मंगलवार, 28 सितंबर 2010

भगत सिंह के जन्मदिन पर विशेष


शहीद भगत सिंह की विचारधारा वैसे तो सर्वकालिक है; किन्तु वर्तमान वैश्वीकरण के दौर में साम्राज्यवादी मुल्कों ने आज जिस तरह से समस्त भूमंडल को अपने बहुराष्ट्रीय निगमों का चारागाह बनाकर रखा है ऐसी अवस्था में नवस्वाधीन या विकासशील देशों और खास तौर से भारत के शुभचिंतकों को यह उचित होगा की भगतसिंह की विचारधारा का अनुशीलन करें। शहीद भगतसिंह और उनके साथी सिर्फ सत्ता हस्तांतरण हेतु संघर्षरत नहीं थे; अपितु शोषणकारी व्यवस्था को बदलने की स्पष्ट सोच रखते थे। बीसवी शताब्दी के तीसरे दशक की अनेक घटनाएं यह साबित करने को पर्याप्त हैं। तत्कालीन बॉम्बे की मजदूर हड़तालें; देश के अनेक हिस्सों में किसान विद्रोह न केवल ब्रिटिश साम्रज्य से मुक्ति की चाहत बल्कि देशी सामंतों के चंगुल से आज़ादी की तमन्ना रखते थे। इस क्रांतिकारी प्रवाह को रोकने में अंग्रेजों का साथ देने वाले वे सभी थे जो जाती धरम और पूंजीवादी व्यवस्था के पालतू थे। किन्तु क्रांतिकारियों का मनोबल कम नहीं हुआ उन्होंने जनांदोलनों को कुचलने के प्रयासों के विरोधस्वरूप असेम्बली में बम फेंक कर भारतीय जन मानस को झंझोड़ा। तत्कालीन स्थापित बुर्जुवा नेत्रत्व जिन्हें स्वाधीनता आन्दोलन का पुरोधा माना जाता है; सदैव मजदूर किसान आंदोलनों एवं उनकी अगुवाई करने वाले जन -नायकों को दबाये जाने के पक्षधर हुआ करते थे । सारा संसार जानता है की शहीदों को फांसी दिए जाने के खिलाफ कोई भी कारगर कदम नहीं उठाया गया, यही वजह है की देश की वर्तमान पीढ़ी को आज़ादी के संघर्षों का अधुरा इतिहास पढाया जा रहा है। १८५७ का प्रथम स्वाधीनता संग्राम तथा साम्राज्यवाद -पूंजीवाद से आम जनता के सतत संघर्षों के परिणामस्वरूप आधी अधूरी आज़ादी; आधा अधुरा वतन तो मिला किन्तु भारतीय जन मानस की एकता को तार तार करने वाले तत्वों ने शहीद भगत सिंह के उन विचारों को विस्मृत करने में प्रत्गामी ताकतों का साथ दिया, जिन विचारों के बलबूते एकता के मूलभूत सिद्धांत स्थापित किये गए थे । भारतीय जन-गन -मन की वैचारिक एकता के सूत्र समझे बिना न तो साम्प्रदायिकता की वीभत्सता को समझा जा सकता है; और न ही अंतर राष्ट्रीय साम्राज्यवाद के नव उपनिवेशवाद को समझा जा सकता है। शहीद भगतसिंह ने जलियावाला बाग़ नर संहार; ग़दर पार्टी का चिंतन और संघर्ष विरासत में पाया था। सोवियत क्रांति की आंच ने गर्माहट दी थी; उन्होंने गाँधीवादी आंदोलनों को व्यवस्था परिवर्तन का कारक नहीं माना .देश विभाजन हेतु उत्तरदायी हर किस्म के साम्प्रदायिक संगठनो उनकी नीतियों और वक्तव्यों का पुरजोर विरोध उनके विचारों में स्पष्ट झलकता है, ट्रेड दिस्पुत एक्ट के खिलाफ संघर्षरत लाला लाजपतराय पर निर्मम लाठी चार्ज और परिणामस्वरूप लालाजी समेत अनेकों निहत्थी जनता की अकाल मौत ने हिदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के पुराधाओं; चंद्रशेखर आज़ाद, बटुकेश्वर दत्त, असफाक उल्लाह खान तथा भगतसिंह को असेम्बली में बम फेंकने के लिए मजबूर किया। इससे पहले कामागातामारु नामक जहाज पर सवार सैकड़ों भारतीयों जिनमें अधिकांश तो सिख ही थे; को अमेरिका ने अपने अन्दर उतरने नहीं दिया जिसके कारण सभी महासागर में काल कवलित हो गए थे, अतः साम्राज्यवाद के बारे में क्रांतिकारियों की समझ और पुख्ता होती चली गई । शचीन्द्रनाथ सान्याल द्वारा स्थापित हिदुस्तान सोस्लित रेपब्लिकन आर्मी में सोशलिस्ट शब्द भगतसिंह ने ही जुड़वाया था। भगतसिंह ने कहा था " _पूंजीवादी साम्राज्यवाद नए नए रूप धारण कर निर्बल राष्ट्रों का शोषण करता है। सम्राज्यवादी युद्धों का समापन ही हमारा अंतिम लक्ष्य है। जब तलक दुनिया में सबल राष्ट्रों द्वारा निर्बल देशों का शोषण होता रहेगा 'जब तलक सबल समाजों द्वारा निर्बल समाजों का शोषण होता रहेगा। सबल व्यक्ति द्वारा निर्बल और लाचारों का शोषण होता रहेगा; क्रांति के लिए हमारा संघर्ष जारी रहेगा" आज भी जो मजदूर, किसान, छात्र, नौजवान तथा धर्मनिरपेक्ष जनतांत्रिक शक्तियां भगतसिंह के विचारों को अमली जामा पहनने हेतु कृत संकल्पित हैं ;वे ही सच्चे देशभक्त हैं .

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