शनिवार, 28 अगस्त 2010

लोक ही तंत्र का विधाता महान है .

लग रहा बुझा -बुझा वर्तमान काल क्यों
प्रखर तप्त सूर्यक्यों धुंध आसमान है ।
लोक ही तंत्र का विधाता महान है .
सत्य को नकारतीं तमस को पुकारतीं ;
शक्तियां बाज़ारकी;पैर यों पसारतीं।
की धधकता जहान है ।
लोक ही तंत्र का विधातामहान है .

आतंक -अलगाव -धर्मान्धता बेधड़क ;
बहुमत को भूंख -भय करे परेशान है ।
लोक ही तंत्र का विधाता महान है


गाँव -गाँव गली शहर सज रहीं दूकान है ।
छत्तीस गढ़ मचल रहा -कश्मीर सब जल रहा ;
हम चले थे किधर -किधर का प्रस्थान है ॥
खोखला गरूर है की आन -बान -शान में ;
सभ्यता औ संस्कृति में हम ही महान हैं ।
चिताएं सुलग रहीं आस्था विश्वाश की अब ;
आस्तीन के साँपों से देश ये हैरान है ॥


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