शनिवार, 14 अगस्त 2010

स्वाधीनता की ६३ वीं वर्षगाँठ पर . . .


अपनी आज़ादी को हम, हरगिज़ मिटा सकते नहीं । सर कटा सकते हैं लेकिन, सर झुका सकते नहीं ।।
किसी क्रांतिकारी की इस रचना के अनुसार तो विगत तिरेसठ वर्ष में भारतीय आज़ादी का परिपक्वाकरण नहीं हो पाया। किन्तु तटस्थ समालोचना में कई विचारणीय बिन्दु हैं जो आशान्वित करते हैं की हम किसी से कम नहीं। निसंदेह हम अमर शहीदों के सपनों का-पूर्ण रूपेण धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी, प्रजातंत्र खुशहाल भारत अभी तक नहीं बना पाए; हम अपने समकालीन नव-स्वाधीन राष्ट्रों-चीन ,कोरिया ;जापान से बहुत पीछे चल रहे हैं। यूरोप, अमरीका, रूस तथा अरेबियन देशों से न केवल आर्थिक अपितु सामाजिक समरसता में भी हम पीछे एक सौ अठासी वें नंबर पर चल रहें हैं।

स्वाधीनता संग्राम के दौरान भारत की जनता और उसके तत्कालीन अमर शहीदों ने न केवल ब्रिटिश साम्राज्यवाद बल्कि पूंजीवादी सामंती शोषण से मुक्त समाजवादी गणतंत्र की स्थापना का संकल्प लिया था। हम उस दिशा में कितना कुछ कर पाए ?कितना किया जाना बाकी है? गतिरोध कहाँ और कौन खड़े कर रहा है? इसकी विवेचना के उपरान्त ही अगला कदम उठाया जाना चाहिए। देश में कौन -कौन से वर्ग हैं? किसे आज़ादी का मज़ा मिला? कौन ठगा हुआ महसूस कर रहा है? किसने देश को लूटा और किन-किन ने कुर्बानियां दी?

विकास का कौनसा माडल हमें अनुकूल है? किस नीति और कार्यक्रम से हमें हानि हुई या होगी? इन तमाम सवालों के जबाब मांग रहा है-आज़ादी ६४ वां पर्व । आज़ादी मिलने के साथ-साथ गुलामी की नाभिनाल को पूर्ण रूप से नहीं काटा जा सका । भाषावार राज्य स्थापना; जातीय आरक्षण; साम्प्रदायिकता; पूंजीवादी-सामंती शोषण; गरीबी और भृष्टाचार के मुद्दों पर हमें कोई खास कामयाबी नहीं मिल सकी है। वर्तमान दौर में तो लोकतंत्र पर ही प्रश्न चिन्ह खड़े किये जाने लगे हैं। ये आवाजें सिस्टम के दो विपरीत ध्रुवों से आ रहीं हैं। एक ओर धुर वामपंथ के रूप में नक्सलवाद ने देश के अंदरूनी हिस्सों में कोहराम मचा रखा है, दूसरी ओर धुर दक्षिण पंथी साम्प्रदायिक ताकतों ने देश को लहू -लुहान कर रखा है। साम्प्रदायिक ताकतों में हिन्दू -मुस्लिम -सिख -इसाई -जैन -बौद्ध सभी धर्मों में आज़ादी के बाद कट्टरता बढ़ी है । इसमें कोई शक नहीं की स्वाधीनता संग्राम में कुछ वर्गों ने अंग्रेजों का छुप -छुप कर साथ दिया था। वे इस गद्दारी के एवज में -राजा -महाराजा ;रायबहादुर ;सर सेठ ;और न जाने क्या -क्या कूड़ा करकट कबाड़ते रहे और समस्त भारतीय जनता -जनार्दन को पददलित करते हुए हाराकिरी को प्राप्त हुए । इन्ही नकारात्मक तत्वों के विषाणु अभी भी भारत देश के नव -निर्माण में नित नयी बाधाएं खडी कर रहे हैं। ये तत्व समाज को खंड खंड करके लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का साधन मात्र मानते हैं। दूसरी ओर शिक्षित -अशिक्षित आम जनता अपने आपको वोटर भर मानती है। इसीलिये पांच साल में या कभी कभी मध्यावधि में वोट डालकर अपने काम धंधे {यदि यह नहीं तो चोरी -हत्या -बलात्कार}से लग जाती है।

इन सभी विडम्बनाओं का मिला जुला रूप है हमारा वर्तमान आधा अधुरा लोकतंत्र .इस शाशन -प्रबंधन की नजीर भी वर्तमान यू पी ए सरकार में हम स्पष्ट देख सकते हैं। पूरा देश आज आसमान छूती महंगाई से त्राहि- त्राहि कर रहा है। रसोई के सामान के दामों की दर भारत को दुनिया में सबसे ऊँचे शिखर पर पहुंचा चुकी है। उपर से तुर्रा ये की पेट्रोल; डीजल; रसोई गैस; केरोसिन तथा बिजली के दामों ने आम आदमी का जीवन दूभर बना दिया है । देश के कर्ण धार अमेरिका से बेहतर जी डी पी का सर्टिफिकेट लाये हैं प्रेस और मीडिया के सामने गाहे -बगाहे उसे दिखाकर महंगाई से इनकार कर रहे हैं ।

जनता को इस जी डी पी की असलियत मालूम होती जा रही है सो वह केन्द्रीय श्रम संगठनों के निरंतर जुझारू संघर्षों में हिस्सेदारी करने को मजबूर हो गई है। जनता को मालूम है की इस जी डी पी और उसके नाम पर बड़े अमीरों; कार्पोरेट घरानों; के उपर मुनाफाखोरी का जो स्वर्ण कलश चमचमा रहा है ;वह जनता के खून -पसीने के क्षरण का परिणाम है। देश भर के असंगठित मजदूरों की दुरावस्था का लोकतंत्र के किसी भी खम्बे ने ध्यान नहीं दिया। यह नितांत आर्थिक तानाशाही है। इसका प्रवाल प्रतिरोध होना ही चाहिए। आगामी ७ सितम्बर को देश का सर्वहारा इस आज़ाद भारत की एक और शल्य क्रिया करने को बाध्य है ।

इंकलाब जिंदाबाद ...स्वाधीनता संग्राम सेनानियों को नमन ...जय भारत ..जय भारती ...

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