शनिवार, 21 अक्तूबर 2017

  1. यद्द्पि साहित्यिक विरादरी पूरी की पूरी विप्लवी या शहीद भगतसिंह और कार्ल मार्क्स जैसी सोच वाली नहीं है! हर जनवादी कवि लेखक साहित्यकार, माओ -लेनिन के उसूलों वाला ही हो यह भी जरूरी नहीं है। इस दौर में जो गौतम बुद्ध, बाबा सा. अमबेडकर और कार्ल मार्क्स की जुडवा वैचारिक छाँव में सृजन शील है वही असल वामपंथी साहित्यकार है! वेशक विशुधद जातीय विमर्श वादी हैं ,कुछ पूँजीवाद के आलोचक हैं ,कुछ केवल स्त्री विमर्शवादी हैं। बचे खुचे बाकी सब पूरे सौ फीसदी दक्षिणपंथी प्रतिक्रयावादी हैं...। यदि दस- बीस फीसदी साहित्यकार अपनी सही भूमिका अदा कर रहे हैं ,जो कि उनका सहज सैद्धांतिक स्वभाव और दायित्व भी है तो उन्हें गौरी लंकेश, कलिबुरगी, पानसरे या दाभोलकर की तरह नेस्तनाबूद किया जाना, केवल प्रतिक्रियावादी हिंसा नहीं है !बल्कि यह वर्ग युद्ध में शहादत भी है! वैसे भी हर मुश्किल दौर में जो कुछ बलिदान करने की क्षमता रखते हैं , हीरो भी वही हुआ करते हैं। इस विषम दौर में भारत के असली हीरो वही हैं जो सत्ता को आइना दिखा रहे हैं।और बलिदान दे रहे हैं!

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