जैसा की मेने अपने विगत आलेख "सुजलाम-सुफलाम-मलयज-शीतलाम-भाग{एक]में रेखांकित किया है कि सभ्यताओं के शुभारम्भ से ही सचेत और दूरदर्शी मानवो ने सितारों की गति से धरती पर और धरती कि गतिशीलता से उस पर अवस्थित प्रत्येक चेतन-अचेतन वस्तु या पिंड कि स्थिति
पर परिवर्तन का नियम प्रत्यारोपित किया था.कालांतर में १८ वीं शताब्दी के मध्य में उसे वैज्ञानिक प्रयोग कि कसौटी पर कसा गया और "पदार्थ और उर्जा की अविनाष्ट्ता तथा उसके संरक्षण का सिद्धांत"प्रतिपादित किया गया.तदनुसार ब्रम्हाण्ड में जिस किसी पदार्थ का अस्तित्व है वह कभी भी समूल नष्ट नहीं होगा,किन्तु वह नित्य परिवर्तनशीलता के नियमानुसार या तो परिवर्ती पदार्थ में उसके आनुषांगिक अवयवों में या उर्जा के किसी संभाव्य रूप में जीवित अवश्य रहेगा .
प्रस्तुत सिद्धांत के अनुसार हमारा सौरमंडल,ज्ञात आकाश गंगाएं,नीहारिकाएं और हमारी यह प्यारी पृथ्वी सभी नित्य परिवर्तनशील हैं.ये परिवर्तन बर्फ-पानी-भाप जैसे भौतिक और दूध से दही-छाँछ बनने की तरह रासायनिक भी हो सकते हैं.,ये परिवरतन चंद्रमा की घटती -बढ़ती कलाओं की तरह नियमित भी हो सकते हैं और ये परिवरतन किसी खगोलीय विराट गुरुतीय कारणों से होने वाले अनियमित प्रलय,खंड प्रलय या महा-प्रलय जैसे भी हो सकते हैं.निष्कर्ष यह है कि ब्रह्माण्ड कि परिवर्तनीयता में पृथ्वी का विनाश,आंशिक विनाश अथवा सम्पूर्ण विनाश सन्निहित है.यह यदि उसके अपने स्वभाविक -सहज समयांतराल पर होने की कल्पना केवल भारतीय पुराणकारों ने ही कही होती तो में भी उसे 'कपोल-कल्पना'धार्मिक आश्था'अंध-विश्वाश या अवैज्ञानिकता के खाते में जमा कर देता..किन्तु न केवल पुराण,न केवल संहिताएँ,और न केवल वेदान्त-दर्शन अपितु अब तो सारा पश्चिमी भौतिकतावादी-विज्ञानवादी बौद्धिक वर्ग भी प्रकारांतर से इस धरती की आयु को विभिन्न कालखंडों से गुजरते हुए अपने अंत की संभावित भविष्यवाणियाँ करने लगा है तबइस सिद्धांत में द्वैत नहीं रह जाता.अब विवेचना का विषय सिर्फ इतना ही नहीं हो सकता कि"धरती अपनी सहज मौत मरती है तो मर जाए, कोई उज्र नहीं ,मनुष्य को पृथ्वी का विनाश अपने हाथों से नहीं करना चाहिए" इससे से इतर मनुष्य ही एक ऐसा तत्व है जो कि धरती की उम्र यदि घटा सकता है तो बढ़ा भी सकता है{!}यह मेरी वैयक्तिक ह्य्पोथीसिस हो सकती है,सिद्ध करने की क्षमता मुझ में नहीं है.बहरहाल मेरे प्रस्तुत आलेख का मकसद यह है कि धरती कि आयु घटाने वाले तत्वों और उसकी आयु बढ़ा सकने वाले तत्वों की पहचान की जाए.जैसे की कोई योग्य चिकित्सक सर्वप्रथम अपने मरीज के मर्ज़ की पहचान निर्धारित करता है और फिर रोग निदान के उपायों-उपादानो-दवाइयों,परहेजों तथा जांचों की प्रिस्क्रिप्सन लिखता है.विश्व स्वाश्थ संगठन या विश्व राजनैतिक मंच के अजेंडे में यह विषय शीर्ष पर होना चाहिए.यह एक दो आलेखों या एक-दो सेमीनारों के बूते की बात नहीं.यह समग्र संसार में समग्र ब्रह्मांड में सर्वकालिक -सार्वजनीन अभियानों का मुखापेक्षी विराटतम अभियान होना चाहिए.
अनावशय्क भय या वितंडावाद पैदा करना इस आलेख का मकसद नहीं.आज वैश्विक समग्र चेतना का सार तत्व है कि धरती संकट में है इसके लिए कुछ हद तक हम मनुष्य ही जिम्मेदार हैं,हम चाहें तो इसे अब भी बचा सकते हैं.आज जबकि हर बीस मिनिट में संसार से प्राणियों की एक प्रजाति विलुप्त हो रही है,योरोप-और एशिया में पाई जाने वाली गोरैया से लेकर अमरीकन पीका और खरगोश तक विलुप्त होते जा रहें ,आज जबकि कटते जंगलों और खतरनाक दवाओं और केमिकलों ने आसमान को गिद्ध विहीन कर दिया है,आज जबकि पृथ्वी पर शेष वचे केवल ४५०० बाघों का जीवन भी खतरे में है तब कल्पना की जा सकती है कि मामूली प्राण शक्ति-धारक अन्य जीवों के अस्तित्व का अंजाम क्या होगा?
मानव सभ्यता ने विकाश के मार्ग में जो बीज बोये थे उसकी विषेली और घातक फसल पूरे शबाब पर है.पृथ्वी के गगन मंडल में कार्बन-डाय-ओक्साइड कि भयानक बृद्धि ने उसमें आक्सीकरण कि प्रक्रिया के लिए जिम्मेदार साइनोबेक्तीरिया को लगभग निष्क्रिय बना डाला है.ओउद्द्योगिक विकाश के महा दैत्य ने तमाम प्राणियों समेत अपने जन्मदाता मनुष्य को भी अपने ख़ूनी जबड़े में ले रखा है.विश्व कि जनसँख्या लगभग सात अरब हो चुकी है,पृथ्वी के धरातल का ८६%मनुष्यों की दुर्दमनीय जिजीविषा और जहालत का चारागाह हो चुका है.संसार की अधिकाँश नदियाँ या तो मृतप्राय हो चुकीं हैं या आधुनिक औद्दोगीकरन का मल-मूत्र उदरष्ट करते हुए गंदे नालों में तब्दील हो चुकीं हैं.खेती के लिए बढ़ते हुए फर्टीलाईजर के कारण इको सिस्टम में नाइट्रोजन का वैसम्य अब प्रतिकूल हो चुका है.इसी कारण समुद्र का २४५००० वर्ग किलोमीटर क्षेत्र कम आक्सीजन वाला डेड जोन घोषित किया जा चुका है.
विगत दिनों महान वैज्ञानिक और नोबल विजेता पाल कुर्तज़ें ने अपनी थ्योरी से यह सावित किया है कि हम अपने ही बनाए ऐसे युग में या काल खंड में जी रहें हैं,जो हमारे ही विनाश का कारण बन सकता है.उन्होंने रेखांकित किया है कि पृथ्वी ने होलोसीन युग [हिमयुग के बाद के ११७०० वर्ष}१७८४ में तभी छोड़ दिया था जब स्टीम इंजन का आविष्कार हुआ था.१८ वीं सदी से पृथ्वी एन्थ्रोपोसीन युग में आ चुकी है.ये भयावह कालखंड हम मानवों ने स्वयम निर्मित किया है.जैव विविधता के विनाशकारी भयानक असंतुलन,समुद्र के बढ़ते जल स्तर,जंगलों और खेती योग्य उर्वरा भूमि पर कांक्रीट के जंगलों का दानवी आकार,ये सभी हम मनुष्यों की भोग लिप्सा के जीवंत प्रमाण हैं १९४५ में परमाणु शक्ति के आविष्कार से लेकर अमेरिकी सोवियत शीत युद्ध तक और अब ९/११ से लेकर २६/११ तक सर्वत्र भयानक एन्थ्र्पोसीन व्याप्त है.खनिज तेल और अन्य खनिजों के अनवरत खनन और परमानुविक कचरे के संकट ने सभी सुधी इंसानों को चकरघिन्नी बना डाला है..इतना सब होने पर धरती पर महाप्रलय नहीं तो खंड -प्रलय की संभावना तो अवश्य ही वन सकती है.इस दौर में कोई भी ऐरा -गैरा नथ्थू खेरा यदि २१-मई २०११ या २१ दिसंबर -२०१२ को धरती के विनाश की भविष्यवाणी करता है तो उसमें गलत क्या है? भले ही ये धरती अभी सदियों तक सलामत रहेगी किन्तु इंसान होंगे की नहीं इसकी गारंटी कोई नहीं दे सकता.यदि जलचर-नभचर-थलचर होंगे भी तो कैसे होंगे?शायद पुराणों को ठीक से पढने वाले ही उसकी कल्पना कर सकते हैं
श्रीराम तिवारी
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