कि न केवल पाकिस्तान में बल्कि समूचे भारतीय उप महाद्वीप में उनके मंसूबे कामयाब हों.बहरहाल तो अमेरिका के पाकिस्तान में घुसकर ओसामा को मार देने से भारत विरोध की जगह अमेरिका विरोध अन्दर-अन्दर सुलगने लगा है.भारत के प्रति पाकिस्तान की अमनपसंद जनता का रुख कुछ मामूली सा द्रवित हुआ है.किन्तु भारत में अमूर्त सवालों को लेकर कोहराम मचा हुआ है ,विदेशी हमलों से निपटने का जज्वा नदारत है. भारतीय मीडिया ने क्रिकेट की तरह सारे संसार में अपने वैभव का लोहा मनवाने का बीजमंत्र खोज  लिया है.वह कभी भ्रस्टाचार को ,कभी सत्ता पक्ष को,कभी विपक्ष को,कभी भ्रुस्ट व्यवस्था को,कभी अन्ना एंड कम्पनी के जंतर-मंतर पर ज़न-लोकपाल विधेयक कि मांग को लेकर किये गए अनशन को और कभी दिल्ली के रामलीला मैदान में अभिनीत 'बाबा रामदेव के योग से राजनीती की और परिभ्रमण 'के प्रहसन को ,एक अद्द्य्तन प्रोडक्ट के रूप में संपन्न माध्यम वर्ग और साम्प्रदायिक तत्वों के समक्ष परोसने  में जुटा है.  बाबा रामदेव के वातावरण प्रदूश्नार्थ उबाऊ ,चलताऊ  भाषणों और उनके पांच सितारा नकली सत्याग्रह को तमाम इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने लगातार महिमा मंडित करने की मानो शपथ ले रखी है.दूसरी ओर इसी दिल्ली में २३ फरवरी २०११ को देश भर से आये १० लाख नंगे  भूंखे मजदूर-किसान और शोषित  सर्वहारा  न तो इस बिकाऊ मीडिया को दिखे और न ही अन्न्जी या रामदेव को दिखे.
     रामदेव यदि बाबा या स्वामी होते तो अनशन को सत्याग्रह में क्यों बदलते?पतंजलि योगसूत्र के स्वद्ध्याय से क्रमिक विकाश की मंजिल राजनीती की गटर गंगा नहीं होती -समझे बाबा रामदेव!यम ,नियम,आसन,प्रत्याहार,प्राणायाम ,ध्यान,धारणा और समाधी में से आप किसी एक को ही आजीवन करते रहेंगे तो दोई दीन से जायेंगे.क्योंकि अष्टांगयोग एक सम्पूर्ण विधा और ब्रहम विद्द्या है ,आप अकेले लोम-विलोम या शारीरिक आसनों को योग बताकर भारत के सम्पूर्ण योग शाश्त्रों का मखौल उड़ा रहे हैं अस्तु आप न तो योगी हैं और न स्वामी ,आप केवल नट-विद्द्या और शाब्दिक राष्ट्रवादी लफ्फाजी में सिद्धहस्त हैं .आप कभी भारत स्वाभिमान,कभी विदेशी वस्तू बहिष्कार,कभी 
आयुर्वेद बनाम एलोपैथी का विरोध,कभी विदेशी बैंकों में जमा काला धन और अब ४ जून २०११ को पूर्व लिखित स्क्रिप्ट अनुसार आपने ऐंसी तमाम मांगें रामलीला मैदान में बखान की कि बरबस ही वाह!वाह!कहना पड़ा.तब  तो आपने हद ही कर दी जब  'व्यवस्था परिवरतन'का नारा दे दिया .अब यह तो सारा संसार जानता है कि इसका तात्पर्य होता है 'क्रांति' जो कि साम्यवादियों,समाजवादियों,नक्सलवादियों और मओवादिओं  का पेटेंट है. मान गए बाबा रामदेव आपने संघ परिवार को तो पहले से ही साध रखा थाकिन्तु कांग्रेस को साधने में गच्चा खा गए. बाबा रामदेव ने वही गलती की जो एक बन्दर ने की थी और नाई कीदेखा देखी अपने हाथों अपनी गर्दन काट ली थी.रामदेव इतने मूर्ख हो सकते हैं ये तो जनता को तब मालूम
 पड़ा जब कपिल सिब्बल ने आचार्य बालकृष्ण का हस्ताक्षक्षारित सहमती पत्र मीडिया के सामने खोला.उस पत्र के खुलासे ने न केवल बाबाजी के चटुकारकरता-धर्ता  बल्कि मीडिया भी अब बाबाजी की जड़ें खोदने में जुट गया है. ,अबबाबा जी के नकली सत्याग्रह की कहानिया चठ्कारे लेकर लिखी जाएँगी.पढ़ी भी जाएगी. ४ जून से २० जून २०११ तक दिल्ली के रामलीला मैदान में पूर्वानुमति से और पूर्ण सहमती से कांग्रेस और केंद्र सरकार को साधकर ही बाबा रामदेव ने ये नकली सत्याग्रह  किया  है .अब तक परिस्थतियों ने कांग्रेस और खास तौर से दिग्विजय सिंह का साथ दिया है.उन्होंने बाबा पर और बाबा के शुभ चिंतकों पर जो-जो आरोप लगाये थे वे सहज ही सच सवित होते जा रहे हैं.
भोली भाली देश भक्त जनता जो कि भ्रष्टाचार से आजिज आकर किसी अवतार या क्रांति कि तलबगार हो चुकी थी उसे एक बार फिर उल्लू बनाया गया और बनाने वाले भले ही रंगे हाथ पकडे गए किन्तु धन-दौलत को मान -सम्मान से ऊँचा समझने वाले बाबा रामदेव आप !  वाकई आज इस भारत भूमि पर सबसे बड़े वैश्विक कलाकार हो.आपके उज्जवल भविष्य की शुभकामनाओं के साथ ,क्रांति के लिए वेस्ब्री से इन्तजार करता आपका एक चिर आलोचक विनम्र निवेदन करता है किअपने गुनाहों को छिपाने के लिए धर्म -अध्यात्म और भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को दांव पर न लगायें.धन्यवाद. आपके दकियानूसी भाषणों और कोरी राष्ट्रवादी लफ्फाजी से आहात आपका एक चिर आलोचक.
        श्रीराम तिवारी