शनिवार, 28 मई 2011

सुजलाम-सुफलाम-मलयज़-शीतलाम; भाग- [1]

  'धरती अपनी धुरी से आधा  फुट दूर हटी''और तेज हुई धरती के घूर्णन की गति''दिन छोटे और रात बड़ी होने लगी
               " धरती खिसकी, धरती खतरे में,बचा सको तो बचा लो इस धरती को. "
  इस  तरह के अन्य अनेक डरावने  और भयानक शीर्षकों वाले आलेखों और विभिन्न सूचना माध्यमों की और से तार्किक-अतार्किक,पुष्ट-अपुष्ट,वैज्ञानिक-अवैज्ञानिक समाचारों के शोरगुल में ततसम्बन्धी मूलगामी समष्टिगत चिंता विना किसी सर्वमान्य समाधान के यथावत और सनातन रूप से विद्यमान है.
     उपरोक्त विश्यन्तार्गत मानव सभ्यता के प्रारंभ से ही सार्वदेशिक-सर्वकालिक चिंतन और तत्संबंधी भविष्यवाणियाँ की जाने लगी थीं.संसार की विभिन्न मानव सभ्यताओं के विकाश क्रम और इतिहास के अनुशीलन से यह स्पष्ट होता है की मनुष्य ने सभ्यताओं के शैशवकाल में ही इस धरती को निश्चय ही स्वयम  अपने जैसा ही  नश्वर मानकर  उसकी हिफाजत का विचार अवश्य किया होगा.
             विवेकशील और प्रकृति के प्रति कृतग्य मानव ने निश्चय ही अपने वैयक्तिक सुखमय जीवन के लिए वांछित तत्कालीन सभ्यता के उपलब्ध संसाधनों के प्रचुर मात्रा में निरंतर उपभोग से उनके क्षरण का अनुभव किया होगा.प्राकृतिक संसाधनों की सीमित उपलब्धी और मानव सहित तमाम जीवों के निरंतर असीमित उपभोग ने कतिपय उन्नत सभ्यताओं के पुरोधाओं को सोचने पर मजबूर किया होगा कि प्राणीमात्र के रहने लायक यदि  इस धरती को  दीर्घ काल तक के लिए सुरक्षित रखना है तो उसका दोहन नियंत्रित करना होगा,साथ ही उसकी सेहत का ख्य्याल रखना होगा. जिन सभ्यताओं ने ऐसा  चिंतन किया,धरा को माता का सम्मान दिया,प्राणीमात्र कोअबाध्य   माना और अहिंसा का अमरगीत गाया उनमें भारतकी प्राचीन आदिम साम्यवादी {राजा विहीन उप्निशाद्कालीन गणतांत्रिक व्यवस्था}का स्थान सारे संसार में सर्वोपरि है. जिन्होंने सिर्फ  मनुष्य के येहिक सुखों की खातिर विज्ञान के आविष्कार किये और धरती के ह्र्य्दय को चीर डाला ,जिन्होंने धर्मान्धता या धन लोलुपता के वशीभूत होकर अतीत में सारे संसार को रौंदा है वे आज भी इस धरती पर कोहराम मचाने के लिए परमाणु बम के जखीरे तैयार कर रहे हैं.इन  अ-सभ्यताओं ने पश्चिम गोलार्ध में और दक्षिण एशिया में धरती को रक्त रंजित करने का अपना सदियों पुराना आदमखोर स्वभाव इस २१ वीं सड़ी में भी  नहीं छोड़ा है.  इन्ही खुदगर्जों ने धरती को जगह जगह छेदकर लहू -लुहान कर दिया है.ऊपर से तुर्रा ये है कि विकसित कहे जाने वाले राष्ट्रों द्वारा  अपनी लिप्साओं का ठीकरा दुनिया की उस अकिंचन-अनिकेत  आवादी के सिर फोड़ा जा रहा जिसने धरती पर जन्म तो लिया है किन्तु उसका रंचमात्र अहित या शोषण नहीं किया बल्कि भूंख-प्यास ,सर्दी-गर्मी और जीवन -मरण में इस वसुंधरा के प्रति अपना कृतज्ञता भाव कदापि नहीं छोड़ा.
                    भारतीय और चीनी चिंतन परम्परा को बौद्ध दर्शन ने निसंदेह पंचशील सिद्धांतों के तहत सदियों तक अविकसित और दुर्भिक्ष का शिकार बनवाया किन्तु यह  भी अकाट्य सत्य है कि यह बौद्ध दर्शन और उसका जनक वेदान्त दर्शन इस महान तम आप्त वाक्य के  उद्घोषक रहे हैं कि "धरती सबकी है""अहिंसा परम धर्म है"तृष्णा दुःख का कारण है"
      इसी चिंतन परम्परा को जर्मन दार्शनिकों ने प्रोफेषर मेक्समूलर तथा कतिपय इंडो-यूरोपियन विद्वानों के मार्फ़त जाना.जर्मनी के सभी विश्विद्यालयों की यह मध्ययुगीन खाशियत थी की जहां एक ओर वहाँ दनादन संहारक अनुसंधान हो रहे थे वहीं दूसरी ओर प्राच्य मानवीय दर्शन पर निरंतर न केवल अनुसन्धान अपितु उस पुरातन भारतीय ज्ञान को अपडेट भी किया जा रहा था.महान जर्मन दार्शनिक कार्ल मार्क्स ने भारतीय दर्शन -चाणक्य,चार्वाक,कपिल,कणाद,भवभूति,वैशेषिक ,न्याय और उत्तर मीमांसा का गहन अध्यन करते हुए यूनानी दर्शन और भारतीय दर्शन के सत्व को मिलकर ओवेन और दुह्रिंग के सिद्धांतों को जो की सर के बल खड़े थे ,उसे पैरों पर पर खड़ा कर दिया और दुनिया ने जिसे' मार्क्सवाद 'का नाम दिया.  जिन भारतीय स्थापनाओं को मार्क्स ने स्वतंत्र रूप से वैश्विक आर्थिक और सामाजिक कसौटी पर विज्ञान सम्मत सिद्ध किया उनमें धरती को भोगने और बर्वाद करने वाले वर्ग को पूंजीपति वर्ग और धरती के अनगढ़ प्राकृतिक स्वरूप को संवारने ,सौन्दर्य प्रदान करने  वाले वर्ग को सर्वहारा वर्ग कहते हैं.
        आज यही पूंजीपति वर्ग और उसका दासीपुत्र मीडिया धरती के विनाश की,धुरी से खिसकने की ,पर्यावरण प्रदूषण की,तापमान बढ़ने की,ग्लेश्यर पिघलने की ज्वलामुखी फटने की और सुनामियों के आक्रमणों की सच्ची -झूंठी कहानियों को टी वी चेनलों पर दिखाने और टी आर पी बढाने तक का उपक्रम करते रहते हैं ,यदि दुनिया के शोषक शशक वर्ग अपने स्वार्थों,मुनाफों,और राष्ट्रीय सीमाओं के अतिक्रमण को रक्त रंजित करने के लिए विश्व सर्वहारा को बलि का बकरा बनाते रहेंगे तो निसंदेह धरती जिसका विनाश अपने तयशुदा काल चक्र के अनुसार भले ही सूरज चाँद और सितारों की गति से निर्धारित हो किन्तु वर्तमान दौर के पूंजीवादी भौतिकवादी वैज्ञानिक अन्धानुकरण से धरती अपने योवन काल में ही अप्रसूता हो जायेगी.
                                        श्रीराम तिवारी

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