सभ्य संसार में आदिम मानव से लेकर ऋग्वेद काल तक की यात्रा में जितने भी अनसंधान या अन्वेषण हुए उनमें मनुष्य द्वारा 'ईश्वर की खोज' सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि है !यदि धर्मान्ध और धर्मभीरु लोगों की बातों को न भी माने तो भी जानकारों ,इतिहासविदों ,पुरारतत्वविदों,वैज्ञानिकों और दार्शनिकों की आम राय है कि सभ्यताओं के उत्थान -पतन ,भौतिक विकास और 'धर्म' का उदय इत्यादि उपादान ईश्वर अल्लाह की परिकल्पना से पूर्व के हैं। भारतीय संस्कृत- वैदिक वांग्मय में अष्टाबक्र,जनक ,कपिल ,कणाद और अन्य मन्त्र द्रष्टा ऋषियों के'तत्वदर्शन' में अद्भुत वैज्ञानिकता का समावेश निहित है।इसी तरह ओल्ड टेस्टामेंट और कुरान शरीफ में भी साइंटिफिक मानवीय जीवन जीने की कला का ही निर्देशन है। लेकिन कालांतर में अरब -मध्य एशियाई सभ्यताओं के उत्तराधिकारियों ने अपनी युद्धपिपासा और साम्राज्य्वादी लूट की तृष्णा के कारण सारे एशिया और यूरोप को केवल चरागाह मन लिया। जबकि भारतीय उपमहा द्वीप के प्रगत मनुष्य ने आत्मा ,अविद्द्या , माया और इन सबके सर्वेश्रवा ' ईश्वर' को अपना सर्वश्व अर्पित कर दिया। जब सारे विश्व का एक सृष्टा ,पालनहार और संहारक मान लिया तो फिर कोई पराया भी नहीं रहा। इसीलिये जब शकों,हूणों,कुषाणों ,तुर्को ,खिलजियों सैयदोंमुगलों ,अंग्रेजों ने भारत को चरागाह मानकर यहाँ मुँह मारा तो इन बर्बर कबीलाई समाजों को भारतीय सनातन परम्परा ने 'ईश्वर पुत्र 'मानकर 'बसुधैव कुटुंबकम' धर्म का पालन किया ! मिश्रित जीवन संस्कृति की यात्रा में व्यक्ति ,परिवार ,समाज को संचालित करने के लिए इस भारतीय भूभाग में सभी समाजों ने अपने धर्मग्रंथ ,और अपने अपने रीति रिवाज सहेज लिए। किन्तु आधुनिक पूँजीवाद और लोकतान्त्रिक राजनीती ने पुरातन मूल्यों, धर्म ,श्रद्धा और पुरातन रीति रिवाजों को अप्रासंगिक बना दिया है। हिन्दुओं में जिस तरह सती प्रथा या बालविवाह अप्रासंगिक हो आगये उसे तरह इस्लामिक जगत में 'तीन तलाक'की अब कोई अर्थवत्ता नहीं रही। वेशक इस पर वोट की राजनीती और मजहबी उन्माद की खेती की जा सकती है !
इस २१वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में, न केवल जाहिल बर्बर मजहबी आतंकी बल्कि सभ्य शिक्षित और वैज्ञानिक समाज भी बुरी तरह गुत्थत्मगुत्थःहो रहा है। कुछ अपवादों को छोड़कर ,इस युग की दुनिया दो हिस्सों में बँटकर ,दो विपरीत ध्रुवों पर खड़ी है। हर देश में, हर समाज में,हर मजहब में,हर कबीले में,हर परिवार में , तमाम नर नारी विपरीत मोर्चों पर आपने सामने खड़े हैं ! हाँलाकिं वैश्विक स्तर पर कार्ल मार्क्स द्व्रारा आविष्कृत 'वर्ग संघर्ष' के सिद्धांत से पूर्व भी दुनिया इस धरती पर 'सभ्यताओं के संघर्ष' या कबीलाई संघर्ष विद्यमान रहे हैं। अशांति, द्व्न्द, विप्लव का सिलसिला तो उतना ही पुराना है ,जितना पुराना परिवार, समाज और राष्ट्र !सभ्यताओं के संघर्ष का इतिहास भी बहुत पुराना है। लेकिन अतीतमें चूँकि 'शांति की खोज' और 'सत्य की खोज' के संसाधन बहूत सीमित थे ,और थे भी तो केवल धर्म दर्शन और अध्यात्म तक ही सीमित थे। लेकिन वर्तमान लोकतान्त्रिक दुनिया में और आजाद एवं रोशन ख्याल दुनिया में अशांति क्यों बढ़ती जा रही है ?इसकी पड़ताल बहुत जरुरी है कि 'सभ्य संसार' में अशांति और विप्लवी कोलाहल क्यों बढ़ रहा है ?
जिस तरह असफल व्यक्ति ,असफल समाज और असफल राष्ट्र की दुनिया में कोई एक आदर्श स्थति नहीं हो सकती !उसी तरह सफल व्यक्ति ,सफल समाज और सफल राष्ट्र का भी दुनिया में कोई आदर्श मानकीकरण नहीं हो सकता ! जो व्यक्ति ,समाज या राष्ट्र सफल कहे जाते हैं वे देश, काल, परिस्थतियों के अलावा असफल व्यक्तियों ,असफल समाजों और असफल राष्ट्रों की मूर्खता का बेजा फायदा उठाते हैं। इस संसारमें हमेशा ही कुछ शक्तिशाली और नेकदिल करुणावान लोगों की मौजूदगी बनी रहती है,उनकी सदाशयता का बेजा फायदा उठाकर ही कुछ बदमाश और काइंयां लोग तथाकथित सफलता को प्राप्त होते रहते हैं। लेकिन तमाम असफल लोगो की असफलता के लिए बहुत हद तक वे खुद ही जिम्मेदार होते हैं। यह तथ्य न केवल तार्किक या बौद्धिक आधार पर , बल्कि आध्यात्म दर्शन के कार्य कारण सिद्धान्तानुसार भी यह स्वयं सिद्ध है कि ''कोई किसी को सुख दुःख दने वाला नहीं हो सकता,सभी अपने अपने कर्म का फल भोगते हैं ''!
असफल व्यक्तियों ,असफल समाजों और असफल राष्ट्रों की असफलता याने अपने समय के समांनातर उनके पिछड़ने का खास कारण सिर्फ देश, काल, परिस्थतियाँ नहीं होतीं !और चतुर चालाक लोग भी पूर्णतः जिम्मेदार नहीं होते ! बल्कि असफल लोगों, असफल समाजों और असफल राष्ट्रों में जो संकल्प शक्ति और चेतना का अभाव हुआ करता है वह 'अभाव' ही उनकी तमाम असफलताओं का प्रमुख घटक माना जाना चाहिए। असफल लोगो,असफल समाजों और असफल राष्ट्रों की असफलता के लिए- सफल लोग,सफल समाज और सफल राष्ट्र कुछ हद तक कसूरवार अवश्य होते हैं। यह भी सम्भव है कि उनकी असफलता का कारण -देश, काल, परिस्थितियाँ भी हों! लेकिन जिसके संकल्प में ईमानदारी ,मेहनत ,परिश्रम और सच्चाई न हो उसका रास्ता कभी सही नहीं हो सकता। जिसका रास्ता सही नहीं हो ,उसका संकल्प भी सही नही होगा ! ऐंसा व्यक्ति,ऐसा समाज और ऐसा राष्ट्र न तो आरक्षण से, न तर्कसे ,न कुतर्क से और न राज्य सत्ता प्राप्ति से आगे नहीं बढ़ सकता। वह किसी बेहतर मंजिल पर कभी नहीं पहुँच सकता। मंजिल पर पहुंचने का हकदार वही है, जिसका संकल्प सही है !सवाल उठ सकता है कि सही रास्ता कौन सा है ? इसकी पड़ताल के लिए दुनिया का अनुभव मनुष्य के सामने पसरा पड़ा है।
यदि आपको साइंस टेक्नॉलॉजी और धर्म -दर्शन के साथ साथ आध्यत्मिक जगत के अध्यन में रूचि है, तो आपको जिंदगी के हर क्षेत्र में औरों की अपेक्षा अधिक जटिल सवालों से जूझना होगा। यदि आप 'परमानंद' प्राप्ति की ओर अग्रसर हैं ,यदि आप कैवल्यपद ,परमपद,अव्वयपद या मोक्ष की कामना पूर्ण करने में अनुरक्त हैं। तो भले ही आपने संसार त्याग दिया हो ,सन्यास ले लिया हो, किन्तु आपको मुमुक्षु तभी कहा जा सकता है जब आप जीवित रहकर उसकी साधना कर सके। निसंदेह योगारूढ़ सन्यासी का मुमुक्षु हो जाना अर्थात अवतारी पुरुष जैसा हो जाना जैसा है ! लेकिन उसके लिए यह जरुरी है कि उसकी संकल्प साधना के लिए वह जिन्दा कैसे रहेगा। ज़िंदा रहने के लिए उसे इस 'चैतन्य आत्मा' को इस नश्वर साधन धाम मानव शरीर में जिन्दा रहना होगा ! साधक को जिन्दा रहने के लिए आग पानी हवा ,रोटी ,फल के अलावा एक शांतिपूर्ण स्थल भी चाहिए । यदि उसके मुल्क में अमन नहीं ,फसलें नहीं और सुरक्षा या शांति नहीं तो देश फिर से गुलाम भी हो सकता है। तब साधक का कैवल्य ज्ञान ,बोधत्व और मोक्ष सब बेकार है।
इस २१वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में, न केवल जाहिल बर्बर मजहबी आतंकी बल्कि सभ्य शिक्षित और वैज्ञानिक समाज भी बुरी तरह गुत्थत्मगुत्थःहो रहा है। कुछ अपवादों को छोड़कर ,इस युग की दुनिया दो हिस्सों में बँटकर ,दो विपरीत ध्रुवों पर खड़ी है। हर देश में, हर समाज में,हर मजहब में,हर कबीले में,हर परिवार में , तमाम नर नारी विपरीत मोर्चों पर आपने सामने खड़े हैं ! हाँलाकिं वैश्विक स्तर पर कार्ल मार्क्स द्व्रारा आविष्कृत 'वर्ग संघर्ष' के सिद्धांत से पूर्व भी दुनिया इस धरती पर 'सभ्यताओं के संघर्ष' या कबीलाई संघर्ष विद्यमान रहे हैं। अशांति, द्व्न्द, विप्लव का सिलसिला तो उतना ही पुराना है ,जितना पुराना परिवार, समाज और राष्ट्र !सभ्यताओं के संघर्ष का इतिहास भी बहुत पुराना है। लेकिन अतीतमें चूँकि 'शांति की खोज' और 'सत्य की खोज' के संसाधन बहूत सीमित थे ,और थे भी तो केवल धर्म दर्शन और अध्यात्म तक ही सीमित थे। लेकिन वर्तमान लोकतान्त्रिक दुनिया में और आजाद एवं रोशन ख्याल दुनिया में अशांति क्यों बढ़ती जा रही है ?इसकी पड़ताल बहुत जरुरी है कि 'सभ्य संसार' में अशांति और विप्लवी कोलाहल क्यों बढ़ रहा है ?
जिस तरह असफल व्यक्ति ,असफल समाज और असफल राष्ट्र की दुनिया में कोई एक आदर्श स्थति नहीं हो सकती !उसी तरह सफल व्यक्ति ,सफल समाज और सफल राष्ट्र का भी दुनिया में कोई आदर्श मानकीकरण नहीं हो सकता ! जो व्यक्ति ,समाज या राष्ट्र सफल कहे जाते हैं वे देश, काल, परिस्थतियों के अलावा असफल व्यक्तियों ,असफल समाजों और असफल राष्ट्रों की मूर्खता का बेजा फायदा उठाते हैं। इस संसारमें हमेशा ही कुछ शक्तिशाली और नेकदिल करुणावान लोगों की मौजूदगी बनी रहती है,उनकी सदाशयता का बेजा फायदा उठाकर ही कुछ बदमाश और काइंयां लोग तथाकथित सफलता को प्राप्त होते रहते हैं। लेकिन तमाम असफल लोगो की असफलता के लिए बहुत हद तक वे खुद ही जिम्मेदार होते हैं। यह तथ्य न केवल तार्किक या बौद्धिक आधार पर , बल्कि आध्यात्म दर्शन के कार्य कारण सिद्धान्तानुसार भी यह स्वयं सिद्ध है कि ''कोई किसी को सुख दुःख दने वाला नहीं हो सकता,सभी अपने अपने कर्म का फल भोगते हैं ''!
असफल व्यक्तियों ,असफल समाजों और असफल राष्ट्रों की असफलता याने अपने समय के समांनातर उनके पिछड़ने का खास कारण सिर्फ देश, काल, परिस्थतियाँ नहीं होतीं !और चतुर चालाक लोग भी पूर्णतः जिम्मेदार नहीं होते ! बल्कि असफल लोगों, असफल समाजों और असफल राष्ट्रों में जो संकल्प शक्ति और चेतना का अभाव हुआ करता है वह 'अभाव' ही उनकी तमाम असफलताओं का प्रमुख घटक माना जाना चाहिए। असफल लोगो,असफल समाजों और असफल राष्ट्रों की असफलता के लिए- सफल लोग,सफल समाज और सफल राष्ट्र कुछ हद तक कसूरवार अवश्य होते हैं। यह भी सम्भव है कि उनकी असफलता का कारण -देश, काल, परिस्थितियाँ भी हों! लेकिन जिसके संकल्प में ईमानदारी ,मेहनत ,परिश्रम और सच्चाई न हो उसका रास्ता कभी सही नहीं हो सकता। जिसका रास्ता सही नहीं हो ,उसका संकल्प भी सही नही होगा ! ऐंसा व्यक्ति,ऐसा समाज और ऐसा राष्ट्र न तो आरक्षण से, न तर्कसे ,न कुतर्क से और न राज्य सत्ता प्राप्ति से आगे नहीं बढ़ सकता। वह किसी बेहतर मंजिल पर कभी नहीं पहुँच सकता। मंजिल पर पहुंचने का हकदार वही है, जिसका संकल्प सही है !सवाल उठ सकता है कि सही रास्ता कौन सा है ? इसकी पड़ताल के लिए दुनिया का अनुभव मनुष्य के सामने पसरा पड़ा है।
यदि आपको साइंस टेक्नॉलॉजी और धर्म -दर्शन के साथ साथ आध्यत्मिक जगत के अध्यन में रूचि है, तो आपको जिंदगी के हर क्षेत्र में औरों की अपेक्षा अधिक जटिल सवालों से जूझना होगा। यदि आप 'परमानंद' प्राप्ति की ओर अग्रसर हैं ,यदि आप कैवल्यपद ,परमपद,अव्वयपद या मोक्ष की कामना पूर्ण करने में अनुरक्त हैं। तो भले ही आपने संसार त्याग दिया हो ,सन्यास ले लिया हो, किन्तु आपको मुमुक्षु तभी कहा जा सकता है जब आप जीवित रहकर उसकी साधना कर सके। निसंदेह योगारूढ़ सन्यासी का मुमुक्षु हो जाना अर्थात अवतारी पुरुष जैसा हो जाना जैसा है ! लेकिन उसके लिए यह जरुरी है कि उसकी संकल्प साधना के लिए वह जिन्दा कैसे रहेगा। ज़िंदा रहने के लिए उसे इस 'चैतन्य आत्मा' को इस नश्वर साधन धाम मानव शरीर में जिन्दा रहना होगा ! साधक को जिन्दा रहने के लिए आग पानी हवा ,रोटी ,फल के अलावा एक शांतिपूर्ण स्थल भी चाहिए । यदि उसके मुल्क में अमन नहीं ,फसलें नहीं और सुरक्षा या शांति नहीं तो देश फिर से गुलाम भी हो सकता है। तब साधक का कैवल्य ज्ञान ,बोधत्व और मोक्ष सब बेकार है।
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