मनुष्य जाति की तमाम अनन्य खोजों और अनुसंधान परम्पराओं में- विज्ञान,भूगोल,खगोल,मेडिकल साइंस,भाषा विज्ञान,व्याकरण,शिक्षा ,साहित्य, तकनीकी,सूचना एवं संचार,व्यापार -वाणिज्य, धर्म-मजहब ,अर्थ ,काम ,मोक्ष,मनोविज्ञान,और दर्शन शाश्त्र इत्यादि खोजों में 'दर्शनशास्त्र' सबसे अधिक ताकतवर और अदुतीय है।मनुष्य जब धार्मिक होता है तो व्यक्ति के कल्याणार्थ श्रद्धा ,भक्ति ,ज्ञान ,कर्म ,योग और ईश्वर का संधान करता है। लेकिन दर्शनशास्त्री के रूप में मनुष्य जब गौतम बुद्ध होता है तब वह ईश्वर के अस्तित्व पर मौन हो जाता है।अर्थात वह ईश्वर के होने या न होने पर कोई घोषणा नहीं करता अपितु मनुष्य के दुःख कष्ट निवारण की विधियों की आंतरिक खोज को 'बोध' या एनलाईटमेन्ट कहता है। मनुष्य जब 'नीत्से' हो जाता है तो वह घोषणा करता है कि 'मनुष्य ने ईश्वर को पैदा किया था किन्तु अब वह मर चुका है'!और यही मनुष्य जब रूसो होता है, तब वह घोषणा करता है कि ''ईश्वर यदि नहीं भी है तो क्या हुआ उसे फिर से पैदा करो क्योंकि मानवता मानवता के हित में ईश्वर का होना नितांत आवश्यक है।'' यही मनुष्य जब एक वैज्ञानिक नजरिये वाला महानतम तर्कशात्री -कार्ल मार्क्स होता है तब वह घोषणा करता है कि ''ईश्वर सिर्फ मानवीय संवेदनाओं के भावजगत का विषय है, कुछ चालॉक धूर्त लोगों ने धर्म को शोषण का धंधा बना डाला है ,धर्म -मजहब मानों अफीम हैं''!
इस परम्परा में मेरा स्वयं का वही मत है जो वेदांत दर्शन आधारित है। ''ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंचित जगत्यामजगत,तेनत्यक्त्येन भुंजीथा,मा गृधकस्विद्धनम'' -[ईशावास्योपनिषद १-१] चूँकि उपरोक्त में से किसी भी दर्शनशात्री ने इस उत्कृष्ट वेदांत का अध्यन ही नहीं किया था,इसलिए वे सभी एकांगी और अधूरे रहे हैं। जबकि वेदांत की ईष्वर संबंधी घोषणा न तो यह कहती कि ईश्वर है और न यह कहती कि ईश्वर नहीं है। बहुत सम्भव है कि महात्मा बुद्ध ने भी शायद् इसी वेदांत सूत्र को अपने आर्य सत्यों के साथ नत्थी किया होगा । यह सूत्र कालजयी और सम्पूर्ण विज्ञानमय है ! स्वयंसिद्ध है। इसमें न तो मनुवाद है , जातिवाद है और न ब्राह्मणवाद है और न आश्तिक नास्तिक की झंझट है ,यह तो मनुष्यमात्र को निम्तर श्रेणी से उच्चतर श्रेणी की ओर ले जाने का शानदार दुर्लभ सोपान है।
मेरे पिता पंडित तुलसीराम तिवारी ठेठ ग्रामिणि सीमान्त किसान हुआ करते थे। उच्च कुलीन कान्यकुब्ज ब्राह्मण होंने के वावजूद वे सभी जात और समाजों का बहुत आदर किया करते थे। उनके पास आजीविका के निमित्त कमाने के लिए वैद्द्यगिरी का भरपूर ज्ञान भण्डार था। लेकिन वे बिना फीस लिए मुफ्त दवा देकर गाँवके उन तथाकथित पिछड़ों,दलितों अहीरों,लोधियों और बनियों की आजीवन मुफ्त सेवा करते रहे जो मेरे पिता से अधिक जमीन के मालिक हुआ करते थे। चूँकि हमारे पूर्वज यूपी से सागर जिले के धामोनी स्टेट आ वैसे थे। और जब धामोनी को मुगलों ने आग लगा दी तो जान बचाकर वे पिड़रुवा आ वसे। सहज ही समझा जा सकता है कि है कि किसी बाहरी व्यक्ति के पास स्थानकों के सापेक्ष जमीन जायदाद कितनी होगी ? पिताजी ने थोड़ी सी जमीन बटाई पर लेकर, जंगल से लकड़ी काटकर शहर में बेचकर और गौ पालन के दमपर अपने परिवार का जैसे तैसे गुजर वसर किया। लम्बी आयु उपरान्त २८ जुलाई १९८८ को वे इस संसार को अलविदा हो गए । वे अपने पीछे भरा पूरा परिवार और विरासत में नेकनामी यह कि आसपास के सात गांव के लोग आज भी उनकी समाधि पर मत्था टेकने आते हैं। क्योंकि उन्होंने ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया। पूज्य पिताश्री के लिए वे दलित हरिजन आज भी ज्यादा पूज्य मानते हैं जिन्हे शहर के कुछ जातिवादी नेताओं ने, मनुवाद और ब्राह्मणवाद जैसे काल्पनिक शब्दों के जहरीले इंजेक्शन लगाए गए हैं। अब गाँव में कोई भाईचारा नहीं बचा ! हर जगह अधिकार और नफरत की बबूल उग चुकी है। जिस किसी ने ब्राह्मणवाद बनाम मनुवाद का नामकरण किया है वो भारतीय समाज के नीर क्षीर में नीबू निचोड़ने के लिए जिम्मेदार है।
उनके निधन के बाद जब बटवारा हो गया तब मैंने अपने हिस्से की जमीन बड़े भाईयों को कमाने के निमित्त दे दी। जमीन पिताजी के समय जितनी थी वह आज भी उतनी ही है। गाँव में मेरे दो बड़े भाई जैसे तैसे उससे गुजारा करते हैं। जब तक मैं सर्विस में रहा उनकी कुछ मदद कर दिया करता था ,लेकिन अब चूँकि सेवानिवृत्त हूँ और पति-पत्नी दोनों बीमार रहते हैं ,इसलिए उनकी मदद बहुत कम कर पा रहा हूँ। बड़े भाइयों के बच्चे उचित मार्गदर्शन के अभाव में पर्याप्त तालीम हासिल नहीं कर सके। ५५ साल पहले गरीबी और अभाव में जो संघर्ष का माद्दा गाँव के युवाओं में हुआ करता था वो अब नदारद है। गाँवों में सेलफोन या इंटरनेट तो केवल मुझमे था उसे मुझे बचपन की धुंधली सी याद है की थोड़ी सी असिंचित जमीनके अलावा आठ - दस भेंसें,पन्द्रह - बीस गायें ,तीन जोडी बेल और दस पन्द्रह छोटे मोटे बछेरु- पडेरू हुआ करते थे ! बडा भारी सन्युक्त परिवार था!मुझसे बड़े तीनों भाई चुंकी खेती में पिताजी का हाथ बटाया करते थे ,इसलिये मुझे पढाई का सुअवसर मिल गया !लेकिन मुझे यह सदाश्यता इस शर्त पर मिली कि रात का चारा ,रातेबा और सुबह की सानी में हाथ बटाना होगा !इसके अलावा दो अलिखित शर्तें और थीं ,एक तो आधी रात... को भेंसें चराने के लिये जन्गल ले जाना और तीनों बड़े भाइयों में से कोई यदि बीमार पढा या किसी नेवते में गया तो उसका एवजी मुझे आवश्यक रूप से बनना ही होता था,इसके वावजूद मैं प्रथम श्रेणि में ही पास होता था !किंतु मेरे दो मित्र मुझे हमेशा पछाड् दिया करते थे ! जबकी मेरे मित्र खुद मानते थे कि मैं उनसे अधिक मेधावी हूँ !लेकिंन उनमें से एक के पिता जनपद सी ईओ थे और एक की माताजी खुद लेक्चरर हुआ करती थीं ! मेरे पिता एक निर्धन किसान थे ,ऊँहोने कभी स्कूल या पढ़ाई वावद दखल नही दिया अत: मैं भरसक प्रयास के वावझूद हमेशा एक दो नम्बर से तीसरे स्थान पर संतोष करना पड़ता था!पिताजी को मुझपर बडा नाज था और मेरे प्रथम श्रेणी उत्तरींण होने को ही वे प्रथम याने टापर मान बैठते थे
इस परम्परा में मेरा स्वयं का वही मत है जो वेदांत दर्शन आधारित है। ''ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंचित जगत्यामजगत,तेनत्यक्त्येन भुंजीथा,मा गृधकस्विद्धनम'' -[ईशावास्योपनिषद १-१] चूँकि उपरोक्त में से किसी भी दर्शनशात्री ने इस उत्कृष्ट वेदांत का अध्यन ही नहीं किया था,इसलिए वे सभी एकांगी और अधूरे रहे हैं। जबकि वेदांत की ईष्वर संबंधी घोषणा न तो यह कहती कि ईश्वर है और न यह कहती कि ईश्वर नहीं है। बहुत सम्भव है कि महात्मा बुद्ध ने भी शायद् इसी वेदांत सूत्र को अपने आर्य सत्यों के साथ नत्थी किया होगा । यह सूत्र कालजयी और सम्पूर्ण विज्ञानमय है ! स्वयंसिद्ध है। इसमें न तो मनुवाद है , जातिवाद है और न ब्राह्मणवाद है और न आश्तिक नास्तिक की झंझट है ,यह तो मनुष्यमात्र को निम्तर श्रेणी से उच्चतर श्रेणी की ओर ले जाने का शानदार दुर्लभ सोपान है।
मेरे पिता पंडित तुलसीराम तिवारी ठेठ ग्रामिणि सीमान्त किसान हुआ करते थे। उच्च कुलीन कान्यकुब्ज ब्राह्मण होंने के वावजूद वे सभी जात और समाजों का बहुत आदर किया करते थे। उनके पास आजीविका के निमित्त कमाने के लिए वैद्द्यगिरी का भरपूर ज्ञान भण्डार था। लेकिन वे बिना फीस लिए मुफ्त दवा देकर गाँवके उन तथाकथित पिछड़ों,दलितों अहीरों,लोधियों और बनियों की आजीवन मुफ्त सेवा करते रहे जो मेरे पिता से अधिक जमीन के मालिक हुआ करते थे। चूँकि हमारे पूर्वज यूपी से सागर जिले के धामोनी स्टेट आ वैसे थे। और जब धामोनी को मुगलों ने आग लगा दी तो जान बचाकर वे पिड़रुवा आ वसे। सहज ही समझा जा सकता है कि है कि किसी बाहरी व्यक्ति के पास स्थानकों के सापेक्ष जमीन जायदाद कितनी होगी ? पिताजी ने थोड़ी सी जमीन बटाई पर लेकर, जंगल से लकड़ी काटकर शहर में बेचकर और गौ पालन के दमपर अपने परिवार का जैसे तैसे गुजर वसर किया। लम्बी आयु उपरान्त २८ जुलाई १९८८ को वे इस संसार को अलविदा हो गए । वे अपने पीछे भरा पूरा परिवार और विरासत में नेकनामी यह कि आसपास के सात गांव के लोग आज भी उनकी समाधि पर मत्था टेकने आते हैं। क्योंकि उन्होंने ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया। पूज्य पिताश्री के लिए वे दलित हरिजन आज भी ज्यादा पूज्य मानते हैं जिन्हे शहर के कुछ जातिवादी नेताओं ने, मनुवाद और ब्राह्मणवाद जैसे काल्पनिक शब्दों के जहरीले इंजेक्शन लगाए गए हैं। अब गाँव में कोई भाईचारा नहीं बचा ! हर जगह अधिकार और नफरत की बबूल उग चुकी है। जिस किसी ने ब्राह्मणवाद बनाम मनुवाद का नामकरण किया है वो भारतीय समाज के नीर क्षीर में नीबू निचोड़ने के लिए जिम्मेदार है।
उनके निधन के बाद जब बटवारा हो गया तब मैंने अपने हिस्से की जमीन बड़े भाईयों को कमाने के निमित्त दे दी। जमीन पिताजी के समय जितनी थी वह आज भी उतनी ही है। गाँव में मेरे दो बड़े भाई जैसे तैसे उससे गुजारा करते हैं। जब तक मैं सर्विस में रहा उनकी कुछ मदद कर दिया करता था ,लेकिन अब चूँकि सेवानिवृत्त हूँ और पति-पत्नी दोनों बीमार रहते हैं ,इसलिए उनकी मदद बहुत कम कर पा रहा हूँ। बड़े भाइयों के बच्चे उचित मार्गदर्शन के अभाव में पर्याप्त तालीम हासिल नहीं कर सके। ५५ साल पहले गरीबी और अभाव में जो संघर्ष का माद्दा गाँव के युवाओं में हुआ करता था वो अब नदारद है। गाँवों में सेलफोन या इंटरनेट तो केवल मुझमे था उसे मुझे बचपन की धुंधली सी याद है की थोड़ी सी असिंचित जमीनके अलावा आठ - दस भेंसें,पन्द्रह - बीस गायें ,तीन जोडी बेल और दस पन्द्रह छोटे मोटे बछेरु- पडेरू हुआ करते थे ! बडा भारी सन्युक्त परिवार था!मुझसे बड़े तीनों भाई चुंकी खेती में पिताजी का हाथ बटाया करते थे ,इसलिये मुझे पढाई का सुअवसर मिल गया !लेकिन मुझे यह सदाश्यता इस शर्त पर मिली कि रात का चारा ,रातेबा और सुबह की सानी में हाथ बटाना होगा !इसके अलावा दो अलिखित शर्तें और थीं ,एक तो आधी रात... को भेंसें चराने के लिये जन्गल ले जाना और तीनों बड़े भाइयों में से कोई यदि बीमार पढा या किसी नेवते में गया तो उसका एवजी मुझे आवश्यक रूप से बनना ही होता था,इसके वावजूद मैं प्रथम श्रेणि में ही पास होता था !किंतु मेरे दो मित्र मुझे हमेशा पछाड् दिया करते थे ! जबकी मेरे मित्र खुद मानते थे कि मैं उनसे अधिक मेधावी हूँ !लेकिंन उनमें से एक के पिता जनपद सी ईओ थे और एक की माताजी खुद लेक्चरर हुआ करती थीं ! मेरे पिता एक निर्धन किसान थे ,ऊँहोने कभी स्कूल या पढ़ाई वावद दखल नही दिया अत: मैं भरसक प्रयास के वावझूद हमेशा एक दो नम्बर से तीसरे स्थान पर संतोष करना पड़ता था!पिताजी को मुझपर बडा नाज था और मेरे प्रथम श्रेणी उत्तरींण होने को ही वे प्रथम याने टापर मान बैठते थे
हर साल केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा मंडल सहित अन्य वार्षिक परीक्षाओँ के तथाकथित टापर्श की बड़ी पूँछ परख होने लगती है ! टीवी चेनल वाले उनके घर पहुँच जाया करते हैं !औरों से आगे रहना ,प्रसिद्धी पाना और फिर परिवार एवं स्कूल को गौरवान्वित करना वाकई गर्व की बात तो है ! भगवद गीता में योगेश्वर श्रीक्रष्ण ने हर प्रकार के यश की कामना को याने ईशना को भी एक मायिक दूर्गुण माना है !जो आदिवासी और गरीब ग्रामींणों के बच्चे मेहनत मजूरी करके अपनी पढाई पूरी करते हैं, वे यदि सेकिन्ड् या थर्ड डिविजन भी उत्तीर्ण हुये तो मेरी नजर में ज्यादा प्रशंसा के पात्र हैं ! नोयडा दिल्ली बेंगलूरू में आली शान सर्वसुविधा सम्पन एलीट्स क्लास् की औलाद य़दि स्कूल के स्टाफ की मदद से टाप करे तो वह नेकनामि नही !ऐंसे टापर तो बिहार में भी नाम कमा चुके हैं !
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