सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

नोटा [राईट टू रिजेक्ट ] का विकल्प कितना लोकतांत्रिक है ?



सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर  चुनाव आयोग ने 'नोटा ' का विकल्प देने का फैसला  किया है , तदनुसार ईबीएम मशीन में उसका प्रावधान तो  पहले ही किया जा चूका है ।  इस प्रावधान से उत्पन्न सवालों के परिप्रेक्ष में -कि यदि  कोई भी  उम्मीदवार  पसंद नहीं तो जन-भावनाएँ प्रकट करने का तरीका  क्या  हो ?  ईवीएम मशीन में  ' राईट टू  रिजेक्ट'के विकल्प कि व्यवस्था के उपरान्त उपजे सवालों को हल करने में जुटे  चुनाव आयोग  ने यह फैसला किया है कि भले ही किसी विशेष बूथ पर या किसी विशेष विधान सभा सीट पर या  किसी लोक सभा सीट पर स्टेंडिंग केंडीडेटस  को मिले वोटों   से 'नोटा' के वोट ज्यादा हों किन्तु फिर भी  उम्मीदवारों में से जिसे ज्यादा  वोट हासिल होंगे वह विजयी घोषित कर दिया जाएगा।
                                                                                  अर्थात  यदि किसी चुनाव में कुल १०० वोट पड़े और नोटा [राईट टू  रिजेक्ट  याने  इनमें  से कोई नहीं ] को ५०% से ज्यादा वोट मिले तो शेष अल्पमत वोटों में से जिसे ज्यादा वोट मिलेंगे वो विजयी घोषित किया जाएगा । मान लो नोटा को ६० वोट मिले और शेष ४० में से किसी उम्मीदवार को २१ वोट मिले तो वह भारतीय लोकतंत्र में विजयी प्रत्याशी होगा। यह प्रावधान वहाँ लागू नहीं होगा जहां  निर्विरोध  चुनाव होंगे।तकनीकी  रूप से चुनाव आयोग का फैसला सही हो सकता है किन्तु  'बहुमत' के आधार पर चलने वाला लोकतंत्र इसमें कहाँ फिट बैठता है ?क्या यह कदम  लोकतन्त्रात्मक व्यवस्था को  परिभाषित करता है ? क्या यह  जन -भावनाओं और जनादेश को खंडित रूप में स्वीकारने का एक और आत्मघाती कदम नहीं होगा ?
                    निसंदेह   अपराध जगत और राजनीति  कि अपावन मैत्री से भारतीय लोकतंत्र  में हद दर्जे कि गिरावट और विकृतियाँ  दरपेश हुईं हैं। दागी ,भृष्टाचारी ,अपराधी  या अकर्मण्य नेता को 'रिजेक्ट' करने का अधिकार निसंदेह जनता को मिलना ही चाहिए ,किन्तु जब तक मतदान प्रणाली कि  खामियों और प्रशासनिक लापरवाहियों पर अंकुश नहीं लगाया  जाता तब तक नोटा का प्रयोग 'बंदरों के हाथ में उस्तरा ' से ज्यादा कुछ नहीं है. यह आरोप सही भी  हो सकता है कि  विगत दो दशक से  भारतीय नीति  नियंताओं और सत्तारूढ़  -  राजनैतिक शक्तियों  द्वारा अपनाये  जा रहे उदारीकरण-भूमंडलीकरण-निजीकरण और वैश्वीकरण से  समग्र सिस्टम में  आर्थिक बर्बादी  के बवंडर  आये हों  - भृष्टाचार, अलगाववाद  और असमानता  के तूफ़ान  आये हों   -नारी उत्पीडन  , धर्मान्धता ,साम्प्रदायिकता और जातीयता   के जलजले आये   हों !किन्तु  यह भी सौ फ़ीसदी सच है कि   इस तथाकथित  "नव्य-उदारवादी  - पूँजीवादी" व्यवस्था ने ही मानवीय जीवन के  कुछ मूलभूत सकरात्मक बदलाव के समाधान  भी  मुहैया करवाए हैं। देश को  इस दौरान जो सकारात्मक  न्यायिक - सक्रियता , मीडिया की बाजारगत प्रतिद्वन्दिता  और अतिउन्नत सूचना प्रोद्योगिकी एवं समृद्ध संचार क्रांति की सर्वत्र-सार्वदेशिक -सर्वकालिक उपलब्धता का वरदान प्राप्त हुआ है, वो  भारतीय लोकतंत्रात्मक सिस्टम में सकारात्मक आशाओं का  केंद्र बन गया  है। इन सकारात्मक अवयबों  के सहयोग से   भी  भारत में   सामाजिक  -राजनैतिक बदलाव  और  रक्तविहीन- अहिंसक क्रांति की शुरुआत सम्भव   है. ईवीएम मशीन में तकनीकी  बदलावों से यह लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता।
                                           देश में   इन सकारात्मक उपलब्धियों के अनुप्रयोग का वक्त आ चूका है।   नवम्वर-दिसंबर -२०१३ में हो रहे  पाँच   राज्यों की विधान  सभाओं के चुनाव  और अगले साल  होने जा  रहे राष्ट्रव्यापी - लोक सभा  चुनावों  की शक्ल  शायद अब पूर्ववत नहीं रहेगी। चूँकि प्रजातांत्रिक चुनावों  की खामियों का बेजा फायदा उठाकर अब तक दवंग और  आपराधिक किस्म के 'दागी' लोग  भी राजनीति  की परिधि  के  अन्दर सत्ता केंद्र तक पहुँच जाया करते थे किन्तु आइन्दा इनकी 'छटनी '  की संभावनाएं  बनती जा रही हैं। हालांकि प्रजातंत्र में अंतिम फैसला 'बहुमत' का ही माना जाता है किन्तु यदि अल्पमत का प्रतीकात्मक  विरोध  नजर अंदाज कर केवल मामूली बहुमत को 'असीम' अधिकार  दिया जाता है  तो संघर्ष की  सम्भावना   स्वाभाविक  है.इसीलिये मतदाताओं को 'राइट टू  रिजेक्ट ' की ओर  नहीं  बल्कि 'सबसे कम बुरे' को चुनने कि ओर  प्रेरित किया जाना चाहिए।
                      एक नकारात्मक खबर पढने -सुनने में आई है। किसी शहर के स्वनाम धन्य  पढ़े-लिखे  बुजुर्ग  -  वुद्धिजीवी   ,साहित्यकार  ,वरिष्ठजन , डॉ ,इंजीनियर और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने  बैठक  में निर्णय लिया कि  वे 'नोटा' याने 'कोई नहीं ' का विकल्प चुनेगें। उनकी आम राय है कि  वर्तमान में उनके समक्ष  वोट मांगने  आने वाले प्रमुख दल -  भाजपा और कांग्रेस  के  उम्मीदवार या तो अकर्मण्य हैं या भृष्टाचार में लिप्त हैं। दोनों ही दलों को भृष्ट और बेईमान शक्तिशाली वर्ग का संरक्षण  प्राप्त है।  कुछ दलों के प्रमुख नेता याने 'पी एम् इन वेटिंग' आयँ -बायँ  ,ऊल-जलूल बक रहे हैं  अन्य दलों के प्रत्यासी  या निर्दलीय प्रत्यासी भले ही सापेक्ष्तः कुछ ठीकठाक हों किन्तु वे  हर  बार हार जाते हैं और    अपनी जमानत भी नहीं बचा पाते।  इसीलिये उनकी सामूहिक    समझ बनी  है कि  इन हरल्ले  उम्मीदवारों को वोट देना भी बेकार है क्योंकि उनका जीतना  अब भी मुश्किल है। इन 'समझदार ' लोगों की यह समझ नितांत नकारात्मक और  अलोकतांत्रिक है। वे 'आदर्श' उम्मीदवार के लिए 'उटोपिया 'के शिकार हैं।
                   भारत में राज्यों की  विधान सभाओं और देश की  लोक सभा के चुनाव  कुछ विशेष अपवाद  छोड़कर , सामन्यतः पाँच  साल में ही  होते हैं। चुनाव आयोग लगातार इस दिशा में  सक्रिय रहता है कि  'शून्य त्रुटी ' का लक्ष्य कैसे प्राप्त हो ? आदर्श चुनावों के लिए लगभग साढ़े  चार साल तक  तो  चुनाव आयोग वोटर लिस्ट ,आई डी कार्ड,मतपेटियां ,पोलिंग बूथ तथा घर-घर जाकर नव् वयस्कों ,मृतकों की  छानबीन  में जुटा रहता है. अंतिम ६ महीने में चुनाव आयोग के साथ सम्पूर्ण पुलिस व्यवस्था,प्रशाशनिक मशीनरी भी सब काम छोड़कर इन चुनावों में जुट जाती है। इतना सब कर चुकने के बाद चुनाव  आयोग ,मीडिया और  प्रजातन्त्रवादी शक्तियाँ भी मान-मनुहार करती हैं कि  पधारिये !आइये !अपनी पसंद का उमीदवार और सरकार चुनिए। अब इतना सब कुछ करने के बाद केवल 'नोटा' का वटन   ही दवाना है  तो  उसके  निहतार्थ क्या हैं ?ऐंसा करने वाला या तो  ये मानता है  की सत्ता में जो है/हैं वो नाकाबिल हैं और विपक्ष में  जो है /हैं वो भी नाकाबिल हैं।  एक अकेला वही दूध का धुला है !
                       यदि 'नोटा ' के पक्ष में बहुमत आ गया और सभी उम्मीदवार पराजित  हो गए तो  क्या व्यवस्था के दोषों का निवारण हो जाएगा ? यदि  किसी सीट विशेष में यह हुआ की 'नोटा ' के पक्ष में ज्यादा वोट हैं तो   भी उसके वोट को नजर अंदाज कर जब जीत-हार का फैसला होना ही है तो  ईवीएम में नोटा के बटन का क्या मतलब ?यदि फिरसे  उम्मीदवार खड़े  होते-चुनाव होते  या उम्मीदवार ही इस तरह के होते कि आपत्ति कि गुंजायश कम होती तो शायद बात बन जाती।  चूँकि अभी तो भारत के राजनैतिक पटल पर कालिमा ही कालिमा है  अतः  देश में हर जगह से यही परिणाम आने लगे तो  कोई आश्चर्य नहीं और तब भारतीय लोकतंत्र का क्या होगा ?
                                 बहुत पुरानी और सार्वदेशिक युक्ति है कि "पापी को पत्थर वो मारे जिसने पाप ना किया हो " वेशक जिस मतदाता ने  कभी झूंठ न बोला हो ,भारतीय संविधान के किसी भी कानून का कभी उलंघन न किया हो,कभी लाइन से हटकर-रेल का ,बस का ,फिल्म का या क्रिकेट का  टिकिट न लिया हो ,रिश्वत न ली हो -न दी हो , कभी सडक पर राँग  साइड  न चला हो ,  बिना हेलमेट दुपहिया वाहन पर और बिना बेल्ट  कार में न बैठा हो ,दहेज़ न लिया हो -न दिया हो , बिजली -पानी-सड़क -सम्पत्ति कर देने में चूक न की हो, जिसने स्वयम के परिश्रम  और पसीने से अर्जित अन्न का  ही  सेवन किया हो  ,पढाई के दौरान नक़ल या अपने सहपाठी से सवालों का मिलान -जुलान  इत्यदि न किया हो। जो समझता है कि  वह   किसी भी  उम्मीदवार से बेहतर है तो यह तो देश के  सौभाग्य की बात है। ऐंसे  व्यक्ति को या व्यक्तियों को एकजुट होकर स्वयम सत्ता में आना चाहिए  .स्वयं राजनीति में आकर  भ्रष्टाचारियों को राजनीती से उखाड़  फेंकना चाहिए।
     निसंदेह वर्तमान राजनीति  में तो  अधिकांस संदेहास्पद और संदिग्ध चरित्र के ही नेता और नेत्रियाँ हैं। ये सभी अपनी वंश बेल बढाते जा रहे हैं। किन्तु इनसे निपटने के लिए 'नोटा ' का विकल्प कारगर कैसे हो सकता है ?क्या ई वी एम् मशीन का 'नोटा ' वटन  दवाने या नहीं दवाने  से देश में राम, कृष्ण, गौतम, गाँधी ,नानक ,मुहम्मद या महावीर   अवतरित होने लग जायेंगे ?राष्ट्रीय दलों के व्यक्तियों के व्यक्तिगत चरित्र से बढ़कर उनकी नीतियाँ -कार्यक्रम और मेनिफेस्टो हैं।  जिस दल के कार्यक्रम -नीतियाँ-नेता और मेनिफेस्टो कम खराब हैं आप उसे चुन सकते हैं । कांग्रेस है ,भाजपा है ,वामपंथ है ,क्षेत्रीय दल हैं  ,निर्दलीय हैं और 'आप'  जैसे नए दल हैं ,मतदाता चाहें तो इनमें 'सबसे कम बुरा' चुनकर देश के प्रति  और प्रजातंत्र के प्रति अपनी  अपना दायित्व पूरा कर सकते हैं। नोटा कोई उचित समाधान  नहीं है। तात्पर्य ये कि  इस संसार में :-

   जड़ चेतन गुण दोषमय ,विश्व कीन्ह करतार।

   संत -हंस -गुण  गहहीं पय ,परिहरि वारि विकार।।

                   यह संसार भलाई -बुराई से  मिलकर बना है ,महान और  देशभक्त नर-नारियों को चाहिए की  केवल सापेक्ष  अच्छाई को चुने ,  याने   जो कम बुरा हो उसे चुने। प्रजातंत्र में राष्ट्रीय स्तर  पर  भले ही भाजपा ,कांग्रेस निर्मम पूँजीवाद  के अलमबरदार हैं , किन्तु दिल्ली में 'आप' के  अरविन्द केजरीवाल  भी तो  हैं , उन्होंने अभी ऐंसा   कोई घोटाला   नहीं किया कि  कम से कम दिल्ली विधान सभा चुनाव में  कांग्रेस,भाजपा के साथ उन्हें भी नकारा जाए  याने  'नोटा ' की नौबत आये !  हमारा यकीन है कि   पूरे देश में ,सभी राज्यों में हर जगह एक न एक बेहतर  याने "कम बुरा" उम्मीदवार जरुर   है. वशर्ते  जनता अपने विवेक से मूल्यांकन करे न की चुनावी -दुष्प्रचार से प्रभावित होकर मतदान में  शिरकत करे।
       
        श्रीराम तिवारी 

राजेन्द्र यादव को क्रान्तिकारी श्रद्धाँजलि .... !







     हंस के सम्पादक ,प्रगतिशील विचारों के प्रचेता ,दलित , पिछ्ड़े वर्ग के हित चिंतक और 'स्त्री -विमर्श ' के अग्रगण्य प्रणेता- आदरणीय राजेन्द्र यादव के  के दुखद निधन पर क्रांतिकारी  अभिवादन और सादर श्रद्धाँजलि .... जनता के असली साहित्य् कार को लाल सलाम .... !

      श्रीराम तिवारी -अध्यक्ष जन -काव्य - भारती

      एवं  सलाहकार -सम्पादक -फालो -अप.

  ब्लॉगर -www.janwadi.blogspot.com 

सोमवार, 21 अक्तूबर 2013

समसामयिक मुक्तक [दोहे]-श्रीराम तिवारी

   


              महासिंधु से जब चला ,विकट   फ़िलिन  तूफ़ान।

               तब  मौसम विज्ञान ने   ,किया सही अनुमान।।


              पूरव  तट  भारत हुआ, चौपट निपट निदान।

               जन-जन  की रक्षा हुई , धन्य हैं सैन्य जवान।।


              धन्य -धन्य   वो  मीडिया ,जिसने किया सचेत।

               केंद्र -राज्य  भी लगे थे ,मानवता के हेत।।


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          यूपी के उन्नाव में ,तमाशबीन की भीर।

           गड़ा  खजाना खोजता ,पुरातत्व गंभीर।।


           कितने किस्मत के धनी ,ये शोभन सरकार।

           जिनको सपने में दिखा ,गड़ा  स्वर्ण भण्डार।।


             साधू ऐंसा चाहिए ,ज्यों शोभन सरकार।

            जिसके सपने का हुआ ,दुनिया में प्रचार। ।


            सपना  ऐंसा देखिये ,गड़ा  खजाना होय।
 
            पुरातत्व की खोज को , मन ललचाता कोय ।।


            किस्मत -भाग्य -सपना सुलभ  ,मक्कारों  को होय ।

            सपनेहूँ होहिं भिखारी नृप , रंक अरबपति होय।।

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           दतिया क्षेत्र रतनगढ़ ,माता मंदिर द्वार।

           शारदीय नव-रात्र में मच गई हाहाकार।।


            सकरे  पुल पर जुट गई ,जबरन भगदड़ भीर।

            पुलिस प्रशासन फेंकता ,शव नदिया के नीर।।


            धन्य -धन्य शिवराज जय, मध्यप्रदेश सरकार।

             लूटपाट हत्या -जुलुम ,हो रहा अपरम्पार।।


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                कोलगेट में फंस रहे ,मनमोहन पी एम्।

                सुपीम कोर्ट  को पता है ,सी बी आई का एम्।।

               
                  के एम् बिडला क्या फंसे ,छिड़ी बाजार में जंग ।

                  पारिख पी एम् ओ हुए ,पटनायक के संग।।

        
                    राष्ट्रीय धन सम्पदा ,जीम रहे कुछ लोग।

                     सम्पन्न देश में मर रहे ,लाखों भूंखे लोग।।


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                         जीवन भर ठगते रहे ,लेकर हरि  का नाम।

                          पाप घडा जब भर गया ,तो फंस गए आसाराम।।

                        
                            बाप  फँसा बेटा फँसा   ,बेटी  फँसी जवान।

                            आसुमल पत्नी  फँसी  ,जीवन नरक समान।।


                            उत्पीडन हत्या जुलुम ,ऐय्यासी व्यभिचार।

                            धर्म-कर्म की ओट  में ,मादक दृव्य व्यापार।।

            
                            सौ-सौ जिसके आश्रम ,अरबों बेंक बेलेंस।

                              साधू है शैतान है,या   केवल नानसेंस।।


                                    श्रीराम तिवारी

          
                      

                   


               

       

           
          

            



            

   

मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

सच्चा मुसलमान केवल अल्लाह से और सच्चा हिन्दू केवल ईश्वर से डरता है।

    

   जमीयत उलेमा -ऐ -हिन्द  के सैयद  मौलाना मह्मूद् मदनी   ने वयां किया है की - "कांग्रेस  वोट के लिए मुसलमानों को नरेन्द्र मोदी का डर  दिखा रही है। "-   उनके इस वयांन से जहां  कांग्रेसी खेमे में हड़कंप  मची हुई है , वहीं भाजपा और संघ परिवार में "फील गुड" का माहौल है। यह कोई अनहोनी या असंभाव्य घटना नहीं है।   दुनिया के तमाम  देशों  की  विचारधाराओं  और उनके अध्येताओं द्वारा यह  निष्कर्ष अनेकों बार सिद्ध  किया जा   चूका है की  अन्ततोगत्वा राजनैतिक -  ध्रुवीकरण  की प्रक्रिया में एक तरफ  गैर -साम्प्रदायिक  धर्मनिरपेक्ष ,लोकतांत्रिक और  जनवादी ताकतें होंगी और दूसरी ओर सभी  गैर- लोकतांत्रिक ,सारे फासिस्ट , समस्त प्रतिगामी, सभी  साम्प्रदायिक  तत्व और  दक्षिण पंथी  एकजुट होंगे। यह प्रक्रिया  अंतर्धारा के रूप में  निरंतर जारी रहती है। इसका  पता आवाम को तब चलता है जब या तो सत्ता परिवर्तन की सम्भावनाएं हों या किसी  खास -  कबीलाई -  साम्प्रदायिक लीडर  का दिमाग फिर गया हो। वो तथाकथित  आलमी विद्द्वान समझता है की उसने   अपने कबीले नुमा सम्प्रदाय के अन्दर की हताशा को  उजागर   किया   है। उसने सम्प्रदाय की मनोदशा को  अभिव्यक्त  है। तो  वो कितना भी बड़ा आलिम हो किन्तु  उसकी राजनैतिक समझ और जमीनी सच्चाइयों  की समझ नितांत शून्य है।
                                     मैं  जनाब मदनी साहिब के बयान से इत्तफाक नहीं रखता। मेरा यकीन है की " एक  सच्चा  और देशभक्त मुसलमान केवल अल्लाह से डरता है "उसे न तो मोदी का  भय है और न किसी और दीगर  दुनियावी ताकत  का भय है। हाँ यदि वो  अपने दींनी इल्म से नावाफिक  है ,अल्लाह के हुक्म की  फरमावरदारी से  चूक कर  अपने स्वार्थ के लिए अल्लाह के वन्दों की भावनाओं का दोहन करता है , राष्ट्र के प्रति नकारात्मक भाव है , तो ऐंसा व्यक्ति  जरुर किसी  खास घटना , खास  शख्सियत  या  किसी खास पावर सेंटर या  सत्ताकेंद्र  से अवश्य  डरेगा।   इसी तरह एक सच्चा देशभक्त  हिन्दू -मन वचन कर्म से  केवल 'परम  ब्रह्म परमात्मा 'से ही डरता  है , एक सच्चा हिन्दू तो  सारे संसार  के महा-हरामियों  से  भी  नहीं डरता।  हाँ !उसकी एक अतिरिक्त विशेषता भी है की  वो  न तो मदनी से  बैर भाव रखेगा और न  ही  मोदी से घृणा करेगा । वो तो  हर् किस्म के अन्याय  से ,शोषण से ,अत्याचार से लड़ने को तैयार मिलेगा. किन्तु यदि वो हिन्दू  साधू वेश में  रंग रंगेलियाँ   मनाने वाला स्वामी,साधू,संत होगा  या नेता के वेश में सत्ता की चाहत में  इंसानों को मरवाने वाला हुआ तो वो  जरुर  हर किसी से डरेगा। संभव है की  किसी और  जालिम के जाल में उलझकर नष्ट हो जाए। सभी पक्षों के  धर्मांध लोग जब राजनीती में एकता बना लेंगे तो ये  अच्छे हिन्दू ,सच्चे मुसलमान केवल मूक दर्शक नहीं बने रहेंगे। ये अधिकांस मेहनतकश वर्ग से ही आते हैं  इसीलिये साम्प्रदायिकता की राजनीती को लात मारना भी जानते हैं।
                                          साम्प्र्दायिक आधार पर सत्ता की राजनीती का निर्धारण करने की चेष्टा का उपक्रम केवल  हिन्दुत्ववादी ही नहीं करते ,मुस्लिम ,सिख ईसाई और अन्य क्ष्त्रीय्तावादी भी अपने-अपने काम पर लगे हुए हैं।   समस्त शोषित -दमित -मेहनतकश  समाजों की वर्गीय  एकजुटता  को ध्वस्त करने और पूंजीवादी लुटेरों को महफूज करने का  यह एक  अप्रत्याशित कदम भी हो सकता है।   हालांकि धर्मर्निरपेक्षता का मतलब 'धर्म सापेक्षता नहीं है।  फिर भी यदि धर्मनिरपेक्ष  लोकतंत्र की  वेदी पर  मोदी और मदनी एक साथ  मथ्था  टेकते हैं तो  किसी को कोई इतराज क्यों होगा ?
                                                                         भारत में वैसे तो सभी सम्प्रदायों के मठाधीश हैं किन्तु साम्प्रदायिक   राजनीती की चौसर पर  अभी तक कट्टर हिंदुत्व के सबसे बड़े  प्रतीक  केवल  'नरेन्द्र मोदी' ही अकेले उभर सके  थे। अब साम्प्रदायिक जुगलबंदी के लिए मुस्लिम कट्टरपंथ की ओर से जमीयत -उलेमा  -ऐ -हिन्द के  सैयद मौलाना महमूद मदनी भी  हाजिर हैं।  शायद अवसरवादिता की राजनीती के अनुसंधान कर्ताओं  को - सत्ता की राजनैतिक सौदेबाजी का  इससे  शानदार   उदाहरण अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा।  कभी कांग्रेस ,कभी सपा ,कभी वसपा और अब भाजपा में भी  अपनी मुस्लिम अल्पसंख्यक  वादी  वोटों  की राजनीती  के बरक्स  और   तथाकथित कांग्रेसी पिछ्लाग्गुपन से मुक्ति की  छटपटाहट का यह    प्रतीकात्मक   प्रदर्शन  भाजपा और मोदी को छलने का एक बहाना भी हो सकता है।  यह किसी समूची कौम के लिये  "आकाश से गिरे -खजूर पे लटके " भी साबित हो सकता है।  निसंदेह यह दो सम्प्रदायों के बीच भ्रातत्व भाव का प्रयास   रंचमात्र   नहीं है ,ये विशुद्ध  साम्प्रदायिकतावादी राजनीती है। आशा की जानी चाहिए की   आगामी चुनावों में यदि  भाजपा के नेतत्व में एनडीए की  विजय होती है तो जनाब मदनी साहिब को और उनके जैसे दो-चार मुस्लिम आलिमों के लिए उचित  मुआवजा  के भरपाई में  'मोदी' देरी नहीं करंगे।
        वेशक  हिन्दू-मुस्लिम -सिख -ईसाई  या साम्प्रदायिक और क्षेत्रीयता के आधार पर अपनी राजनैतिक प्रभुसत्ता कायम  करने वाले ग्रुप ,दल,समूह  या गिरोह  अपने आपसी   अन्तर्विरोध  को एक सीमा तक ही ले जा सकते हैं।  किन्तु जब उनके अन्तर्विरोध का फायदा धर्मनिरपेक्ष और  जनवादी ताकतों को मिलने वाला हो ,गैर कांग्रेस और गैर   भाजपा का विकल्प उभरने को हो , तब इन सरमायेदारों के  देवदूतों को ईश्वर -अल्लाह  की  याद नहीं आती यदि उनके वर्गीय हितों को आपस की मुठभेड़ से नुक्सान संभावित  हो तो  ये साम्प्रदायिक  ताकतें अपने तथाकथित 'सभ्यताओं के संघर्ष' को  खूंटे पे  टांगकर   तात्कालिक युद्ध विराम  करने के लिए मजबूर हो जाया करते हैं. तब  सत्ता  का और साम्प्रदायिक राजनीती का चश्मा लगाने वालों को   'मोदी में मदनी'और 'मदनी में मोदी'की छवि नज़र आने  लगती है।  गैर कांग्रेसवाद और गैर भाज्पावाद  के लिए ये खतरे की घंटी है। क्योंकि राजनैतिक विमर्श में वे अभी तो हासिये पर ही है.

         श्रीराम तिवारी 

सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

भावात्मक शस्त्र पूजा से आगे बढ़ो ! नये भारत की 'शक्ति पूजा' का इंतजाम करो !!

         भारत  इन दिनों चौतरफा संकट महसूस कर रहा है। प्राकृतिक आपदाएं,बाढ़,अनावृष्टि ,साम्प्रदायिक उन्माद,चौपट अर्थ व्यवस्था और पाकिस्तान -चीन के कुटिल क्रिया कलापों से  भारत को लगभग जूझना पड रहा है.  दूसरी ओर राजनैतिक  नेतत्व में विचार् धाराओं का नहीं स्वार्थों और सुविधाओं के वर्चस्व का टकराव परिलक्षित हो रहा है।  धार्मिक नेतत्व  या तो यौन - शोषण ,अर्थ संग्रह और घोर लफ्फाजी में व्यस्त है या राजनीती पर अपना वर्चस्व कायम करने के मंसूबे बाँध रहा है। कुछ राजनैतिक नेता  और पार्टियां भी  साम्प्रदायिकता की राजनीती  करते हुए  सत्ता प्राप्ति की ओर अग्रसर हैं।
                           खबर है की नरेन्द्र मोदी ने इस दशहरे पर शस्त्र  पूजा की  है ,  वैसे तो  यह कोई विशेष खबर नहीं है ।  किन्तु   विशेष  बात ये है की  इस दफा ही  मीडिया ने हाई लाईट क्यों  किया है  ?जबकि इससे पहले भी वे शस्त्र पूजा बनाम 'शक्ति पूजा' करते आये हैं. अधिकांस हिन्दू धर्मावलम्बी भी यही करते हैं ,'संघ परिवार' तो शिद्दत से दशहरे  पर शक्ति प्रदर्शन  बनाम   शस्त्र पूजा अर्थात "शक्ति पूजा' के लिए कटिबद्ध  रहता है।  वेशक एक धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक देश होते हुए  भारत में सभी धर्म-मजहब को अपने तौर -तरीके से ईश -उपासना की छूट हासिल है।  यह भारतीय लोकतंत्र की शानदार पहचान है।  शायद  नरन्द्र मोदी के  शस्त्र पूजन   इत्यादि   धार्मिक   सरोकारों की चर्चा भी नहीं होती यदि वे गुजरात के  मुख्यमंत्री और भाजपा के प्रस्तावित 'पी एम् इन वेटिंग ' न होते। किन्तु  व्यक्ति जब धर्म -मजहब को राजनीती की  सीढ़ी बनाकर निहित स्वार्थों के निमित्त  उसे चौराहे पर ला खड़ा करता है तो 'धर्म' मजहब या पंथ साम्प्रदायिकता का क्रूर शस्त्र बन जाया करता है। इस   घातक शस्त्र से किसी का भला नहीं होता।  इतिहास साक्षी है -अल्पसंख्यक तो क्या बहुसंख्यक भी अपने ही स्वनिर्मित तानाशाहों के क्रूर  'दमन चक्र' से  बच  नहीं पाये ।
                                                                  चूँकि दशहरे  अर्थात विजयादशमी पर्व   पर शाश्त्रों  -  पुरानों   द्वारा  हिन्दू समाज को इस अवसर पर  दोहरी विजय का एहसास कराया जाता है।एक पुरातन याने  पौराणिक आख्यान है की  देवताओं ने नौ दिनों तक  देवी दुर्गा अर्थात 'शक्ति' का आह्वान किया था जिसने शुम्भ  - निशुम्भ ,महिखासुर इत्यादि का  नाश  किया था। उस घटना की याद में विजयादशमी त्यौहार मनाया जाता है। दूसरी घटना में  इसी दिन अयोध्या नरेश दशरथ  नंदन  श्रीराम ने  लंकापति रावण का संहार किया था और उसी की  याद में दसहरा मनाया जाता है। काली पूजन  अर्थात "शक्ति पूजा "  और रावण दहन भी शायद  इन्ही पौराणिक  कथाओं   से प्रेरित हैं।  भारत  के सनातन समाज  द्वारा  ज्ञात  इतिहास में वीरों  को   व  उनके शस्त्रों को  देवतुल्य  दैवीय  सम्मान दिया जाता रहा  है। चक्र सुदर्शन ,गदा,वज्र ,पोनाकि ,त्रिशूल ,खडग,परशु  , गांडीव ,सारंग  इत्यादि शस्त्रों  और नागपाश ,अमोघ तथा  ब्रह्माश्त्र इत्यादि  अश्त्रों को  जितना पूज्यभाव सनातन समाज में मिला  उतना शायद ही दुनिया की  किसी अन्य  कौम ने दिया हो। फिर भी ये विचित्र किन्तु सत्य इतिहास है की इन शस्त्र-पूजकों को सदियों तक उनका गुलाम रहना पडा जो शस्त्र की पूजा नहीं करते थे बल्कि उसे शान पर चढ़ाकर युद्ध के मैदान में अपने प्रतिद्वन्दी के समक्ष निर्ममता से  इस्तेमाल किया करते थे।शक, हूँन,कुषाण ,यवन ,कज्जाक,तुर्क ,उज्बेग ,मंगोल ,पठान अर्थात पश्चिम से जो भी आया उसने भारत को या तो लूटा है या जीतकर शाशन किया है। शासित भारतीयों को हारने के बाद भक्ति मार्ग पर जाकर ईश्वर भजन में लींन  होना पडा  और आश्था के खोल में ये करुन्कृन्दन  आज  भी जारी है। त्यौहारों पर शस्त्र पूजा याने 'शक्ति पूजा 'उसी  कायरतापूर्ण  भक्तिभाव का प्रमाण है.   हालांकि इस दुखद और शर्मनाक स्थति के लिए खुद 'अंधश्रद्धा ' ही जिम्मेदार है।  
                                      वैदिक परम्परा के  खिलाफ उसी की कोख से जन्में  प्रमादी विद्रोहियों ने जब  भारतीय उपमहादीप  में नए-नए पंथ ,दर्शन ईजाद किये तो आवाम और शासक दोनों दिग्भ्रमित होते चले गए। परिणाम स्वरूप   युद्ध नीति,रणकौशल , राष्ट्र  सुरक्षा इत्यादि विमर्श हासिये पर चले गए।   कायर लोग  'अहिंसा परमोधर्मः 'और   परजीवी उपदेशक   केवल  भिक्षाटन को ही   धम्म चक्र प्रवर्तन  सिद्ध करते रहे ।  बचे खुचे सामंत आपस की जंग में  और सुरा सुन्दरी में डूब गए।  उनके टूटे -फूटे  भौंथरे  अष्ट्र -शस्त्र केवल दशहरे की "शक्ति पूजा " के अवसर पर ही धोये-पोंछे जाने लगे। जबकि अरब ,यूनान में युद्ध कौशल को  विज्ञान  से जोड़कर   ज्यादा आक्रमक और आधुनिक बनाया जाने लगा। मध्य एशिया,तुर्की ईरान  ,मंगोलिया में तोपें ढाली जाने लगीं।  चीन में उम्दा तलवारबाजी समुन्नत युद्ध कला  और बिना हथियार के भी लड़ने की कला "कुंग- फू ', कराते ,ताई क्वान्दो  इत्यादि का प्रचलन होने लगा जबकि भारतीय समाज को  और खास तौर से तत्कालीन राजे-रजवाड़ों को अपने कुलीन वंशानुगत अहंकार के आगे कुच्छ भी नहीं सुहाता था। उनका यह शस्त्र पूजक याने 'शक्तिपूजक' भारत ही है जो विदेशी आक्रान्ताओं  के द्वारा  बार-बार  रौंदा गया। हिन्दू लोग मंदिरों में घंटा -घड़ियाल बजाकर शक्ति की देवी दुर्गा की भाव बिहल  होकर पूजा अर्चना करते रहे ,बौद्ध और जैन 'अहिंसा परमो धर्म:' का गान करते रहे। और विदेशी खूंखार  भेडीये  इस  कुदरती नखलिस्तान को चारागाह समझ कर  यहाँ  चरते हुए यहाँ के शासक बन बैठे। जब उनसे बड़े  शस्त्र  आविष्कारक- अंग्रेजों ,यूरोपियनों  के हाथ साइंस के चमत्कार लगे ,  बंदूकें  आई ,तोपें आईं ,रेल-डाक-तार आया   भाप इंजन आया ,बिजली आई तो वे भारत के भाग्य विधाता बन  बैठे।  जब  उन पर हिटलर -मिसोलनी और तोजो ने एकीकृत अत्याधुनिक हैड्रोजन बम से हमला किया तो इन अंग्रेजों को न केवल भारत बल्कि सारा संसार ही  आजाद करना पडा।
                                   हालांकि दुनिया के तमाम  स्वाधीनता संग्रामों  को वोल्शिविक क्रांति का बढ़ा सहारा मिला।  शहीदों की कुर्वानियाँ रंग लाइ थी। आज स्वतंत्र भारत के धर्मभीरु   नेता और आवाम यदि  अपनी जिम्मेदारी छोडकार , रिश्वतखोरी  ,भृष्टाचार , जातीय्तावाद और साम्प्रदायिता के वशीभूत होकर केवल  "या देवी  सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संसिथा ,,,नमस्तस्यै ,नमस्तस्यै  ,नमो -नम:' ही  करते रहे तो   अतीत की गुलामी का  सिलसिला और महाविनाश रोक पाना कठिन हो जाएगा।  साक्षात् ' महाकाली -कापाल कुंडला ' भी कोई मदद नहीं कर पायेगी।  क्योंकि मशल मशहूर है की" ईश्वर भी उसी की मदद करता है ,जो खुद की मदद करता है "  विज्ञान और उन्नत तकनीकी के युग में  अंधश्रद्धा का दौर   भारत में आज भी जारी है. जबकि अमेरिकी पूंजीवाद ने  भारतीय अर्थव्यवस्था पर कब्जा कर आर्थिक  रूप से लगभग  गुलाम और दिवालिया  बना  दिया
 है,जबकि पाकिस्तान और चीन ने अपनी सैन्य क्षमता और राष्ट्रीय जी डी पी में उल्लेखनीय बढ़त हासिल की है,जबकि  दुनिया मंगल पर विजय गान करने वाली है ,तब हम भारत के जन -गन  अपने राष्ट्रीय दायित्व, नैतिक  मूल्य और कर्तव्य भूलकर   या तो  "पुराने शस्त्रों' को वैदिक मन्त्रों से पूजने को  अभिशप्त हैं या  जिस  नाव से पार उतरना है  उसी में  छिद्र करने में जुटे हैं 
                                                 आम तौर पर  भारतीय और खास तौर से हिन्दुओं को अपने अतीत से बड़ा स्नेह और लगाव  है।  मानवीय सभ्यताओं में यह कोई अनोखी बात नहीं। दुनिया में सभी दूर यही चलन है। किन्तु  हम भारतीय  कुछ ज्यादा ही अ -संवेदनशील ,पर्वप्रिय और  वितंडवादी हैं। पुरानी  और ठेठ 'देहाती' कहावत है " इधर  गोरी बिछौना  करें ,उधर गाँव  जरे " याने एक गाँव में आग लगी तो सयाने लोग -औरतें सामान समेटकर भागने लगे किन्तु नई नवेली   नवविवाहिता गृहणी  को इसकी चिंता नहीं वो विस्तर  लगाकर सोने  की तैयारी करने लगी।  उसमें इतना विवेक नहीं की आग से जलने के हश्र का आकलन कर सके।
                           उधर  भारत के पूर्वी समुद्र तट पर महा शैतान विनाशकारी   तूफ़ान 'फिलिंन '  ने  धावा बोल दिया है ,उसका तांडव जारी है , ५ लाख लोग बेघर होकर सरकारी सहायता पर जीवन के  लिए संघर्ष कर रहे हैं , दक्षिण पूर्वी भारत के ७ राज्यों में हाहाकार मचा हुआ है , महावृष्टि जारी है ,पेड़ गिर रहे हैं ,बिजली बंद है ,दूर संचार सेवायें ठप्प हैं ,फसलें बर्बाद हो चुकी हैं। चारो ओर अन्धेरा है। निसंदेह केंद्र सरकार ,सम्बंधित राज्य सरकारें ,सेना ,मीडिया और स्थानीय प्रशासन मुस्तेदी से इन प्रभावितों की  पुरजोर मदद कर रहा है। यही वजह है की  लाखों जाने अभी तक  सुरक्षित है।  किन्तु  उनका पुनर्वास और सम्पूर्ण व्यवस्था के इंतजाम करने में  सालों  लग जायेंगे। इधर शेष भारत के  मुठ्ठी भर  धर्मान्ध हिन्दू -नव धनाड्य ,बुर्जुआ वर्ग को किसी किस्म के तूफ़ान  की परवाह नहीं है।  सम्पन्नता के टापुओं पर प्रमाद के साए में  'गरबे' किये जा रहे हैं , इन त्यौहारों  -पर्वों में मानवीय संवेदनाओं की संवाहकता भी विद्द्य्मान है जो इस पूंजीवादी  दौर के चरित्र में  नदारद है।  दमित ,शोषित ,मेहनतकश ,वंचित  और आभाव ग्रस्त - जनों की तादाद देश में और हिन्दू समाज में सर्वाधिक है.यह वर्ग  रावण दहन ,आतिशबाजी और शक्ति पूजा में  सभ्रांत वर्ग के संसाधनों का उत्पादनकर्ता मात्र है। इस वर्ग को इन  मौकों पर उतनी ही सुखद अनुभूति हुआ करती है जितनी किसी  प्यासे को ;मृग मारीचिका से क्षणिक  तुष्टि मिल जाया करती है। जहां तक लम्पट और चरित्रहीन सर्वहारा या गैर सर्वहारा  की आन्दनुभुती का प्रश्न है तो यह वर्ग भी नितांत परजीवी और समाजद्रोही ही हुआ करता है।
                            दुनिया भर में शायद ही कहीं पर ऐसी प्रवंचना दृष्टव्य  हो की 'हम किसी की परवाह नहीं करते'. हम 'आर्यपुत्रों ' को अपनी सांस्कृतिक विरासत पर बड़ा नाज है। हम महाबली ,शूरमा और अजेय हैं। यह सकरात्मक सोच रखना ठीक है. किन्तु यह  हमारे बौद्धिक अहंकार की पराकाष्टा  भी  है की  वीरोचित प्रतीकों  या   शस्त्रों की  पूजा के लिए तो हम बड़े स्वनाम धन्य और आश्थावान हैं। किन्तु जब  हथियार उठाकर लड़ने की बात आती है, तो पता चलता है की सीमाओं पर पाकिस्तानी आतंकवादी हमारी  फ़ौज के जवानों के सर काट ले जाते हैं। जिनसे हमें सुरक्षा की उम्मीद है यदि वे ही असुरक्षित हैं तो कैसी  'शक्ति पूजा'?चीन के २-४ जवान यदि गलती से भी  हमारी हिमालयी - बर्फीली  चोटियों पर नजर आ जाएँ  तो उनको माकूल जबाब देने के बजाय  हम अपनी  सामरिक क्षमता की तुलना चीन से और समष्टिगत रूप से  पाकिस्तान-चीन की संयुक सेन्य शक्ति से करने बैठ जाते हैं। वैसे भी   हमारे सेनापतियों को, अपनी जन्म  तारीख  बदलवाने ठेके दिलवाने ,हथियारों की बड़ी डील करवाने  में बहुत रूचि  हुआ करती है। ये  लोग  रिटायर्मेंट के बाद  अपने हिस्से का कर्तव्य भुलाकर सिर्फ सरकार और नेताओं को दोष देने लग जाते हैं।जबकि अव्यवस्था और नाकामी के हम्माम में  कभी वे भी  नंगे हुआ करते  थे ।  
                                  हम   सरकारी तौर पर  हर साल पंद्रह अगस्त ,२६ जनवरी  ,दीवाली दशहरे पर  तोप ,तमंचों  की धूल साफ़ कर हम" शक्ति पूजा " कर लिया करते हैं। कुछ  आयातित सुखोई ,मिराज  और जगुवार  उड़ाकर  तालियाँ बजा  लिया करते हैं ,कभी कभार एक आध  दूरगामी मिसायल दागकर भी हम 'शक्ति प्रदर्शन 'या शक्ति पूजा कर लिया करते हैं। दुनिया में यह मशहूर है की पाकिस्तानी सेना ,आई एस आई  अपने राजनैतिक   नियंत्रकों से नहीं बल्कि अपने 'सेन्य जनरलों'  के निर्देश पर काम करते है। मैं नहीं कहता की भारत की सेनायें भी ऐंसा ही करें। मैं यह भी नहीं चाहता की  पाकिस्तानी आदमखोर सेना यदि रात दिन अनावश्यक हरकतें करे तो भारतीय  सेनायें भी ऐंसा ही करे। क्योंकि पागल कुत्ता काटे तो  समझदार आदमी पागल कुत्ते को पलटकर  नहीं काटने लग जाता।  मेरा  मंतव्य है कीसेना को जो सम्मान जनता से  हासिल है उस की हिफाजत की जाए। सिर्फ पुराने कीर्तिमानों का गुणगान नहीं कुछ नए उदाहरण भी पेश किये जाएँ।  नेता , सरकार ,सेना  और विशेषग्य  हथियारों की सिर्फ देवीय  पूजा नहीं बल्कि  गुणवत्ता   में भी निरंतर   इजाफा  करने की ओर अग्रसर हों । यही  नए भारत की असली "शक्ति पूजा " हो सकती है।

                      श्रीराम तिवारी       

          
                              

शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

समुन्दर से आये महाशैतान फिलिं न से जूझ रहे लोगों के साथ एकजुटता जरुरी।

             विगत१२ अक्तूबर की  शाम से आज देर रात और अल-सुबह  तक समुद्र से आये महाशैतान  'फिलिंन'   के  भारत  के पूर्वी राज्य तटों से टकराने से देश के सात राज्यों और तीस शहरों को विनाशकारी मंजर देखना पड रहा  है।  आगामी दस साल लगेगें फिर से उठ खड़े होने में.  गनीमत है की इस समुद्री तूफ़ान से जन हानि बहुत कम हुई और निसंदेह प्रशंशा की जानी चाहिए केंद्र सरकार की  ,राज्य सरकार की मौसम विभाग की  ,मीडिया की  और  सेनाओं की।  वक्त रहते लोगों को सुरक्षित स्थान पर नहीं ले जाया गया होता  तो मंजर भयावह और महाविनाशकारी होता।  उखड़ी हुई सड़कें ,टेलीफोंन बिजली ,उद्द्योग,शिक्षण संस्थान ,अस्पताल और  सम्पूर्ण व्यवस्था के बुनियादी  ढाँचे की बर्बादी रोकने का कोई उपाय नहीं नजर आ रहा है।  फिर भी संतोष की बात है की इंसानी जिन्दगी को बचाने में देश को पहली बार सफलता मिली है। हालांकि अभी तक ११ लोगों के मारे जाने की खबर है  किन्तु पांच लाख लोगों के पुनर्वास ,उनकी भूंख प्यास तथा जीवन की  न्यूनतम आवश्यक सुविधाएँ  वक्त पर पहुंचाना पहली प्राथमिकता है यदि यह काम ठीक से हो गया तो समझो इस विनाश कारी तूफ़ान पर आंशिक विजय हासिल करने में भारत को सफलता मिल गई।  आशा है जिस तरह  अमेरिका ने केटरीना की चुनौती को स्वीकार किया था ,हम भारत के जन-गन उससे भी बेहतर कर  सकेंगे।                    
भारत और नासा  समेत दुनिया भर के मौसम विज्ञानियों  के पूर्वानुमान और विनाश  की चेतावनी के मुताबिक  'महातूफ़ान ''फायलिन ' ने उडीसा के गोपालपुर से लेकर आंध्र के श्रीकाकुलम तक अपनी विनाशलीला का तांडव दिखा कर ही दम लिया। भारत सरकार ,मीडिया ,मौसम विभाग और सेनाओं ने इस दफा शायद   यह मन्त्र लिया था  :- "डरो  मत मुकाबला करो ,जीत इंसान की ही होगी ,कुदरती शैतान की उम्र कुछ घंटों की  ही हुआ करती है जबकि इंसानियत का जीवन अनंत है "एन डी एम् ऐ की ५० टीमें  और एन डी आर ऍफ़ की५० टीमें तथा २३०० जवान इस सामुद्रिक तूफ़ान से मुकाबले के लिए सर पर कफ़न बांधकर ,पारादीप से लेकर दक्षिण कृष्णा जिले तक तैनात  किये गए। गंभीर श्रेणी के इस महाविनाशकारी तूफ़ान  से डरकर कुछ लोग भले ही मंत्रोच्चार में वक्त  बर्बाद करते रहे हों किन्तु सेना की और सरकार की  तैयारियां निसंदेह जरुरी और  संतोषप्रद कही जा सकती । 
                   भारत में  अब धीरे -धीरे  चमत्कार या ईश्वरीय इच्छा पर  साइंटिफिक नजरिये को  बढ़त हासिल  होने लगी  है। अब लोगों ने "भगवान् भरोसे मरने से अच्छा लड़ते हुए मर जाने"  के बेहतर विकल्प को स्वीकारना शुरू कर दिया है।  १९९९ में जब उड़ीसा में ऐसा ही  भयानक तूफ़ान   आया था तब १०००० जाने गईं थी। प्राकृतिक आपदा प्रबन्धन पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया था। इसलिए जन -धन की  भारी तबाही हुई थी। उस समय केंद्र में  एनडीए सरकार थी। उस सरकार पर  ईश्वर भक्त साधुओं ,बाबाओं का ज्यादा प्रभाव था।  वे   ज्यादा आस्तिक और  धर्मभीरु  थे. फिर भी ईश्वर ने उनका और मरने वालों का  साथ नहीं दिया। इस बार केंद्र में  मनमोहन -सोनिया जी की सरकार है और शायद  दोनों को ही भगवान् के बजाय सेनाओं पर और  वैज्ञानिक तोयारियोन पर  भरोसा था इसलिए उडीसा ,आंध्र और बंगाल में ज्यादा तबाही नहीं हो पाई। इस घटना में भले ही आज पांच लाख लोग बेघर हैं ,हजारों पीड़ित हैं ,भूंख ,प्यास और बीमारी आम है किन्तु सरकार और सेना की नियत पर संदेह नहीं किया जा सकता।  देश की जनता  , राजनीतिक  पार्टियां  , केंद्र और राज्य  सरकार  यदि  कुछ समय के  लिए अपने स्वार्थ खूंटी  पर  टांग दे तो   श्रीकाकुलम  , विजयवाडा   , विशाखापत्तनम  ,गंजाम ,पूरी ,भुवनेश्वर ,पारादीप  और गोपालपुर फिर से उठ खड़े होंगे  इसमें कोई संदेह नहीं।

 लंका विजय से पूर्व श्रीराम ,लक्ष्मण,हनुमान ,सुग्रीव और विभीषण  चिंतातुर थे की लंका तक पहुँचने  के लिए समुद्र 'देवता' को पार कैसे किया जाए ? लक्ष्मण ने अपने  स्वभाव के अनुरूप अपने धनुष की प्रत्यंचा पर बाण चढ़ाया और समुद्र को शोखने की अनुमति 'श्रीराम' से माँगी।  श्रीराम ने लक्ष्मण के  इस उपाय को तुरंत  ख़ारिज  कर दिया और स्वयम हाथ जोड़कर  समुद्र से पार उतरने वावत विनम्र प्रार्थना की।  समुद्र ने जब  अनुमति नहीं  दी तो श्रीराम ने लक्ष्मण के फार्मूले को ही  अपनाया -
              बोले राम सकोप तब ,भय बिन होय न प्रीत।   विनय न मान खगेस तब ,गये तीन दिन बीत।।
            लछमन बाण सरासन आनु। शोखों बारिधि विशिख कृशानु।
  याने हे ! लक्ष्मण धनुष बाण लाओ ! इस समुद्र की तो मैं ऐसी की तैसी करके ही रहूंगा। उनके इस रौद्र  रूप  पर लक्ष्मण कितने मुग्ध हुए होंगे ये तो नहीं कह सकता किन्तु  समुद्र की प्रतिक्रया अवश्य ही  जग जाहिर है। समुद्र ने श्रीराम के सामने हाथ जोड़े और नल -नील तथा वानरों की मदद से  सेतु निर्माण का सुझाव दिया। सेतु निर्माण सफल रहा और 'लंका विजय' में मददगार रहा.युगों -युगों से ये गाथा  न केवल  भारत न केवल हिन्दू घरों में बल्कि  तमाम  पूर्व एसियाई   देशों में सनातन से कही सुनी जा रही है।उसी की याद में दशहरे पर 'रावण दहन ' का चलन उत्तर भारत में  है। यह कथा सर्वकालिक और सर्वविदित है। इस आख्यान को दुहराना या उसे महिमा मंडित करना मेरा मकसद नहीं, मेने   इस घटना का जिक्र मात्र  यह स्थापित करने के लिए किया है की प्राचीनकाल में  भी जब सुसभ्य  'आर्य'  लोग 'भाववाद'  या दैवीय चमत्कार को तिलांजलि देकर अपने मानवीय बाहुबल और वैज्ञानिक भौतिकवादी सामर्थ पर यकीन किया करते थे तो आज के इस घोर वैज्ञानिक ,प्रगत ,उन्नत तकनीकी युग में घर-घर में ,गली-गली में ,गाँव -शहर में धर्मान्धता और  अवैज्ञानिकता का बोलबाला क्यों है ? प्राकृतिक या मानव निर्मित संकट  या भय के ऊपर 'आश्था' के बादल क्यों मंडराने लगते हैं ? चाहे पड़ोसी बदमास देशों के छुपे आक्रमण हों ,चाहे सूखा हो , चाहे बाढ़ हो ,चाहे सुनामी हो ,चाहे केदारनाथ या हिमालयी प्राकृत आपदा हो या कोई भयावह समुद्री तूफ़ान हो - भारत के जन- मानस में धर्मभीरुता का बोलबाला ज़रा  ज्यादा  ही पाया जाता है। सूखा पड़ा तो कहने लगे 'कलयुग आ गया है 'बाढ़ आई तो कहने लगे देवता अप्र्शन्न हैं 'हरेक संकट का  कारण देवीय आश्था में निहित  हुआ करता है। किन्तु ये भावात्मक अन्धविश्वाश अब अद्र्कने लगा है।
                         गनीमत है की  देश पर अंध श्रद्धा,चमत्कार और स्वयम भू भगवानों   या  साम्प्रदायिक मानसिकता के नेताओं ,ढोंगी बाबाओं और पाखंडी स्वामियों की पसंद का नेतत्व  और उनकी पसंदीदा सरकार  नहीं है  । वरना ये ढोंगी लोग जादू-टोने से ,स्तुति आरती से ,घंटे -घड़ियाल से देश की और जनता की रक्षा वैसे ही करते जैसे वे अतीत में विदेशी आक्रमणों के दौर में या प्राकृतिक आपदाओं में  करते आये हैं। आसाराम , रामदेव,उमा भारती ,नित्यानंद ,भीमानंद ,गाजी फ़कीर ,निर्मल बाबा या पाखंडी फादरों की  इस दौर में चलती तो सोचना चाहिए की  वे देश  का  और देश की आवाम का क्या हश्र करते ?आस्तिकता के खोल में घोर पापियों के परजीवी झुण्ड केवल शाब्दिक  लफ्फाजी से अपनी भडास निकाल  लिया  करते हैं। रामदेव तो फाय्लिन तूफ़ान के लिये सोनिया या राहुल को जिम्मेदार बताएँगे और आसाराम अपनी कुकर्म जनित  जेल यात्रा को   इस महातूफान के आगमन को जोड़ेंगे।  हिन्दुत्ववादी पी एम् इन वेटिंग तो  मुसलमानों को ही इस सामुद्रिक आपदा के लिए  जिम्मेदार मानेगे।
                              १२  अक्तूबर -२०१३ को शाम ६ बजे आज १३ अक्तूबर के सुबह ६ बजे तक -   बंगाल की खाडी  को चीरकर २० किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार  से  चला साइक्लोन -  महातूफ़ान  'फीलिन ' जब उडीसा ,आंध्र,बंगाल और तमिलनाडु तट  से टकराने आया तो आज के वैज्ञानिक -प्रबुद्ध  भारत ने  उस की पूजा अर्चना नहीं की।  उसे दैवीय प्रकोप  मानकर अपने आपको काल कवलित होने के लिए नियति या भाग्य के भरोसे  नहीं छोड़ दिया  गया । बल्कि संभावित संकट का  वक्त रहते घंटों पहले पूरा-पूरा वैज्ञानिक आकलन याने सटीक पूर्वानुमान किया गया। तीनों सेनाओं को अलर्ट किया गया ,चिकित्सा ,संचार,परिवाहन ,रेस्क्यू और पुनर्स्थपान से सम्बंधित तमाम तैयारियों को कंसोलिडेट किया गया। राज्य सरकारें,केंद्र सरकार ,मौसम विभाग, डिजिटल ,प्रिंट और इलेक्ट्रानिक  मीडिया  -सभी ने शानदार भूमिका अदा कर संभावित  भारी तबाही से देश को बचाने का पुरजोर प्रयास किया।     
                   कुदरती  महाविनाश अभी तक चीन अमेरिका और जापान भी नहीं रोक पाए हैं यदि भारत के लोगों ने इस दफे कुछ सार्थक किया है तो पीठ थपथपाने में कोई कंजूसी क्यों ? इसका श्रेय देश के वैज्ञानिक नजरिये को, देश के प्रबुद्ध मीडिया को और जागृत राजनीतिक नेतत्व को जाता है।   जो लोग इस आपदा प्रबंधन के दौरान भी मुनाफाखोरी करने लग जाते हैं ,लूटपाट करने लग जाते हैं ,जो अमानवीय हैं उन नरक के कीड़ों से देश को बचाने के लिए अब भारत के न्यायविद,मीडिया ,राजनीतिग्य और जनता जागरूक होने लगे हैं।   निसंदेह   वर्तमान पूंजीवादी और लूटखोरी की  व्यवस्था  के कारण  भारत   चौतरफा मुसीबतों से घिरा हुआ है   किन्तु यदि वह धर्मान्धता ,साम्प्रदायिकता के नकारात्मक तत्वों से मुक्त होकर। विज्ञानसम्मत रस्ते पर आगे बढ़ता है तो इसका भवष्य उज्जवल है।

              अपने अंधकारमय अतीत से मुक्त होकर वैज्ञानिक नजरिये से ही भारत और विश्व का उद्धार संभव है।  पचास साल पहले - बचपन में जब गाँव -जंगल या खेत -हार से   रात  के अँधेरे में  गेल -घाट पर    कभी   अकेले-दुकेले  आना जाना होता था तो  पीपल के पत्ते के खड़कने या उल्लू के बोलने पर भी  सिर्फ 'भूत-पलीत ' का ही ख्याल आता था। रास्ते में नाग देवता मिल जाएँ या गोह देवी  , सभी में केवल दुर्दांत 'देवदर्शन' ही  हुआ करते   थे। इस ' भय के भूत '  का निवारण जिस हनुमान चालीसा या दुर्गा चालीसा से किया जाता था वो सिस्टम अभी भी बरकरार है।  अभी भी उसी तर्ज पर उसी संवेदना  और उसी शिद्दत से   'दैहिक-दैविक-भौतिक' ताप का निवारण किया जा रहा है। शायद जिसे सदियों पहले गाँव के पाषाण युगीन  'सयानों' ने ईजाद किया होगा।  इन दिनों भले ही हर नौजवान ग्रामीण की जेब में  एक अदद मोबायेल हो ,भले ही वो मिडिल फ़ैल,हाई स्कूल फ़ैल या  गैर स्नातक  [क्योंकि शहर के  प्रतिश्पर्धि मुकाबले में  आज गाँव का  विद्द्यार्थी कैसे टिक सकता है ?]  ही क्यों न हो ? बिना पक्षपात के   सभी वर्गों ,मजहबों और अंधश्रद्धाओं  से ताल्लुक रखने वालों   को   यह  डर अलग-अलग  जाती और धर्म के अनुसार अनुभूत अवश्य  हुआ करता है.  संकट मोचन या समस्या   निवारण के तरीके  एक जैसे  ही  है।  याने ओझा,बाबा  मौलवी ,झाड-फूंक   . . .! ॐ हिलीम -कलीम फट स्वाहा. शरणम गच्छमि…! या जय-जय हुनमान गुसाईं . . . !  या जय काली -कलकत्ते वाली! या जल्ले जलाहू   आई वला को  …!
                                             जब तक चेतना  है,जब तक विवेक है डरना स्वाभाविक है किन्तु भय मुक्ति के विश्वसनीय और कारगर साधनों का अभाव या  अकाल इस वैज्ञानिक युग में होना   नितांत शर्मनाक है। इस डर के तात्कालिक समाधान  प्रकारांतर से  मजहबी आश्थाओं  के  अनुसार   भिन्न -भिन्न हुआ करते  हैं।  हो सकता है देश और दुनिया में शायद इस भारतीय पुरातनपंथ की मान्यताओं  से मिलते-जुलते और भी  देश हों ,शहर हों ,गाँव हों ,सभ्यताएं हों ।  हो सकता है की उन्होंने अपने नैसर्गिक  भय को वैज्ञानिक अनुसंधानों की शान पर  चढ़ाकर भौंथरा कर दिया हो किन्तु   मेरे भारत के   गाँव  उत्तर-दक्षिण  ,पूरब -पश्चिम   सभी दिशाओं में आज भी अपने जातीय विभाजन    और  सामाजिक संकीर्णता से आबद्ध होने के कारण 'भभूत'के चंगुल में फंसा हुआ  है।  मैं मध्यप्रदेश के  बुंदेलखंड क्षेत्र ,बिहार के  दरभंगा  या उड़ीसा   स्थित  कालाहांडी इत्यादि   अति पिछड़े  क्षेत्रों  के  गाँव की आर्थिक  दुरावस्था से  बंगाल -केरल - गुजरात   महाराष्ट्र या पंजाब  के उन शुशिक्षित विकसित  गाँवों  की   जबरन तुलना नहीं करूंगा जो भारतीय कंगाली के महासागर में आकाश दीप की भांति   चमक  रहे हैं।   लेकिन मैं दावा करता हूँ की तमाम प्रकार  के 'रोग-दोष-दुखों'के प्रथमोपचार में अगड़े-पिछड़े ,गरीब-अमीर और उंच-नीच का कोई फर्क नहीं।  सर्वत्र समानता है,साम्यवाद है।
                                याने अंधश्रद्धा ,पाखंड और  अवैज्ञानिकता  से मुक्त होने की ताकत किसी में नहीं है  । घर-घर टेलीविज़न हो जाएँ ,हर हाथ में घड़ी हो ,हर जेब में मोबाइल हो फिर भी इंसानी, शैतानी ,जमीनी ,आसमानी और आग-हवा पानी  से उत्पन्न संकट  से निजात  पाने के  लिए -कलियुग केवल नाम अधारा। . . . .  सुमरि-सुमरि नर उतरहिं पारा।। …. … !
                                                 मैं  अपने पैतुक  गाँव की चर्चा कर रहा  हूँ। उसमें  अधिकंस  हिन्दू और जैन  हीशेष बचे   हैं . पचास साल पहले  एक मुसलमान जुलाहा और एक ईसाई प्रायमरी  शिक्षक भी  हुआ करता था।  ये दोनों ही अपने हिन्दू पूर्वजों  का बड़े गर्व से बखान  किया करते थे।  जैन अधिकांस व्यापारी  ,साहूकार और पढ़े-लिखे और सम्पन्न  थे। वे जैन मंदिर में आये दिन 'मुनियों -जैन संतों ; का चातुर्मास या 'सिद्धचक्र-विधान मंडल' जैसा कुछ न कुछ आयोजन किया करते थे।  वे केवल डाकुओं से डरते थे क्योंकि इलाके में दूर-दूर तक न तो पुलिस  थी और ना पुलिसथाना।   जैन समाज के लोग  सूर्यास्त के बाद न तो खाना खाते थे और न घर से ही  निकलते । संकट आने या डाकुओं का डाका पड़ने पर वे "नमो अरिहंतारम ….  नमो श्री  सिद्धाणं का जाप करते।  मुस्लिम  जुलाहा स्वभाव से  तो निडर था।  किन्तु  "असलाम बालेकुम"  की जगह  'जैराम जी की' बोला  करता । क्योंकि उसके अलावा गाँव में  और कोई मुसलमान था ही नहीं।   झाडफूंक और  मन्त्र   ताबीज में उसकी श्रद्धा अपार थी।  ला इलाह। …। …… …इलिलाह। …।  जल्ले  जलालहू  …!   इत्यादि मन्त्र का जाप करता  और किसी सूफी मजार पर धुप -लोभान देना उसकी खानदानी परम्परा में शुमार   था। ईसाई  मास्टर जिसके पूर्वज दो पीढी पहले हिन्दू हरिजन हुआ करते थे अब भी लोगों से मिलने पर  'राम-राम' किया  करता  किन्तु   बात  बात में अपने गले में लटके क्रास को  भी चूमाँ करता।  अपने दोनों हाथों को कभी दायें-बाएं फैलाता और कभी सीने पर काल्पनिक क्रोस बनाता।  अँधेरे में उसेअपने  इन् नए ईसाई  प्रतीकों  पर  और उजाले   में पुराने हिन्दू प्रतीकों का सहारा हुआ करता।
                                           हिन्दू समाज  जो की   'तेरह -जात'में  बटा हुआ था।   उसमें जमींदार ,पुरोहित से लेकर 'हरिजन ' तक सभी 'बजरंगबली ' और दुर्गा के भक्त हुआ करते थे। सभी को गीता रामायण का कुछ न कुच्छ जरुर  मुखाग्र याद हुआ करता था। सभी बड़े ज्ञानी-ध्यानी बातूनी धपोर शंखी  हुआ करते।  सबसे ज्यादा वैमनस्य और अलगाव केवल हिन्दू समाज में ही था।  हिन्दू तेरह जात में  विभक्त थे। पुरानी परम्परा का आदर्श गाँव।  याने  ब्राह्मण , ठाकुर,बनिया,तेली , अहीर ,लुहार ,बढ़ई , चर्मकार ,बनसोड ,धोबी ,नाइ , खंगार   हरिजन  और आदिवासी [सौंर-रावत ] सभी थे । ब्राह्मण कान्यकुब्ज,सर्युपारी,सनाडय , जिजोतिया ,भट्ट और जोशी  इत्यादि उपवर्गों में विभाजित थे।  सभी जात के आस्तिक श्र्द्धावानों का  भय की स्थति में या  लोकोत्तर समस्याओं  के  निदान  की स्थति में  या तो हनुमान चालीसा का सहारा  था या दुर्गा चालीसा  का !
                गाँव में भले ही  हल-बैल  की जगह टेक्टर ,हार्वेस्टर ने ले ली हो  , ढिबरी की जगह विद्दुत बल्ब दमकने लगा हो  ,रेडिओ की जगह टेलीविज़न  का शोर हो रहा हो  और हरेक की जेब में मोबाइल  भिनभिना रहा हो  किन्तु अभी भी भारतीय जन- मानस को अपने अप पर नहीं बल्कि उन चीजों पर भरोसा कायम है जो केवल छलावा ही हैं।

                   श्रीराम तिवारी    

बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

अब चेतें का होत है , काँटन लीनी घेर।।


  विगत एक वर्ष के दौरान देश भर में साम्प्रदायिक दंगों की मानो  बाढ़  सी आ गई है.   देश के विभन्न हिस्सों में साम्प्रदायिक घटनाओं में चिंताजनक बढ़ोत्तरी हुई है ,जम्मू में किस्तबाढ़ ,बिहार में बेतिया - नाबादा , मध्यप्रदेश  में हरदा ,खरगोन ,देवास ,इंदौर तथा  खंडवा इत्यादि कस्वों  में हिन्दू मुस्लिम भाईचारा मानों  क्षत -विक्षत  हो  चुका   है ।   यु पी में   मुजफ्फरनगर  का हिन्दू मुस्लिम दंगा तो हाल के वर्षों का सबसे बदतरीन साम्प्रदायिक उन्माद है  जो  गोधरा -गुजरात के दंगों जैसा  ही वीभत्स  है। इस दंगें में पचास से अधिक मौतें हो चुकीं हैं , सेकड़ों की संख्या में जवान ,बूढ़े ,बच्चे और औरतें घायल हुईं हैं  ,हजारों बेघर हुए हैं  और लाखों को मानसिक पीड़ा पहुँची है। जब ये मुजफ्फरनगर रुपी रोम जल  रहा था तब यूपी में  सत्तारूढ़  सपा के 'नीरो'  सीबीआई की मेहरवानी  पर आनंदित हो रहे थे।  आय से अधिक सम्पत्ति के  आरोप  से मुक्त होने की  खुशी  में  चैन  की  बंशी  बजा रहे थे. उधर अखिलेश सरकार तो बुरी तरह नाकाम है ही इधर देश के गृह मंत्री जी ने 'शानदार' वयान  देकर आग में घी डालने का काम किए है।  जिस समय सुशील कुमार शिंदे जी राज्यों और केंद्र शाशित प्रदेशों  को  निर्देशित कर रहे थे की "बेगुनाह मुस्लिमों को पुलिस परेशान न करे" ठीक उसी समय खंडवा जेल में बंद सिम्मी के  कुख्यात  ७  आतंकवादी जेल तोड़कर भाग निकले ,एक को तो पकड लिया गया किन्तु बाकी ६ अभी भी पुलिस पकड़ से बाहर हैं। इनको छुड़ाने में किसी बड़े आतंकवादी गिरोह का पता भी पुलिस को चल गया है।
                                       केन्द्रीय गृह मंत्री और यु पीऐ  सरकार के इस विचार का सम्मान किया जाना चाहिए की अल्पसंख्यक या मुस्लिम बेगुनाहों को वेवजह परेशान न किया जाए।  किन्तु उन्हें ये भी बताना चाहिए किसने कब कहाँ किस अल्पसंख्यक बेगुनाह को परेशान किया जिसके कारण उन्हें ये निर्देश देने पड़े।  उन्हें ये भी बताना होगा की  यदि  बहुसंख्यक हिन्दू   बेगुनाह है तो क्या  उसे वेवजह परेशान किये जाने पर उन्हें या सरकार को कोई आपत्ति नहीं होगी। क्या धर्मनिरपेक्षता  की  उनकी नजर में यही  मुस्लिम सापेक्षता है ?क्या  उनकी धर्मनिरपेक्षता यही  याने तथाकथित मुस्लिम  तुष्टीकरन  ही है ?  यदि यही आरोप   संघ परिवार कांग्रेस या अन्य धर्मनिपेक्ष कतारों पर लगाता है तो उसे प्रमाणीकरण की क्या जरुरत है ? भले ही संघ परिवार के आरोप अतिरंजित   हैं ,स्वार्थ प्रेरित और  पूर्वाग्रही हो सकते हैं किन्तु शिन्देजी के। विचारों  ' से ज्यादा खतरनाक तो नहीं हैं।   संघ परिवार गोधरा कांड ,मोदी ,मस्जिद और हिंदुत्व को गरियाने से और अल्पसंख्यकों   का भयदोहन  करने से क्या देश में अमन कायम हो सकता है ?
                      पश्चिमी उत्तर् प्रदेश में   वर्तमान साम्प्रदायिक दंगों की  शुरुआत  एक मुस्लिम लड़के द्वारा किसी हिन्दू लड़की को  छेड़ने से  हुई थी।  बताया जाता है की  लड़की के भाई उस मुस्लिम युवक को समझाने  गए तो  उस लड़के ने  न केवल  बदतमीची की अपितु गुंडई पर उतर आया। लड़की के  भाइयों  का  गुस्सा भी  सातवें   आसमान पर जा पहुंचा। वो लफंगा   मारा गया। अभी तक यह मामला केवल दो परिवारों के  बीच  का ही चल रहा  था किन्तु  छेड़छाड़ करने वाले मुस्लिम  लड़के के मारे जाने पर  मुस्लिम समुदाय  के  तमाम  गुंडों   ने  लड़की के भाइयों को घेर लिया और दोनों  की ह्त्या कर दी ।इस घटना से उत्तेजित पश्चिमी उत्तरप्रदेश के हिन्दू समाज  खास तौर से जाट समाज में  क्रोध  की लहर दौड़ गई.  न केवल मुजफ्फरनगर बल्कि आसपास के ९० गाँवों में साम्प्रदायिक  उन्माद की आग  जा पहुंची।जब तक सरकार ,पुलिस  और  प्रशासन की नींद  खुलती   तब तक  अधिकांस पश्चिमी उत्तरप्रदेश साम्प्रदायिक उन्माद की भेंट चढ़ चुका था। इसे शांत करने की वजाय अधिकांस राजनैतिक पार्टियों के नेता-कार्यकर्ता  अपने-अपने राजनैतिक शुभ-लाभ के गणित में जुट गए।
         साम्प्रदायिक तौर से  दोनों पक्षों के लोग भावनाओं में बहते चले गए। इस दौरान जाट -खाप पंचायतों के आयोजन भी जोर  शोर्  से आहूत   किये जाने लगे. उधर मुस्लिम समुदाय के लोगों को भी उनके कट्टरपंथी रहनुमा उकसाने लगे।  चूँकि उत्तरप्रदेश में  समाजवादी पार्टी की सरकार है और उसकी अघोषित  नीतियों में केवल यादव और मुस्लिम संरक्षण का प्रावधान है। अतएव कांग्रेस ,भाजपा ,बसपा  के चौधरियों में से कोई भी अखिलेश सरकार से न्याय और सुशासन की  उम्मीद नहीं करने वाला था।  चौधरी अजीतसिंह , चौ राकेश सिंह ,चौ टिकैत  पर अपने समुदाय का  भारी दबाव पडा और इसीलिये  ये सभी दंगा रोकने में असमर्थ रहे।   मुलायम सिंह और उनका परिवार केवल वयान् बाजी में व्यस्त रहा। भाजपा विधायक -  संगीत सोम की सक्रियता की  वजह से  संघ परिवार और मोदी के प्रतिनिधि अमित शाह को भी इस मामले से जोड़ा जाने लगा।  यह सर्वविदित है की पश्चमी उत्तरप्रदेश ,हरियाणा और पंजाब के जाट किसी 'हिंदुत्व वादी ' केम्प से कभी  नहीं जुड़े। उनका 'धर्म भले ही हिन्दू  या मुस्लिम हो किन्तु  वे अपने प्राचीन  खाप सिद्धांत से ही संचालित होते हैं। अधिकांस  मुसलमानों के गोत्र और सरनेम भी अपने 'पूर्वज ' जाट या हिन्दुओं के ही हैं।  उनकी  समाज व्यवस्था को संचालित करने के लिएअपने-अपने वर्तमान मजहब या धर्म के अनुसार   खापों की  जनतांत्रिक परम्परा  नियामक का काम करती रही है।अक्सर प्रेम प्रसंग  ही दोनों मजहबों में तकरार  का कारण बन जाया  करता है।   इन खापों की मीडिया और प्रगतिशील वुद्धिजीवी  भले आलोचना करे किन्तु इनका एक सकारात्मक पक्ष भी है।  ये बहुत जिम्मेदार , गैर साम्प्रदायिक  और सिद्धांत निष्ठ  जनतांत्रिक जन संगठन से कम नहीं हैं। ये किसी भी राजनैतिक पार्टी में अपने धर्म मजहब या खाप के कारण नहीं बल्कि नेता और कार्यकर्ता के प्रभाव  और  पार्टियों की किसान सम्बन्धी नीतियों से  जुड़ते  रहे  हैं।  अक्सर  भारतीय  दंड संहिता से  इन खापों का सामंजस्य  नहीं बैठ पाता और यही कारण है की एकजुट आक्रामक स्थिति में क़ानून असहाय हो जाया करता है।
               मुजफ्फरनगर और आसपास के  गाँवों में  जब अल्पसंख्यकों को संरक्षण देने के  बहाने - एस एम् एस , एम्  एम्  एस,तथा सोसल मीडिया के मार्फ़त कट्टरपंथियों  के  भड़काऊ और उत्तेजक संदेशों का आदान प्रदान होता दिखा तो अधिकांस जाट समुदाय एकजुट होकर तथाकथित  'अल्पसंख्यक आक्रमकता' या 'लव जिहाद '  के खिलाफ खडा हो गया। दोनों ही पक्षों  में  व्यापक तौर से जब दुष्प्रचार  चरम पर पहुंचा तो   शैतानी  साम्प्रदायिकता की आग बेकाबू  होती चली गई।   उधर आजम खान   दबाव झेल  रहे थे तो इधर संगीत सोम  तथा  अन्य चौधरियों को भी विरोधियों ने क़ानून तोड़ने पर विवश कर दिया। सभी को अपने-अपने वोट बेंक की चिंता सताने लगी।  देश प्रेम ,सामाजिक समरसता ,सहिष्णुता शब्द काफूर हो गए।  उत्तरप्रदेश  की सरकार और प्रशासन दोनों  ही अपनी विश्वशनीयता खोते चले गए।  दोनों पक्षों के कट्टरपंथी समान रूप से इन दंगों के लिए जिम्मेदार हैं किन्तु  अखिलेश सरकार ने एकतरफा कार्यवाही कर केवल-कांग्रेस ,भाजपा ,बसपा  नेताओं पर  ही रासुका और अन्य धाराओं में धर पकड़ की इसलिए मामला अब साम्प्रदायिकता से निकलकर  यूपी सरकार बनाम शेष विपक्ष  हो चूका है।   अखिलेस सरकार केवल   जाट और हिन्दू नेताओं को  ही यदि क़ानून का -अमन का पाठ  पढ़ाती रहेगी तो शांति और अमन क्या खाक स्थापित कर पायेगी। असल दोषियों को तलाश कर उन  पर कार्यवाही करना ही सच्चा राजधर्म हो सकता है।  अखिलेश या मुलायम के लिए  ये काम मुश्किल जरुर है किन्तु असम्भव नहीं।
                                   २७ अगस्त -२०१३ से शुरू हुआ साम्प्रदायिक  टकराव मुजफ्फर नगर से   चलकर  २९ सितम्बर २०१३ तक   मेरठ  जा पहुंचा। संगीत सोम की गिरफ्तारी और उन पर रासुका लगाने ,खाप महा पंचायत  पर रोक लगाने से पूरा मेरठ इलाका  तनावग्रस्त होता चला गया। यूपी  सरकार बनाम  खाप पंचायतों के  खूनी संघर्ष   में केवल दमन और आतंक का  माहौल   है।  मेरठ के सर्घना गाँव में आहूत विराट खाप पंचायत को धारा १४४ के मार्फ़त तितर-वितर करने के  बहाने  ,क़ानून और व्यवस्था कायम करने केबहाने,अल्पसंख्यकों   को मरहम लगाने के बहाने , अखिलेश सरकार और उत्तरप्रदेश प्रशासन ने जो बर्बर लाठी चार्ज और गोली  चालन किया है वो आगामी  आम चुनावों में अखिलेश सरकार और सपा के सफाए का इंतजाम भी सावित हो सकता है। जलियाँ वाला बाग़ का नर संहार  ,जनरल डायर   के रोल  फिर से   दुहराए जा रहे हैं ।   पक्ष -विपक्ष   के  आरोपों में साम्प्रदायिक राजनीती के निहतार्थ आसानी से समझे जा सकते हैं। 
                       भारतीय लोकतंत्र की वास्तविक स्थति स्वीकार की जानी चाहिए की ये 'बहुलतावादी ' धर्मनिरपेक्ष   राष्ट्र तो है किन्तु इसे इन मूल्यों से सुसज्जित करने में देश के 'सहिष्णुतावादी ,देशभक्त और जनवादी -प्रगतिशील विचार के लोगों' की भूमिका  ही  प्रमुख रही है। आज यह विचार हासिये पर है और दोनों और कट्टरपंथ के पैरोकार राजनीती के मैदान में  ताल थोक  रहे  हैं। देश में आंतरिक अलगाव के लिए यही दिग्भ्रमित तत्व जिम्मेदार है जो सत्ता के गलियारों में भी सुशोभित हो रहे हैं।   

  शायद ऐसे ही    दुखांत   मंजर   देखकर  कविवर रहीम ने लिखा होगा :-

        केरा  तबहूँ न चेतिया ,जब धिग जामी बेर।

       अब चेतें का  होत है , काँटन लीनी  घेर।।
             

मोदी के नहले पे राहुल का दहला।

         अभी कल तक  मीडिया के केंद्र में केवल  नरेन्द्र मोदी   नजर आ रहे थे। देश और मीडिया का पूरा फोकस उन्ही पर था।  आडवानी को निपटाना ,राजनाथ,सुषमा और शिवराज को  को ज्यादा तेज न चलने देना ,जेटली को  सीबीआई से निपटने मैं लगाए रखना और संघ परिवार को अपनी ताजपोशी के लिए देश भर में कोहराम मचाने  के लिए प्रेरित करना तो मोदी का अपना व्यक्तिगत अजेंडा था ही इसके अलावा    हैदराबाद   , रायपुर   भोपाल महाकुम्भ ,दिल्ली महारेली ,केरल के मंदिरों में देव दर्शन  तथा मुंबई  अहमदाबाद मैं देश के पूंजी - पतियों  की बदौलत दनादन मैराथान महासभाओं को संबोधित करने वाले  मोदी  ,मनमोहन -राहुल और सोनिया गाँधी का उपहास करने वाले मोदी आज दो अक्तूबर -२०१३ को मीडिया के हासिये से भी गायब हैं।
                                             आज  का दिन तो  { महात्मा गाँधी का जन्म दिन }राहुल और कांग्रेस के लिए  गौरवान्वित होने का दिन है। आज   केवल और केवल राहुल गाँधी  मीडिया और जन चर्चा के केंद्र मैं आ चुके हैं।
जिस तरह मोदी ने अपने वरिष्ठो-आडवाणी ,मुरलीमनोहर जोशी ,यशवंत सिन्हा ,सुषमा स्वराज और केशु भाई को निपटाया और   इन सभी को  'नाथकर' बढ़त हासिल की है उसी तरह राहुल गाँधी ने भी न केवल माताश्री  सोनिया गाँधी , न केवल  प्रधानमंत्री डॉ मनमोहनसिंह ,न केवल कांग्रेस कोर ग्रुप ,न केवल   सेंट्रल  केविनेट  बल्कि यूपीए के समर्थकों-शरद पंवार और मुलायम जैसे बफादारों  तक को लहू लुहान  कर 'दागी राजनेताओं को बचाने सम्बन्धी  अध्यादेश को बाकई फाड़कर  कूड़ेदान में फेंक दिया है.  जो लोग कल तक इस अध्यादेश का गुणगान कर रहे थे  वे आज उस अध्यादेश की मिट्टी पलीद करने वाले राहुल गाँधी की जय जैकार कर रहे हैं। आइन्दा देखने की बात ये है की राहुल अपने इस  'राजनैतिक शुचिता' के जोश को भविष्य में  कायम रख पाते हैं या नहीं। क्योंकि अब भाजपा और मोदी को जो करारा झटका लगा है ,यूपीए  -एनडीए के दागी नेताओं को जो राजनीती से बेदखल हो जाने का  खतरा उत्पन्न हुआ है  ,अब वो क्या  गुल खिलाएगा अभी ठीक से कहा नहीं जा सकता।
                                    इतना अवश्य कहा जा सकता है की उच्चतम न्यायालय द्वारा  धारा ८[४] के निरस्त किये जाने पर लोकसभा और विधान सभा के चुनाव  अब शायद एवाजियों  के मार्फ़त लड़ाए जायेंगे। याने यदि लालूजी जेल गए हैं तो क्या हुआ ,पहले रावडी भावी जी थीं , अब उनके बच्चे हैं और मेरा दावा है की वे ही जीतेंगे।   डंके की चोट पर जीतेंगे क्योंकि  जो लालूजी ने  अपना जनाधार तैयार किया है   उसे कोई दूसरा नहीं ले जा सकता।  सुप्रीम कोर्ट लाख कहे की दागी नहीं चलेगा। राहुल लाख कहें की दागी को नहीं बचायेंगे।  किन्तु  भविष्य  मैं जो भी चुनाव होगा  आइन्दा  तो दागियों से निजात मिलती दिखाई नहीं पड़ती। क्योंकि दागियों  के बीबी -बच्चों ,रिश्तेदारों  ,नेता पत्नियों और नेता पतियों, बहिनों ,भाइयों ,सालों और जीजाओं   से जनता को कोई छुटकारा नहीं मिलने वाला।  जो  जनता अभी तक  इन भ्रष्ट नेताओं को  चुनती रही  वही आगे भी  इन नेताओं के वंशजों ,नौकरों  और रिश्तेदारों को चुनकर लोकसभा  और विधान सभा मैं भेज देगी। राईट  तू  रिजेक्ट  वाली बात भी मजाक हो जायेगी जब मनचले लोग  जानबूझकर ' कोई नहीं ' का बटन  दवाएंगे और अंत मैं शेष वोटों के विभाजन मैं 'दागी' जीत  जायेंगे।  भारत के  अधिकांस अर्धशिक्षित युवाओं  की मानसिकता है  की  उनका पेशाब वहीँ उतरेगा - जहां लिखा होगा की "यहाँ मूतना मना है "
                        इन दिनों  भारतीय राजनीती  और संचार माध्यमों में  नकारात्मक 'बोल-बचन' का  बोलबाला है।   जब  वाकये या घटनाएं गलत होने जा रहीं  हों , तब उन से सरोकार रखने वाले  जिम्मेदार लोग 'मुसीका' डाले रहते हैं। गफलत या  प्रमाद के वशीभूत हो जाते हैं। जब तक उन्हें ये पक्का  एहसास न हो जाए की अमुक घटना या 'कदम' से उनके वर्गीय हितों को  हानि  पहुँच सकती  है तब तक तो  वे  जरुर ही  स्वयम को और अपने आसपास के लोगों को द्विधा में ही रख छोड़ते हैं। दोषी जनप्रतिनिधियों को विधायिका और कार्यपालिका से निकाल बाहर करने और आइन्दा सक्रीय राजनीती में प्रवेश वर्जित करने  के उच्चतम न्यायालय के फैसले में कुछ अपवादों को छोड़ लगभग  'राष्ट्रीय आम सहमती ' पहले से ही   है । अधिकांस भारतीय वर्तमान भ्रष्ट राजनीती और प्रशासन से आक्रान्त हैं और छुटकारा चाहते हैं किन्तु जनता की  व्यापक चेतना में बदलाव किये बिना केवल कोर्ट के  किसी खास सकारात्मक  हस्तक्षेप या नेताओं की  राजनैतिक बाजीगरी से यह मुमकिन नहीं है। फिर भी चूँकि    देश के तमाम सजग और प्रबुद्ध वर्ग ने सुप्रीम कोर्ट के  इस फैसले  का स्वागत  किया  तो ये एक बेहतरीन शुरुआत तो अवश्य ही कही जा सकती है।
                                                         जैसा की सभी को ज्ञात है की  देश  की राजनीती में व्याप्त राजनैतिक भृष्टाचार के अनैतिक दबाव   और 'गठबंधन' की मजबूरियों ने वर्तमान यूपी ऐ सरकार को  मजबूर कर दिया  था की  वो  उच्चतम  न्यायालय  के इस राजनैतिक  शुद्धिकरण के  फैसले को निष्प्रभावी करने के लिए संसदीय प्रक्रिया के तहत  तत्सम्बन्धी कानून को ही बदल दे। यह सर्वविदित है की संसद के विगत मानसून सत्र में तत्सम्बन्धी विधेयक  राज्यसभा में तो  सर्वसम्मति से पास किया जा चूका था किन्तु  लोकसभा में इसे पास करने के दौरान तकनीकी गफलत से सीमित समयवधि  में इसे पास नहीं किया जा सका।  विधेयक  की शक्ल में इस गेंद को   पार्लियामेंट्री स्टेंडिंग कमेटी ' के पाले में डाल दिया गया।  चूँकि इस प्रक्रिया में पर्याप्त देरी हो रही थी और इधर लालू,रशीद मसूद,तथा अन्य दागी नेताओं को जेल भेजने की न्यायिक तीव्रता सामने आ रही थी ,  इसीलिये  प्रधानमंत्री श्री मनमोहनसिंह  और  केविनेट पर सत्तारूढ़ यूपीए और अन्य   अधिकांस  राजनैतिक दलों ने परोक्ष  दबाव डाला की  "आर्डिनेंस फॉर  प्रोटेक्ट कनविक्टेड पोलिटीसयंस"  अध्यादेश  लाकर उच्चतम न्यायालय के '  फैसले' को तत्काल  निष्प्रभावी किया जाए।डॉ मनमोहनसिंह और उनके सलाहकारों ने सभी की आम राय से यह फैसला लिया की अध्यादेश तामील किया जाए।
                         उधर मोदी से आक्रान्त आडवाणी और सुषमा को कोई काम नहीं था और भाजपा के दागियों में ज्यादा मोदी समर्थक अमित शाह जैसे नेताओ को निपटाने के लिए लालायित थे इसलिए महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के दरवार में जा पहुंचे।  आडवानी ग्रुप ने अध्यादेश का विरोध इस तरह किया मानों सिर्फ कांग्रेस को ही इसकी गरज हो।  इसी खबर से और  जनता में ,मीडिया में अध्यादेश की आलोचना से युवा कांग्रेसी उत्तेजित होकर राहुल को उकसाने में सफल रहे।  राहुल ने २८ सितम्बर -२०१३ को  दिल्ली प्रेस क्लब में  दो वाक्य बोलकर न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व में ये सन्देश भेज दिया की  वे वैसे   पप्पू' नहीं हैं  जैंसा की मोदी प्रचारित करते रहते हैं।  राहुल गाँधी इस घटना से एक ताकतवर संविधानेतर सत्ता केंद्र के रूपमें उभरे हैं। उनके  इस स्टेप से  प्रधानमंत्री ,केविनेट ,गठबंधन सरकार और  लोकतांत्रिक प्रणाली की कुछ विसंगतियाँ भी विमर्श के केंद्र में हैं किन्तु ये बातें तब गौड़ हो जाया करती हैं जब कहां जाता है की 'लोकतंत्र में जनता ही सिरमौर है ' चूँकि जनता जो चाहती है वो राहुल गाँधी ने किया  इसीलिये उनके विधि-निषेध के तमाम अपराध माफ़ किये जाने योग्य हो जाते हैं।
                                         वैसे भी यह अध्यादेश महामहिम राष्ट्रपति जी  को  भी जचा नहीं तो उन्होंने कानून मंत्री और संसदीय   मंत्री  को बुलाकर पहले ही  कुछ पूंछ तांछ की थी।  इस बार  मीडिया और प्रबुद्ध वर्ग ने  भी  कसम खा र्र्खी थी की देश  में   राजनैतिक  अपराधीकरण रोकने के लिए न्यायपालिका के  द्वारा किये जा रहे  प्रयासों पर पानी नहीं  फेरने देंगे। ये सारे जनसंचार उत्पन्न सन्देश पाकर राहुल  जी तैस्श में आ गए।  और  इसीलिये जब कांग्रेस महासचिव और प्रमुख मीडिया प्रभारी अजय माकन दिल्ली प्रेस कल्ब में सरकार ,केविनेट और प्रधानमंत्री की इस अध्यादेश सम्बन्धी खूबियों को लेकर बखान करने जा रहे थे तभी उन्हें कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी का सन्देश मिला की मैं स्वयम इस प्रेस वार्ता को 'व्रीफ ' करूंगा।  वे आंधी की तरह आये और तूफ़ान की तरह बोले 'ये अध्यादेश बकवास है ,फाड़कर फेंक देना चाहिए 'ऐंसा कहते समय वे शायद  भूल गए की देश में कांग्रेस का नहीं यूपीए गठबंधन का राज है, उनकी पार्टी और उनके ही मंत्रियों ने   इस अध्यादेश का मसौदा तैयार किया था।  उन्हें भी सब मालूम था। सभी पार्टियों और सभी नेताओं को सब कुछ मालूम था. यह कैसे हो सकता है की  सिर्फ राहुल  गाँधी को  ही मालूम  न हो।   यदि यह अध्यादेश फाड़ने लायक था तो तबयह  विवेक किसी का क्यों नहीं  नहीं जगा? भाजपा के धपोर शंखी प्रवक्ता अब श्रेय के लिए गला फाड़ रहे हैं तब तो मनमें लड्डू फुट रहे थे की एक तीर से दो निशाने लग गए। एक तरफ कांग्रेस बदनाम हो रही दूसरी तरफ भाजपा के दागियों को बचने का मौका भी मिलने ही वाला है। वे भूल गए  की जनता क्या चाहती है ? राहुल को किसी ने समय पर जगा दिया और वे वास्तव में इस समय तो भारतीय राजनीती के सर्वोच्च शक्ति स्तम्भ बनकर उभर चुके हैं। 
                                         वर्तमान यूपीए  गठबंधन  अल्पमत में ही है. जिसे वसपा और सपा ने टेका लगा रखा है. इन सभी पार्टियों के एक-एक दर्जन सांसदों और नेताओं पर क़ानून की तलवार लटक रही है,एनडीए और भाजपा के १८  सांसद ,कांग्रेस के १४ ,सपा के आठ ,वसपा के ६ ऐ आई डी एम् के  ४,जदयू ३ और अन्य सभी दलों के एक-एक  सांसद -आपराधिक मामलों में फंसे हैं।   इसीलिये अध्यादेश इन सब पार्टियों की मर्जी से लाया गया था ,अब यदि मीडिया और जनता में नकारात्मक  कोलाहल सुनाई देने लगा  याने  खेल में आसन्न हार दिखने लगी  तो कांग्रेस के भावी कप्तान  नियम बदलने या मैदान बदलने के लिए मचल उठे । सरकार को युटर्न लेना पडा ,विधेयक भी वापिस लेने की चर्चा है। राहुल गाँधी  स्वयम तो हीरो बन गए और डॉ मनमोहन सिंह  के सर पर पाप का घडा फोड़ दिया। यह एक बिडम्बना ही है की भारतीय  राजनीती के  सबसे ईमानदार  प्रधानमंत्री के रूप में   इस प्रकरण में और पहले के भी सभी आरोपों में  वेवजह  डॉ मनमोहन सिंह पर  भ्रष्टाचार का  ठीकरा  फोड़ा जाता रहा है। पक्ष-विपक्ष के सभी नेता जानते हैं की प्रधानमंत्री  बनाए जाने का सर्वाधिक नैतिक मुआवजा डॉ मनमोहन सिंह  से ही बसूला  गया है। वे वास्तव में राजनीती का हलाहल पीने वाले  इस दौर के 'नीलकंठ' सावित हुए हैं।  उनके कन्धों पर चढ़कर राहुल यदि लोकप्रियता के शिखर पर हैं तो यह खुद की पुण्याई तो नहीं है।  डॉ मनमोहन सिंह की इस विशेष योग्यता के कारण तीसरी बार प्रधानमंत्री बन् ने या बनवाने में  उनकी भूमिका को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता।  इतिहास  शायद मोदी और राहुल दोनों को ही  "पी एम् इन वेटिंग "   के  पिजन्होल  में फेंक दे। 

                                    श्रीराम तिवारी