गुरुवार, 25 जुलाई 2019

दम्भ -पाखंड की जद में आ गए हम :-


निकले थे घर से जिनकी बारात लेकर ,
उन्ही के जनाजे में क्यों आ गए हम ?
चढ़े थे शिखर पर जो विश्वास् लेकर ,
निराशा की खाई में क्यों आ गिरे हम ?
गिराते हैं गाज जो नाजुक दरख्तों पै,
उन्हीकी पनाहों में क्यों आ गए हम ?
फर्क ही नहीं जहाँ नीति -अनीति का ,
ऐंसी संगदिल महफ़िल में क्यों आगए हम ?
खींचते हैं चीर गंगा-जमुनी तहजीव का ,
ऐंसे कौरवों के झांसे में क्यों आ गए हम ?
सदा लगती रहीं जिधर दावँ पर पांचाली,
उस शकुनि की द्यूतक्रीडा में आ गए हम ?
कर नहीं सकते कद्र अपने ही बुजुर्गों की ,
दम्भ -पाखंड की जदमें क्यों आ गए हम ?
अमानवीय बर्बर- भयानक अँधेरी है जो,
उस विषधर की वामी में क्यों आ गए हम ?
-श्रीराम तिवारी

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