मंगलवार, 7 फ़रवरी 2017

व्यक्तिगत बनाम नीतिगत आलोचनाके निहतार्थ !

कहने को हम वेधड़क कह सकते हैं कि आजादी मिलने के बाद हमारे मुल्क भारत ने कुछ तो तरक्की अवश्य की है।और तरक्की हुई भी है। विगत शताब्दी में आजादी के फौरन बाद कांग्रेसियों की तरक्की काबिले तारीफ़ रही। सत्ता छिन जाने के बाद भी बहुतों की तरक्की अब तक दिख रही है। लेकिन जो तरक्की बेचारे कांग्रेसजन  विगत '७० साल' में नहीं कर पाए ,वो तरक्की अम्बानी-अडानी के 'संघमित्रों' ने रातों-रात कर डाली है।इन नेताओं की तरक्की तब भी खूब दिखी थी, जब एनडीए की अटल सरकार में प्रमोद महाजन सूत्रधार हुआ करते थे! तब  लालकृष्ण आडवाणी की गिद्ध दॄष्टि केवल पीएम की कुर्सी पर टिकी हुई थी । कुछ लोगों की तरक्की यूपीए-टू के दौर में खूब दिखी।तब  कुछ लोग टूजी, थ्रीजी,कोयला,गेस,तेल सब खा-पी गए। जब उस समय का एक बदमाश टॉप सीबीआई अफसर खुद भृस्टाचार में लिप्त रहा,तो बाकी के भृष्ट अधिकारियों और नेताओं का कौन हवाल ?  यह सच हो सकता है कि डॉ मनमोहनसिंह ईमानदार थे. किन्तु मौन क्यों रहे ? यदि सोनिया गाँधी अस्वस्थ रहीं या राहुल गाँधी अनभिज्ञ रहे, तो वे उस जिम्मेदारी से कैसे बच सकते हैं, जो पार्टी हाईकमान की हुआ करती है ? यह तो प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत है कि प्रत्येक वर्तमान हालात के लिए अतीत जिम्मेदार होताहै ! किन्तु हरेक घटित वर्तमान के लिए अतीत जिम्मेदार नहीं होता ,कुछ तातत्कालिक कारण भी निमत्त बन जाते हैं।चुनावी मौसम में  राजनैतिक सरगर्मी बढ़ना स्वाभाविक है। पक्ष -विपक्ष में राजनैतिक आलोचना की होड़ शिखर पर पहुँच जाती है। खेद है कि इस आलोचना के केंद्र में व्यक्ति बनाम व्यक्ति ही रह गये है। जबकि एक स्वस्थ लोकतंत्र में व्यक्तिगत आलोचना हेय मानी जाती है। व्यक्तिगत आलोचना से ऊपर उठकर नीतियों -कार्यक्रमों के बरक्स  स्वस्थ सार्थक आलोचना ही लोकतन्त्र के स्वास्थ्य के लिए बेहतर 'पथ्य हुआ करती है।

यूपीए-दो याने डॉ मनमोहनसिंह के प्रधान मंत्रित्व काल में ऐ राजा,करूणानिधि,दयानिधि मारान ,दिनाकरन ,श्री प्रकाश जायसवाल जैसे लोग और कावेरी मारण,कनि मौजी ,नीरा राडिया जैसी लुगाईयाँ जब विभिन्न घोटालों में अपना 'सौभाग्य' निर्माण कर रहे थे, तब श्रीमती सोनिया गाँधी ने , राहुल गाँधी ने जो कुछ चूक की है ,अब उसका नतीजा आज कांग्रेस भुगत रही है।  केवल कांग्रेस ही नहीं बल्कि पूरा भारत और भारतीय महाद्वीप भुगत रहा है। क्योंकि  मई २०१४ में जिन लोगों को केंद्र की सत्ता मिल गयी,वे इतने अनाड़ी और अभद्र सावित होंगे यह तो खुद उनके 'अभिभावकों' ने भी नहीं सोचा होगा !सवाल सिर्फ अपने से बड़ों के सम्मान का नहीं है ,बल्कि सवाल तो 'चोरी और सीनाजोरी' का है। यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं कि अपने सहज स्वभाववश श्री नरेन्द्र मोदीने सर्वश्री लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी,यशवंत सिन्हा और संजय जोशी इत्यादि के साथ जो व्यवहार किया है वह  'संघ का पारिवारिक'मामला हो सकता है! वे डॉ मनमोहनसिंह,सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी,अखिलेश यादव , अमरिंदरसिंह और केजरीवाल जैसे नेताओंकी कटु आलोचना के लिए भी स्वतन्त्र हैं। किन्तु मोदी जी जिन प्रतीकों और बिम्बों का प्रयोग करते हैं ,उनका प्रयोग करते हुए तो असभ्य लोग भी झिझकते हैं।'हिन्दू समाज में 'सब का कच्चा चिठ्ठा खोलकर रख दूँगा ' जैसा आप्त वाक्य तो चाय बेचने वाले और ढोर चराने वाले भी नहीं करते। देखने की बात है कि आप राजनीति को किस स्तर तक नीचे ले जाते हैं ? श्रीमान ,आपके कुछ उदंड समर्थक एमपी में धरा गए हैं। पाकिस्तान और आईएस की जूँठन खाते हुए पकडे गए हैं। गनीमत है कि शिवराजसिंह सरकार की पुलिस ने ही पकड़े हैं। अब देशभक्तो जरा जल्दी घोषित कीजिये कि इसमें वामपंथ का क्या कसूर है ? या किस विपक्षी दल के नेता का हाथ  है ? साम्प्रदायिकता के जरखरीद उतावले समर्थक भले ही आपका नाम जपते रहें किन्तु सच्ची देशभक्त आवाम का यही मानना है कि यह स्वस्थ लोकतान्त्रिक परम्परा या राष्ट्रवाद कतई नहीं है।

देश के अधिकांस प्रबुद्ध जनों ने  'नोटबंदी'का प्रबल विरोध नहीं किया। आलोचकों का सवाल महज यह था कि 'रिजर्व बैंक' को किनारे क्यों किया ?  इतने व्यापक पैमाने पर व्यक्तिगत फैसले लेना राष्ट्रघाती कदम हो सकता है। इसी तरह मौजूदा बजट पर भी अधिकांस प्रबुद्ध जनों ने अंधाधुंध आलोचना के बजाय ,मोदी सरकार को 'पूरा वक्त'' दिए जाने का तर्क प्रस्तुत किया । हालाँकि वित्तीय गिरावट सबको दिख रही है। रुपया लुढ़कता सभी देखते रहे । एक नामचीन्ह अमेरिकी अर्थशास्त्री ने  फरमाया  कि 'नोटबंदी' का फैसला केवल एक दिमागी दिवालियापन की उपज हो सकता है। 'प्रत्यक्ष किम प्रमाणम' के बाद पन्तप्रधान  के मनमाने निर्णयों के पक्ष में कुछ भी शेष नहीं बचता। संसद और संसद से बाहर उनके निकृष्ट भाषणों से लगता ही नहीं कि वे महान भारत के योग्य सम्माननीय प्रधान मंत्री हैं ! उनके भाषण उन्नीसवीं सदी के  चम्बल छाप डाकू सरदारों  जैसे होते हैं और डायलॉग शोले के गब्बर जैसे !वे अच्छी तरह जानते हैं कि मौजूदा विपक्ष शक्तिहीन- श्रीहीन है, फिर भी वे उसकी आलोचना करके हास्यापद दिख रहे हैं। वे पी एम नहीं लगते बल्कि गली के नुक्कड़ पर खड़े 'शोहदे' जैसे ज्यादा नजर आ रहे हैं।

चूँकि वे प्रधानमंत्री हैं, सत्ता में हैं अतः कामकाज के दौरान उनसे भूलचूक अवश्य होगी। लेकिन अपनी कोई भी गलती उन्होंने आज तक नहीं स्वीकारी। वे कांग्रेस मुक्ति के बहाने पूरे 'असहमत' राष्ट्र पर हमला किये जा रहे हैं ? वेशक डॉ मनमोहनसिंह से भी गंभीर भूलें और गलतियाँ हुईं थीं। और उनकी गलतियों का खामियाजा  कांग्रेस भुगत भी रही है। किन्तु मोदी जी अपने कार्यों का औचित्य सावित करने के बजाय 'नहाने-धोने' के स्तर पर क्यों उतर आये यह समझ से परे है ! जो भूतपूर्व हो चुका हो ,जनता ने जिसके गुनाहों की सजा दे दी हो अब उसका जिक्र करके वे अपने गुनाहों पर पर्दा कैसे डाल सकते हैं ? यह तो वही वाक्या हुआ कि 'तुम पियो तो पूण्य और उन्होंने पिया तो पाप !' क्या २०१९ के लोक सभा चुनावों में  यही तर्क देते हुए ,विपक्ष में बैठने का इरादा है ? फिर मत कहना कि कांग्रेस ने  ७० साल में कुछ नहीं किया। हमने ५६ इंच का सीना तानकर  सिर्फ ५ साल ही वो सब कर डाला जिससे यह देश १० साल पीछे चला गया। लेकिन यह तो नेतृत्व की उच्च गुणवत्ता नहीं है।

१५ अगस्त -१९४७ को आजादी मिलने के कुछ दिन बाद ही देश की आवाम को एक शानदार संविधान भी मिला। उम्मीद की गयी थी कि गई  कि ' अब अच्छे दिन आवेंगे '। देश तरक्की करता हुआ आगे बढ़ता  चला गया,कुछ नौकरीपेशा अफसरों ,कुछ जातिवादी नेताओं ,कुछ साम्प्रदायिक तत्वों और कुछ सत्ता के दलालों -पूंजीपतियों ने  तरक्की हासिल भी कर ली । किन्तु असमानता की खाई अंग्रेजों के राज से भी कई गुना बढ़ती चली गयी। कभी कम्युनिस्टों ने ,कभी समाजवादियों ने ,कभी लोहिया ने ,कभी जेपीने ,कभी वीपी ने और कभी अन्ना हजारे रामदेव ने जनता की संवेदनाओं को स्वर दिया। लेकिन हर बार, हर आंदोलन पटरी से उतर गया। व्यवस्था को बदलने की जगह उसे दुरुस्त करने में जुट गए। जिस सिस्टम ने सितम ढाया उसी को सीने से लगाकर सो गए। न्याय की लड़ाई लड़ने के बजाय ,केवल सत्ता परिवर्तन का लक्ष्य साधते रहे। परिणामस्वरूप कभी कांग्रेस सत्ता में रही तो कभी उसकी जगह 'छाया कांग्रेस' ने ले ली। केंद्र में और राज्यों में गैर कांग्रेसियों को बार-बार सत्ता मिलती रही। लेकिन ७० साल की बदनामी का ठीकरा केवल कांग्रेस के सिर फोड़ा जा रहा है ,यह सरासर अनैतिक बेईमानी और पाखण्ड है। यक्ष प्रश्न है कि यूपीए -टू याने मनमोहनसिंह की गठबंधन सरकार की असफलता की बदनामी का ठीकरा सिर्फ कांग्रेस  के सिर क्यों फोड़ा गया? जबकि कांग्रेस के पास स्पष्ट बहुमत ही नहीं था ?विगत २५ साल के खण्डित जनादेश की अनदेखी करके केवल कांग्रेस को कोसना हद दर्जे की बेईमानी है। बड़े शर्म की बात है कि जो 'धर्मध्वज' बने बैठे हैं वे इस अन्याय को रोकने की बनिस्पत खुद बढ़ावा देते रहे ? इस दुष्टतापूर्ण बदनामी अभियान में श्री श्री ,स्वामी रामदेव,सुब्रमण्यम स्वामी,अण्णा हजारे,केजरीवाल ,ममता बनर्जी सर्वाधिक हिस्सेदार रहे हैं। वे वेशक  कांग्रेस का विरोध करें ,यह उनका अधिकार है किन्तु ७० साल वाली बात बिलकुल गलत है। कांग्रेसियों ने ७० साल में जितना कमाया होगा, उतना तो अकेले सूट-बूट वाले 'भाईजी' द्वारा एक महीने  में  खर्च हो जाता है । देश की जनता को यह जानना जरुरी है कि यह धन आता किधर से है ?  श्रीराम तिवारी !



        

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