वेशक जो व्यक्ति ,संस्था ,समाज या राष्ट्र 'सत्पथगामी ' है ,सर्वजनहिताय - सर्वजन सुखाय का पक्षधर है , ईर्षावश उसकी आलोचना या निंदा करना महापाप है ! किन्तु निहित स्वार्थवश किसी अन्यायी -अत्याचारी व्यक्ति ,बर्बर समाज या दुष्ट राष्ट्र की निंदा -आलोचना से बचना सरासर बेईमानी है। इसी तरह अतीत की कुछ अवैज्ञानिक और निरर्थक अवधारणाओं का जुआ सनातन काल तक अपने काँधे पर आँख मूंदकर ढोते रहना और मुँह से चीं भी न करना मानसिक गुलामी की निशानी है। या हद दर्जे की कायराना हरकत है। मान लो कि आप निहायत ही शरीफ और ईमानदार अहिंसक इंसान हैं ,आप विनम्र और दयावान हैं लेकिन यदि कोई पागल कुत्ता आपको सरे राह काटने दौड़ता है तो उसे हड़काने में कोई बुराई नहीं। इसी तरह यदि कोई दवंग व्यक्ति ,बर्बर समाज , दुष्ट राष्ट्र किसी अन्य सज्जन व्यक्ति ,सभ्य समाज या अहिंसावादी देश को सताता है ,तो न केवल उसकी आलोचना होनी चाहिए बल्कि उसका प्रतिकार भी 'सठे साठ्यम्' की तर्ज पर होना चाहिए ! चाणक्य और न्यूटन के नियम भी यही कहते हैं।
मानव स्वभावतः एक सामाजिक प्राणी है। वह सृष्टि के प्रारम्भ से ही चिंतनशील -मननशील रहा है। मनुष्यमात्र की वैचारिक प्रणालियाँ उतनी ही पुरातन हैं जितनी कि मानवीय सभ्यता और सृष्टि। सुख की कामना लिए हुए , ज्ञात-अज्ञात भय दुःख-क्लेश से बचने की तमन्ना लिए हुए तथा जिजीविषा को अक्षुण बनाये रखने के मनोरथ लिए हुए, मानव जाति ने समय-समय पर विवेक बुद्धि और अनुभवजन्य ज्ञान को प्रकृति के नियमों के समानांतर स्थापित कर लिया। इसी तारतम्य में भाषा विज्ञान की खोज हुई और उसके 'सुसंस्कृत' रूप में मानवीय जीवन के सांसारिक ,आध्यात्मिक और वैज्ञानिक सूत्र निर्धारित किये गए । कालान्तर में अपने इसी उन्नत ज्ञान -विज्ञान के अनुभवों से मनुष्य ने एक ओर तो अन्य प्राणियों पर विजय हासिल की और दूसरी ओर प्राकृतिक की शक्तिओं को काबू करने की जुगत में भी वह जुटा रहा।
मनुष्य के ज्ञान-विज्ञान का चरम,उसके अथक प्रयासों द्वारा समय-समय पर स्थापित दर्शन,विज्ञान ,कला ,अध्यात्म ,चिकित्सा ,रक्षा और साहित्य के रूप में प्रकट होता रहा। भारतीय उपमहाद्वीप में मानव सभ्यता के क्रमिक विकास का चरम 'सर्वे भवन्तु सुखिनः ,सर्वे सन्तु निरामया' के रूप में एवं 'एकम सद विप्रः वहुधा वन्दन्ति' के रूप में -संसार के समक्ष प्रकाशित हुआ । आम तौर पर यह माना जाता है कि पूर्व वैदिक सभ्यता के उदयकाल से लेकर उपनिषद काल तक की बौद्धिक यात्रा में और तब की ज्ञात दुनिया में केवल आस्तिक दर्शनों -सांख्य,योग,वैशेषिक,न्याय,मीमांसा,और वेदांत का ही इकतरफा बोलवाला रहा होगा। किन्तु जब तत्वद्रष्टा मनीषियों,आचार्यों और ऋषियों ने 'द्वैत सिद्धांत' पेश किया। बाद में जब ''मुण्डे -मुण्डे-मतिर्भिन्ना ''का सिद्धांत लोकप्रिय हुआ तब भारतीय उपमहाद्वीप में चार्वाक,जैन,बौद्ध इत्यादि नास्तिक मत अस्तित्व में आये। कालांतर में जब वाद-प्रतिवाद - संवाद तथा कार्य-कारण के सिद्धांत को विज्ञान सम्मत माना गया तब आस्तिक -नास्तिक दर्शन बराबर हो गए। ये सब अपने-अपने ढंग से प्राणी मात्र की संवेदनाओं ,जागतिक घटनाओं, मानवीय विचारों और जीवन पद्धतियों को वैज्ञानिक नजरिए से देखने लगे ! जो आस्तिक थे वे आँख मीचकर अपने पूर्वजों के प्रत्येक अक्षर को 'परम सत्य 'मानकर चले ,और जो नास्तिक थे उन्होंने पृकृति -पुरुष ,पदार्थ और चेतना को आलोच्य नजर से देखा। वास्तव में 'आलोचना' शब्द का जन्म इसी वैज्ञानिक दृष्टि से चीजों को देखने से हुआ है।
सभ्यताओं के उदयकाल से ही अधिकांश सभ्य संसार में 'आलोचना' का क्षेत्र बहुत व्यापक और समृद्ध रहा है। इस आलोचना का अस्तित्व - व्यक्ति बनाम व्यक्ति ,संस्था बनाम संस्था ,राष्ट्र बनाम राष्ट्र और विचार बनाम विचार के रूप में हजारों सालों से दुनिया की तमाम सभ्यताओं में शिद्द्त से मौजूद रहा है। जिन सभ्यताओं में उत्कृष्ट मानवीय मूल्यों - क्षमा,दया,शान्ति,भ्रातत्व,अहिंसा और अपरिग्रह इत्यादि का बोलवाला रहा है उनमें शांतिपूर्वक ढंग से शास्त्रार्थ ,वाद-प्रतिवाद और सम्वाद के रूप में वैज्ञानिक तार्किकता एवं सैद्धांतिक समीक्षा के रूप में सकारात्मक 'आलोचना' को सम्मानजनक स्थान प्राप्त रहा है । आधुनिक युग की लोकतांत्रिक दुनिया में इस उत्कृष्ट मानवीय परम्परा को 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार' या विचार की अभिव्यक्ति के अधिकार से जाना जाता है।
लेकिन जिन सभ्यताओं में मानवीय मूल्यों का अभाव था वे कबीलाई - बर्बर बहशी समाज और राष्ट्र दुनिया के इतिहास में रक्तरंजित संघर्ष के लिए सदैव कुख्यात रहे हैं। दुर्भाग्य से उन पशुवत अमानवीय परम्पराओं के निकृष्ट उत्तराधिकारी अब भी इस धरती क हर हिस्से पर कोहराम मचाने में जुटे हैं। धर्मान्धता से पीड़ित कुछ विवेकहीन लोगों को आधुनिक लोकततंत्रिक ,धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी व्यवस्थाओं के उदय और उसके उच्च्तर विज्ञानवादी मूल्य 'आलोचना' से बहुत एलर्जी है? वे भूल जाते हैं कि सामन्तयुगीन और मध्ययुगीन दुनिया में भी यह 'आलोचना ' नामक बौद्धिक परम्परा सिरमौर रही है। वह न केवल राजनीति में बल्कि भाववादी अथवा अध्यात्मवाद के क्षेत्र में भी विद्वानों की भी हमसफर रही है । हालाँकि अतीत में एक बहुत बड़ा प्रतिगामी वर्ग हुआ करता था जो 'आलोचना' को परनिंदा की श्रेणी में रखकर उसे अपावन और नकारात्मक मानता था। भारतीय परम्परा का दकियानूसी घोर संकीर्णतावादी वर्ग इस तार्किक 'आलोचना' को चार्वाकों ,नास्तिकों ,सांख्यकों ,जैनों -बौद्धों और कबीरपंथियों का नैतिक बिचलन मानकर उससे परे रहने पर बल देता था। और उसी निस्पृह रहने में ही अपना आत्म कल्याण या 'मुक्ति' देखता था । इस वर्ग के 'भेड़ चाल वाले'और कूप मण्डूक व्यक्ति या समाज इस वैज्ञानिक युग में भी बहुतायत से पाये जाते हैं। ये धुर अविवेकी तत्व ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और वैज्ञानिक 'आलोचना'के परम शत्रु हैं।
मानव इतिहास में ऐंसा कोई भी धर्म-मजहब ,पंथ ,दर्शन या विचार नहीं है ,जिसने अपने आपको स्थापित कराने में या ओरों पर थोपने के लिए शक्ति का इस्तेमाल न किया हो ! भारत के वैदिक मन्त्र दृष्टा ऋषियों -मुनियों ,बौध्दों,जैनों और वैष्णवों में भले ही 'अहिंसा परमो धर्मः' का जाप किया जाता रहा हो, किन्तु उनके कट्टर अनुयायी - संरक्षक शासकों और चक्रवर्ती सम्राटों ने अपने[अ ] धर्म के लिए अपने सहोदर भ्राताओं का खून बहाने में परहेज नहीं किया। भले ही बाद में अनगिनत लाशों को देखने के बाद किसी राजा या सेनापति कोआत्म ग्लानि हो गयी हो और वह अहिंसावादी' हो गया हो ! भारत और यूनान में बहुत सभ्य तरीके से पक्ष-विपक्ष के मध्य ,विद्वान गुरुओं और उनके शिष्यों के मध्य ,प्रश्नोत्तर अथवा शास्त्रार्थ के रूप में आलोचनात्मक मत व्यक्त करने का इतिहास आष्चर्यजनक रूप से बहुत पुराना है ।किन्तु आलोचना अथवा 'मतखण्डन'को भाववादी पुष्टिवादियों -परम्परावादियों और स्वार्थी शासकों ने कभी पसंद नहीं किया।
भारतीय संस्कृत,पाली,अपभ्रूंस और द्रविड़ वांग्मय में ,वैदिक मन्त्रों की रचना में ,श्रुतिओं के आविर्भाव में ,संहिताओं के सम्पादन में ,आरण्यकों की स्थापना और वेदांत दर्शन मीमांसा में ,उपनिषदों के कालजयी सृजन में तार्किक आलोचनाओं और बौद्धिक विमर्शों का उल्लेखनीय स्थान रहा है। इस कसौटी पर कसे जाने के उपरान्त ही उक्त बौद्धिक -आध्यात्मिक सम्पदा का अंतिम प्रकाशन सम्भव हुआ करता था। अष्टावक्र -जनक संवाद,याज्ञवल्क्य -भारद्वाज सम्वाद, शुकदेव-परीक्षित सम्वाद से लेकर आदि शकराचार्य और मंडन मिश्र के संवाद में और सुकरात -प्लेटो -अरस्तु संवाद में वह आलोचनात्मक विमर्श प्रतिध्वनित हो रहा है ,जो आधुनिक विश्व को साहित्यिक आलोचना -प्रत्यालोचना और समालोचना में वाद-प्रतिवाद और संवाद का अनुशीलन सिखाता है। आधुनिक दौर की लोकतान्त्रिक तौर तरीके वाली अहिंसक 'आलोचना' की तरह ही सामन्ती दौर में भी ततकालीन प्रबुद्ध वर्ग - राजनीति ,अर्थशास्त्र और प्रकृति विज्ञान गणित ,चिकित्सा के विषयों को व्यापक जन -आलोचना के उपरान्त ही संहिताबद्द किया करता था! अपवाद हर दौर में रहे हैं जब इंसानी शाब्दिक आलोचना का जबाब तलवार से दिया गया । इस अमानवीय बर्बरता के निशान दुनिया के हर कोने में ,हर सभ्यता में,हर राजनैतिक व्यवस्था में और हर धर्म-मजहब में अब भी पर्याप्त रूप से मौजूद हैं। गनीमत है कि लोकतान्त्रिक राजनीति में 'आलोचना' की 'आलोचना' सहज स्वीकार्य है। जबकि धर्मान्धता प्रेरित सभ्यताओं के संघर्ष ने ,अधिनायकवादी सर्वसत्तावाद और हिंसक समाजों ने जायज और वैज्ञानिक आलोचना पर पहरेदार बिठा रखे हैं ।
विश्व के सम्पूर्ण क्रांतिकारी जन -आन्दोलनों का और सर्वहारा क्रांतियों का इतिहास हमें सिखाता है कि क्रांतिकारी कतारों में आलोचना का स्वरूप कैसा हो ?इस नजरिए से आलोचना का स्वरूप विज्ञानसम्मत और तार्किक होना बहुत जरुरी है ! किसी भी व्यक्ति ,विचार,सिद्दांत या घटनाक्रम की आलोचना में यदि न्याय की पक्षधरता और अन्याय की मुख़ालफ़त निहित है तो वह परम पुनीत कर्म है। किन्तु यदि उसमें 'सत्यमेव जयते ' का मंतव्य भी शामिल कर लिया जाए तो सोने में सुहागा होगा ! सामाजिक,आर्थिक और दार्शनिक रूप से सचेत प्रबुद्ध वर्ग के तर्कवादियों को ,प्रगतिशील -रोशनख्याल बुद्धिजीवियों और -विचारकों को उन मजहबी भाववादियों की तरह मिथ्यावादी नहीं होना चाहिये जो धर्मान्धता ,संकीर्णतावाद और अतिशयोक्ति वाद की गटर में आकंठ डूबे हैं।
मानव स्वभावतः एक सामाजिक प्राणी है। वह सृष्टि के प्रारम्भ से ही चिंतनशील -मननशील रहा है। मनुष्यमात्र की वैचारिक प्रणालियाँ उतनी ही पुरातन हैं जितनी कि मानवीय सभ्यता और सृष्टि। सुख की कामना लिए हुए , ज्ञात-अज्ञात भय दुःख-क्लेश से बचने की तमन्ना लिए हुए तथा जिजीविषा को अक्षुण बनाये रखने के मनोरथ लिए हुए, मानव जाति ने समय-समय पर विवेक बुद्धि और अनुभवजन्य ज्ञान को प्रकृति के नियमों के समानांतर स्थापित कर लिया। इसी तारतम्य में भाषा विज्ञान की खोज हुई और उसके 'सुसंस्कृत' रूप में मानवीय जीवन के सांसारिक ,आध्यात्मिक और वैज्ञानिक सूत्र निर्धारित किये गए । कालान्तर में अपने इसी उन्नत ज्ञान -विज्ञान के अनुभवों से मनुष्य ने एक ओर तो अन्य प्राणियों पर विजय हासिल की और दूसरी ओर प्राकृतिक की शक्तिओं को काबू करने की जुगत में भी वह जुटा रहा।
मनुष्य के ज्ञान-विज्ञान का चरम,उसके अथक प्रयासों द्वारा समय-समय पर स्थापित दर्शन,विज्ञान ,कला ,अध्यात्म ,चिकित्सा ,रक्षा और साहित्य के रूप में प्रकट होता रहा। भारतीय उपमहाद्वीप में मानव सभ्यता के क्रमिक विकास का चरम 'सर्वे भवन्तु सुखिनः ,सर्वे सन्तु निरामया' के रूप में एवं 'एकम सद विप्रः वहुधा वन्दन्ति' के रूप में -संसार के समक्ष प्रकाशित हुआ । आम तौर पर यह माना जाता है कि पूर्व वैदिक सभ्यता के उदयकाल से लेकर उपनिषद काल तक की बौद्धिक यात्रा में और तब की ज्ञात दुनिया में केवल आस्तिक दर्शनों -सांख्य,योग,वैशेषिक,न्याय,मीमांसा,और वेदांत का ही इकतरफा बोलवाला रहा होगा। किन्तु जब तत्वद्रष्टा मनीषियों,आचार्यों और ऋषियों ने 'द्वैत सिद्धांत' पेश किया। बाद में जब ''मुण्डे -मुण्डे-मतिर्भिन्ना ''का सिद्धांत लोकप्रिय हुआ तब भारतीय उपमहाद्वीप में चार्वाक,जैन,बौद्ध इत्यादि नास्तिक मत अस्तित्व में आये। कालांतर में जब वाद-प्रतिवाद - संवाद तथा कार्य-कारण के सिद्धांत को विज्ञान सम्मत माना गया तब आस्तिक -नास्तिक दर्शन बराबर हो गए। ये सब अपने-अपने ढंग से प्राणी मात्र की संवेदनाओं ,जागतिक घटनाओं, मानवीय विचारों और जीवन पद्धतियों को वैज्ञानिक नजरिए से देखने लगे ! जो आस्तिक थे वे आँख मीचकर अपने पूर्वजों के प्रत्येक अक्षर को 'परम सत्य 'मानकर चले ,और जो नास्तिक थे उन्होंने पृकृति -पुरुष ,पदार्थ और चेतना को आलोच्य नजर से देखा। वास्तव में 'आलोचना' शब्द का जन्म इसी वैज्ञानिक दृष्टि से चीजों को देखने से हुआ है।
सभ्यताओं के उदयकाल से ही अधिकांश सभ्य संसार में 'आलोचना' का क्षेत्र बहुत व्यापक और समृद्ध रहा है। इस आलोचना का अस्तित्व - व्यक्ति बनाम व्यक्ति ,संस्था बनाम संस्था ,राष्ट्र बनाम राष्ट्र और विचार बनाम विचार के रूप में हजारों सालों से दुनिया की तमाम सभ्यताओं में शिद्द्त से मौजूद रहा है। जिन सभ्यताओं में उत्कृष्ट मानवीय मूल्यों - क्षमा,दया,शान्ति,भ्रातत्व,अहिंसा और अपरिग्रह इत्यादि का बोलवाला रहा है उनमें शांतिपूर्वक ढंग से शास्त्रार्थ ,वाद-प्रतिवाद और सम्वाद के रूप में वैज्ञानिक तार्किकता एवं सैद्धांतिक समीक्षा के रूप में सकारात्मक 'आलोचना' को सम्मानजनक स्थान प्राप्त रहा है । आधुनिक युग की लोकतांत्रिक दुनिया में इस उत्कृष्ट मानवीय परम्परा को 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार' या विचार की अभिव्यक्ति के अधिकार से जाना जाता है।
लेकिन जिन सभ्यताओं में मानवीय मूल्यों का अभाव था वे कबीलाई - बर्बर बहशी समाज और राष्ट्र दुनिया के इतिहास में रक्तरंजित संघर्ष के लिए सदैव कुख्यात रहे हैं। दुर्भाग्य से उन पशुवत अमानवीय परम्पराओं के निकृष्ट उत्तराधिकारी अब भी इस धरती क हर हिस्से पर कोहराम मचाने में जुटे हैं। धर्मान्धता से पीड़ित कुछ विवेकहीन लोगों को आधुनिक लोकततंत्रिक ,धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी व्यवस्थाओं के उदय और उसके उच्च्तर विज्ञानवादी मूल्य 'आलोचना' से बहुत एलर्जी है? वे भूल जाते हैं कि सामन्तयुगीन और मध्ययुगीन दुनिया में भी यह 'आलोचना ' नामक बौद्धिक परम्परा सिरमौर रही है। वह न केवल राजनीति में बल्कि भाववादी अथवा अध्यात्मवाद के क्षेत्र में भी विद्वानों की भी हमसफर रही है । हालाँकि अतीत में एक बहुत बड़ा प्रतिगामी वर्ग हुआ करता था जो 'आलोचना' को परनिंदा की श्रेणी में रखकर उसे अपावन और नकारात्मक मानता था। भारतीय परम्परा का दकियानूसी घोर संकीर्णतावादी वर्ग इस तार्किक 'आलोचना' को चार्वाकों ,नास्तिकों ,सांख्यकों ,जैनों -बौद्धों और कबीरपंथियों का नैतिक बिचलन मानकर उससे परे रहने पर बल देता था। और उसी निस्पृह रहने में ही अपना आत्म कल्याण या 'मुक्ति' देखता था । इस वर्ग के 'भेड़ चाल वाले'और कूप मण्डूक व्यक्ति या समाज इस वैज्ञानिक युग में भी बहुतायत से पाये जाते हैं। ये धुर अविवेकी तत्व ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और वैज्ञानिक 'आलोचना'के परम शत्रु हैं।
मानव इतिहास में ऐंसा कोई भी धर्म-मजहब ,पंथ ,दर्शन या विचार नहीं है ,जिसने अपने आपको स्थापित कराने में या ओरों पर थोपने के लिए शक्ति का इस्तेमाल न किया हो ! भारत के वैदिक मन्त्र दृष्टा ऋषियों -मुनियों ,बौध्दों,जैनों और वैष्णवों में भले ही 'अहिंसा परमो धर्मः' का जाप किया जाता रहा हो, किन्तु उनके कट्टर अनुयायी - संरक्षक शासकों और चक्रवर्ती सम्राटों ने अपने[अ ] धर्म के लिए अपने सहोदर भ्राताओं का खून बहाने में परहेज नहीं किया। भले ही बाद में अनगिनत लाशों को देखने के बाद किसी राजा या सेनापति कोआत्म ग्लानि हो गयी हो और वह अहिंसावादी' हो गया हो ! भारत और यूनान में बहुत सभ्य तरीके से पक्ष-विपक्ष के मध्य ,विद्वान गुरुओं और उनके शिष्यों के मध्य ,प्रश्नोत्तर अथवा शास्त्रार्थ के रूप में आलोचनात्मक मत व्यक्त करने का इतिहास आष्चर्यजनक रूप से बहुत पुराना है ।किन्तु आलोचना अथवा 'मतखण्डन'को भाववादी पुष्टिवादियों -परम्परावादियों और स्वार्थी शासकों ने कभी पसंद नहीं किया।
भारतीय संस्कृत,पाली,अपभ्रूंस और द्रविड़ वांग्मय में ,वैदिक मन्त्रों की रचना में ,श्रुतिओं के आविर्भाव में ,संहिताओं के सम्पादन में ,आरण्यकों की स्थापना और वेदांत दर्शन मीमांसा में ,उपनिषदों के कालजयी सृजन में तार्किक आलोचनाओं और बौद्धिक विमर्शों का उल्लेखनीय स्थान रहा है। इस कसौटी पर कसे जाने के उपरान्त ही उक्त बौद्धिक -आध्यात्मिक सम्पदा का अंतिम प्रकाशन सम्भव हुआ करता था। अष्टावक्र -जनक संवाद,याज्ञवल्क्य -भारद्वाज सम्वाद, शुकदेव-परीक्षित सम्वाद से लेकर आदि शकराचार्य और मंडन मिश्र के संवाद में और सुकरात -प्लेटो -अरस्तु संवाद में वह आलोचनात्मक विमर्श प्रतिध्वनित हो रहा है ,जो आधुनिक विश्व को साहित्यिक आलोचना -प्रत्यालोचना और समालोचना में वाद-प्रतिवाद और संवाद का अनुशीलन सिखाता है। आधुनिक दौर की लोकतान्त्रिक तौर तरीके वाली अहिंसक 'आलोचना' की तरह ही सामन्ती दौर में भी ततकालीन प्रबुद्ध वर्ग - राजनीति ,अर्थशास्त्र और प्रकृति विज्ञान गणित ,चिकित्सा के विषयों को व्यापक जन -आलोचना के उपरान्त ही संहिताबद्द किया करता था! अपवाद हर दौर में रहे हैं जब इंसानी शाब्दिक आलोचना का जबाब तलवार से दिया गया । इस अमानवीय बर्बरता के निशान दुनिया के हर कोने में ,हर सभ्यता में,हर राजनैतिक व्यवस्था में और हर धर्म-मजहब में अब भी पर्याप्त रूप से मौजूद हैं। गनीमत है कि लोकतान्त्रिक राजनीति में 'आलोचना' की 'आलोचना' सहज स्वीकार्य है। जबकि धर्मान्धता प्रेरित सभ्यताओं के संघर्ष ने ,अधिनायकवादी सर्वसत्तावाद और हिंसक समाजों ने जायज और वैज्ञानिक आलोचना पर पहरेदार बिठा रखे हैं ।
विश्व के सम्पूर्ण क्रांतिकारी जन -आन्दोलनों का और सर्वहारा क्रांतियों का इतिहास हमें सिखाता है कि क्रांतिकारी कतारों में आलोचना का स्वरूप कैसा हो ?इस नजरिए से आलोचना का स्वरूप विज्ञानसम्मत और तार्किक होना बहुत जरुरी है ! किसी भी व्यक्ति ,विचार,सिद्दांत या घटनाक्रम की आलोचना में यदि न्याय की पक्षधरता और अन्याय की मुख़ालफ़त निहित है तो वह परम पुनीत कर्म है। किन्तु यदि उसमें 'सत्यमेव जयते ' का मंतव्य भी शामिल कर लिया जाए तो सोने में सुहागा होगा ! सामाजिक,आर्थिक और दार्शनिक रूप से सचेत प्रबुद्ध वर्ग के तर्कवादियों को ,प्रगतिशील -रोशनख्याल बुद्धिजीवियों और -विचारकों को उन मजहबी भाववादियों की तरह मिथ्यावादी नहीं होना चाहिये जो धर्मान्धता ,संकीर्णतावाद और अतिशयोक्ति वाद की गटर में आकंठ डूबे हैं।
शोषण की व्यवस्था को पालने-पोषण वाली पाखंडी - आडंबरी और धर्मांध -भाववादी भाषा का आलोचनात्मक तार्किक जबाब न तो कोरी क्रांतिकारी लफ्फाजी दे सकती है और न ही सुई पटक सन्नाटा उसका जबाब हो सकता है । बल्कि जनता की भाषा में उसकी अभिरुचियों के अनुरूप उसके सनातन 'वर्गशत्रु ' की आलोचना प्रस्तुत करते हुए इस पतनशील व्यवस्था को बदलने की क्रांतिकारी सोच को अभिव्यक्ति मिलनी चाहिए। वैसे भी न्याय की
भूमंडलीकरण ,उदारीकरण और तकनीकी समृद्धिकरण की व्यापक भूमिका ने अनजाने ही आलोचना ,समालोचना और प्रत्यालोचना को मानवीय मूल्यों से वंचित करते हुए उसे कोरा नीरस ,अमानवीय और वितण्डावादी बना डाला है। चूँकि साधन सम्पन्न वर्ग को दक्षिणपंथी, यथास्थतिवादी और पूँजीवादी खेमें का वरद हस्त सहज ही उपलब्ध रहा है ,इसलिए हर किस्म की अमानवीय आलोचना और अप्रिय अभिव्यक्ति के प्रति इस एलीट क्लास की अभिरुचियों को संकीर्णता के पंख लग गए। जबकि संघर्षशील शोषित -दमित वर्गों के सचेत प्रगतिशील सृजनहार -बुद्धिजीवी गण हर किस्म की प्रतिगामी अप्रिय स्थितियों के कारण आलोचना-समालोचना और प्रत्यालोचना से विमुख होते चले गए। साहित्य से इतर जन संघर्षों के केंद्रीय विमर्श में वामपंथी चिंतक ,लेखक और कवि अपनी आलोचना को वैज्ञानिक और तार्किक रूप से धारदार बनाने के बजाय वाम संकीर्णतावाद के शिकार होते चले गए। यही वजह है कि हिन्दी क्षेत्र राजनैतिक क्षितिज पर वे क्रांतिकारी सृजन का परचम फहराने में विफल रहे।
दुनिया के किसी भी मुल्क में यदि लोकतान्त्रिक व्यवस्था है तो उसमें पक्ष--विपक्ष का होना भी नितांत आवष्यक है। यदि दुनिया का कोई मुल्क भारत जैसा बहु धर्मी बहु भाषी,बहु विध संस्कृति वाला और वैचारिक बहुलतावादी है तो वहाँ बहुकोणीय द्व्न्दात्मक्ता होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है । इस हालत में 'अभिव्यक्ति की आजादी' को अक्षुण रखते हुए ,एक दूसरे की स्वस्थ और सार्थक आलोचना तो जायज है ,लेकिन इस दव्न्दात्मकता के बहाने भारत राष्ट्र के सनातन शत्रु वर्ग की अनदेखी करना आत्मघाती गोल सिद्ध होगा।अभिव्यक्ति की आजादी के बरक्स या आलोचना के अधिकार के तहत भारत को चौतरफा बर्बाद करने में जुटे बाहर -भीतर के मजहबी - आतंकी और सर्वहारा के शोषक वर्ग को खाद पानी देना मुनासिब नहीं है। न केवल राजनीति में अपितु साहित्य - कला और क्रांति कारी आंदोलनों में भी 'आलोचना' का स्वरूप वैज्ञानिकता से युक्त और तार्किक होना चाहिए -श्रीराम तिवारी
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