मंगलवार, 14 जून 2016

इस 'बदलाव' की असल तासीर का अंतिम फैसला तो देश की आवाम ही करेगी !

इलाहाबाद में संगम स्नान के बाद  प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने जब अपनी पार्टी [भाजपा] की राष्ट्रीय कार्यकारिणी को ,उसमें शामिल प्रतिनिधिजनों - समर्थक जन समूह को सम्बोधित किया तो वे भावुकता में बहुत कुछ ऐंसा  बोल गए जो उन्हें शोभा नहीं देता। इस तरह की निम्नतर शब्दावली का प्रयोग दुनिया के किसी भी राष्ट्रनेता के मुँह से शायद ही कभी सुना गया हो । उनके इस भाषण का एक छोटा सा अंश प्रस्तुत है ''मैं उत्तरप्रदेश [बनारस]का सांसद होने के नाते इस प्रदेश का कर्जदार  हूँ ,यहाँ के कर्ज का मोल चुकता करुंगा। विकास के लिए असम की तरह भाजपा की सरकार यहाँ भी लाइए। पांच साल में हम [मोदी सरकार ] उत्तरप्रदेश को देश का सर्वश्रेष्ठ प्रदेश बनाएंगे। यदि इस बीच कोई  नुकसान [काण्ड] हुआ तो आप [यूपी की जनता]लात मारकर मुझे [सत्ता से ]निकाल देना !" प्रस्तुत गद्यांश में कोष्ठक वाले शब्द मोदी जी के नहीं हैं ,वाक्यांश सुगम बनाने के लिए ये शब्द मैंने प्रयुक्त किये हैं। कुछ लोगों का कहना है कि सवा सौ करोड़ आबादी के प्रधान मंत्री को यह सड़क छाप भाषा शोभनीय नहीं है। किन्तु  मुझे लगता है कि भारत जैसे विराट देश की जनता को तो यही भाषा पसन्द है।  'लात मारकर सत्ता से बाहर करने' की बात कहकर मोदी जी ने किसी को गाली नहीं दी ,बल्कि लोकतंत्र की ताकत का लोहा ही माना है। उन्होंने जनादेश को सम्मान दिया है। उनकी इस वाग्मिता से यह तो तय हो गया कि मोदी जी से लोकतंत्र को कोई खतरा नहीं।  फासिज्म के कोई संकेत उनके मस्तिष्क में नहीं हैं।  ये बात जुदा है कि भारत के एलीट क्लास को यह भाषा पसन्द नहीं आएगी। किन्तु देश के अधिकांश अशिक्षित ,ग्रामीण और मेहनतकश सर्वहारा वर्ग के लोग इसी भाषा में जीते मरते हैं। यही वजह है की अनगढ़ बोलू मोदी जी तो सत्ता में हैं और नफासत पसंद अजीम शख्सियत के लोग उनके सामने अभी फिलहाल तो बौने नजर आ रहे हैं।

समझदार लोगों का अभिमत है कि ज्यादा बोलने में  खतरे भी  ज्यादा होते हैं। मोदी जी का स्वभाव है कि वे इस बाचालता के खतरों से खेलते रहे हैं। जब कभी जहाँ -कहीं ,ज्यादा भीड़ दिखी कि वे  पंच -सरपंच या पार्षद स्तर से भी नीचे गली-मोहल्ले के छुटभैये नेताओं की मानिंद , कुछ ऐंसे अल्फाज बोलने लग जाते हैं कि  बाद में उनके विरोधियों को  मोदी जी के बौद्धिक ज्ञान की  किरकिरी करने का भरपूर मौका मिल जाता है। अभी तक तो लोग मोदी जी को केवल अच्छे दिनों के लिए कोस रहे थे ,कालाधन वापसी के लिए व्यंग कर रहे थे ,बिहार में सवा लाख करोड़ न्यौछावर देने के लिए मोदी जी को जुमलेबाज बता रहे थे ,अब ''लात मारकर निकाल देना' जैसे मुहावरे पर सारे संसार के 'मोदी विरोधी' उनका उपहास कर रहे हैं। लेकिन मैं इस मामले में मोदी जी के साथ हूँ ! इसका मतलब यह नहीं कि भाजपा या 'संघ परिवार' का समर्थन करने जा रहा हूँ। मुझे तो मोदी जी के 'लात मारकर निकाल देना' वाले मुहावरे  में कोई गलत बात नहीं दिखती। बल्कि उनके श्री मुख्य से देश की बहुमत जनता की संवेदनात्मक अनुगूंज  ही सुनाई पड़ रही है। उन्होंने तो लोक भाषा याने विशुद्ध हिन्दी  के मृतप्राय मुहावरे को जीवनदान दिया है। किसी को नहीं भूलना चाहिए कि इसी भाषा के प्रयोग की ताकत से ही मोदी जी 'एक मामूली चायवाले' से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधान मंत्री बने हैं। वस्तुतः यही  मोदी जी की वास्तविक शख्सियत भी  है। वेशक मोदी जी  कोई बहुत बड़े काइयाँ किस्म के इंटलेक्चुवल्स नहीं हैं ,किन्तु निसंदेह वे बहुत विनम्र हैं। मोदी जी ने सहज स्वभाववश , कृतज्ञता वश यूपी की जनता को उसी की भाषा में 'कोई नुक्सान' नहीं होने देने का बचन दिया है। बचन भंग होने की दशा में वे जनता की लात खाने [चुनावी हार] याने  सत्ता से बाहर होने ने को तैयार हैं।

चूँकि यूपी विधान सभा चुनाव में मोदी जी की प्रतिष्ठा दाँव पर लगी है ,वे अभी-अभी पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों में असम के अलावा कहीं भी सफल  नहीं हो सके हैं ,इसलिए यूपी का चुनावी रणांगण उन्हें वीरोचित उत्साह के लिए ललकार रहा है। चूँकि यूपी की जनता पर जातिवाद और साम्प्रदायिकता की  राजनीति हावी है ,इसलिए इस माया -मुलायम -मोहजाल से यूपी की जनता को बाहर निकालना बहुत जरुरी है। चूँकि कांग्रेस अभी भी अस्त-व्यस्त और पस्त है और यूपी में वामपंथ को माया -मुलायम ने आगे बढ़ने से रोक  रखा है। इसलिए वामपंथ को अभी तो वहाँ बहुत लंबा संघर्ष और इंतज़ार करना ही  होगा। लेकिन तब तक यूपी की जनता परिवर्तन का इंतजार नहीं कर सकती। उसे यदि विकल्प में भाजपा उपलब्ध है ,मोदी जैसा 'बनारसी बाबू' वाली छवि का नेता यूपी की जनता से लात खाने को भी तैयार है तो यूपी में मोदी के विजय रथ को कोई कैसे रोक सकता है ? 

हालांकि मोदी जी को अति बाचालता के खतरे से अवश्य बचना चाहिए। उन्हें अपनी दो साल की या पांच साल की उपलब्धियों का ज्यादा बखान नहीं करना चाहिए। वैसे भी नियमानुसार किसी भी जन निर्वाचित लोकप्रिय सरकार के लिए  संवैधानिक रूप से पांच साल का कार्यकाल उपलब्ध है। अतएव उसे अपना 'राजधर्म' भूलकर ,अनावश्यक वितण्डावाद में नहीं पड़ना चाहिए ! उसे अपनी नीति -रीति और उपलब्धियों का रोज-रोज बखान करने की भी जरूरत नहीं है ।  किसी भी बेहतरीन सरकार के लिए, उसके द्वारा पांच साल काम कर चुकने के बाद, इसकी उसे  जरूरत भी नहीं पड़ेगी,कि वह जनता के बीच अपनी आभासी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने में  कीमती वक्त जाया करे और जनता का अरबों रुपया भी बर्बाद करे ! चूँकि  'पब्लिक सब जानती है'!अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा तो वे  ही पीटते हैं ,जिन्हे खुद पर भरोसा नहीं  हो। और अपने साथियों के सत्ता संचालन पर शक -सुबहा हो । जन असंतोष की आशंका उन्ही को हुआ करती है ,जिन्हे अपने राजनैतिक दर्प  'रणकौशल ' पर भरोसा नहीं हो। प्रचार की जरुरत उन्ही को है जो सत्ता मिल जाने के बाद  तथाकथित जुमलों के ढपोरशंख ही बजाते रहे हों ! जो जनता को झूंठे चुनावी - वादों भाषणों ,जुमलों तथा शिलान्यासों में भरमाते  रहे हैं । जब कोई राजनेता या पार्टी आम जनता को बार-बार अपनी उपलब्धियां गिनाए , प्रिंट,इलेक्ट्रॉनिक तथा सोशल मीडिया पर धुआँधार  प्रचार करे कि -जो कुछ किया हमने किया ,जो नहीं हो सका उसके लिए विपक्ष जिम्मेदार है। और सारे गुनाहों के लिए पूर्ववर्ती सरकारें ही  जिम्मेदार हैं। हमें तो अभी दो साल ही हुए हैं ,अतः हे मूढ़मति मतदाता बंधुओं -हमें  लात मारकर सत्ता से मत उखाड़ फेंकना। क्योंकि  'हमसे बढ़कर  दूसरा  कोई नहीं '! इस तरह  की सोच वाले  अहंकारी -पाखंडी नेता और पूँजीवादी दल अपराध बोध से पीड़ित हुआ करते हैं !इस तरह की आत्मभक्ति जैसी हरकतों पर  'चोर की दाड़ी में तिनका' वाली कहावत चरितार्थ हुआ करती है। 

 केंद्र में वर्तमान एनडीए  सरकार के दो साल पूरे होने पर इन दिनों एक जुमला ,इलेक्ट्रॉनिक ,प्रिंट  और सोशल मीडिया पर पूरी आक्रामकता के साथ प्रचारित किया जा रहा है कि ''मेरा देश बदल रहा है ,,,"! यद्द्पि इस तरह के नीरस नारों  में छन्द शास्त्र की  काव्यात्मकता और  कलात्मकता नदारद है। आवष्यक तुकबन्दी और 'विचार' का ही  नितांत अभाव है। भाजपाइयों की यह दिक्क्त है कि कला ,साहित्य,संगीत,और  वैज्ञानिकता से उन्हें एलर्जी है। वरना इतने साथी जुमले -नारे पेश करने से तो बाज आते ! फिर भी मान लेते हैं कि 'मेरा देश बदल रहा है ' वाले जुमले में कुछ खास बात है। यह खासियत 'बदल रहा' क्रिया के व्यापक अर्थ में ही है। चुँकि किसी भी चीज में बदलाव दो प्रकार का हो सकता है, एक सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक। 'मेरा देश बदल रहा है ' इसमें तो कोई दो राय नहीं है कि देश बदल रहा है। देश के प्रधान मंत्री बदल गए ,वित्त मंत्री बदल गए , मंदिर निर्माण -धारा -३७० ,समान सिविल कोड और आरक्षण में युक्तियुक्तकरण के नारे बदल गए ! और इसीलिये  कुछ लोगों के भाग खुल गए और कुछ के नसीब बदल गए !

बदलाव तो निरंतर हो रहा है,दिख भी रहा है। लेकिन नकारात्मक बदलाव हो रहा है या सकारात्मक -यह फैसला स्वयं सत्ता के स्टेक होल्डर्स नहीं कर सकते। यह स्वाभाविक है कि  सत्ता में बैठे नेताओं को और उनके पिछलग्गुओं को देश में केवल सकारात्मक बदलाव ही नजर आ रहा है। जबकि विपक्ष को और प्रगतिशील बुद्धिजीवियों को विनाशकारी बदलाव ही दिखाई दे रहा है ! मुझे तो दोनों किस्म के बदलाव दिख रहे हैं। लगता है कुछ तो अच्छा हो रहा है , और वेशक बुरा कुछ ज्यादा ही हो रहा है। लेकिन इस 'बदलाव' की असल तासीर का अंतिम फैसला तो पांच साल बाद ही होगा और वह देश की जनता ही करेगी !अतएव तब तक केंद्र -राज्यों की सरकारों को केवल और केवल अपने 'राजधर्म'का पालन करना चाहिए और रोज-रोज काल्पनिक सफलताओं के जुमले पेश करने से बाज आना चाहिए !

अच्छे दिन आये हैं या नहीं ,मेरा देश बदल रहा है या नहीं ,यह आगामी २०१९ के लोक सभा चुनाव में ही पता चलेगा।  तब यह भी पता चलेगा कि यदि 'अचे दिन आये हैं ' तो किसके ? और मेरा देश बदल रहा है ' तो उसका लाभ किसे हो रहा है ? स्वाभाविक है कि  जिन्हे लाभ हो रहा है ,उनके अच्छे दिन आये हैं। जिनका काम धंधा चौपट हुआ ,जिनकी खेती-बड़ी बर्बाद हुई , जिनके पास रोजगार नहीं ,मकान नहीं ,पानी -बिजली नहीं ,शिक्षा -स्वास्थ्य नहीं और जिन्हे  ठेकेदारी गुलाम पृथा ने  दयनीय स्थिति में धकेल दिया है ,काम के घंटे बढ़ा दिए ,मजूरी घटा दी और प्राकृतिक आपदाओं के कारण जो घोर कष्ट मय जीवन जी  रहे हैं ,उनके 'मन की बात ' भी खुलनी चाहिए कि उनके कैसे दिन आये हैं ?सत्ता पक्ष को शायद जनता की विवेकशीलता पर भरोसा नहीं ,इसलिए 'राज-काज' छोड़कर रोज -रोज उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटे जा रहे हैं। यदि आप कर्मठ हैं ,आप महान  उद्धारक हैं ,तो डर  किस बात का ,जनता पर यकीन कीजिये ,उसे ही तय करने दीजिये कि  आपका सच क्या है ? और जनता का सच क्या है ?

२००४ में जब केंद्र में अटल  बिहारी सरकार थी तब भी इसी तर्ज पर ''शाइनिंग इंडिया' और फीलगुड जैसे जुमले उछाले गए थे। लेकिन आम चुनाव में देश की जनता ने भाजपा और एनडीए गठबंधन की सरकार को सत्ता से खदेड़कर यूपीए की  मनमोहन सरकार को सत्ता सौंप दी थी। जनता ने 'पी एम इन वेटिंग' श्री आडवाणी जी  को और भाजपा नेताओं को सूचित किया  था कि  'न तो उन्हें फीलगुड हो रहा है और न ही उन्हें 'इण्डिया शाइनिंग ' दिख रहा है।'बहुत सम्भव है कि आगामी लोक सभा चुनाव -२०१९ में भी भारत की जनता का बहुमत कुछ ऐंसा ही बदलाव कर डाले। राजनीति में बहुत कुछ सम्भव है। और वैसे भी मोदी जी का आभामंडल अटल बिहारी बाजपेई के समक्ष कितना बौना है यह बताने की जरूरत  किसी को नहीं।

'मेरा देश बदल रहा है ' यह जताने की वैसे भी जरुरत नहीं ,क्योंकि राजनैतिक क्षितिज में  बहुत बड़ा बदलाव तो मई-२०१४ में ही हो चुका था। जब बदनाम यूपीए सरकार को उखाड़कर  देश की जनता ने  मोदी सरकार को सत्ता सौंप दी। लेकिन जिस बदलाव का वादा सत्ता में आने के लिए एनडीए द्वारा किया गया था ,उस बदलाव का अनुभव शायद जनता को नहीं हो रहा है। इसीलिये मोदी सरकार ने यह फैसला लिया है कि  देश और दुनिया में हर इंसान को झिंझोड़कर बताया जाए कि  'मेरा देश बदल रहा है !

देश अर्थात परिवर्तन तो इस ज्ञात बृह्माण्ड का शास्वत और अटल सिद्धांत है। किन्तु यह बदलाव चाहे नैसर्गिक हो या मानवीय ,वह किसी एक नेता या पार्टी का मुँहताज नहीं है। मुर्गा बाँग दे या न दे , भोर का तारा  उदित हो न हो ,लेकिन सुबह तो होकर रहेगी ! कोई चाहे या न चाहे ,ये धरती ,चाँद -तारे ,ये सूरज यहाँ तक कि ये बृह्माण्ड भी प्रतिपल बदल  रहे हैं । दुनिया का हर मुल्क ,हर महासागर ,हरेक वन -पर्वत ,नदियां  बदल रहीं हैं। जाहिर है कि सभ्यताएं -संस्कृतियाँ भी बदल रहीं हैं। और कोई चाहे न चाहे हर इंसान ,हर चेतन-अचेतन तत्व नित्य ही  बदल रहा है।  श्रीराम तिवारी

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