मंगलवार, 31 अगस्त 2010

शान्ति एवं एकजुटता का संकल्प.

एक -सितम्बर १९३९को द्वितीय महायुद्ध प्रारंभ हुआ तब से लेकर हिरोशिमा -नागासाकी पर हुए बम -जनित विभीषिका {६अगस्त-९अगस्त -१९४५} तक जितना नरसंहार हुआ वह "भूतो न भविष्यति" माना गया है ।
तत्कालीन जान -माल के नुकसान का असर आज भी दुनिया पर देखा जा सकता है .बिध्वंशकअणुबमों के दुष्प्रभाव को कुछ लोग आज भी भुगत रहे हैं ।
विश्व शान्ति आन्दोलन तथा आम जनता के दवाव के कारण द्वितीय विश्व युद्ध के बाद तीसरा महायुद्ध अभी तक तो नहीं हो सका लेकिन छोटे -मोटे विवाद 'आतंकी हमलों एवं पृथक सभ्यताओं के संघर्षों के कारण कुल मिलाकरकिसी विश्वयुद्ध से भी ज्यादा मानव हानि तथा संपत्ति का नुक्सान हुआ है ।
अधिकांश वीभत्स घटनाओं के पीछे साम्राज्यवादी नीतियों तथा नाटो देशों को आपूर्ति करने वाले घातक हथियार निर्माता कारपोरेट लाबी का हाथ रहा है .आज दुनिया भर में हथियारों के अम्बार लगते जारहे हैं ;जिसमें पारंपरिक ;आणविक रासायनिक एवं नाभकीय हथियार भी शामिल हैं .दुनिया का स्वयम्भू नम्बरदार तो नाभकीय हथियारों के माध्यम से तीनो लोकों अर्थात धरती -आकाश और महासागरों पर कब्ज़ा कर चूका है .अमेरिका रूस चीन में से हरेक के पास इतने हथियार हैं की इस धरती को कई बार नष्ट करने में सक्षम हैं .ऐसे हथियारों का उत्पादन घटने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है .अब इस संहारक क्षमता की रेंज में छोटे -मोटे गरीब गुरवे और भिखमंगे देश भी शामिल होते जा रहे हैं .इस घृणास्पद मुक्त होड़ के कारण कई देश तो भारी कर्ज के बोझ से पिस
रहे हैं .एक तरफ हथियारों पर अंधाधुन्द खर्च बढ़ता जा रहा है .दूसरी ओर भुखमरी ;गरीबी ;बेरोजगारी ;बीमारी और अशांति बढ़ रही है .आर्थिक असमानता बढ़ रही है .एक तरफ तो दौलत के अम्बार लग रहे हैं दूसरी ओर देश और दुनिया में गरीबों की संख्या बेतहासा बढ़ रही है .आतंकवाद ;अलगाववाद ;जातिवाद और बाजारवाद का बोलवाला है .कई निर्दोषों की जाने तो सिर्फ किसी एक व्यक्ति की चूक या व्यवस्था की गफलत से ही चली गई .
हमारा देश भी इन समस्याओं से दो-चार हो रहा है । विगत दो दशकों में देश की अपार संपत्ति को नुकसान हुआ और लाखों जाने गईं .अखिल भारतीय शान्ति एवं एकजुटता संघठन .के तत्वाधान में विगत कुछ सालों से एक सितम्बर को मानव श्रंखला के तहत युध्य विरोधी दिवस मनाया जाता है ।
इस अवसर पर पोस्टर पम्फलेट वाल पेंटिग्स तथा स्लोगन्स के माध्यम से संकल्प व्यक्त किया जाता है की सभी प्रकार के हथियारों पर रोक लगाईं जावे ;जो परमाणविक हथियार तैयार हैं उन्हें नष्ट किया जाए .सैन्य खर्चों में कटौती की जाए ;मानव संसाधन एवं जन- कल्याण के बजट में पर्याप्त बृद्धि की जाए ;रोजगार के अवसरों को युवाओं के लिए तस्दीक किया जाए .भुखमरी दूर हो -आर्थिक असमानता मिटे -सबको विकाश के सामान अवसर उपलब्ध होवें एवं धरती पर मानव सभ्यता शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के साथ सभी भेदभाव दूर करे ।

शनिवार, 28 अगस्त 2010

लोक ही तंत्र का विधाता महान है .

लग रहा बुझा -बुझा वर्तमान काल क्यों
प्रखर तप्त सूर्यक्यों धुंध आसमान है ।
लोक ही तंत्र का विधाता महान है .
सत्य को नकारतीं तमस को पुकारतीं ;
शक्तियां बाज़ारकी;पैर यों पसारतीं।
की धधकता जहान है ।
लोक ही तंत्र का विधातामहान है .

आतंक -अलगाव -धर्मान्धता बेधड़क ;
बहुमत को भूंख -भय करे परेशान है ।
लोक ही तंत्र का विधाता महान है


गाँव -गाँव गली शहर सज रहीं दूकान है ।
छत्तीस गढ़ मचल रहा -कश्मीर सब जल रहा ;
हम चले थे किधर -किधर का प्रस्थान है ॥
खोखला गरूर है की आन -बान -शान में ;
सभ्यता औ संस्कृति में हम ही महान हैं ।
चिताएं सुलग रहीं आस्था विश्वाश की अब ;
आस्तीन के साँपों से देश ये हैरान है ॥


शनिवार, 21 अगस्त 2010

०७-०९-२०१० आम हड़ताल

बेतहासा बढ़ती हुई महंगाई के खिलाफ ;केंद्र सरकार की श्रमिक और सर्वहारा वर्ग विरोधी तथा पूंजीपति परस्त नीतियों के खिलाफ .सार्वजनिक वितरण व्यवस्था दुरुस्त कराने ;सट्टे बाजारी रोकने .नए उद्द्योग धंदे प्रारंभ करानेऔर देश को भृष्टाचार से मुक्ति के लिए अनवरत एकजुट संघर्ष की दरकार है .७ सितम्बर की ओद्दोगिक हड़ताल तो इस दिशा में एक क्रन्तिकारी कदम है .इन्कलाब -जिंदाबाद .दुनिया के मेहनतकश एक हो -एक हो .

बुधवार, 18 अगस्त 2010

कम्युनिस्ट ही सच्चे आस्तिक हुआ करते हैं


यदा-कदा साम्यवादी और बर-हमेशा गैर साम्यवादी उस कथन को -जो कार्ल मार्क्स ने प्रतिपादित किया था -की "धर्म एक अफीम है "को सरसरी तौर से इस्तेमाल किया करते हैं .जहाँ तक इस ऐतिहासिक सैद्धांतिक युक्ति के
प्रयोजन का प्रश्न है -अक्सर अति उत्साही कम्युनिस्ट तो धर्म के मूल पर ही कुठाराघात कर बैठता है .कुछ चतुर चालाक लोग इन अर्ध-परिपक्व साम्यवादियों व्याख्या को आधार बनाकर ;वर्ग संघर्ष में प्रतिगामी बढ़त हासिल कर लेते हैं .इन में दोनों बुर्जुआ धड़े शामिल हैं .एक धडा पूंजीवादी -सामंती शोषण के करता -धर्ताओं का है .दूसरा धडा धरम मजहब -के माध्यम से आजीविका चलाने वाले अनुत्पादक वर्ग का है .ये दोनों वर्ग श्रम शोषण के लिए कभी -कभी नीर -क्षीर हो जाते है .दोनों का साझा शत्रु है -साम्यवाद .इसलिए ये दोनों आक्रान्ता के रूप में आधुनिक सुशिक्षित .वैज्ञानिक ;प्रगतिशील शक्तियों को सर्वहारा से अलग -थलग करने और शोषित वर्ग की संघर्ष शक्ति को
भोंथरा बनाने के लिए पुराणी परम्परा को देवीय रूप प्रदान करने का प्रयास करते है .जब कभी इस पाखंडपूर्ण
इस दुष्कृत्य का कोई ईमानदार -न्यायप्रिय व्यक्ति या संस्था विरोध करता है तो उस नास्तिक करार दे दिया जाता है। अंध धार्मिकता की लहर को रोक पाना मुश्किल हो जाता है .धर्म के उस रूप को जो शोषण की ताकतों का दुर्दमनीय हथियार बन जाये ;समाज में विग्रह पैदा करे ;क्रांति के मार्ग में बाधा कड़ी करे -साम्प्रदायिकता कहते हैं दरसल उस धर्म या मजहब से जो अपने मूल स्वरूप में -मानव मात्र का न्यायपूर्ण जीवन जीने का अधिकार स्वीकार करता हो उससे मार्क्सवाद का कोई विरोध नहीं है विरोध उससे हो सकता है जो साम्प्रदायिकता ;पाखण्ड तथा शोषण की यथा स्थिति का समर्थन करता है ।
कोई भी वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित धर्म /मजहब यदि वह सत्ता के स्वार्थ से दूर रहकर व्यक्ति .परिवार ;समाज या दुनिया को सुसभ्य बनाए तो वह स्वयमेव क्रांतिकारी पथ का अनुगामी हो जाएगा ।
अक्सर धार्मिकता और साम्यवाद के बीच अनुपयोगी कुतर्कों का समावेश हुआ करता है .यह बिडम्बना ही है की जो अपने आप को धार्मिक कहता है; वह बुरी तरह पाखंडपूर्ण जीवन जीता हुआ देखा जा सकता है ।
उधर दूसरी और ऐसे अनेक साम्यवादी दुनिया में हो चुके हैं ;आज भी हैं और आगे भी होते रहेंगे जो की तथाकथित "नास्तिक "होते हुए भी किसी महान अवतार या पीर पैगम्बर से कम त्यागी व बलिदानी नहीं थे .मानवता के महान साम्यवादी कर्म्योद्धाओं ने जो अनगिनत कष्ट झेले उनके प्रमाण साइबेरिया ;वियेतनाम ;चीन क्यूबा तथा यूरोप के संग्रहालयों में अब भी उपलब्ध हैं ।
उधर प्रत्येक वह व्यक्ति जो मंदिर ;मस्जिद ;गिरजा या गुरुद्वारे में जाता है .वह जरुरी नहीं की सत्य निष्ठ ही हो -वह महा मक्कार ; झूंठा ;चरित्रहीन ;मुनाफाखोर ;कालाबाजारी ;रिश्वतखोर नही होगा ;इसकी कोई गारंटी नहीं दे सकता । इसी तरह जो अपने आपको धार्मिक नज़रिए से प्रस्तुत नहीं करता उसमें उदात्त ; उज्जवल चरित्र
मानवीयता ; ईमानदारी तथा सत्यनिष्ठा कूट-कूट कर भरी हो तो उस नास्तिक को किस कोटि में स्थान दिया जाये ।

शनिवार, 14 अगस्त 2010

स्वाधीनता की ६३ वीं वर्षगाँठ पर . . .


अपनी आज़ादी को हम, हरगिज़ मिटा सकते नहीं । सर कटा सकते हैं लेकिन, सर झुका सकते नहीं ।।
किसी क्रांतिकारी की इस रचना के अनुसार तो विगत तिरेसठ वर्ष में भारतीय आज़ादी का परिपक्वाकरण नहीं हो पाया। किन्तु तटस्थ समालोचना में कई विचारणीय बिन्दु हैं जो आशान्वित करते हैं की हम किसी से कम नहीं। निसंदेह हम अमर शहीदों के सपनों का-पूर्ण रूपेण धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी, प्रजातंत्र खुशहाल भारत अभी तक नहीं बना पाए; हम अपने समकालीन नव-स्वाधीन राष्ट्रों-चीन ,कोरिया ;जापान से बहुत पीछे चल रहे हैं। यूरोप, अमरीका, रूस तथा अरेबियन देशों से न केवल आर्थिक अपितु सामाजिक समरसता में भी हम पीछे एक सौ अठासी वें नंबर पर चल रहें हैं।

स्वाधीनता संग्राम के दौरान भारत की जनता और उसके तत्कालीन अमर शहीदों ने न केवल ब्रिटिश साम्राज्यवाद बल्कि पूंजीवादी सामंती शोषण से मुक्त समाजवादी गणतंत्र की स्थापना का संकल्प लिया था। हम उस दिशा में कितना कुछ कर पाए ?कितना किया जाना बाकी है? गतिरोध कहाँ और कौन खड़े कर रहा है? इसकी विवेचना के उपरान्त ही अगला कदम उठाया जाना चाहिए। देश में कौन -कौन से वर्ग हैं? किसे आज़ादी का मज़ा मिला? कौन ठगा हुआ महसूस कर रहा है? किसने देश को लूटा और किन-किन ने कुर्बानियां दी?

विकास का कौनसा माडल हमें अनुकूल है? किस नीति और कार्यक्रम से हमें हानि हुई या होगी? इन तमाम सवालों के जबाब मांग रहा है-आज़ादी ६४ वां पर्व । आज़ादी मिलने के साथ-साथ गुलामी की नाभिनाल को पूर्ण रूप से नहीं काटा जा सका । भाषावार राज्य स्थापना; जातीय आरक्षण; साम्प्रदायिकता; पूंजीवादी-सामंती शोषण; गरीबी और भृष्टाचार के मुद्दों पर हमें कोई खास कामयाबी नहीं मिल सकी है। वर्तमान दौर में तो लोकतंत्र पर ही प्रश्न चिन्ह खड़े किये जाने लगे हैं। ये आवाजें सिस्टम के दो विपरीत ध्रुवों से आ रहीं हैं। एक ओर धुर वामपंथ के रूप में नक्सलवाद ने देश के अंदरूनी हिस्सों में कोहराम मचा रखा है, दूसरी ओर धुर दक्षिण पंथी साम्प्रदायिक ताकतों ने देश को लहू -लुहान कर रखा है। साम्प्रदायिक ताकतों में हिन्दू -मुस्लिम -सिख -इसाई -जैन -बौद्ध सभी धर्मों में आज़ादी के बाद कट्टरता बढ़ी है । इसमें कोई शक नहीं की स्वाधीनता संग्राम में कुछ वर्गों ने अंग्रेजों का छुप -छुप कर साथ दिया था। वे इस गद्दारी के एवज में -राजा -महाराजा ;रायबहादुर ;सर सेठ ;और न जाने क्या -क्या कूड़ा करकट कबाड़ते रहे और समस्त भारतीय जनता -जनार्दन को पददलित करते हुए हाराकिरी को प्राप्त हुए । इन्ही नकारात्मक तत्वों के विषाणु अभी भी भारत देश के नव -निर्माण में नित नयी बाधाएं खडी कर रहे हैं। ये तत्व समाज को खंड खंड करके लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का साधन मात्र मानते हैं। दूसरी ओर शिक्षित -अशिक्षित आम जनता अपने आपको वोटर भर मानती है। इसीलिये पांच साल में या कभी कभी मध्यावधि में वोट डालकर अपने काम धंधे {यदि यह नहीं तो चोरी -हत्या -बलात्कार}से लग जाती है।

इन सभी विडम्बनाओं का मिला जुला रूप है हमारा वर्तमान आधा अधुरा लोकतंत्र .इस शाशन -प्रबंधन की नजीर भी वर्तमान यू पी ए सरकार में हम स्पष्ट देख सकते हैं। पूरा देश आज आसमान छूती महंगाई से त्राहि- त्राहि कर रहा है। रसोई के सामान के दामों की दर भारत को दुनिया में सबसे ऊँचे शिखर पर पहुंचा चुकी है। उपर से तुर्रा ये की पेट्रोल; डीजल; रसोई गैस; केरोसिन तथा बिजली के दामों ने आम आदमी का जीवन दूभर बना दिया है । देश के कर्ण धार अमेरिका से बेहतर जी डी पी का सर्टिफिकेट लाये हैं प्रेस और मीडिया के सामने गाहे -बगाहे उसे दिखाकर महंगाई से इनकार कर रहे हैं ।

जनता को इस जी डी पी की असलियत मालूम होती जा रही है सो वह केन्द्रीय श्रम संगठनों के निरंतर जुझारू संघर्षों में हिस्सेदारी करने को मजबूर हो गई है। जनता को मालूम है की इस जी डी पी और उसके नाम पर बड़े अमीरों; कार्पोरेट घरानों; के उपर मुनाफाखोरी का जो स्वर्ण कलश चमचमा रहा है ;वह जनता के खून -पसीने के क्षरण का परिणाम है। देश भर के असंगठित मजदूरों की दुरावस्था का लोकतंत्र के किसी भी खम्बे ने ध्यान नहीं दिया। यह नितांत आर्थिक तानाशाही है। इसका प्रवाल प्रतिरोध होना ही चाहिए। आगामी ७ सितम्बर को देश का सर्वहारा इस आज़ाद भारत की एक और शल्य क्रिया करने को बाध्य है ।

इंकलाब जिंदाबाद ...स्वाधीनता संग्राम सेनानियों को नमन ...जय भारत ..जय भारती ...

शनिवार, 7 अगस्त 2010

कामरेड फिदेल कास्त्रो- सर्वहारा का सच्चा सिपाही .


दुनिया में आज उसके मित्रों की संख्या और बढ़ गई है। वह एक ऐसा व्यक्ति है जिसने द्वितीय विश्व युद्ध से अब तक; लगातार अमेरिकन साम्राज्यवाद का हर आक्रमण विफल किया है .उसने अनेक अमेरिकन राष्ट्रपतियों को नाकों चने चबवाए। सोवियत कामरेडों को प्रभावित किया। किसी राष्ट्र विशेष में लगातार पचास सालों तक राष्ट्राध्यक्ष के रूप में प्रतिष्ठित रहने के बावजूद वे अपनी जवानी के दिनों में प्रेसिडियम में सिर्फ दो घंटों में सारा कागजी काम निबटाकर सामूहिक खेती वाले खेतों में स्वयं चार घंटे गन्ने की कटाई या सार्वजनिक शुगर मिलों में पिराई का काम अवैतनिक मजदूर के रूप में करते थे। ऐसा रिकॉर्ड बनाने वाले मजदूर राष्ट्रपति को न केवल क्यूबा बल्कि अमेरिका,रूस, चीन और भारत जैसे मुल्कों में इतनी लोकप्रियता प्राप्त थी की भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गाँधी ने उसे अपना भाई माना और शीत युद्ध के दिनों में दोनों महाशक्तियों से पृथक अपना गुट निरपेक्ष आन्दोलन खड़ा करने में श्रीमती गाँधी के अलावा जिस का सर्वाधिक सहयोग था; उस शख्श का नाम है -फिदेल कास्त्रो

पूरा नाम अलाक्सेंदेर्राओ कास्त्रो.... विगत २००८ में कास्त्रो ने राजनीति से संन्यास लेते वक्त घोषणा की थी की वे आइन्दा किसी पद पर नहीं रहेंगे । इतनी लम्बी अवधि तक बिना किसी चुनौती के संघर्ष कालीन सत्ता सम्भालने वाले; गैर-सामंती; गैर पूंजीवादी शासक का, फिदेल कास्त्रो अपने आप में एक अध्येत अद्वितीय इतिहास हैं। ताजिंदगी जिन से वे संघर्षों में सर्वहारा का नेतृत्व करते रहे वे उन पूंजीवादी साम्राज्यवादी शासकों की रातों की नींद और दिन का चैन छीनकर पेंटागन को चुनौती देते रहे ।

अटलांटिक महासागर, मेक्सिको की खाड़ी, कैरिबियन सागर के बीच के द्वीप समूह का नाम है क्यूबा। अमेरिका के दक्षिण पूर्व में स्थित यह देश हैती, बहामा, और मैक्सिको के निकट है। कोलंबस ने अमेरिका की खोज के समय १४९२ में इसका पता लगाया था ईसवीं १५११ में इस पर स्पेन ने कब्ज़ा कर लिया था। प्रथम विश्व युद्ध ने क्यूबा की अवाम को क्रान्तिकारी सोच के दायरे में खड़ा कर दिया था। सोवियत क्रांती के सन्देश प्रभावित करने लगे थे, तत्कालीन शासक बतिस्ता शुरुआत में साम्यवादी संघों के समर्थन से राष्ट्रपति बना था, उसके नियंत्रण से शासन-व्यवस्था कुख्यात माफियाओं के कब्जे में चली गई। केवल प्रजातंत्र का मुखौटा भर रह गया तब राजनीतिक विप्लवता का दौर चला। इसी दौरान फिदेल कास्त्रो ने अपने क्रांतिकारी जीवन का शुभारम्भ किया। संघर्ष के दरम्यान मैक्सिको भी विस्थापित होना पड़ा। १९५६ में वापिस क्यूबा लौटे और बतिस्ता के कुशासन को खत्म किया अमेरिका ने लगातार धौंस दमन की कार्यवाहियां कीं किन्तु फिदेल नहीं झुके। क्रांतिपथ पर अनवरत चलते रहे। अमेरिका के प्रभाव से तब सारी दुनिया ने क्यूबा से नाता तोड़ लिया, किन्तु उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और आज सारा संसार क्यूबा के साथ है। क्यूबा के बुरे दिनों में भी भारत की लगभग सभी राजनैतिक पार्टियों ने फिदेल का साथ दिया। इंदिराजी तो क्यूबा की लोकप्रिय हस्ती हो गईं थीं चौधरी चरण सिंह, अटलबिहारी वाजपेई, जनेश्वर मिश्र तथा भारत का सम्पूर्ण वामपंथ क्यूबा की क्रांतिकारी जनता का हमराह था, क्यूबा की जनता ने भी हमेशा भारत का साथ दिया। चाहे १९७१ की बँगला देशी समस्या हो, चाहे पाकिस्तान, अमेरिका या किसी अन्य देश का भारत के खिलाफ यु एन ओ में मताधिकार का प्रयोग हो कामरेड फिदेल कास्त्रो सदैव भारत की जनता के शुभचिंतक रहे। सोवियत साम्यवादी व्यवस्था को नष्ट करने में अमेरिकन पूंजीवाद, पोलैंड का आर्च्विशाप और रोम का पोप जिम्मेदार थे। गोर्वाचेव तथा तत्कालीन सोवियत नेताओं को फिदेल ने आगाह भी किया; किन्तु महान अक्टूबर क्रांति के हत्यारे मानवमात्र के, सभ्यता के और सारे संसार के सर्वहारा को सदियों पीछे धकेलने के साथ साथ शोषित जन गन के वर्ग शत्रुओं को कुछ गद्दार मिल ही गए। फिदेल ने सोवियत क्रांति के पराभव की बेला में भी साहस और उम्मीद नहीं छोड़ी थी। इसी का परिणाम है की जहाँ एक ओर सारे संसार की पूंजीवादी सामंती ताकतें अमेरिका के नेतृत्व में निजीकरण, उदारीकरण, भूमंडलीकरण के नाम पर लूटखोरी को बढ़ावा देकर भयानक आर्थिक मंदी के जाल में फंस गई हैं; वहीँ क्यूबा, गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों को वैकल्पिक साम्यवादी अर्थ व्यवस्था के जन-कल्याणकारी आर्थिक नियोजनों का उदाहरण बन चुका है। वहाँ का अधिकतम विकास सार्वजनिक उपक्रमों के माध्यम से हुआ है। आर्थिक -औद्योगिक विकास के क्यूबाई मॉडल का भारतीय संसदीय प्रतिनिधि मंडल ने मुक्त कंठ से सराहना तो की किन्तु संसद के पटल पर कोई उल्लेखनीय सुझावों पर अमल करवाने की जुगत लगाने के बजाय मनमोहनी आर्थिक वितंडावाद में उलझ गए। कामरेड फिदेल कास्त्रो की विचारधारा से प्रभावित होकर श्रीमती इंदिरा गाँधी ने भारत में सार्वजनिक क्षेत्र को मज़बूत किया था। इन सार्वजनिक उपक्रमों को नेहरूजी ने सोवियत प्रेरणा से स्थापित किया था। वे इन्हें आधुनिक भारत के नव रत्न या मंदिर कहा करते थे । जिन्हें आज के दौर के पूंजीवादी शासक ख़त्म करने पर तुले हैं .क्युओं की ऐसा अमेरिका चाहता है ।

हुगो चावेज ने फिदेल की विचारधारा को सम्पूर्ण कैरिबियाई, लातिनी अमेरिकी देशों में नये जोश, नये उत्साह के साथ पहुंचा दिया है। ये सभी राष्ट्र अपनी अपनी मुद्रा को परिवर्तनीय बनाकर अंतर राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक के समानातंर विराट "बेंको देलो शूर" बैंक स्थापित कर महंगाई बेरोजगारी तथा मुद्रा स्फीति पर नियंत्रण करने में सफल रहे हैं। वे राष्ट्रीय संपत्तियों को निजी क्षेत्र के लिए चारागाह नहीं बनाते ।

यह फिदेल काश्त्रो के त्याग तथा उनके अनन्य सहयोगी चे गुवेरा के बलिदान की महानतम उपलब्धि है। श्रीमती इंदिरा गाँधी, ई. एम. एस. नम्बूदिरिपाद, हरिकिशन सिंह सुरजीत, ज्योति बसु, अटलबिहारी बाजपेई, नेल्सन मंडेला जैसे राजनीतिज्ञ तथा सार्वदेशिक बौद्धिक हस्तियों में मजदूर -किसानों में दुनिया के हरावल दस्तों में फिदेल कास्त्रो उनका अपना विश्वसनीय साथी है।