बुधवार, 22 जून 2016

१००% एफडीआई की कीमत पर भी भारत को एनएसजी की सदस्यता नहीं मिली - बहुत नाइंसाफी है !

तोरण का किला फतह करने में छत्रपति शिवाजी के बहुत  ही विश्वसनीय साथी और वीर सेनानी तानाजी वीर गति को प्राप्त हुए ! शिवाजी को जब यह सूचना दी गयी तो उनकी प्रतिक्रिया थी- ''गढ़ आला पर सिंह गेला'' ! मोदी जी को यदि एनएसजी अभियान में रंचमात्र भी सफलता मिल जाती तो कहा जा सकता था कि 'एनएसजी' तो  मिला किन्तु भारत एफडीआई के चंगुल में फंसा '! दुर्भाग्य से अपनी आर्थिक स्वतंत्रता की  इतनी बड़ी क़ुरबानी देने के बाद ,१००% एफडीआई के लिए भारतीय बाजार पूर्णरूपेण खोल देने के बाद भी यदि भारत को एनएसजी की सदस्यता नहीं मिली, तो कहना पडेगा कि ' राष्ट्रीय स्वाभिमान का सिंह तो गया ही ,एनएसजी का गढ़ भी नहीं मिला ' ! भारत के साथ इतनी बड़ी अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक  ट्रेजडी हो जाने के बाद सत्तासीन नेतत्व तो शुतरमुर्ग वाली बचाव की मुद्रा में आ गया । लेकिन कांग्रेस सहित तमाम पूँजीवादी विपक्ष के चेहरे पर तत्सम्बन्धित आक्रोश का नामोंनिशांन तक नहीं है। कहीं कोई आंदोलन नहीं !कोई प्रतिरोध नहीं ! कहीं कोई सवाल नहीं ! कांग्रेस के कुछ भूतपूर्व मंत्री और सत्ता के भूतपूर्व 'हितग्राही' खुद ही अपने बचाव की जुगत में हैं,इसीलिये सत्तारूढ़ नेतत्व की असरकारक आलोचना उनके बूते की बात नहीं ! अतः मोदी जी के लिए अभी 'परम स्वतंत्र न सिर पर कोई-भावै मनहिं करो तुम सोई' वाली कहावत चरितार्थ  हो रही है।

हजार ठोकरें खाने के बाद कोई गब्दू इंसान यदि 'ठाकुर' [आत्मविश्वासी] बन जाता है ,इस स्थति को सहज परिणीति अथवा गनीमत समझा जाता है ! जैसे कि 'यह  तो होना ही था' इसमें कोई अनहोनी बात नहीं । और बहुत कुछ लुटाने के बाद भी यदि किसी नेता या कौम का विवेक जागृत हो जाए तो उसे शहादत या बहादुरी का तमगा मिल ही जाता है ! यह इतिहास सिद्ध है कि कोई जिन्दा कौम अथवा राष्ट्र निरंतर गलतफहमी में रहने वाले नेतत्व का ज्यादा दिनों तक भार वहन नहीं करते । वर्तमान मोदी सरकार के दो वर्ष पूर्ण होने पर विगत जून-२०१६ के अंतिम सप्ताह में पीएम मोदी जी ने अपने दो साल के कार्यकाल का आकलन करते हुए शायद खुद ही महसूस किया  कि वे घरेलु और विदेश नीति के मोर्चे पर  बहरहाल  कुछ खास नहीं कर पाये हैं । अपनी दो सालाना अवधि का निराशाजनक प्रदर्शन छुपाने की असफल चेष्टा और उसके रिपोर्टकार्ड को मीडिया प्रेरित प्रोपेगेंडा की चमक से अपडेट करने की फितरत में केंद्र सरकार के प्रवक्ताओं ने आनन-फानन ऐलान किया कि मानसून अच्छा आने वाला है ! आमीन ! याने   हर खास और आम को सूचित किया जाता है कि महँगाई  खुद -ब -खुद रुक जाएगी । एनएसजी की  सदस्यता ना  सही अच्छे दिन तो उसके बिना भी आ जाएँगे   !

विदेश नीति के  मोर्चे पर हमारी विदेश मंत्री श्रीमती  सुषमा स्वराज ने विगत दो साल में दो महत्वपूर्ण -नेक काम किये हैं ! एक- गीता नामक गूंगी लड़की को पाकिस्तान से भारत लाकर इंदौर में नजर बंद करवाया और दूसरा सोनू नामक लड़के को बँगला देश से भारत लाकर उसके रिस्तेदारों तक पहुँचाया। भारतीय विदेश मंत्री का नाम  बहरहाल अभी तो मीडिया में सिर्फ इन मामलों तक  ही सीमित है। कभी-कभार ललित मोदी काण्ड इत्यादि में जरूर उनका नामोल्लेख  होता रहा है।  इसके अलावा विदेश मंत्रालय के बाकी सारे काम 'वन मेन आर्मी ' के रूप में हमारे डायनमिक प्रधान मंत्री श्री मोदी जी खुद ही देख रहे हैं।  मोदी जी के कूटनीतिक प्रयासों की तात्कालिक असफलता को यदि 'जो हुआ ठीक हुआ' की कहावत के रूप में सकारात्मक ढंग से लिया जाए तो ही उनके   प्रयास काबिले तारीफ़ माने जा सकते हैं। अन्यथा हकीकत में तो असफलता की दो खास वजह  हैं। पहली यह कि वे खुद 'एकला चलो रे' के मुरीद रहे हैं। दूसरी उनकी अमेरिका इत्यादि में 'आत्मघाती गोल' वाली भाषण शैली ।

विदेशी दौरों के दरम्यान मोदी जी के भाषणों की प्रतिक्रिया में 'मोदी-मोदी' के नारे  खूब सुनाई दिए । लेकिन उससे उनके समकालीन वैश्विक नेता खुश क्यों होने लगे ?  चीनी राष्ट्रपति शी जिन पिंग को उनसे ईर्षा क्यों नहीं होगी ? ब्राजील,आयरलैंड और न्यूजीलैंड के नेताओं को मोदी जी की लोकप्रियता से क्या फायदा ? हर कोई ओबामा या नवाज शरीफ जैसा नहीं हो सकता। इसीलिये दुनिया का हर कोई देश या उसका नेता  मोदी जी की हाँ में हाँ  मिलाने को तैयार नहीं। यही कारण है कि मोदी जी को विदेश नीति के मोर्चे पर काबिले ऐ गौर सफलता  नहीं मिल पाई । ऐंसा महसूस किया जा रहा है कि अपनी वैदेशिक असफलताओं से मोदी जी को यह इल्हाम हो चुका है कि भारत के पूर्ववर्ती पीएम या विदेश मंत्री सौ फीसदी नाकारा नहीं थे । शायद उन्हें यह भी एहसास हो गया होगा कि विदेश नीति के मामले में पहले वाली सरकारों और प्रधान मंत्रियों का अवदान भी कुछ कम नहीं था। वेशक चाहा तो पहले वालों ने भी बहुत कुछ था  और प्रयास भी बहुत किये किन्तु  भारत विरोधी कुटिल वैश्विक राजनीति ने उन्हें भी सफलता से महरूम ही रखा  ! इतिहास अपने आपको दुहरा रहा है , विदेश नीति के मोर्चे पर  अति -उत्साही मोदी जी को भी असफलता ही हाथ लग रही है।

मोदी सरकार को न केवल एनएसजी की असफलता का अफसोस है बल्कि पाकिस्तान और आईएस प्रेरित आतंकवाद पर भी उनका कोई काबू नहीं है। कोई   उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल नहीं हो पाने का मोदी जी को निजी तौर पर अफ़सोस अवश्य होगा।  वे पाकिस्तान से दाऊद ,हाफिज सईद,जैस-अलकायदा के  आतंकियों को भारत लाने और दण्डित करने में  असमर्थ रहे हैं । वे 'दुख्तराने हिन्द' और कश्मीर में भारत विरोधी कार्यवाहियाँ रोकने में भी असमर्थ रहे हैं । डॉ मनमोहनसिंह के समय जब एक बार दो भारतीय सैनिकों को रात के अँधेरे में आतंकियों द्वारा धोखे से मार दिया गया था -तो  गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी ने सिंह गर्जना के साथ कहा था, कि 'ये कायर सरकार है ,हम होते तो अंदर तक घुसकर मारते'! अब सत्ता में आने के बाद वेशक मोदी जी पाकिस्तान के अंदर तो हो आये ,लेकिन चाय पी और दुआ सलाम कर वापिस आ गए ! दुनिया जानती है कि चीन ने उसकी रणनीति के तहत पाकिस्तान को और वहाँ पनाह लेने वाले  भारत विरोधी आतंकियों को अभय दान दे रखा है।  वह अपने परम्परागत प्रतिद्व्न्दी भारत को ताकतवर क्यों होने देगा ? इस तथ्य के वावजूद ,मोदी जी ओवर कांफीडेंस के वशीभूत होकर  'एनएसजी' पर चीन के विरोध को द्रवीभूत करने के लिए , चीनी राष्ट्रपति शी जिन पिंग से मिलने खुद उज्वेगिस्तान जा पहुँचे ! उन्होंने अरुण जेटली जी को बीजिंग भेजा ताकि द्विपक्षीय आर्थिक मसलों के बहाने चीन को  'एनएसजी' के लिए भारत के राह में अड़ंगा नहीं लगाने के लिए राजी किया जा सके। उन्होंने विदेश सचिव जयशंकर को एनएसजी की महत्वपूर्ण मीटिंग में शामिल होने सियोल भेजा। लेकिन हत् भाग्य सब जगह हाँथ पैर मारने के वावजूद मोदी जी को असफलता ही हाथ लगी । लेकिन यह असफलता भारत की नहीं है। भारतीय विदेश नीति की प्राथमिकताओं में एफडीआई नहीं था ,किन्तु मोदी जी ने एनएसजी जैसी निरर्थक संस्था के लिए भारत के सम्प्रभु स्वाभिमान को ही दाँव पर लगा दिया। इसके वावजूद  भी मोदी सरकार के ये  प्रयास सराहे जा सकते थे ,यदि इस एनएसजी कीसदस्यता मिल गयी होती। लेकिन इस  असफलता की बड़ी भारी कीमत- १००% एफडीआई के रूप में अग्रिम  चुका दी गयी ,यह नितांत आत्मघाती -राष्ट्रघाती कदम है।

अपने वैदेशिक सघन प्रयास  विफल होने के बाद प्रधान मंत्री जी ने तमाम आलोचनाओं से देश और दुनिया का ध्यान डाइवर्ट करने के लिए कुछ तात्कालिक कदम उठाये हैुं । सबसे पहले उन्होंने पूना शहर से देश के चुनिंदा नगरों के 'स्मार्ट सिटी अभियान' का शुभारम्भ किया। उसके तुरंत बाद उन्होंने 'टाइम्स नाऊ ' के अर्णव गोस्वामी को एक संतुलित इंटरव्यू दिया। जिसमें उन्होंने विदेश नीति की असफलताओं पर चतुराई से पर्दा डालते हुए ,भाजपा के बड़बोले नेताओं की वाग्मिता पर अनायास स्प्ष्टीकरण दे डाला । उन्होंने रिजर्व बैंक गवर्नर रघुराम राजन का बचाव किया। इशारों-इशारों में सुब्र्मण्यम स्वामी जैसे 'उन्मुक्त'नेताओं से अपनी असहमति  जताई । विपक्ष की पृत्याशित आलोचना से बचते हुए मोदी जी ने 'सबका साथ सबका विकास' वाला नजरिया पुनः दुहराया । ठीक इसी नाजुक वक्त पर वित्तमंत्री जेटली के मार्फत केंद्रीय कर्मचारियों के वेतन आयोग की विलम्बित रिपोर्ट को भी केविनेट में पारित कर दिया । केंद्रीय कर्मचारी भले ही नाखुश हों ,आंदोलन -हड़ताल करें या देश की जनता महँगाई ,सूखा, अव्यवस्था,आतंक और कालेधन जैसे सवालों मुद्दे  पर हाय तौबा मचाती रहे , किन्तु मोदी जी ने इस विपरीत वातावरण को बहरहाल यू टर्न देने में सफलता अवश्य प्राप्त की है। इसी दौरान ओबामा जी की असीम अनुकम्पा से अमेरिकी लॉबी ने
भारत को अंतर्राष्ट्रीय मिसाइल टेक्नालॉजी कंट्रोल याने 'एमटीसीआर' में शामिल किये जाने की सूचना आनन-फानन मीडिया में चलावाई । गोकी एफडीआई के बदले 'एनएसजी' न सही एमटीसीआर तो दे ही दिया है।इससे  भारत के सत्तारूढ़ नेतत्व की जान में जान आई है। क्योंकि विगत दो साल की उल्लेखनीय उपलब्धि के लिए मुँह दिखाने लायक कुछ नहीं था ,अब कुछ तो अवश्य हासिल हुआ है। सर्वविदित है कि अमेरिका और चीन पाकिस्तान के मित्र कदापि नहीं हैं. दरसल ये महाशक्तियाँ पाकिस्तान की ओट में भारत को आगे बढ़ने से रोकने में निरंतर प्रयासरत  हैं । यदि भारत चाहता तो उसे एनएसजी में प्रवेश ४० साल पहले ही मिल जाता ,किन्तु अमेरिका और चीन की मंशा -भारत को घेरे रखने और पाकिस्तान के बराबर रखने की है। यह  भारत के सामने हमेशा से ही सबसे बड़ी चुनौती रही है।  

दुनिया के ४८ देश जिसके सदस्य पहले से ही हैं उस गुमनाम सी अंतर्राष्ट्रीय संस्था 'एनएसजी' [न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप] में शामिल होने के लिए भारत को  एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ रहा है। जिस वक्त ताशकंद में मोदी जी को चीनी राष्ट्रपति शी जिन पिंग टका सा जबाब दे रहे थे । ठीक उसी वक्त सियोल में आधा दर्जन देशों ने भारतीय विदेश सचिव एस जयशंकर को 'एनपीटी'[परमाणु अप्रसार संधि ] पर भारत के हस्ताक्षर नहीं होने के बहाने एनएसजी से महरूम करते हुए टका सा जबाब दे  रहे थे । वैसे भी यदि भारत को एनएसजी की सदस्यता मिल भी जाती है तो उससे भारत की शान में कोई चार चाँद नहीं लगने वाले थे। लेकिन बड़ी डींगे मारने के उपरान्त सदस्यता नहीं मिली तो भारत की  भद पिटना स्वाभाविक है। हर देशभक्त भारतीय का ठगा हुआ महसूस करना स्वाभाविक है । क्योंकि मोदी जी ने एनएसजी की सदस्यता की खातिर १००% एफडीआई  स्वीकार कर बहुत बड़ी कीमत जो अदा की है। इसके लिए उन्होंने संसद या जनता -जनार्दन से कभी कोई कोई सहमति भी नहीं ली । उन्होंने तो अपनी विदेश मंत्री सुषमा जी को भी अपनी विदेस यात्राओं में साथ नहीं रखा। सवाल उठना चाहिए कि क्या यह तौर तरीका लोकतांत्रिक है ?  वैसे भी एनएसजी के बहाने १००%एफडीआई भारत के लिए बहुत बड़ा आघात है।  बहुत खेदजनक है कि सब कुछ लुटाने के वावजूद भी  सफलता कोसों दूर है। अर्थात 'हनोज दिल्ली दूरस्थ '! पौरुष का आभासी शोरगुल और राष्ट्रीय शर्मिंदगी  भारत को  मुँह चिड़ा रही है ।

इसी दरम्यान  ब्रिटिश सरकार ने ब्रिटिश जनता का जनमत संगृह लिया है ,कि ग्रेट ब्रिटेन को 'यूरोपियन संघ' में रहना है या नहीं ! वहाँ की ५२% जनता का मत है कि यूरोपियन यूनियन छोड़ दिया जाए। ४८% जनता का मत है कि यूरोपियन यूनियन को न छोड़ा जाए। यह तय है कि अपनी निजी राय के विपरीत ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरून बहुमत जनता का ही साथ देंगे। वे तो प्रधान मंत्री पद  छोड़ने  को तैयार हैं। यही शुद्ध लोकतंत्रात्मक आचरण है। भारत के प्रधान मंत्री को कम से कम अपनी केविनेट या संसद से ही राय ले लेना चाहिए थी ,कि 'एनएसजी' में शामिल होने के लिए १००% एफडीआई किया जाए या नहीं ! अतीत में आस्ट्रेलिया ,ब्राजील,स्पेन ,तुर्की ,फ़्रांस, इटली जैसे देशों की सरकारों ने भी वहाँ की लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत  इसी  तरह जनतांत्रिक जनादेश प्राप्त कर नीतिगत फैसला लिये हैं । किन्तु यह भारत का दुर्भाग्य है कि व्यक्तिवादी सोच और अधिनायकवादी -आत्ममुग्धता से पीड़ित होने के कारण अपरिपक्व नेतत्व संसद की सहमति या जनता के जनादेश की  परवाह नहीं करते । यहाँ तो हालात यह हैं कि शायद विदेश मंत्री को भी कोई तवज्जो नहीं दी जाती  । सम्भवतः इसलिए मोदी सरकार को विदेश नीति के मोर्चे पर अपने दो साल के कार्यकाल में कहीं भी सफलता नहीं मिल पाई है। उलटे  इस दौर में भारत  के शत्रुओं की तादाद  बढ़तीं जा रही है। और भारत लगभग मित्रविहीन सा होता जा रहा है।   

हो सकता कि चीन,पाकिस्तान ,नेपाल ,श्रीलंका जैसे पड़ोसी देश किसी ईर्षा -द्वेष के कारण भारत से बैर भाव रखते हों ,किन्तु ब्राजील,आस्ट्रिया,तुर्की और आयरलैंड  जैसे दूर दराज के देश यदि एनएसजी प्रवेश में भारत का रास्ता रोक रहे हैं,तो प्रधानमंत्री मोदीजी को अपनी असफलताओं से कुछ तो सबक सीखना ही चाहिए ! उन्हें यह भी समझना चाहिए कि विपक्ष में रहकर किसी नेता या सरकार की आलोचना करना बहुत आसान है ,किन्तु खुद सत्ता में आते हैं तो  खेल के माप दंड  ही बदल जाते हैं। दूसरे जो काम नहीं कर सके ,यदि वह काम आप खुद  नहीं कर पाते तो बहुत शर्मिंगी महसूस हुआ करते हैं। अब मोदी जी को चाहिए कि कम -से -कम अपने पूर्ववर्ती बयानों का विहंगावलोकन ही कर डालें ! अपने पूर्व प्रधानमंत्रियों की कठिनाइयों को महसूस करें । और यह भी उचित होगा कि वे कृतज्ञभाव से अपने व्यक्तित्व और कृतित्व का परिमार्जन करते हुए कुछ प्रायश्चित भी करें। स्मरण रहे कि वे जिस एनएसजी की मेंबरशिप के लिये बेहद बैचेन हैं उसकी स्थापना से [१९७५] लेकर अब तक भारत की सभी सरकारों ने  इसी  तरह खूब बहुत पापड़ वेले हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि पहले वाले नेताओं ने इतना प्रचार या ढपोरशंख नहीं बजाया।

दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गयी ,किन्तु भारत की वैश्विक स्थिति अब भी एक मजबूर और गुलाम राष्ट्र जैसी ही है। मोदी जी के प्रयासों का परिणाम है कि देश को उग्र उदारीकरण माँद में धकेल दिया गया है। बावजूद  इसके अभी तक तो चीन-पाकिस्तान ही भारत के आड़े आ रहे थे ,लेकिन अब तो ब्राजील, तुर्की, न्यूजीलैंड और आस्ट्रिया जैसे पुछल्ले देश भी भारत की मुखालफत करने लगे हैं। वे भारत को परमाणु अप्रसार संधि का मतलब समझा रहे  हैं। अर्थात अब भारत की औकात यह है कि चौबे जी छब्बे बनने चले थे ,दुबे बनकर  वापिस आ गए। भारतीय प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने ताशकंद में शी जिन पिंग के साथ मीटिंग में क्या पाया और भारतीय विदेश सचिव इस जयशंकर ने सियोल में सम्पन्न ताजा एनएसजी की मीटिंग में क्या हासिल किया यही इस विमर्श की वस्तु स्थिति  को  अनुभूत  करेगा ।

 भारत  के नीति -निर्माता  विगत चालीस  साल से प्रयासरत  हैं कि भारत को न केवल एनएसजी में उचित स्थान मिले बल्कि उसकी विशाल आबादी के  मद्देनजर , विश्व के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक  देश के नाते ,उसे सुरक्षा परिषद में भी सम्मानजनक स्थान मिले ! किन्तु अभी तक इन दोनों ही मुद्दों पर किसी भी पार्टी की सरकार को कोई भी सफलता नहीं मिली। जिन लोगों की स्मरण शक्ति बेहतर है और जो ऐटॉमिक पॉवर संबंधी अन्तर्राष्टीय मामलों को समझने की कूबत रखते हैं ,वे अच्छी तरह जानते हैं कि परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों के ताकतवर समूह 'एनएसजी' याने  'न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप' की स्थापना ही भारत को नाथने के उद्देश्य से हुई  थी। जो लोग इस विषय में ज्यादा नहीं जानते उन्हें यह जानकर अचरज होगा कि जिस 'एनएसजी' में शामिल होने के लिए श्रीमान मोदी जी सघन प्रयासरत रहे हैं ,बेहद आतुर रहे हैं ,व्याकुल  रहे हैं,उस एनएसजी का गठन १९७५ में भारत को घेरने के मकसद से ही हुआ था। वर्तमान में एनएसजी का महत्व या मकसद चाहे जो हो, किन्तु इसकी स्थापना के वक्त इसका उद्देश्य  भारत जैसे सम्प्रभु - विकासशील देशों के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय परमाणविक नाकेबंदी करने में ही निहित था।  इस विषय में  मोदी सरकार की समझ और नीति पर प्रश्न चिन्ह लगना स्वाभाविक है कि इस एक वाक्य से प्रतिध्वनित होगी कि 'एनएसजी में शामिल होने के उनके सरोकार क्या हैं और अंतर्राष्ट्रीय व्यूह रचना क्या है ? 

जिस एनएसजी में शामिल होने के लिए मोदी जी दुनिया के तमाम देशों को साधने में जुटे हुए हैं ,जिसमें शामिल होने के लिए मैराथान  वैदेशिक यात्राएँ कर रहे हैं ,जिस एनएसजी की खातिर WTO /WB/IMF  और अमेरिका की शर्तों पर भारत  की अर्थ व्यवस्था को उदारीकरण के दलदल में धकेल रहे हैं, उस एनएसजी में शामिल होने के लिए भारत को पाकिस्तान और चीन ने ही ४० साल से रोक रखा है। वास्तव में इस 'एनएसजी' का गठन भारत को घेरने के लिए  ही हुआ था । और इस स्थिति के लिए कुछ हद तक  भारत  की ढुलमुल  सुरक्षा नीति एवं करप्ट राजनीति भी जिम्मेदार है । जब भारत ने सर्वप्रथम १८ मई १९७४  को पोखरण में अपना पहला परमाणु विस्फोट किया था, तब  भले ही भारत के परमाणु वैज्ञानिकों ने और तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने इसकी  सफलता में 'स्माइलिंग बुद्धा ' देखा हो ,किन्तु अमेरिकी -चीनी हथियारों  से लेस पाकपरस्त आतंकियों द्वारा भारत बर्बादी के मंसूबे देखकर तो बुद्ध भी अब केवल इतिहास और दर्शन की किताबो में ही मुस्करा रहे हैं । महात्मा बुद्ध की मुस्कराहट को तो पाक पोषित  तालिबानियों ने तभी छीन लिया था , जब  अफगानिस्तान के बामियान की पहाड़ियों से बुद्ध की विशाल  पुरातन प्रतिमाओं को ध्वस्त कर  दिया गया था। पंचशील ,शांति ,अहिंसा और मानवीय मूल्यों को तभी दक्षिण एसिया से  बेदखल कर दिया गया था  ! इन कारणों से जाहिर है कि भारत -पाकिस्तान,भारत-चीन के आपसी रिस्ते सामान्य नहीं हैं और इनके अंदरूनी हालात बताते हैं  कि बुद्ध के मुस्कराने लायक अभी दक्षिण एसिया में कुछ भी नहीं हैं। इतिहास में भले ही 'बुद्ध मुस्कराते' रहे हों !

१९७१ में बांग्ला देश मुक्ति संग्राम के समय 'सोवियत संघ ' और 'बांगला देश मुक्ति वाहिनी ' के सहयोग से भारतीय फौजों ने  पाकिस्तान के लाखों फौजियों को बंदी बनाया था। तब सोवियत वीटो के सामने असहाय अमेरिका भी बंगाल की खाड़ी  से  अपना सातवां बेडा वापिस ले भागा था। इस महाविजय के बाद तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने भारत के परमाणु कार्यक्रम को और ज्यादा गतिमान बनाया। 'अटॉमिक एनर्जी कमीशन 'और भाभा रिसर्च अटॉमिक सेंटर और यूरेनियम सम्वर्धन संसथान को मजबूती प्रदान की। लेकिन भारत को पाकिस्तान पर मिली जीत की ख़ुशी और परमाणविक कार्यक्रम की मुस्कराहट ज्यादा देर नहीं टिक सकी । हालांकि सोवियत संघ [अब रूस] और उसके सहयोगी देशों - 'लेफ्ट खेमें' ने भारत का भरपूर साथ दिया ,किन्तु इन गिने -चुने देशों को छोड़कर भारत की यह सफलता अन्य मुल्कों -अमरीका ,ब्रिटेन,जापान,फ़्रांस ,चीन  को कतई रास नहीं आयी। इन सभी परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों ने भारत पर परमाणविक होड़ का आरोप लगाकर उसे घेरने की कूटनीतिक चाल चली। उन्होंने भारत पर अनेक आर्थिक प्रतिबन्ध लगाए और  दुनिया में परमाणु प्रसार रोकने का तर्क देते हुए इन  विकसित देशों ने इस अमोघ अस्त्र याने  एनएसजी' का गठन किया ।

एनएसजी के गठन के तुरंत बाद जब १९७५ में इसकी पहली बैठक हुई  तब भारत पर  चौतरफा प्रतिबंध उसकी विषय सूची का प्रथम बिंदु था। शुरुआत में अमेरिका,कनाडा,जर्मनी,ब्रिटेन,फ़्रांस और जापान इत्यादि देश ही इसमें शामिल हुए ,लेकिन बाद में जब भारत ने स्प्ष्टीकरण दिया और अन्तर्राष्टीय कूटनीतिक लाबिंग की तब उसे कुछ रियायत दी गयी। परिणामस्वरूप कुछ अन्य परमाणु प्रसार वाले देश भी एनएसजी की निगरानी में लाये गए. औरतभी सोवियत संघ , चीन और आस्ट्रेलिया इत्यादि देश भी  इस एनएसजी में शामिल हो गए । लेकिन भारत को तब भी सुरक्षा परिषद की तरह ही इस मंच से भी अलग रख गया।

 अमेरिकी समर्थक वैश्विक परमाणु लॉबी के प्रतिबंधात्मक  हमलों ने तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिराजी को भारत में अपना परमाणु कार्यक्रम रोकने पर मजबूर कर दिया था । उसी समय सीआईए ने भी भारत में अपना दायरा बढ़ा लिया था । सीआईए के एजेंट भारत की संसद में भी घुस गए। बहुत साल बाद एक अमेरिकी पत्रकार सेमूर हर्ष ने इस रहस्य को उद्घाटित किया था कि अमेरिका की शह  पर इंदिरा गांधी  की सत्ता को चुनौती देने के लिए न केवल भारतीय नेताओं को घूस दी गयी ,बल्कि खालिस्तानियों ,तालिबानियों ,जेहादियों ,ईसाई मिशनरीज और भारत के कुछ हिंदुत्ववादियों को भी ऐन-केन प्रकारेण मदद दी गयी। कुल मिलकर सभी का मकसद एक था 'इंदिरा शासन' से मुक्ति।  सेमूर हर्ष ने यह भी बताया था कि इसमें कौन कौन भारतीय नेता -सीआईए और पेंटागन के एजेंट थे। उसने मोरारजी देसाइ ,जे पी आंदोलन ,जार्ज फर्नाडीज और अन्य कुछ  नेताओं और साम्प्रदायिक संगठनों के नाम भी उजागर किये थे। मोरारजी भाई ने तो पत्रकार सेमूर हर्ष के खिलाफ मानहानि का मुकदमा भी दायर किया था , किन्तु मोरारजी यह मुकदमा हार गए। याने सीआईए के एजेंट घोषित होकर इस जहाँ से कूच कर गए ।

१९७१ के भारत - पाकिस्तान युद्ध में पाकिस्तान  का समर्थन करने पर अमेरिका ने भी भारत से  बुरी तरह मात खाई थी, उसकी काट के लिए किसिंगर और सीआईए ने भारत में अपने अनगिनत एजेंट बनाये थे।  वे विपक्ष में घुसकर देश में अराजकता  फैलाने लगे और उसी दौरान  इलाहाबाद हाई कोर्ट का वह फैसला आया ,जिसमें  इंदिराजी का चुनाव ही अवैध घोषित कर दिया गया । हालांकि इंदिराजी ने  सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा जीत लिया ,किन्तु जनता को यह सब रास नहीं आया। आंदोलन उग्र हो उठे। तब सिद्धार्थ शंकर राय ,संजय गांधी जैसे अपरिपक्व लोगों की सलाह पर  इंदिरा जी ने पूरे भारत में आपातकाल  ही लगा दिया । इससे उनकी पाकिस्तान विजय का  शौर्य ,पोखरण परमाणु विस्फोट का  भारतीय स्वाभिमान और अटल बिहारी द्वारा दिया गया सम्मान  'दुर्गा का अवतार' सब कुछ छिन्न-भिन्न हो गया। चुनाव में उनकी हार हुई और जनता पार्टी सत्ता में आ गयी। याने अमेरिका ने जो चाहा वो भारत में हो गया ।  अमेरिका के समर्थक  नेता और दल भारत की सत्ता में तो आ गए किन्तु लाख कोशिशों के वावजूद  वे अमेरिका से एनएसजी में समर्थन या सुरक्षा परिषद में वीटो पावर नहीं पा सके। दोहरी सदस्य्ता के मुद्दे पर जनता पार्टी के नेता आपस में लड़ बैठे और ढाई साल में ही सत्ता से रुखसत  भी हो गए।  कांग्रेस याने इंदिराजी  फिर सत्ता में आ गयीं।

यह सुविदित है कि पोखरण परमाणु विस्फोट से महज २-३ साल पहले  ही इंदिराजी के ही नेतत्व में भारतीय  फौजों ने तत्कालीन पाकिस्तान के दो टुकड़े कर डाले थे. पोखरण परमाणु विस्फोट के कारण भारत के परमाणु शक्ति सम्पन्न हो जाने से, पाकिस्तान की फौज और कठमुल्लों के सीने पर साँप लौटने लगे थे । परिणामस्वरूप सऊदी अरब की खैरात पाकर जनाब जुल्फीकार भुट्टों के नेतत्व में पाकिस्तान के कुख्यात वैज्ञानिकों ने अमेरिका एवं जर्मनी से ततसंबंधी पुर्जे और संवर्धित यूरेनियम चुराकर , चोरी-चपाटी से पाकिस्तान को भी  परमाणु सम्पन्न बना दिया । लेकिन पाकिस्तान ने कभी यह जाहिर नहीं किया। अपनी हेकड़ी दिखाने के लिए १९९८ में एनडीए की अटल सरकार ने  जब पहले [इंदिरा युग के ] से ही तैयार रखे एक-दो परमाणु बम पोखरण में विस्फोट करवा दिए,  तो पाकिस्तान ने भी मौका लपक लिया। उसने  भारतीय  विस्फोट  का बहाना बनाकर  उसके जबाब में आठ-बिस्फोट एक साथ कर डाले। इससे भारत सहित सारी दुनिया चौंक गयी । और  इस तरह दक्षिण एसिया के दो नंगे-भूंखे देश अपने-अपने देशों की अवाम की दयनीय हालात पर गौर फरमाने के बजाय परमाणु बम की होड़ में जुट गए।अब वे एनएसजी के बहाने अमेरिकन साम्राजयवाद के नव उपनिवेश हैं।

अतीत में अमेरिका ने पाकिस्तान को तो भरपूर  आर्थिक मदद दी  है। यह सिलसिला अभी भी जारी है। लेकिन भारत को 'आर्थिक प्रतिबंधों 'की जंजीर में जकडे रखा है । अमेरिका से अड़ंगेबाजी में छूट पाने की कुछ कोशिश अटल जी ने  की थी। उनके बाद जब डॉ मनमोहनसिंह प्रधान मंत्री बने तब अमेरिका द्वारा दिखावे के लिए और अपनी घरेलु आर्थिक मन्दी [२००८] से निजात पाने के लिए भारत को आर्थिक मोर्चे पर कुछ रियायत दी गयी । लेकिन उसमें भी घाटा केवल भारत को ही हुआ। ठीक उसी तरह अब मोदी जी के प्रयासों  को सुअवसर मानकर अमेरिका  दिखावे के लिए  भारत को एनएसजी में समर्थन का कर रहा है  ,किन्तु दूसरी ओर वह  अपने शागिर्द पाकिस्तान को भारत के विरुध्द हर किस्म की इमदाद से लेस कर द्विपक्षीय मामलों को उलझा रहा है. यही वजह है कि  वह तमाम आतंकी घटनाओं में पाक परस्त आतंक को देखकर भी अनदेखी किये जा रहा है। आतंकवाद के मुद्दे पर अमेरिका के दोहरे मापदंड। हैं जब उस पर आतंक का अटैक  हुआ तो फैसला खुद कर लिया और पाकिस्तान में घुसकर ओसामा को मार दिया। पाक प्रेरित आतंकवाद से भारत लगभग ७० साल से पीड़ित है,भारत को पाक्सितान में घुसने और दाऊद या हाफिज सईद को पकड़कर भारतीय कानून के समक्ष लाने की भी छूट नहीं है। इसके उलट अमेरिका और चीन हर किस्म की इमदाद और छूट दे पाकिस्तान को दे रहे हैं ।हमारे सभी राजनैतिक दल आपस में कुकरहाव करते रहते हैं।

यही वजह है कि अंदर से खोखला हो चुका पाकिस्तान भी भारत की नाक में दम किये जा रहा है। पाकिस्तानी आतंकियों और उसकी बर्बर फौज के शत्रुतापूर्ण तेवर से भारत -पाकिस्तान के मध्य अविश्वास यथावत बरक़रार हैं। उधर चीन भी भारत की हर बात पर ना -नुकर किये जा रहा है। इन हालात में मोदी जी तो क्या  स्वयं विधाता भी  भारत को एनएसजी में शामिल नहीं करा सकते ! फिर भी यदि मोदी जी यह कर पाते हैं तो बाकई वे भारत के लिए ''सौभाग्यशाली '' सावित होंगे !  वैसे भी मोदी सरकार ने अमेरिका को खुश करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। यही कारण है कि विगत अमेरिकी यात्रा के दौरान अमेरिकी कांग्रेस में उनके लिए  ७२ बार तालियाँ पिटीं , और समस्त सीनेटर्स द्वारा नौ बार कोर्निश की गई ! इस से गदगद मोदी जी ने वतन लौटते ही  आनन -फानन खुदरा क्षेत्र में ,कृषि क्षेत्र में  और रक्षा क्षेत्र में सौ फीसदी [१००%] एफडीआई को मंजूरी भी दे दी है। लेकिन इतनी बड़ी क़ुरबानी देने के बाद भी भारत की एनएसजी [न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप ]में यदि प्रवेश की बाधाएं यथावत मौजूद हैं।और यदि पाकिस्तान या चीन के विरोध का बहाना किया जाता है तो १००% FDI  का क्या मतलब ? मोदी जी की सफलता के दावे का क्या अर्थ रह जाता है ?कहीं यह कोरी कूटनीतिक कलाबाजी और जुमलेबाजी तो नहीं है ? 

  मान लो कि मोदी जी एनएसजी की प्रविष्टि के लिए चीन को मना  लेते हैं ।तब  उनके पास पाकिस्तान की चुनौती का तोड़ क्या  है ? नवाज शरीफ की वहाँ चलती नहीं ,सेना ,कठमुल्ले और आतंकी एकजुट होकर भारत की बर्बादी मंसूबे बनाते रहते हैं,अभी अभी  सरताज अजीज ने खुद  ही पाकिस्तान असेम्ब्ली में फरमाया है कि ''हम भारत का एनएसजी में प्रवेश रोकने में कामयाब रहे,इंशाअल्लाह पाकिस्तान को एनएसजी में शामिल किया जाएगा। '' !जनाब सरताज अजीज कोरी गॅप नहीं हाँक रहे हैं ,उन्होंने छोटे-बड़े ५o इस्लामिक देशों को और खास तौर से चीन को अपने पक्ष में पहले ही कर लिया है। अब यह भारतीय नेतत्व की असफलता का ही प्रमाण होगा ,यदि भारत को एनएसजी की मेम्बरशिप से वंचित रखा जाता है ! बड़े अचरज की बात है कि  पाकिस्तान ने परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत  नहीं किये , उसने १००% एफडीआई को भी  मंजूर नहीं  किया ,फिर भी वह एनएसजी का दावा कर रहा है । भारत शतप्रतिशत  एफडीआई खोलने ,किसानों की आजीविका और खुदरा व्यापारियों का बिजनेस  दाँव पर लगाने के बाद भी एनएसजी से कोसों दूर है! यह नकारात्मक और शर्मनाक परिदृश्य न सिर्फ भारत की गरिमा के खिलाफ है अपितु मोदी सरकार की सेहत के लिए भी अच्छा नहीं है ! यदि विश्व मंच पर भारत पाकिस्तान से पिछड़ता तो यह न केवल भारत के लिए दुखद होगा ,बल्कि दक्षिण एशिया के लिए और विश्व शांति  के लिए भी यह वेहद  खतरनाक होगा ! श्रीराम तिवारी  

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