द्वतीय 'विश्व युध्द' के उपरान्त भारत सहित तमाम दुनिया में, दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावाद और फासिज्म की लानत-मलानत होती रही है। कट्टर 'राष्ट्रवाद' एवं 'नाजीवाद' को सभीने खूब दुत्कारा। लेकिन भारत जैसे नवस्वतन्त्र देशों के ढुलमुल पूँजीवादी लोकतंत्र में ये घातक तत्व नए-नए रूपों में फ़ैल गए। 'जातीयतावाद और साम्प्रदायिकता को अब राष्ट्रवाद और नाजीवाद के नए प्रतिस्थापन्न [Isotopes] समझ सकते हैं। नस्लवाद और फासीवाद से दुनिया को कितना खतरा था ,ये तो इतिहास में लिखा है। किन्तु तथाकथित भाववादी आदर्शवादी व्यवस्था याने 'आस्तिक' पूँजीवाद ने हिरोशिमा नागासाकी में जो 'पुण्य' का कार्य किया था उसकी चर्चा बहुत कम होती है। और इस तरफ बहुत कम लोगो का ध्यान जाता है। इस नर संहार में किस नास्तिक का हाथ था ,सीआईए या पेंटागन ?
अमेरिकन साम्राज्यवाद को इस भयानक नर संहार की प्रेरणा कहाँ से मिली ? ततकालीन अमेरिकन राष्ट्रपति और विदेश मंत्री दोनों कट्टर केथोलिक थे।'आस्तिक' होते हुए भी उन दिग्गज नेताओं ने परमाणु बमके घातक प्रयोग का जघन्य नरसंहार कैसे मंजूर किया ? क्योंकि उनका धर्म और उनकी आस्तिकता से भी ऊपर ,उनके अमेरिकन साम्राज्यवादी लूट के हित ज्यादा महत्वपूर्ण थे। तब तो मार्क्स की वह घोषणा अक्षरशः सही सावित हुई कि मजहब -रिलिजन को 'शोषक शासक वर्ग' एक टूल्स के रूप में इस्तेमाल करता है।और यह छद्म आस्तिकता ही 'जनता के लिए अफीम' है।कुछ सज्जन किस्म के भाववादी लेखक विद्वान एवम सन्त खुद कहते पाए गए हैं कि 'ईश्वर उन्ही की मदद करता है जो खुद अपने हितों की हिफाजत करते हैं।तो 'क्या ईश्वर पक्षपाती है? क्योंकि जब उसने देखाकि हिटलर ताकतवर है तो उसके साथ हो लिया ,जब उसने देखाकि अमेरिका ताकतवर है तो उसके साथ हो लिया। बेचारे आस्तिक जापान ने ईश्वर का क्या बिगाड़ा था कि उसे दूसरे विश्व युद्धमें अधमरा कर दिया।
स्मरण रहे कि हिरोशिमा -नागासाक़ी का भयानक नरसंहार यदि तत्कालिन 'सोवियत संघ' के हाथों हुआ होता , तो कितना गजब हो गया होता? गनीमत रही कि उस दौर के 'सोवियत संघ' ने तानाशाह हिटलर की ताकत को ध्वस्त किया । इसीलिये तो क्रेमलिन ही दुनिया की तमाम शांतिकामी जनता की आशाओं का केंद्र बन चुका था। यदि अमेरिका की जगह यही जघन्य अपराध इस्लामिक आतंकियों ने, नक्सलियों ने अथवा चीन जैसे कम्युनिस्ट देश ने किया होता तो कितना गजब हो गया होता?
इस दौर के 'छद्म राष्ट्रवादी' और सांप्रदायिक तत्व सत्ता में होने के वावजूद आतंकवाद का कुछ नहीं बिगाड़ पाए! 'नोटबन्दी' का एक प्रमुख लाभ यह भी बताया गया था कि कश्मीर में आतंकवाद समाप्त हो जाएगा !लेकिन अब तो कश्मीर के हालात इतने खराब हैं कि देश के सेना प्रमुख को खुद मोर्चा संभालना पड़ रहा है।यदि देश की चुनी हुई सरकारें अपने हिस्से का दायित्व निर्वहन में विफल हैं तो उनके होने का औचित्य क्या है ?यदि सेना को ही सब कुछ करना है, तो यह अरबों रुपया चुनावों में क्यों बर्बाद किया जा रहा है ?क्या सरकारी तामझाम केवल जुमलों और मसखरी के लिए है ? मूर्खतापूर्ण नोटबन्दी का दूसरा लाभ यह भी बताया गया था कि अब नक्सलवाद खत्म हो जाएगा। सभी जानते हैं कि नक्सलवादकी वजह गरीबी और शोषणहै। इस पूँजीवादी सामंती व्यवस्था का प्रमुख लक्षण है कि शोषण होता रहेगा।और शोषण जब तक जारीहै तब तक नक्सलवाद का सफाया असम्भव है।
आईएसआई और पाकिस्तान परस्त आतंकियों का ,कश्मीरी अलगावादियों और नक्सलियों का अभी तक कोई खास निदान नहीं हुआ है। एमपी पुलिस ने अवश्य सिमी के भगोड़ों को मारकर कुछ सफलता अर्जित की, किन्तु केंद्र सरकार और उनके समर्थकों ने क्या किया? हरियाणा में एक निर्दोष अखलाख को क्या मार दिया और अपने आपको बड़ा राष्ट्रभक्त समझने लगे !केरल में हिंदुत्ववादी ,ईसाई और इस्लामिक कट्टरपंथी तत्व, सबके सब आये दिन हंगामा खड़ा करते रहते हैं. सीपीएम को बदनाम करते हैं। जब बंगाल में सीपीएम का शासन था ,तब तमाम हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक गुंडों ने एक साथ मिलकर सिंगुर के बहाने ममता नामक उजबक 'बिल्ली' को खूब दूध पिलाया। विगत दिनों इस बिल्ली ने केंद्र सरकार और उसके मुखिया मोदीजी की खूब खिल्ली उड़ाई।बंगाल के आतंकियों की सरगना ममता बेनर्जी को ताकतवर बनानें में हिंदुत्ववादियों का योगदान उल्लेखनीय है। लेकिन वह 'वीरांगना'अब मुस्लिम कट्टरपन्थियों की सरपरस्त कहलाती है।ममता बेनर्जी इन दिनों हिन्दुत्वादियों की खूब लानत -मलानत किये जा रही है। इस आस्तिक ममता ने बंगाल को बर्बाद कर दिया। जबकि सीपीएम के राज में बंगाल 'धर्मनिपेक्षता' का पवित्र तीर्थ बन चुका था। वेशक वामपंथ ने धर्म-मजहब से कुछ दूरी बनाये रखी लेकिन राजनीति में उसका दुरूपयोग रोककर मानवीय मूल्यों की और संविधान की हिफाजत की यही क्या कम है ?
महान 'आस्तिक' एवम फ़्यूहरर एडोल्फ हिटलर ने यहूदियों का जितना नरसंहार कराया ,उतना मानव सभ्यताके इतिहास में शायद भारतीय हिंदुओं के अलावा और किसी कौम का नहीं हुआ। जिस तरह हिटलर ने सत्ता प्राप्ति लिए आर्य श्रेष्ठता के बहाने विजातीय और विधर्मी यहूदियों के खिलाफ जर्मन नस्लवाद उभारा और यहूदियों को मरवाया ,उसी तरह कासिम,गजनवी ,गौरी, तुगलक,खिलजी,तुर्क,पठान,अफगान,मंगोल [मुगलवंश]हमलावरों ने भारत की सत्ता पर काबिज रहने के लिए 'दीन-ऐ-इस्लाम' का लगातार दुरूपयोग किया। उन्होंने तथाकथित उन काफिरों को भी मरवा दिया जो वेचारे पहले से ही एक अति उन्नत मानवीय सभ्यता और संस्कृति के सम्वाहक थे। सभी इस्लामिक हमलावरों ने घोर साम्प्रदायिकता का बेजा इस्तेमाल किया।
चूँकि भारत एक महान 'आस्तिक' और अहिंसा प्रधान देश रहा है। इसके सामजिक,आर्थिक और राजनैतिक मूल्य भिक्षुकवाद ,कमण्डलवाद ,कर्मफलवाद से ही प्रेरित थे। इन मूल्यों की वजह से ही भारतीय उपमहाद्वीप सदियों तक गुलाम रहा है।कुछ लोग यह तर्क देते रहते हैं कि भारत राष्ट्र तो पहले था ही नहीं। लेकिन वे भूल जाते हैं कि ततकालीन दुनिया में जितने भी देश अथवा साम्राज्य थे, वे अपने तत्कालीन स्वरूप में अब कहीं नही रहे। महान शायर इकबाल ने भी फ़रमाया है ''यूनान ओ रोम मिट गए जहाँ से,लेकिन बाकी रहा है केवल हिन्दोस्तां हमारा '' !वेशक अंग्रेजोंने और पूँजीवादी वैज्ञानिक विकास ने भारत को एक किया। किन्तु गुलाम बनाकर उन्होंने लूटा भी। सवाल यह है कि जो पहले वाले इस्लामिक हमलावर कबीले थे ,या उनसे भी पहले वाले शक हूँण और कुषाण हमलावर कबीले थे,क्या वे अमन के पुजारी थे ? क्या वे सभी अपने हाथों में तलवार की जगह फूल लेकर प्यार लुटाने इस भारत भूमि पर आये थे ? क्या सिंध नरेश दाहिरसेन और उसके परिवार का क़त्ल केवल कोरी गप्प है ?क्या पृथ्वीराज चौहान के साथ दगा नहीं हुआ ?क्या उसका और जयचन्द का इतिहास मिथहै ?क्या बाकई लाखों हिंदुओं,सिखों,और खास तौर से ब्राह्मणों का कत्ल नहीं हुआ? इन सवालों से आँखें नहीं फेरी जा सकतीं! प्रत्येक वामपंथी और प्रगतिशील व्यक्ति को सही इतिहास का ज्ञान होना चाहिए ,तभी वह किसी तरह के अहम और सकारात्मक बदलाव का हिसा बन सकता है।
भारत में इस्लाम के आगमन से पहले भले ही यह सदियों तक देशी सामन्तों और राजाओं द्वारा शासित रहा है , किन्तु ततकालीन सामंती भारत में भी हरिश्चंद्र श्रीराम और चोल राजाओं जैसे महान शासक हुए हैं। भले ही वे आपस में कभी महाभारत ,कभी कलिंग युद्ध ,कभी अश्वमेध ,कभी राजसूय यज्ञ के नाम पर युद्ध करते रहेहों किन्तु उन्होंने कभी किसी अन्य कौम या राष्ट्र पर हमला नहीं किया। कभी किसी का जबरन धर्मान्तरण भी नहीं कराया। वेशक कुछ बौद्ध राजाओं ने अवश्य ब्राह्मणों को मरवाया ,किन्तु बौद्ध भिक्षुओं ने दूर-दूर देशों में जाकर अपनी बुद्धि और विवेक से ही धर्मचक्र प्रवर्तन किया। निसन्देह कुछ लोग मेरी इस ऐतिहासिक स्थापना से सहमत नहीं होंगे और वे प्रमाण भी मांगेंगे। उनसे मेरा विनम्र निवेदन है कि मैं आरएसएसका समर्थक नहीं हूँ। किन्तु यदि कोई आरएसएस वाला कहेगा कि सूर्य पूर्व से उदित होता है तो मैं इतना महान प्रगतिशील या क्रांतिकारी नहीं की उसे झुटला सकूँ !और कहूँ कि सूर्य पश्चिम से उदित होता है।
मलिक काफूर लेकर अहमदशाह अब्दाली तक जितने भी हमले भारत पर हुए उनमें तीन प्रमुख तत्व रहे हैं।एक-हिदू,जैन और बौद्ध धर्म के पूजा स्थलों का ध्वस्त किया जाना। दूसरा -पराजित हिन्दू राजाओं की रानियों और राजकुमारियों को अपने हरम में शामिल करना। तीसरा -सोना,चाँदी ,हाथी, घोड़े और जमीन हथियाना। कुछ लोग कहेंगे कि आप अपने इस कथन का प्रमाण दो ! उन्हें एतद द्वारा सूचित किया जाता है कि गूगल सर्च पर वर्नियर ,वर्नी ,अलवरुनी,ह्वेनसांग ,फाह्यान,मेगास्थनीज, यूक्लिड , बाबरनामा ,अकबरनामा,आइन -ए-अकबरी जो चाहें उसे सर्च करें।और केवल इतिहास के लेखक को ही नहीं बल्कि उन तमाम बदमाश और हरामखोर अंग्रेज इतिहासकारों को भी सर्च करें जिन्होंने उनके चश्में से भारतका इतिहास लिखा है। गलत इतिहास लिखने वाले टुच्चे इतिहासकारों को सौ जूते मारे जाने चाहिए। जिन्हें लगता है कि मेरी [श्रीराम तिवारी]की सैद्धान्तिक स्थापना का कोई वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं है ,वे अपना विकल्प रखें ,उनका स्वागत है। किन्तु उनसे निवेदन है कि जिन्होंने भारत पर हमले किये उन आक्रांताओं द्वारा लिखित इतिहास को वे कदापि उधृत न करे। क्योंकि यह कौन नहीं जानता कि विजेता व्यक्ति या कौम तो वही लिख्नेगे जो उनके 'मन' का हो। वैसे भी अतीत का सम्पूर्ण लिखित इतिहास केवल विजेता शासकों की ऐय्यासी और लूट का ही इतिहास है। विजित ,शोषित,पीड़ित और पराधीन कौम के वास्तविक इतिहास का अन्वेषण करना हरेक सच्चे प्रगतिशील साहित्यकार का दायित्व है।
जब रोम जल रहा था, पीट्सबर्ग से लेकर डायमंड हार्वर तक और हिरोशिमा से लेकर नागासाकी तक चारों ओर परमाणुविक आग की लपटें आसमान छू रहीं थीं ,तब यूरोप -अरब के धर्म-मजहब वाले खूंखार धर्मान्ध लोग उस आग से क्यों खेल रहे थे?और तब गॉड,अल्लाह और ईश्वर एवम आस्तिकता सब मौन क्यों रहे? इस तरह की ही जघन्य घटनाओं से प्रेरित होकर 'कार्ल मार्क्स' ने कहा कि 'धर्म एक अफीम है',बादमें संसार के तमाम प्रगतिशील लेखकों, साहित्यकारों और कवियों ने मार्क्स के उस महान आप्त वाक्य की ऐंसी तैसी ही कर डाली।' धर्म एक अफीम है' के सीधे सरल वाक्य की कुछ इस तरह सैद्धांतिक और वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत की मानों नास्तिकता का बीजारोपण कर डाला हो। वास्तव में मार्क्स का यह अभिप्राय कदापि नहीं था.उन्होंने बाइबिल और कुरान तो पढ़ लिया होगा ,किन्तु वेद-वेदांत और उपनिषद उन्हेंपढ़ने को नहीं मिले। हालांकि मार्क्स वैदिक कालीन समाज व्यवस्था के वे प्रशंसक थे। उन्होंने आदिम साम्यवादी व्यवस्था वाले चेप्टर में भारतीय वैदिक समाज को आदिम साम्यवादी माना है। लेकिन उनके कतिपय तर्कवादी और विज्ञानवादी अनुयाइयों ने समझा, कि धर्म मजहब सब गलत हैं! या कि ईश्वरका अस्तित्व ही नहीं है। बल्कि मार्क्स ने 'धर्म -मजहब' के उस विकृत रूप और विचलन पर कटाक्ष किया था जो हर दौर में और इन दिनों भी पाखण्डवाद और आतंकवाद के रूप में दुनिया को भरमाने में जुटा है। इस दौर के अधिकांस धर्मगुरु पूँजीवाद की चरण रज में भूलुंठित हो रहे हैं ।
दुनिया में जब-जब कोई नया धर्म-दर्शन आया तो आवाम ने उसे हाथो-हाथ सिर -माथे लिया। लेकिन अनैतिक तत्व बाकायदा फलते फूलते रहे ।हर पढ़ा लिखा इंसान बखूबी जानता है कि अरब और पश्चिम मध्य एशियाई इस्लामिक राष्ट्रों के बर्बर लोगों ने कभी भी सच्चे 'इस्लाम' का अनुशरण नहीं किया।कभी सिया -सुन्नी ,कभी बहावी बनाम गैर बहावी का द्वंद चलता ही रहा।मुहम्मद साहब ने जो मजहब इंसान के भले के लिए और अमन के लिए बनाया था,वह इंसानियत का दुश्मन कैसे हो गया ? यूरोप अमेरिका में और समूचे ब्रिटिश साम्राज्य की हुकूमत पर महान धर्म गुरु पोप की धाक रही है ,किन्तु सारा ईसाई जगत केथोलिक बनाम आर्थोडोक्स के बहाने दो हजार साल तक आपस में क्यों लड़ता-मरता रहा?भारत का अहिंसावाद तो सारे संसार में जाहिर है ,किन्तु वह इतना महान धार्मिक और ईश्वरवादी होते भी सदियों तक गुलाम क्यों रहा ?क्यों भारत के सभ्य सुशील लोगों को असभ्य और बर्बर कबीलों का शिकार होना पड़ा ? इस प्रश्न का उत्तर सब जानते हैं लेकिन जिनके मन में चोर है वे कुतर्क देंगे कि अंग्रेजों ने गलत इतिहास पढ़ाया !कुछ कह्नेगे कि गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या फायदा ?लेकिन अतीत में पराजित कौम से जो चूक हुई है,उसे यह अवश्य जानना ही होगा कि सच्चाई क्या है ?
आजादी के बाद भारतीय संविधान ने अहिंसा सिद्धांत पर आधारित 'धम्मचक्र प्रवर्तन 'को ही राज्य चिन्ह माना है।वेशक प्राचीन भारत में नास्तिक मत को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था ,क्योंकि न केवल सत्यकाम जाबालि कणाद,कश्यप,और कपिल जैसे विद्वान 'नास्तिक' थे। बल्कि श्रीकृष्ण ,बलराम से लेकर सारे द्वारकावासी भी नास्तिक थे ,तभी तो उन्होंने एक ब्राह्मण को अपमानित किया और कुटुंब सहित बरबाद हो गए । किन्तु यूरोप के [एथेस्ट ] नास्तिक और इस्लाम के काफिर शब्द ने भारतीय षड दर्शन को कन्फ्यूज कर दिया। वे केवल चार्वाक को ही उद्धृत करते रहे ,जबकि दुनिया बहुत आगे निकल गई। यूरोप वाले रेल लाये टेलीफोन लाये और चाँद मंगल पर पहुँच। गए। हम केवल उनकी नकल करते हुए आगे बढ़ रहे हैं। किन्तु धर्म संस्कृति और इतिहास में नकल नहीं चलती ,उसे खुद गढ़ना होता है। इक्कसवीं शताब्दी में भी धर्मान्ध हिन्दू मुस्लिम 'नास्तिक' दर्शन की गलत व्याख्या करते रहते हैं। उनकी समझ इतनी भर है कि सिर्फ उनका धर्मश्रेष्ठ है और दूसरे का धर्म बेकार की चीज है।वे नहीं जानना चाहते कि यह सब वक्त -वक्त की मानवीय ईजाद है, दूसरी कई चीजों की तरह ही धर्म- मजहब के बिना भी इंसान बेहतर जीवन जी सकता है।
न केवल न केवल 'संघ' के लोग बल्कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी भी यही समझ रखते हैं ,इसलिए उन्होंने अभी एक चुनावी आम सभा में चार्वाक का मजाक उड़ाया। जबकि विगत २६ जनवरी -२०१७ को सऊदी अरबके 'प्रिंस' को चीफ गेस्ट बनाया। क्या मोदी जी को नहीं मालूम कि चार्वाक शुद्ध हिन्दू और सनातनी सिद्धांत है ?उन्हें सऊदी अरब के प्रिंस की फ़िक्र है किन्तु सनातन धर्म के एक प्रगतिशील जनवादी सिद्धांत की फ़िक्र नहीं,क्यों ?जबकि वे आस्तिकता की और हिंदुत्व की रोजगारी पाकर प्रधान मंत्री बने हुए हैं। इसी तरह पाकिस्तान के जेहादी संकीर्ण राष्ट्रवादियों -कट्टरपंथियों ने भी खुद तो काफिराना कुकर्म किये हैं ,भारत में पैदा हुए 'दाऊद 'जैसे भगोड़े तत्वों को शरण दी ,हमेशा भारत की जड़ों में मठ्ठा डाला और इस्लामपरस्ती के अलंबरदार बने बैठे हैं। उन्होंने इस्लाम का कितना भला किया यह तो वे ही जाने,किन्तु उन्होंने उसे रुसवा अवश्य किया है उसकी तौहीन भी की है।
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कश्मीरी पत्थरबाज -आतंकियों ने और सिमी के बिगड़ैल तत्वोंने 'जेहाद' और इस्लाम को बहुत बदनाम किया है। इन सभी इस्लामिक मजहबी संगठनों की करतूतों के प्रतिक्रियास्वरूप भारत में 'हिंदुत्ववादियों' को देशकी सत्ता नसीब हुई है। इधर संघ के इंद्रेशकुमार से लेकर खुद मोहन भागवत तक अपने 'पुराने एजेण्डे' को भूल चुके हैं। अब उन्हें हर मुसलमान आतंकी नहीं दिखता,बल्कि वे तो कट्टरपंथी मुसलमानों के शुक्र गुजार हैं कि उन्ही की बदौलत बहुसंख्यक हिन्दू समाज का राजनैतिक धुर्वीकरण हो सका। दरसल देश की बहुमत जनता का -भाजपा या मोदी जी को जनादेश नहीं मिला,बल्कि 'स्ट्रेटजिक वोटिंग'से उन्होंने बहुसंख्यक हिन्दू समाज के अधिकांस वोट हासिल किये हैं। पाकिस्तानपरस्त आतंकियोंकी 'हिन्दू विरोधी' हरकतों ने ,भारत के अंदर मजहबी कट्टरतावाद ने और भारत के रक्तरंजित मजहबी इतिहास ने बहुसंख्यक हिन्दू समाज को भाजपा और संघ की मांद में जबरन धकेल दिया है। 'संघ परिवार' के प्रसादपर्यंत मोदी सरकार को केंद्र में जो जनादेश मिला है, जनता ने वह विकास -वादी झाँसों , जुमलों या नेताओं के शूट-बूट को देखकर नहीं दिया है। बल्कि भारतीय युवा पीढी ने अपने दौर की साम्प्रदायिक घटनाओं और कश्मीर में हो रही पत्थरबाजी का सिंहावलोकन करते हुए यह आत्मघाती कदम आगे बढ़ाया है। यह स्थिति चिंताजनक है !चिंताजनक इस अर्थ में कि इस दौर में रोजगार ,शिक्षा,स्वास्थ्य और व्यवस्था -जन्य दोषों पर बात करना,धर्मनिरपेक्षता औरअभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बात करना, देशद्रोह माना जा रहा है।
डिजिटल और सोशल मीडिया पर हिंदूवादी संगठनों के लोग वामपंथ के खिलाफ बहुत लिखते हैं। किन्तु लुटेरे पूँजीपतियों के खिलाफ वे कुछ नहीं लिखते। वामपंथ के खिलाफ वे लगातार झूँठा प्रचार करते रहते हैं। जबकि मौजूदा संसदीय लोकतंत्र में वामपंथ लगभग हासिये पर आ चुका है। इसी तरह चाहे वे हिंदुत्ववादी हों, चाहे वे इस्लामिक संकीर्णतावादी हों,चाहे वे सिमी के आतंकी हों या मध्यप्रदेश में पकडे गए 'हिन्दूआतंकी ' बनाम पाक - एजेंट हों ,इन सबके खिलाफ 'संघी बंधुओं ' ने शायद मौनव्रत ले रखा है। वैसे तो मोदी जी ,भागवत जी और शिवराज जी बहुत बड़े 'बोलू' हैं ,किन्तु इन एजंटों पर एक शब्द भी खर्च नहीं किया। तथाकथित जेल तोड़कर भागे और मुठभेड़ में मारे गए सिमी के बदमाशों में और एमपी में पकडे गए 'हिंदू ' पाकिस्तानी -एजेंटों में क्या अंतर है ? असल चोर-चोर मौसेरे भाई तो यही हैं। इन नापाक तत्वों पर कलम चलाने के बजाय केवल मेहनतकश मजदूरों और उनके जन आन्दोलनों के खिलाफ लिखने वाले सरासर बेईमान हैं !
मजहबी ,उन्मादी धर्मांध संकीर्णतावादियों के गुनाहों की सजा तो उनकी आस्ठा अनुसार उनका ईश्वर या अल्लाह ही देगा। लेकिन कोई 'नास्तिक' या स्वनामधन्य प्रगतिशील क्रांतिकारी व्यक्ति यदि किसी तरह का अनैतिक कर्म करताहै ,अथवा कोई आर्थिक ,सामाजिक या सांस्कृतिक कदाचरण करता है, तो उसे नियंत्रित कौन करेगा ? और यदि इस तरह के स्वच्छन्द लोगोंका 'मानव समाज'में बाहुल्य हो जाए तो उस खतरनाक अराजक हिंसक भीड़ को नियंत्रित कौन करेगा ? अभीतो मुठ्ठीभर नक्सलियों को नियंत्रित कर पानाही मुश्किल हो रहा है। अतीत के 'नैतिक -आध्यत्मिक मूल्यों' से ही यह सभ्य संसार कमोवेश नियंत्रित तो है। क्षमा,करुणा,दया,परहित,मैत्री,भ्रातृत्व ,अहिंसा इत्यादि धार्मिक-मजहबी मूल्यों से किसी भी देश या कौम का कोई नुकसान कभी नहीं हुआ। कुछ धर्म-मजहब तो 'आत्म नियंत्रण ' की प्रेरणा भी देते हैं। ये बात अलहदा है कि 'धर्म-मजहब'का राज्यसत्ताओं द्वारा दुरूपयोग किया जाता रहा है। किन्तु यह भी सच है कि किसी भी प्रशासन व्यवस्था में इतनी कूबत नहीं कि मनुष्य की 'पाशविक' सोचको नियंत्रित कर सके।कुछ मुठ्ठीभर 'नास्तिक' ही लेनिन,फ़ीडेल कास्त्रो, नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग, भगतसिंह ,नंबूदिरीपाद,बी टी रणदिवे, हरकिशन सुरजीत जैसे महान क्रांतिकारी हो सकते हैं। किन्तु आध्यात्मिक जगत में तो इन जैसे करोड़ों हो चुके हैं। अधिकान्स इस्लामिक खलीफाओं और सूफी संतों ने अपनी महान सोच से इंसानियत और इंसाफपरस्ती का ही सन्देश दिया है। अधिकांस पोप और फादर मानवतावादी रहे हैं वे प्रेम-और करुणा के झंडावरदार रहे हैं ।
भारतीय वेदांत सूत्रों के रचनाकार और चिंतक बहुत ही उच्चतर मानवीय सोच वाले हुए हैं। कुछ महान विद्वानों[ऋषियों] ने शानदार सिद्धांत पेश किये हैं। मानवता के लिए वेदांत दर्शन का यह सर्वोच्च सिद्धांत वेमिसाल है कि ''सर्वे भवन्तु सुखिनः ,सर्वे सन्तु निरामय,सर्वे भद्राणि मा कश्चिद दुःख भाग भवेत् ''अथवा 'वसुधैव कुटुम्बकम '!
जब कोई व्यक्ति अपने आपको नास्तिक कहता है तो उसे यह घोषित करना चाहिए कि जाने -अनजाने उसके द्वारा कोई अनैतिक कर्म हुआ है ,कोई असंवैधानिक कार्य हुआ है ,किसी व्यक्ति ,समाज,अथवा राष्ट्र का अपकार हुआ है तो उसका 'प्रायश्चित ' वह कैसे करेगा ?क्योंकि धर्म-मजहब तो दोतरफा प्रायश्चित का सन्धान रखते हैं।वे धर्म से तो शासित हैं लेकिन 'अर्जी' द्वारा भी शासित हैं। किन्तु नक्सलवादी जैसे नास्तिक तो धर्म और राज्यसत्ता दोनों के ही खिलाफ हैं। उन्हें कोई तो सिद्धांत पेश करना ही होगा। जो लोग फेसबुक ,ट्वीटर अथवा सोशल मीडिया पर पूरी शिद्दत और निष्ठा से, प्रतिबद्धता से धर्म-मजहब का विरोध करते हैं ! वे अपने आप से सवाल करें कि वे किस नीति और नियम से संचालित हैं। यदि कोई धर्म-मजहब में आस्था रखता है तो उसे कबीर तुकाराम, नानक,गाँधी जैसा होना पडेगा। यदि कोई नास्तिक है तो उसे बुद्ध,महावीर,मार्क्स,भगतसिंह जैसा होना पड़ेगा !
जब तलक देश और दुनिया में कोई यथेष्ट सर्वजनहितकारी,जनकल्याणकारी राज्य संचालन व्यवस्था कायम नहीं हो जाती,जब तक आदर्श नयायपालिका,आदर्श व्यवस्थापिका और आदर्श कार्यपालिका सुनिश्चित नहीं हो जाती,
जब तक आदर्श और उत्कृष्ट मानव समाज व्यवस्था स्थापित नहीं हो जाती ,जब तलक कोई विश्वसनीय और देश के अनुकूल महान 'क्रांति' नहीं हो जाती,तब तलक धर्म-मजहब और ईश्वर की प्रासंगिकता बनी रहेगी। जब तक सभी जन गण और राजनैतिक दल विधि अनुकूल आचरण नहीं करते,जब तक मनुष्य के शैतानी -खुरापाती मन को नियंत्रित करने की कोई अन्य कारगर वैज्ञानिक विधि का आविष्कार नहीं हो जाता ,तब तक तमाम मानवीय भाववादी नैतिक मूल्यों ,पुरातन आध्यात्मिक सिद्धांतों की प्रासंगिकता बनी रहेगी।यही सच्चा प्रगतिशील चिंतन है।
पुराने को ध्वस्त करने से पहले नए का निर्माण करना अभीष्ठ है। अपना हित -अनहित तो पशु पक्षी भी जानते हैं। पूस की रात हो ,कड़ाके की ठण्ड हो और रजाई में लम्पा चुभते हों तो उसे आग के हवाले नहीं करते। बल्कि हर लम्पा ढूंढकर अलग करते हैं। व्यवस्था में खोट हो तो उसे तब तक समूल उखाड़ना नादानी होगी, जब तक कोई मजबूत, विश्वशनीय वैकल्पिक मानवीय व्यवस्था का इंतजाम न हो जाए। यह काम न तो केवल आंदोलन से होगा, न पूँजीवाद और उसके स्टेक होल्डर्स को गरियाने होगा ! यह महत कार्य या तो सर्वहारा की तानशाही से सम्भव है या कोई ऐंसा तानशाह शासक बन जाए जो 'स्टालिन'जैसा महान हो !
भारतीय प्रगतिशील आंदोलन की परम्परा ने 'राष्ट्रवाद'के काल्पनिक खतरे के बरक्स आतंकवाद - अलगाववाद की हमेशा अनदेखी की है। ऐंसा लगता है कि वामपंथी जनवादी खेमें ने तालिवान ,अलकायदा, आईएसआईइस , सिमी ,आईएस,दुख्तराने हिन्द और जेकेएलएफ और अन्य कट्टरपंथी इस्लामिक संगठनों को भी प्रगतिशील और जनवादी मान लिया है ? जबकि इस्लामिक कट्टरवाद से भारत को सर्वाधिक खतरा है। 'संघ' भाजपा और मोदी जी को तो केवल 'वोट की और सत्ता की चिंता है। वे पूँजीवाद के पुर्जे मात्र हैं। उन्हें साम्प्रदायिक खतरे के रूप में बढ़चढकर दिखाना कोरी कल्पना है। उन्हें विपक्ष की एकजुट ताकत' से कभी भी घर बिठाया जा सकता है। भारत को असल खतरा पाकिस्तान और उसके द्वारा प्रेरित इस्लामिक आतंकवाद से ही है। चीन से भारत को कोई खतरा नहीं है। वह सिर्फ एक हौआ है। राजनैतिक स्तर पर वामपंथ के स्टेण्ड पर भी सवालिया निशान लग रहा है,कि इतनी कुर्बानियों के वावजूद न केवल हिन्दू बल्कि अल्पसंख्यक भी वामपंथ से दूर होते जा रहे हैं।
पिछली शताब्दी के उत्तरआधुनिक 'दलित विमर्शवादी' साहित्यकार बाज-मर्तबा पौराणिक प्रतीकों के प्रति अक्सर असंयत शब्दों का प्रयोग किया करते रहे हैं । न केवल वर्चुअल 'दलित विमर्श' को ही खाँटी प्रगतिशील मान लिया गया ,अपितु अर्ध-शिक्षित अविकसित साहित्यकार भी उनका अंधानुकरण करते रहे हैं। 'रामायण' में उल्लेखित 'शम्बूक बध' तथा 'ढोल गँवार शूद्र पशु नारी' और महाभारत में उल्लेखित एकलव्य की 'गुरु दक्षिणा' या अंगूठा दान जैसे उद्धरण को 'अकाट्य' प्रमाण मानकर वे अनजाने ही सम्पूर्ण पुरातन संस्कृत वांग्मय को लतियाते रहे। चूँकि इस नकारात्मक और घृणास्पद लेखन से भारतीय समाज में 'वर्ण संघर्ष' का होना सुनिश्चित था और इस 'वर्ण संघर्ष' से ब्रिटिश साम्राज्यवाद की स्वार्थ पूर्ती सुनिश्चित थी। इसलिए उन श्वेतवर्णी 'भारत भाग्य विधाताओं' ने दलित,सवर्ण ,अल्पसंख्यक,बहुसंख्यक शब्दों का बीजांकुरण किया। एक तरफ तो अंग्रेजों ने 'सवर्णों' दलितों को आपस में उलझाया। दूसरी ओर धर्म-मजहब के बहाने राष्ट्रीयता के नामपर हिंदुओं -मुस्लिमों को भी भिड़ा दिया।
क्रांतिकारी सोच में आकण्ठ डूबे दलित विमर्शवादी और प्रगतिशील जनवादी साहित्यकार भी सम्पूर्ण भारतीय पुरातन संस्कृत वांग्मय को न केवल गया गुजरा सिद्ध करते रहे अपितु उसे 'मनुवादी',अधम ,अपवित्र और शोषण का साधन सिद्ध करने में लगे रहे। 'हंस' के कुटिल संपादक राजेन्द्र यादव की तरह मेरे जैसे अनेक युवा तुर्क भी दशकों तक सामाजिक पिछड़ावाद ,दलितवाद,नारीवाद के कुटिल अभियान का प्रचेता रहे हैं। मार्टिन लूथर किंग की तरह अथवा नेल्सन मंडेला की तरह हमें किसी ने भी नहीं चेताया कि हम साम्राज्यवादियों की कठपुतली हैं। इसीलिये आजादी के बाद अंग्रेजतो चले गए किन्तु हिन्दू-मुस्लिम,दलित-सवर्ण के झगड़े की जड़ों को खूब मजबूत करके ही यहाँ से गए। कहने को तो भारत आजाद हो गया, किन्तु भारतवासी ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के चश्में से ही अपने पूर्वजों के हजारों साल के संघर्षको नकारात्मक नजर से देखते रहे। हम भारतके जनगण अपने शानदार अतीत के तमाम वैज्ञानिक अनुभवों को ,सांस्कृतिक और साहित्यिक धरोहर को 'मिथ'के रूप में विस्मृत करते हुए बार-बार केवल उन घटनाओं को कुरेदते रहे जिनसे समाजका विखण्डन होता रहे ! अधिकान्स प्रगतिशील कवि - लेखक साहित्यकार उत्तरआधुनिकता के बहाने समग्र पुरातन संस्कृत वांग्मय को हेय दृष्टि सेही देखते रहे।
अमेरिकन साम्राज्यवाद को इस भयानक नर संहार की प्रेरणा कहाँ से मिली ? ततकालीन अमेरिकन राष्ट्रपति और विदेश मंत्री दोनों कट्टर केथोलिक थे।'आस्तिक' होते हुए भी उन दिग्गज नेताओं ने परमाणु बमके घातक प्रयोग का जघन्य नरसंहार कैसे मंजूर किया ? क्योंकि उनका धर्म और उनकी आस्तिकता से भी ऊपर ,उनके अमेरिकन साम्राज्यवादी लूट के हित ज्यादा महत्वपूर्ण थे। तब तो मार्क्स की वह घोषणा अक्षरशः सही सावित हुई कि मजहब -रिलिजन को 'शोषक शासक वर्ग' एक टूल्स के रूप में इस्तेमाल करता है।और यह छद्म आस्तिकता ही 'जनता के लिए अफीम' है।कुछ सज्जन किस्म के भाववादी लेखक विद्वान एवम सन्त खुद कहते पाए गए हैं कि 'ईश्वर उन्ही की मदद करता है जो खुद अपने हितों की हिफाजत करते हैं।तो 'क्या ईश्वर पक्षपाती है? क्योंकि जब उसने देखाकि हिटलर ताकतवर है तो उसके साथ हो लिया ,जब उसने देखाकि अमेरिका ताकतवर है तो उसके साथ हो लिया। बेचारे आस्तिक जापान ने ईश्वर का क्या बिगाड़ा था कि उसे दूसरे विश्व युद्धमें अधमरा कर दिया।
स्मरण रहे कि हिरोशिमा -नागासाक़ी का भयानक नरसंहार यदि तत्कालिन 'सोवियत संघ' के हाथों हुआ होता , तो कितना गजब हो गया होता? गनीमत रही कि उस दौर के 'सोवियत संघ' ने तानाशाह हिटलर की ताकत को ध्वस्त किया । इसीलिये तो क्रेमलिन ही दुनिया की तमाम शांतिकामी जनता की आशाओं का केंद्र बन चुका था। यदि अमेरिका की जगह यही जघन्य अपराध इस्लामिक आतंकियों ने, नक्सलियों ने अथवा चीन जैसे कम्युनिस्ट देश ने किया होता तो कितना गजब हो गया होता?
इस दौर के 'छद्म राष्ट्रवादी' और सांप्रदायिक तत्व सत्ता में होने के वावजूद आतंकवाद का कुछ नहीं बिगाड़ पाए! 'नोटबन्दी' का एक प्रमुख लाभ यह भी बताया गया था कि कश्मीर में आतंकवाद समाप्त हो जाएगा !लेकिन अब तो कश्मीर के हालात इतने खराब हैं कि देश के सेना प्रमुख को खुद मोर्चा संभालना पड़ रहा है।यदि देश की चुनी हुई सरकारें अपने हिस्से का दायित्व निर्वहन में विफल हैं तो उनके होने का औचित्य क्या है ?यदि सेना को ही सब कुछ करना है, तो यह अरबों रुपया चुनावों में क्यों बर्बाद किया जा रहा है ?क्या सरकारी तामझाम केवल जुमलों और मसखरी के लिए है ? मूर्खतापूर्ण नोटबन्दी का दूसरा लाभ यह भी बताया गया था कि अब नक्सलवाद खत्म हो जाएगा। सभी जानते हैं कि नक्सलवादकी वजह गरीबी और शोषणहै। इस पूँजीवादी सामंती व्यवस्था का प्रमुख लक्षण है कि शोषण होता रहेगा।और शोषण जब तक जारीहै तब तक नक्सलवाद का सफाया असम्भव है।
आईएसआई और पाकिस्तान परस्त आतंकियों का ,कश्मीरी अलगावादियों और नक्सलियों का अभी तक कोई खास निदान नहीं हुआ है। एमपी पुलिस ने अवश्य सिमी के भगोड़ों को मारकर कुछ सफलता अर्जित की, किन्तु केंद्र सरकार और उनके समर्थकों ने क्या किया? हरियाणा में एक निर्दोष अखलाख को क्या मार दिया और अपने आपको बड़ा राष्ट्रभक्त समझने लगे !केरल में हिंदुत्ववादी ,ईसाई और इस्लामिक कट्टरपंथी तत्व, सबके सब आये दिन हंगामा खड़ा करते रहते हैं. सीपीएम को बदनाम करते हैं। जब बंगाल में सीपीएम का शासन था ,तब तमाम हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक गुंडों ने एक साथ मिलकर सिंगुर के बहाने ममता नामक उजबक 'बिल्ली' को खूब दूध पिलाया। विगत दिनों इस बिल्ली ने केंद्र सरकार और उसके मुखिया मोदीजी की खूब खिल्ली उड़ाई।बंगाल के आतंकियों की सरगना ममता बेनर्जी को ताकतवर बनानें में हिंदुत्ववादियों का योगदान उल्लेखनीय है। लेकिन वह 'वीरांगना'अब मुस्लिम कट्टरपन्थियों की सरपरस्त कहलाती है।ममता बेनर्जी इन दिनों हिन्दुत्वादियों की खूब लानत -मलानत किये जा रही है। इस आस्तिक ममता ने बंगाल को बर्बाद कर दिया। जबकि सीपीएम के राज में बंगाल 'धर्मनिपेक्षता' का पवित्र तीर्थ बन चुका था। वेशक वामपंथ ने धर्म-मजहब से कुछ दूरी बनाये रखी लेकिन राजनीति में उसका दुरूपयोग रोककर मानवीय मूल्यों की और संविधान की हिफाजत की यही क्या कम है ?
महान 'आस्तिक' एवम फ़्यूहरर एडोल्फ हिटलर ने यहूदियों का जितना नरसंहार कराया ,उतना मानव सभ्यताके इतिहास में शायद भारतीय हिंदुओं के अलावा और किसी कौम का नहीं हुआ। जिस तरह हिटलर ने सत्ता प्राप्ति लिए आर्य श्रेष्ठता के बहाने विजातीय और विधर्मी यहूदियों के खिलाफ जर्मन नस्लवाद उभारा और यहूदियों को मरवाया ,उसी तरह कासिम,गजनवी ,गौरी, तुगलक,खिलजी,तुर्क,पठान,अफगान,मंगोल [मुगलवंश]हमलावरों ने भारत की सत्ता पर काबिज रहने के लिए 'दीन-ऐ-इस्लाम' का लगातार दुरूपयोग किया। उन्होंने तथाकथित उन काफिरों को भी मरवा दिया जो वेचारे पहले से ही एक अति उन्नत मानवीय सभ्यता और संस्कृति के सम्वाहक थे। सभी इस्लामिक हमलावरों ने घोर साम्प्रदायिकता का बेजा इस्तेमाल किया।
चूँकि भारत एक महान 'आस्तिक' और अहिंसा प्रधान देश रहा है। इसके सामजिक,आर्थिक और राजनैतिक मूल्य भिक्षुकवाद ,कमण्डलवाद ,कर्मफलवाद से ही प्रेरित थे। इन मूल्यों की वजह से ही भारतीय उपमहाद्वीप सदियों तक गुलाम रहा है।कुछ लोग यह तर्क देते रहते हैं कि भारत राष्ट्र तो पहले था ही नहीं। लेकिन वे भूल जाते हैं कि ततकालीन दुनिया में जितने भी देश अथवा साम्राज्य थे, वे अपने तत्कालीन स्वरूप में अब कहीं नही रहे। महान शायर इकबाल ने भी फ़रमाया है ''यूनान ओ रोम मिट गए जहाँ से,लेकिन बाकी रहा है केवल हिन्दोस्तां हमारा '' !वेशक अंग्रेजोंने और पूँजीवादी वैज्ञानिक विकास ने भारत को एक किया। किन्तु गुलाम बनाकर उन्होंने लूटा भी। सवाल यह है कि जो पहले वाले इस्लामिक हमलावर कबीले थे ,या उनसे भी पहले वाले शक हूँण और कुषाण हमलावर कबीले थे,क्या वे अमन के पुजारी थे ? क्या वे सभी अपने हाथों में तलवार की जगह फूल लेकर प्यार लुटाने इस भारत भूमि पर आये थे ? क्या सिंध नरेश दाहिरसेन और उसके परिवार का क़त्ल केवल कोरी गप्प है ?क्या पृथ्वीराज चौहान के साथ दगा नहीं हुआ ?क्या उसका और जयचन्द का इतिहास मिथहै ?क्या बाकई लाखों हिंदुओं,सिखों,और खास तौर से ब्राह्मणों का कत्ल नहीं हुआ? इन सवालों से आँखें नहीं फेरी जा सकतीं! प्रत्येक वामपंथी और प्रगतिशील व्यक्ति को सही इतिहास का ज्ञान होना चाहिए ,तभी वह किसी तरह के अहम और सकारात्मक बदलाव का हिसा बन सकता है।
भारत में इस्लाम के आगमन से पहले भले ही यह सदियों तक देशी सामन्तों और राजाओं द्वारा शासित रहा है , किन्तु ततकालीन सामंती भारत में भी हरिश्चंद्र श्रीराम और चोल राजाओं जैसे महान शासक हुए हैं। भले ही वे आपस में कभी महाभारत ,कभी कलिंग युद्ध ,कभी अश्वमेध ,कभी राजसूय यज्ञ के नाम पर युद्ध करते रहेहों किन्तु उन्होंने कभी किसी अन्य कौम या राष्ट्र पर हमला नहीं किया। कभी किसी का जबरन धर्मान्तरण भी नहीं कराया। वेशक कुछ बौद्ध राजाओं ने अवश्य ब्राह्मणों को मरवाया ,किन्तु बौद्ध भिक्षुओं ने दूर-दूर देशों में जाकर अपनी बुद्धि और विवेक से ही धर्मचक्र प्रवर्तन किया। निसन्देह कुछ लोग मेरी इस ऐतिहासिक स्थापना से सहमत नहीं होंगे और वे प्रमाण भी मांगेंगे। उनसे मेरा विनम्र निवेदन है कि मैं आरएसएसका समर्थक नहीं हूँ। किन्तु यदि कोई आरएसएस वाला कहेगा कि सूर्य पूर्व से उदित होता है तो मैं इतना महान प्रगतिशील या क्रांतिकारी नहीं की उसे झुटला सकूँ !और कहूँ कि सूर्य पश्चिम से उदित होता है।
मलिक काफूर लेकर अहमदशाह अब्दाली तक जितने भी हमले भारत पर हुए उनमें तीन प्रमुख तत्व रहे हैं।एक-हिदू,जैन और बौद्ध धर्म के पूजा स्थलों का ध्वस्त किया जाना। दूसरा -पराजित हिन्दू राजाओं की रानियों और राजकुमारियों को अपने हरम में शामिल करना। तीसरा -सोना,चाँदी ,हाथी, घोड़े और जमीन हथियाना। कुछ लोग कहेंगे कि आप अपने इस कथन का प्रमाण दो ! उन्हें एतद द्वारा सूचित किया जाता है कि गूगल सर्च पर वर्नियर ,वर्नी ,अलवरुनी,ह्वेनसांग ,फाह्यान,मेगास्थनीज, यूक्लिड , बाबरनामा ,अकबरनामा,आइन -ए-अकबरी जो चाहें उसे सर्च करें।और केवल इतिहास के लेखक को ही नहीं बल्कि उन तमाम बदमाश और हरामखोर अंग्रेज इतिहासकारों को भी सर्च करें जिन्होंने उनके चश्में से भारतका इतिहास लिखा है। गलत इतिहास लिखने वाले टुच्चे इतिहासकारों को सौ जूते मारे जाने चाहिए। जिन्हें लगता है कि मेरी [श्रीराम तिवारी]की सैद्धान्तिक स्थापना का कोई वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं है ,वे अपना विकल्प रखें ,उनका स्वागत है। किन्तु उनसे निवेदन है कि जिन्होंने भारत पर हमले किये उन आक्रांताओं द्वारा लिखित इतिहास को वे कदापि उधृत न करे। क्योंकि यह कौन नहीं जानता कि विजेता व्यक्ति या कौम तो वही लिख्नेगे जो उनके 'मन' का हो। वैसे भी अतीत का सम्पूर्ण लिखित इतिहास केवल विजेता शासकों की ऐय्यासी और लूट का ही इतिहास है। विजित ,शोषित,पीड़ित और पराधीन कौम के वास्तविक इतिहास का अन्वेषण करना हरेक सच्चे प्रगतिशील साहित्यकार का दायित्व है।
जब रोम जल रहा था, पीट्सबर्ग से लेकर डायमंड हार्वर तक और हिरोशिमा से लेकर नागासाकी तक चारों ओर परमाणुविक आग की लपटें आसमान छू रहीं थीं ,तब यूरोप -अरब के धर्म-मजहब वाले खूंखार धर्मान्ध लोग उस आग से क्यों खेल रहे थे?और तब गॉड,अल्लाह और ईश्वर एवम आस्तिकता सब मौन क्यों रहे? इस तरह की ही जघन्य घटनाओं से प्रेरित होकर 'कार्ल मार्क्स' ने कहा कि 'धर्म एक अफीम है',बादमें संसार के तमाम प्रगतिशील लेखकों, साहित्यकारों और कवियों ने मार्क्स के उस महान आप्त वाक्य की ऐंसी तैसी ही कर डाली।' धर्म एक अफीम है' के सीधे सरल वाक्य की कुछ इस तरह सैद्धांतिक और वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत की मानों नास्तिकता का बीजारोपण कर डाला हो। वास्तव में मार्क्स का यह अभिप्राय कदापि नहीं था.उन्होंने बाइबिल और कुरान तो पढ़ लिया होगा ,किन्तु वेद-वेदांत और उपनिषद उन्हेंपढ़ने को नहीं मिले। हालांकि मार्क्स वैदिक कालीन समाज व्यवस्था के वे प्रशंसक थे। उन्होंने आदिम साम्यवादी व्यवस्था वाले चेप्टर में भारतीय वैदिक समाज को आदिम साम्यवादी माना है। लेकिन उनके कतिपय तर्कवादी और विज्ञानवादी अनुयाइयों ने समझा, कि धर्म मजहब सब गलत हैं! या कि ईश्वरका अस्तित्व ही नहीं है। बल्कि मार्क्स ने 'धर्म -मजहब' के उस विकृत रूप और विचलन पर कटाक्ष किया था जो हर दौर में और इन दिनों भी पाखण्डवाद और आतंकवाद के रूप में दुनिया को भरमाने में जुटा है। इस दौर के अधिकांस धर्मगुरु पूँजीवाद की चरण रज में भूलुंठित हो रहे हैं ।
दुनिया में जब-जब कोई नया धर्म-दर्शन आया तो आवाम ने उसे हाथो-हाथ सिर -माथे लिया। लेकिन अनैतिक तत्व बाकायदा फलते फूलते रहे ।हर पढ़ा लिखा इंसान बखूबी जानता है कि अरब और पश्चिम मध्य एशियाई इस्लामिक राष्ट्रों के बर्बर लोगों ने कभी भी सच्चे 'इस्लाम' का अनुशरण नहीं किया।कभी सिया -सुन्नी ,कभी बहावी बनाम गैर बहावी का द्वंद चलता ही रहा।मुहम्मद साहब ने जो मजहब इंसान के भले के लिए और अमन के लिए बनाया था,वह इंसानियत का दुश्मन कैसे हो गया ? यूरोप अमेरिका में और समूचे ब्रिटिश साम्राज्य की हुकूमत पर महान धर्म गुरु पोप की धाक रही है ,किन्तु सारा ईसाई जगत केथोलिक बनाम आर्थोडोक्स के बहाने दो हजार साल तक आपस में क्यों लड़ता-मरता रहा?भारत का अहिंसावाद तो सारे संसार में जाहिर है ,किन्तु वह इतना महान धार्मिक और ईश्वरवादी होते भी सदियों तक गुलाम क्यों रहा ?क्यों भारत के सभ्य सुशील लोगों को असभ्य और बर्बर कबीलों का शिकार होना पड़ा ? इस प्रश्न का उत्तर सब जानते हैं लेकिन जिनके मन में चोर है वे कुतर्क देंगे कि अंग्रेजों ने गलत इतिहास पढ़ाया !कुछ कह्नेगे कि गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या फायदा ?लेकिन अतीत में पराजित कौम से जो चूक हुई है,उसे यह अवश्य जानना ही होगा कि सच्चाई क्या है ?
आजादी के बाद भारतीय संविधान ने अहिंसा सिद्धांत पर आधारित 'धम्मचक्र प्रवर्तन 'को ही राज्य चिन्ह माना है।वेशक प्राचीन भारत में नास्तिक मत को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था ,क्योंकि न केवल सत्यकाम जाबालि कणाद,कश्यप,और कपिल जैसे विद्वान 'नास्तिक' थे। बल्कि श्रीकृष्ण ,बलराम से लेकर सारे द्वारकावासी भी नास्तिक थे ,तभी तो उन्होंने एक ब्राह्मण को अपमानित किया और कुटुंब सहित बरबाद हो गए । किन्तु यूरोप के [एथेस्ट ] नास्तिक और इस्लाम के काफिर शब्द ने भारतीय षड दर्शन को कन्फ्यूज कर दिया। वे केवल चार्वाक को ही उद्धृत करते रहे ,जबकि दुनिया बहुत आगे निकल गई। यूरोप वाले रेल लाये टेलीफोन लाये और चाँद मंगल पर पहुँच। गए। हम केवल उनकी नकल करते हुए आगे बढ़ रहे हैं। किन्तु धर्म संस्कृति और इतिहास में नकल नहीं चलती ,उसे खुद गढ़ना होता है। इक्कसवीं शताब्दी में भी धर्मान्ध हिन्दू मुस्लिम 'नास्तिक' दर्शन की गलत व्याख्या करते रहते हैं। उनकी समझ इतनी भर है कि सिर्फ उनका धर्मश्रेष्ठ है और दूसरे का धर्म बेकार की चीज है।वे नहीं जानना चाहते कि यह सब वक्त -वक्त की मानवीय ईजाद है, दूसरी कई चीजों की तरह ही धर्म- मजहब के बिना भी इंसान बेहतर जीवन जी सकता है।
न केवल न केवल 'संघ' के लोग बल्कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी भी यही समझ रखते हैं ,इसलिए उन्होंने अभी एक चुनावी आम सभा में चार्वाक का मजाक उड़ाया। जबकि विगत २६ जनवरी -२०१७ को सऊदी अरबके 'प्रिंस' को चीफ गेस्ट बनाया। क्या मोदी जी को नहीं मालूम कि चार्वाक शुद्ध हिन्दू और सनातनी सिद्धांत है ?उन्हें सऊदी अरब के प्रिंस की फ़िक्र है किन्तु सनातन धर्म के एक प्रगतिशील जनवादी सिद्धांत की फ़िक्र नहीं,क्यों ?जबकि वे आस्तिकता की और हिंदुत्व की रोजगारी पाकर प्रधान मंत्री बने हुए हैं। इसी तरह पाकिस्तान के जेहादी संकीर्ण राष्ट्रवादियों -कट्टरपंथियों ने भी खुद तो काफिराना कुकर्म किये हैं ,भारत में पैदा हुए 'दाऊद 'जैसे भगोड़े तत्वों को शरण दी ,हमेशा भारत की जड़ों में मठ्ठा डाला और इस्लामपरस्ती के अलंबरदार बने बैठे हैं। उन्होंने इस्लाम का कितना भला किया यह तो वे ही जाने,किन्तु उन्होंने उसे रुसवा अवश्य किया है उसकी तौहीन भी की है।
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कश्मीरी पत्थरबाज -आतंकियों ने और सिमी के बिगड़ैल तत्वोंने 'जेहाद' और इस्लाम को बहुत बदनाम किया है। इन सभी इस्लामिक मजहबी संगठनों की करतूतों के प्रतिक्रियास्वरूप भारत में 'हिंदुत्ववादियों' को देशकी सत्ता नसीब हुई है। इधर संघ के इंद्रेशकुमार से लेकर खुद मोहन भागवत तक अपने 'पुराने एजेण्डे' को भूल चुके हैं। अब उन्हें हर मुसलमान आतंकी नहीं दिखता,बल्कि वे तो कट्टरपंथी मुसलमानों के शुक्र गुजार हैं कि उन्ही की बदौलत बहुसंख्यक हिन्दू समाज का राजनैतिक धुर्वीकरण हो सका। दरसल देश की बहुमत जनता का -भाजपा या मोदी जी को जनादेश नहीं मिला,बल्कि 'स्ट्रेटजिक वोटिंग'से उन्होंने बहुसंख्यक हिन्दू समाज के अधिकांस वोट हासिल किये हैं। पाकिस्तानपरस्त आतंकियोंकी 'हिन्दू विरोधी' हरकतों ने ,भारत के अंदर मजहबी कट्टरतावाद ने और भारत के रक्तरंजित मजहबी इतिहास ने बहुसंख्यक हिन्दू समाज को भाजपा और संघ की मांद में जबरन धकेल दिया है। 'संघ परिवार' के प्रसादपर्यंत मोदी सरकार को केंद्र में जो जनादेश मिला है, जनता ने वह विकास -वादी झाँसों , जुमलों या नेताओं के शूट-बूट को देखकर नहीं दिया है। बल्कि भारतीय युवा पीढी ने अपने दौर की साम्प्रदायिक घटनाओं और कश्मीर में हो रही पत्थरबाजी का सिंहावलोकन करते हुए यह आत्मघाती कदम आगे बढ़ाया है। यह स्थिति चिंताजनक है !चिंताजनक इस अर्थ में कि इस दौर में रोजगार ,शिक्षा,स्वास्थ्य और व्यवस्था -जन्य दोषों पर बात करना,धर्मनिरपेक्षता औरअभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बात करना, देशद्रोह माना जा रहा है।
डिजिटल और सोशल मीडिया पर हिंदूवादी संगठनों के लोग वामपंथ के खिलाफ बहुत लिखते हैं। किन्तु लुटेरे पूँजीपतियों के खिलाफ वे कुछ नहीं लिखते। वामपंथ के खिलाफ वे लगातार झूँठा प्रचार करते रहते हैं। जबकि मौजूदा संसदीय लोकतंत्र में वामपंथ लगभग हासिये पर आ चुका है। इसी तरह चाहे वे हिंदुत्ववादी हों, चाहे वे इस्लामिक संकीर्णतावादी हों,चाहे वे सिमी के आतंकी हों या मध्यप्रदेश में पकडे गए 'हिन्दूआतंकी ' बनाम पाक - एजेंट हों ,इन सबके खिलाफ 'संघी बंधुओं ' ने शायद मौनव्रत ले रखा है। वैसे तो मोदी जी ,भागवत जी और शिवराज जी बहुत बड़े 'बोलू' हैं ,किन्तु इन एजंटों पर एक शब्द भी खर्च नहीं किया। तथाकथित जेल तोड़कर भागे और मुठभेड़ में मारे गए सिमी के बदमाशों में और एमपी में पकडे गए 'हिंदू ' पाकिस्तानी -एजेंटों में क्या अंतर है ? असल चोर-चोर मौसेरे भाई तो यही हैं। इन नापाक तत्वों पर कलम चलाने के बजाय केवल मेहनतकश मजदूरों और उनके जन आन्दोलनों के खिलाफ लिखने वाले सरासर बेईमान हैं !
मजहबी ,उन्मादी धर्मांध संकीर्णतावादियों के गुनाहों की सजा तो उनकी आस्ठा अनुसार उनका ईश्वर या अल्लाह ही देगा। लेकिन कोई 'नास्तिक' या स्वनामधन्य प्रगतिशील क्रांतिकारी व्यक्ति यदि किसी तरह का अनैतिक कर्म करताहै ,अथवा कोई आर्थिक ,सामाजिक या सांस्कृतिक कदाचरण करता है, तो उसे नियंत्रित कौन करेगा ? और यदि इस तरह के स्वच्छन्द लोगोंका 'मानव समाज'में बाहुल्य हो जाए तो उस खतरनाक अराजक हिंसक भीड़ को नियंत्रित कौन करेगा ? अभीतो मुठ्ठीभर नक्सलियों को नियंत्रित कर पानाही मुश्किल हो रहा है। अतीत के 'नैतिक -आध्यत्मिक मूल्यों' से ही यह सभ्य संसार कमोवेश नियंत्रित तो है। क्षमा,करुणा,दया,परहित,मैत्री,भ्रातृत्व ,अहिंसा इत्यादि धार्मिक-मजहबी मूल्यों से किसी भी देश या कौम का कोई नुकसान कभी नहीं हुआ। कुछ धर्म-मजहब तो 'आत्म नियंत्रण ' की प्रेरणा भी देते हैं। ये बात अलहदा है कि 'धर्म-मजहब'का राज्यसत्ताओं द्वारा दुरूपयोग किया जाता रहा है। किन्तु यह भी सच है कि किसी भी प्रशासन व्यवस्था में इतनी कूबत नहीं कि मनुष्य की 'पाशविक' सोचको नियंत्रित कर सके।कुछ मुठ्ठीभर 'नास्तिक' ही लेनिन,फ़ीडेल कास्त्रो, नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग, भगतसिंह ,नंबूदिरीपाद,बी टी रणदिवे, हरकिशन सुरजीत जैसे महान क्रांतिकारी हो सकते हैं। किन्तु आध्यात्मिक जगत में तो इन जैसे करोड़ों हो चुके हैं। अधिकान्स इस्लामिक खलीफाओं और सूफी संतों ने अपनी महान सोच से इंसानियत और इंसाफपरस्ती का ही सन्देश दिया है। अधिकांस पोप और फादर मानवतावादी रहे हैं वे प्रेम-और करुणा के झंडावरदार रहे हैं ।
भारतीय वेदांत सूत्रों के रचनाकार और चिंतक बहुत ही उच्चतर मानवीय सोच वाले हुए हैं। कुछ महान विद्वानों[ऋषियों] ने शानदार सिद्धांत पेश किये हैं। मानवता के लिए वेदांत दर्शन का यह सर्वोच्च सिद्धांत वेमिसाल है कि ''सर्वे भवन्तु सुखिनः ,सर्वे सन्तु निरामय,सर्वे भद्राणि मा कश्चिद दुःख भाग भवेत् ''अथवा 'वसुधैव कुटुम्बकम '!
जब कोई व्यक्ति अपने आपको नास्तिक कहता है तो उसे यह घोषित करना चाहिए कि जाने -अनजाने उसके द्वारा कोई अनैतिक कर्म हुआ है ,कोई असंवैधानिक कार्य हुआ है ,किसी व्यक्ति ,समाज,अथवा राष्ट्र का अपकार हुआ है तो उसका 'प्रायश्चित ' वह कैसे करेगा ?क्योंकि धर्म-मजहब तो दोतरफा प्रायश्चित का सन्धान रखते हैं।वे धर्म से तो शासित हैं लेकिन 'अर्जी' द्वारा भी शासित हैं। किन्तु नक्सलवादी जैसे नास्तिक तो धर्म और राज्यसत्ता दोनों के ही खिलाफ हैं। उन्हें कोई तो सिद्धांत पेश करना ही होगा। जो लोग फेसबुक ,ट्वीटर अथवा सोशल मीडिया पर पूरी शिद्दत और निष्ठा से, प्रतिबद्धता से धर्म-मजहब का विरोध करते हैं ! वे अपने आप से सवाल करें कि वे किस नीति और नियम से संचालित हैं। यदि कोई धर्म-मजहब में आस्था रखता है तो उसे कबीर तुकाराम, नानक,गाँधी जैसा होना पडेगा। यदि कोई नास्तिक है तो उसे बुद्ध,महावीर,मार्क्स,भगतसिंह जैसा होना पड़ेगा !
जब तलक देश और दुनिया में कोई यथेष्ट सर्वजनहितकारी,जनकल्याणकारी राज्य संचालन व्यवस्था कायम नहीं हो जाती,जब तक आदर्श नयायपालिका,आदर्श व्यवस्थापिका और आदर्श कार्यपालिका सुनिश्चित नहीं हो जाती,
जब तक आदर्श और उत्कृष्ट मानव समाज व्यवस्था स्थापित नहीं हो जाती ,जब तलक कोई विश्वसनीय और देश के अनुकूल महान 'क्रांति' नहीं हो जाती,तब तलक धर्म-मजहब और ईश्वर की प्रासंगिकता बनी रहेगी। जब तक सभी जन गण और राजनैतिक दल विधि अनुकूल आचरण नहीं करते,जब तक मनुष्य के शैतानी -खुरापाती मन को नियंत्रित करने की कोई अन्य कारगर वैज्ञानिक विधि का आविष्कार नहीं हो जाता ,तब तक तमाम मानवीय भाववादी नैतिक मूल्यों ,पुरातन आध्यात्मिक सिद्धांतों की प्रासंगिकता बनी रहेगी।यही सच्चा प्रगतिशील चिंतन है।
पुराने को ध्वस्त करने से पहले नए का निर्माण करना अभीष्ठ है। अपना हित -अनहित तो पशु पक्षी भी जानते हैं। पूस की रात हो ,कड़ाके की ठण्ड हो और रजाई में लम्पा चुभते हों तो उसे आग के हवाले नहीं करते। बल्कि हर लम्पा ढूंढकर अलग करते हैं। व्यवस्था में खोट हो तो उसे तब तक समूल उखाड़ना नादानी होगी, जब तक कोई मजबूत, विश्वशनीय वैकल्पिक मानवीय व्यवस्था का इंतजाम न हो जाए। यह काम न तो केवल आंदोलन से होगा, न पूँजीवाद और उसके स्टेक होल्डर्स को गरियाने होगा ! यह महत कार्य या तो सर्वहारा की तानशाही से सम्भव है या कोई ऐंसा तानशाह शासक बन जाए जो 'स्टालिन'जैसा महान हो !
भारतीय प्रगतिशील आंदोलन की परम्परा ने 'राष्ट्रवाद'के काल्पनिक खतरे के बरक्स आतंकवाद - अलगाववाद की हमेशा अनदेखी की है। ऐंसा लगता है कि वामपंथी जनवादी खेमें ने तालिवान ,अलकायदा, आईएसआईइस , सिमी ,आईएस,दुख्तराने हिन्द और जेकेएलएफ और अन्य कट्टरपंथी इस्लामिक संगठनों को भी प्रगतिशील और जनवादी मान लिया है ? जबकि इस्लामिक कट्टरवाद से भारत को सर्वाधिक खतरा है। 'संघ' भाजपा और मोदी जी को तो केवल 'वोट की और सत्ता की चिंता है। वे पूँजीवाद के पुर्जे मात्र हैं। उन्हें साम्प्रदायिक खतरे के रूप में बढ़चढकर दिखाना कोरी कल्पना है। उन्हें विपक्ष की एकजुट ताकत' से कभी भी घर बिठाया जा सकता है। भारत को असल खतरा पाकिस्तान और उसके द्वारा प्रेरित इस्लामिक आतंकवाद से ही है। चीन से भारत को कोई खतरा नहीं है। वह सिर्फ एक हौआ है। राजनैतिक स्तर पर वामपंथ के स्टेण्ड पर भी सवालिया निशान लग रहा है,कि इतनी कुर्बानियों के वावजूद न केवल हिन्दू बल्कि अल्पसंख्यक भी वामपंथ से दूर होते जा रहे हैं।
पिछली शताब्दी के उत्तरआधुनिक 'दलित विमर्शवादी' साहित्यकार बाज-मर्तबा पौराणिक प्रतीकों के प्रति अक्सर असंयत शब्दों का प्रयोग किया करते रहे हैं । न केवल वर्चुअल 'दलित विमर्श' को ही खाँटी प्रगतिशील मान लिया गया ,अपितु अर्ध-शिक्षित अविकसित साहित्यकार भी उनका अंधानुकरण करते रहे हैं। 'रामायण' में उल्लेखित 'शम्बूक बध' तथा 'ढोल गँवार शूद्र पशु नारी' और महाभारत में उल्लेखित एकलव्य की 'गुरु दक्षिणा' या अंगूठा दान जैसे उद्धरण को 'अकाट्य' प्रमाण मानकर वे अनजाने ही सम्पूर्ण पुरातन संस्कृत वांग्मय को लतियाते रहे। चूँकि इस नकारात्मक और घृणास्पद लेखन से भारतीय समाज में 'वर्ण संघर्ष' का होना सुनिश्चित था और इस 'वर्ण संघर्ष' से ब्रिटिश साम्राज्यवाद की स्वार्थ पूर्ती सुनिश्चित थी। इसलिए उन श्वेतवर्णी 'भारत भाग्य विधाताओं' ने दलित,सवर्ण ,अल्पसंख्यक,बहुसंख्यक शब्दों का बीजांकुरण किया। एक तरफ तो अंग्रेजों ने 'सवर्णों' दलितों को आपस में उलझाया। दूसरी ओर धर्म-मजहब के बहाने राष्ट्रीयता के नामपर हिंदुओं -मुस्लिमों को भी भिड़ा दिया।
क्रांतिकारी सोच में आकण्ठ डूबे दलित विमर्शवादी और प्रगतिशील जनवादी साहित्यकार भी सम्पूर्ण भारतीय पुरातन संस्कृत वांग्मय को न केवल गया गुजरा सिद्ध करते रहे अपितु उसे 'मनुवादी',अधम ,अपवित्र और शोषण का साधन सिद्ध करने में लगे रहे। 'हंस' के कुटिल संपादक राजेन्द्र यादव की तरह मेरे जैसे अनेक युवा तुर्क भी दशकों तक सामाजिक पिछड़ावाद ,दलितवाद,नारीवाद के कुटिल अभियान का प्रचेता रहे हैं। मार्टिन लूथर किंग की तरह अथवा नेल्सन मंडेला की तरह हमें किसी ने भी नहीं चेताया कि हम साम्राज्यवादियों की कठपुतली हैं। इसीलिये आजादी के बाद अंग्रेजतो चले गए किन्तु हिन्दू-मुस्लिम,दलित-सवर्ण के झगड़े की जड़ों को खूब मजबूत करके ही यहाँ से गए। कहने को तो भारत आजाद हो गया, किन्तु भारतवासी ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के चश्में से ही अपने पूर्वजों के हजारों साल के संघर्षको नकारात्मक नजर से देखते रहे। हम भारतके जनगण अपने शानदार अतीत के तमाम वैज्ञानिक अनुभवों को ,सांस्कृतिक और साहित्यिक धरोहर को 'मिथ'के रूप में विस्मृत करते हुए बार-बार केवल उन घटनाओं को कुरेदते रहे जिनसे समाजका विखण्डन होता रहे ! अधिकान्स प्रगतिशील कवि - लेखक साहित्यकार उत्तरआधुनिकता के बहाने समग्र पुरातन संस्कृत वांग्मय को हेय दृष्टि सेही देखते रहे।
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