रविवार, 15 मई 2011

वाम मोर्चे की इस पराजय से उग्र वाम का आक्रमण और तेज होगा

     अप्रैल-मई -२०११ में पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव संपन्न  हुए; इन चुनावों के परिणामों से न केवल सम्बन्धित राज्यों का बल्कि सम्पूर्ण भारत का राजनैतिक परिदृश्य चिंतनीय बन गया है.देश और दुनिया के राजनैतिक विचारक ,हितधारक अपने-अपने चश्में से इस वर्तमान दौर की बदरंग तस्वीर को अभिव्यक्त कर रहे हैं.राजनीति विज्ञान का ककहरा जानने वालों को मेरे इस आलेख में नया और रोमांचक कुछ भी  भले ही न मिले;किन्तु यथार्थ दृष्टिकोण वाले सुधीजन कतई निराश नहीं होंगे.
           इन चुनाव परिणामों में असम को छोड़ बाकी अन्य चारों राज्यों में परिवर्तन की लहर देखी जा सकती है.असम में कायदे से असम गणपरिषद और भाजपा के गठबंधन को सत्ता में आना चाहिए था किन्तु वे परिवर्तन की हवा  अनुकूल होते हुए भी तरुण गोगोई नीति कांग्रेस सरकार को उखाड़ फेंकने में असमर्थ रहे.ऐसा क्यों हुआ यह आने वाले दिनों में और ज्यादा स्पष्ट हो सकेगा.इतना  तय है की यु पी ऐ द्वतीय को भृष्टाचार के आरोपों के दौर में भी सत्ता सुख बदस्तूर जारी रहेगा.यह समझ बैठना कतई उचित नहीं होगा कि असम कि जनता ने अपरिवर्तन का प्रमाणीकरण किया है.जनता तो परिवर्तन के लिए न केवल असम में बल्कि पूरे देश में एक पैर पर खडी है.यह विपक्ष कि जिम्मेदारी है कि बेहतरीन आकर्षक सदाचरितऔर करिश्माई विकल्प पेश करे.यदि असम में यह नहीं हो सका तो यह भी सम्भव है कि पूरे देश के आगामी लोक सभा चुनावों में भी न हो सके!तब केंद्र कि सत्ता में यथास्थिति कि संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता.
                केरल विधान सभा चुनाव में तो साठ के दशक से ही वहाँ कि जनता ने एक अलिखित नियम सा बना लिया है कि प्रत्येक पांच साल में प्रदेश कि सत्ता में परिवर्तन किया जाएगा.चूँकि इस दफे बारी यु डी ऍफ़ {कांग्रेस नीट गठबंधन}की ही थी सो मात्र दो सीट की बढ़त से ही सही वही सत्ता में आ गया.इस बार वाम मोर्चे ने बेहतरीन प्रदर्शन किया और ६९ सीट पाकर एक नया कीर्तिमान बनाया की भले ही जनता ने सत्ता परिवर्तन किया हो किन्तु एल डी ऍफ़{सी पी  एम् नीत गठबंधन}के अच्छे काम-काज को प्रमाणीकृत करते हुए उसे सम्मान जनक विपक्ष की भूमिका में प्रतिष्ठित किया है.जो लोग इस तथ्य से आँख मींचकर सिर्फ वाम विरोध के सिंड्रोम से ग्रस्त हैं,उन्हें केरल जाने की जरुरत नहीं वहां के विगत चुनावों का लेखा जोखा खंगालकर तस्दीक कर सकते हैं कि कांग्रेस नीत यु डी ऍफ़ गठबंधन को विपक्ष कि स्थिति में ऐंसा प्रचंड समर्थन कभी नहीं मिला.केरल में आइन्दा जब भी चुनाव होंगे वहाँ वाम मोर्चा {सी पी एम्  नीत गठबंधन}ही सत्ता में आएगा.मीडिया का दकियानूसी हिस्सा और कांग्रेस के चारण यदि कहें कि अब तो भारत में वामपंथ का कोई भविष्य नहीं तो उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि वे ऐंसा १९५८ से कर रहे हैं.यह जग जाहिर है कि न केवल भारत बल्कि सारे विश्व में वह केरल कि जनता ने ही कर दिखाया था कि किसी देश के केंद्र की सरकार तो भले ही पूंजीवादी या सामंतवादी हो ,किन्तु किसी भी प्रांत विशेष में न केवल साम्यवादी या समाजवादी बल्कि अन्य वैकल्पिक विचारधारा की सरकार चलाई जा सकती है.जैसी की आज भारत में अधिकांस उपलब्ध विचारधाराओं की सरकारें विभिन्न राज्यों में चल भी रहीं हैं.यह ६० के दशक में अकल्पनीय था.जब सबसे पहले केरल में १९५८ में साम्यवादी सरकार बनी तो नेहरु -इंदिरा से ज्यादा केनेडी को तकलीफ हुई.इधर-उधर की बहानेबाज़ी से कांग्रेस ने उस प्रजातांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार की भ्रूण हत्या कर दी.उसी का परिणाम है की केरल में ई एम् एस नम्बूदिरीपाद से लेकर वी एस अचुतानंदन तक की ६० सालाना राजनैतिक यात्रा में सी पी एम् के बिना केरल का इतिहास लिखा जाना संभव नहीं.केरल की जनता ने भारत में गठबंधन राजनीती का सर्वप्रथम सूत्रपात किया था. जो राष्ट्रीय दल पहले अपने बल बूते पर देश की लानत -मलानत किया करते थे आज वे सब गठबंधन धरम निभाने के लिए ज्योति वासु या हरकिशन सिंह सुरजीत का शुक्रिया अदा करते हुए सत्ता में विराजमान हैं.कांग्रेस ,भाजपा या तीसरा मोर्चा कोई भी अब अकेले ही केंद्र की सत्ता हासिल कर पाने में समर्थ नहीं.यह वाम मोर्चे की ही देन है.इसी आधार पर  'कामन -मिनिमम प्रोग्राम देश के हित में बनाए जाने की परम्परा चल पडी जो की लेफ्ट फ्रोंट की ही देन है.वाम मोर्चे के खाते में ढेरों उपलब्धियां हैं किन्तु केरल में सी पी एम् के बड़े नेता अपने अहंकार में और आपसी खींचतान में न उलझे होते तो इस बार भी केरल में एल डी ऍफ़ ही जीतता और यह भी उसका एक शानदार इतिहास होता.मात्र दो सीट के बहुमत पर केरल में यु डी ऍफ़ की सरकार बने जा रही है और कुछ सावन के अंधे कह रहे हैं की वामपंथ तो ख़त्म ही हो गया...
           पुद्दुचेरी में विद्रोही कांग्रेसियों ने सत्ता हथिया ली,सशक्त विपक्ष के अभाव में जनता ने अपना अभिमत यों दिया मानों वह कांग्रेस को हटाना चाहती हो किन्तु विकल्प के अभाव में कांग्रेस की बी टीम को  साधना कांग्रेस के खुर्राट नेताओं के बाएं हाथ का काम है.
         तमिलनाडु में करूणानिधि परिवार की महाभ्रुष्ट लहरों ने जय ललित्था  को बैठे बिठाये तिरा दिया.हर्रा लगा न फिटकरी रंग चोखा हो गया,जय ललिता के भृष्टाचार को तमिलनाडु के लोग भूल गए तो हम याद करके क्या भेला कर लेंगे? परिवर्तन के लिए विकल्प के रूप में जो वहां की जनता को सामने दिखा उसे ही चुन लिया ;भले ही वो ऐ राजा-कनिमोज़ी-या करुणानिधी से भी ज्यादा भृष्ट हो.भाजपा या कम्युनिस्ट तो मानों अब भी वहाँ अवांछित हैं.
        पश्चिम बंगाल में १९७७ से २०११ तक लगातार वाम मोर्चा {सी पी एम् के नेतृत्वमें गठबंधन}की सरकार रही है.वर्तमान दौर के विधान सभा चुनाव में उसे जनता ने विपक्ष मैं बैठने और आत्म चिंतन का सुअवसर प्रदान किया है.चूँकि एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में यह कतई जरुरी नहीं की जनता विपक्ष को मौका ही न दे,अतः यह सुनिश्चित था कीकभी-न-कभी तो वाम मोर्चे को भी विपक्ष में बैठना ही होगा.इस नियम के अनुसार ३४ साल तो बहुत ज्यादा होते हैं,उससे से पहले ही बीच में यह सिलसिला टूटना चाहिए था ताकि जो दुर्गति विगत १० साल में ममता और उसकी वानर सेना ने बंगाल की कर डाली वो न हो पाती.लोकतंत्र-जनवाद-सामाजिक समानता और प्रगतिशील आर्थिक नीतियों की दम पर वाम मोर्चे ने बंगाल के लिए सब कुछ किया और उसी की बदौलत सात बार जीते भी किन्तु ज्योति वसु की शानदार विरासत को सँभालने के लिए जिस आभा मंडल की जरुरत थी वो बुद्धदेव नहीं जुटा पाए.उनकी ईमानदारी और जन-निष्ठां पर किसी को संदेह नहीं,घोर विरोधी ममता और कांग्रेस ने भी बुद्धदेव और उनके साथियों की ईमानदारी पर कोई सवाल नहीं उठाया.देश और दुनिया के सुधीजन अच्छी तरह जानते हैं की वाम मोर्चा सरकार ने बंगाल के करोड़ों भूमिहीनों को आपरेशन वर्गा के तहत जमीन का मालिक बनाया.विगत ३५ साल में एक भी साम्प्रदायिक दंगा उस पश्चिम बंगाल में नहीं होने दिया जिसमें सिद्धार्थ शंकर राय के ज़माने में लाशे विछी रहती थीं.बिजली ,सब्जी ,पीने का पानी,चावल,चाय बागन ,जूट एवं मछली उत्पादन में बंगाल को पूरे देश में नंबर वन किसने बनाया?ममता ने?आनंद बाज़ार पत्रिका ने?तृण मूलियों ने ?या महाश्वेता देवियों ने?पश्चिम बंगाल में बिहार से भागकर आये भूमिहीन -रोजगार विहीन गरीवों को कलकत्ते में तांगा चलाते देख जिन भांडों ने मगर मच्छ के आंसू बहाए वे ममता के छल -छद्म और भोंडी नट-लीला को फिलवक्त वोट में बदलवाने में भले ही कामयाब हो गए हों किन्तु 'बकरे की माँ कब तक खेर मनाएगी?कतिपय टी वी चेनल्स और तुकड्खोर अखवारों ने लगातार नेनो काण्ड ,नंदीग्राम,लालगढ़ और सिंगूर को साधन बनाया और उनका अपावन लक्ष्य क्या था?वाम मोर्चे को सत्ताचुत करना ,क्योंकि उनके आका अमेरिका ने और विश्व कार्पोरेट सेकटर ने बंगाल की वाम मोर्चा सरकार को न केवल भारतीय राजनीती में बल्कि वैश्विक आर्थिक सरोकारों में उनके हितों के विपरीत पाया था.वेशक पश्चिम बंगाल की जनता को हक है की वो जिसे चाहे सत्ता सौंप दे,किन्तु जब सम्पूर्ण यु पी ऐ +मीडिया +माओवादी+बंगाल के भूत पूर्व जमींदार+टाटा के विरोधी पूंजीपति+विकाश विरोधी+साम्प्रदायिक तत्व+दलाल वुद्धिजीवी =ममता हो जाये तो ३४ साल तक दूध का धुला वाम पंथ भी कोयले से काला नजर तो आना ही था.यह अच्छा ही हुआ कि वाम मोर्चा  को जनता ने कुछ दिनों {कम से कम ५ साल}के लिए विपक्ष में कर्तव्य पालन सौंप दिया है.और उससे भी अच्छा यह हुआ कि ममता बेनर्जी {तृण मूल तो एक अस्थाई मंच है}को सत्ता सौंप दी.चूँकि जनता ने उन्हें प्रचंड  बहुमत नाबाज़ा है सो उनके तानाशाह बन्ने में कोई अड़चन नहीं है.उन्हें लोकतंत्र,जनवाद,संविधान और सामूहिक नेत्रत्व जैसे अल्फाजों से नफरत है सो उनके शीघ्र ही उफनती नदी कि तरह विनाश के महासिंधु में मिल जाने की पूरी सम्भावना है.बुद्धदेव या वाम मोर्चें में कोई खोट नहीं थी .उन्हें इतिहास के इस मोड़ पर इसीलिये लाया गया है कि अबकी बार न केवल बंगाल,न केवल केरल ,न केवल त्रपुरा बल्कि पूरे देश के मेहनतकश -किसानो,मजूरों,युवाओं और गरीवों को एकजुट करें और लाल किले पर लाल झंडा फहराएं.
          केंद्र कि यु पी ऐ सरकार भले ही अपनी पीठ ठोके,किन्तु ये कडवा सच है कि देश कि तीनो राष्ट्रीय पार्टियाँ इन चुनावों में खेत रहीं हैं.भाजपा ने ८५० उम्मेदवार खड़े किये थे सिर्फ ५ सीटें मिली हैं,कांग्रेश को असम से ही संतोष करना होगा क्योकि ममता तो कटी पतंग है,तमिलनाडु और पुदुचेरी में उसे नफरत से देखा जा रहा है ,केरल में सिर्फ दो सीट के बहुमत का क्या ठिकाना?वामपंथ भी फिलहाल तो बेक फूट पर ही है अतः क्षेत्रीय ताकतें बलवान होती जा रहीं हैं इससे राष्ट्र कि एकता को खतरा हो सकता है.मजूरों-किसानों और वेरोजगार युवाओं कि वेहतरी कि आशाएं जिन पर टिकी थी उन वाम पंथियों के कमजोर होने से नक्सलवाद,माओवाद,के रूप में उग्र वामपंथ देश पर हावी हो सकता है जो भारत जैसे देश कि सेहत के लिए शुभ सूचना नहीं होगी.
         श्रीराम तिवारी
                            
                                   

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