चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण कर के जीव स्थावर , उद्भिज , स्वेदज , अण्डज प्रभृति अवस्थाओं के ग्रहण एवं परिहार पूर्वक क्रमशः स्वभाव के स्त्रोत से अंत में जरायुज-श्रेणी प्राप्त होता है । फिर क्रमशः जरायुज -श्रेणी की अर्ध्वतम सीमा पर पहुँचकर दुर्लभ मनुष्य देह पाता है ।
एक एक श्रेणी में नाना प्रकार की क्रमोत्कृष्ट देह की प्राप्ति होती है । जिस प्रकार नदी का स्त्रोत स्वभावतः ही समुद्र की ओर प्रवाहित होता है ,उसी प्रकार पुरुष -संसर्ग के वश विक्षुब्ध-प्रकृति का अन्तःस्रोत भी पुरुष की ओर ही प्रवाहित होता है । इसीलिए जीव बीजरूप प्रकृति के गर्भ में आविर्भूत होकर क्रमशः ऊँचा उठता रहता है, एवं क्रमशः उत्कृष्टतर देह प्राप्त करता रहता है । यह कृत -कर्म का फल नहीं है । प्राकृतिक -स्रोत के स्वाभाविक परिणाम का ही फल है । अहं भाव की स्फूर्ति न होने तक जीव का कर्माधिकार नहीं होता । अतएव मनुष्य-देह पाने के पूर्वतक चौरासी लाख देहों में संचरण केवल प्राकृतिक व्यापार ही है ,उसके मूल में व्यक्तिगत इच्छा या कर्म -प्रेरणा नहीं है । परन्तु मनुष्य देह के साथ संसर्ग होते ही कर्तृत्वाभिमान उत्पन्न हो जाता है, एवं इसीलिए कर्माधिकार की उत्पत्ति एवं फल-भोग आवश्यक होता है । उस समय प्राकृतिक स्रोत का प्रभाव नहीं रहता एवं जीव स्वकृत कर्मों से उर्ध्वगति या अधोगति प्राप्त करता है । प्राकृतिक गति सरल व ऊर्ध्वमुखी है , पर कर्म की गति वक्र चक्राकार एवं अनन्त वैचित्र्यमयी है , क्योंकि अभिमान के विकास से अनन्त प्रकार की लीलामय इच्छा का स्फुरण होता रहता है ।
इस अभिमान की निवृत्ति से ही स्वाभाविक गति का सूत्रपात होता है ।इस स्वाभाविक सरल गति को फिर पाने के लिए ही दीक्षा ग्रहण करके योगादि साधनों के अनुष्ठान की आवश्यकता होती है ।
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