'कम्युनिस्ट घोषणा' पत्र में जो कुछ भी कहा गया है,वह कम्युनिस्टों ने भले ही भुला दिया हो या ठीक से न पढ़ा हो,किंतु दूसरे महायुद्ध के बाद मार्क्सवादी दर्शन की विश्वव्यापी लोकप्रियता ने दुनिया भर के शासकों को मजबूर कर दिया था कि वे साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद तथा शोषणकारी अर्धसामंती -पूँजीवादी व्यवस्थाओं में जन कल्याणकारी सुधार करें अथवा खुद खत्म हो जाने को तैयार रहें!
आज के नव्य उदारवादी और वैश्विक बाजार आधारित भूमंडलीक्रत दौर में भी दुनिया का ऐंसा कोई कोना नही बचा जहाँ जनगण की इच्छाओं का समादर किसी राज्यसत्ता द्वारा पूरा न किया जाता हो! इस नजरिये से देखें तो ट्रंप,मोदी,शिंजो आबे और दूसरे तमाम् प्रतिक्रियावादी सरकारोंके मुखिया मार्क्सिस्ट ही हैं। और जो मार्क्स के सच्चे उत्तराधिकारी हैं, वेशक वे बहुत अच्छे खिलाड़ी हो सकते हैं,किंतु यदि वैश्विक पूँजीवाद रूपी क्रिकेट के मैदान में उन्हें खेलने का अवसर ही नही मिलेगा तो वे क्रांति रूपी विजयी शतक कैसे लगायेंगे? जब आवाम को रोटी मुफ्त,पानी मुफ्त,तीर्थयात्रा मुफ्त,शौचालय मुफ्त,और गैस तथा मकान भी मुफ्त मिलने लगेंगे तो संघर्ष के लिये कोई दायरा ही नही बचेगा!
जो लोग पूंजीवादी साम्राज्यवाद के पैरोकार रहो,दक्षिणपंथी पत्रकार और बुद्धिजीवी रहे, जो कभी मार्क्स,एंगैल्स को गालियां दिया करते थे,वे भी अब मार्क्सवादी बघारने को आतुर हैं!
लेनिन ने अपनी प्रसिद्ध रचना ,,राज्य और क्रांति,, के प्रारंभ में ही ऐसे लोगों को आगाह किया था कि क्रांति को विफल करने में पूँजीवाद कौन कौन से हथकंडे अपना सकता है! वेशक बिखरे वामपंथ को भारत में अपेक्षित सफलता नही मिली,किंतु यह सिर्फ दक्षिण एसिया और भारत की ही नही बल्कि अफ्रीका और लातीनी अमेरिका और अरब देशों की भी यही कहानी है,कि जनता फिलहाल कोई विप्लव खुद नही चाहती! जनता नही चाहती कि कोई अचानक एक मुस्त हिंसक बदलाव की नौबत आये !
बाजारबाद और आधुनिक उन्नत साइंस & टैक्नॉलॉजी पर पूर्णत: निर्भर उच्च वर्ग सिर्फ मुनाफे का फिक्रमंद है!जबकि मध्यम वर्ग धीरे धीरे जनोन्मुखी परिवर्तन स्वीकार करने में यकीन रखता है,और पूँजीवादी मीडिया और उन्नत सूचना तंत्र की कलाबाजी से अनजान सर्वहारा को नहीं मालूम कि क्रांति किस चिड़िया का नाम है!वह चुनाव के दौरान सिर्फ मतदाता है,नेता के भाषणों का श्रोता है और साम्प्रदायिक दंगों का कच्चा माल है! मंदिर,मस्जिद,गुरूद्वारे,चर्च,होली, ईद,इत्यादि उसकी आस्था के स्त्रोत हैं और पूँजीवादी दलों द्वारा चुनाव में बांटी गई रेबड़ियां ही उसका आर्थिक विकास है,इन हालात में 100% सर्वहारा क्रांति के लिये जब जनता ही तैयार नही,तो लोक सभा या विधान सभा चुनावों में लैफ्ट पार्टियों की हार के लिये वामपंथी दलों और जुझारू कामरेडों को दोषी ठहराना,मूर्खता है!
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