द्वंदात्मक भौतिकवाद और ऐतिहासिक भौतिकवाद बनाम मार्क्सवादी दर्शन :-
मार्क्सवादी दर्शन उन्नीसवीं सदी के लगभग मध्य में प्रकट हुआ। किन्तु इसने प्रकृति और समाज के विकास के नियमों का उद्घाटन कर प्राकृतिक और सामाजिक विज्ञान की विविध शाखाओं के अध्ययन को एक नया दृष्टिकोण प्रदान किया।
दर्शनों की बातें प्रायः अटकलें ही रह जाती यदि विज्ञान की कसौटी पर वह खरी न उतरती।मार्क्सवादी दर्शन की बहुत बड़ी विशेषता यह है कि उसके निष्कर्षों को विज्ञान ने सत्यापन कर प्रमाणित कर दिया !
यहां तक कि मार्क्स के पहले के भौतिक वादी भी भाववादी ही थे।वह प्रकृति के रहस्य का उद्घाटन तो भौतिकवादी नजरिए से करते थे किन्तु मनुष्य ,मानव समाज और उसके इतिहास का अध्ययन करते समय भाववादी या आदर्शवादी हो जाते थे।अर्थात यह मानते थे कि समाज अच्छे अच्छे विचारों से ही चलता है।इसके उलट मार्क्सवाद व्यवस्था के बदलाव के साथ ही अच्छे विचारों की सार्थकता की बात करता है।
लुडविग फायर बाख जैसे भौतिक वादी ने भी मानव समाज का अध्ययन भाववादी नजरिए से ही किया था।उसने प्रकृति के मामले में तो वस्तु को प्राथमिकता दी किन्तु समाज के मामले में चेतना को।
मार्क्स ने वस्तुगत या पदार्थिक और चेतना दोनों को प्राकृतिक कहा। वस्तु और चेतना दोनों को महत्व दिया।किन्तु वस्तु यावस्तुगत स्थिति को प्राथमिक और चेतनाको द्वितीयक माना।वस्तु को आधार और चेतनाको शिखर माना।
मार्क्स ने यह माना कि चेतना या भाव वस्तु से उपजते हैं.वस्तु ही चेतना को प्रभावित करती है ! किन्तु अपनी बारी में चेतना भी वस्तु पर अपना असर डालती है, उसे प्रभावित करती है।
मार्क्सवादी दर्शन की एक मौलिक बात यह है कि वस्तु चेतना से वह सदा स्वतंत्र होती है ,किन्तु चेतना वस्तु से स्वतंत्र नहीं होती।वस्तु चेतना के बाहर अस्तित्व रखती है।किन्तु चेतना वस्तु के नियमों को समझ कर उसे नियंत्रित कर सकती है।#(#न्यूटन के गतिज नियम )
:-श्रीराम तिवारी
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