रविवार, 24 मार्च 2013

हिन्दी क्षेत्र की चुनोतियाँ ओर उसके अददतन विमर्श



         



     डिजिटल नेटवर्क ,इलेक्ट्रोनिक मीडिया, इन्टरनेट,ब्राड-बेंड ,सोशल-मीडिया,प्रिंट-श्रव्य-दृश्य तमाम
       तरह के परम्परागत और अधुनातन संप्रेष्य माध्यमों  के पुरजोर दोहन के वावजूद वैश्विक क्षितिज
       पर भारतीय जनता का बहुत बड़ा हिस्सा-जिसे  जन-साधारण या आम आदमी  भी कहते हैं ,अपने हिस्से के -जंगल-जमीन-और  आसमान से इस 2 1  वीं शताब्दी में भी  महरूम है. साहित्यिक परिद्रश्य में भी उसे हासिये पर धकेल दिया गया है.  बकौल डॉ रामविलाश शर्मा - 'हिंदी जाति'  के  दमन-शोषण-उत्पीडन  के कारक उसकी सामंत युगीन मानसिकता और नव्य -आर्थिक  उदारीकरण के बीजक में मौजूद हैं .....!
    
                                                   हो सकता है की  कुछ क्षेत्रीय भाषाओँ के उदयगान में आम आदमी और उसके  सामाजिक-राजनैतिक,आर्थिक और साहित्यिक सरोकार परवान चढ़े हों किन्तु हिंदी क्षेत्र या यों कहें की
 "हिंदी-भारत" में तो न केवल आम आदमी बल्कि तथाकथित 'खास' और  सभ्रांत लोक अर्थात ' भद्रलोकीय' जन-मानंस भी  अपने आपको  इस २ १  वीं  शताब्दी के दूसरे  दशक के  लागू होने तक -प्रतिबिंबित नहीं कर पाया है.
   इस सिलसिले में मैं अपना निजी अनुभव साझा करना  उचित समझता हूँ :-
                            
        एक राष्ट्रीय 'श्रम संगठन' को अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी के साथ मिलकर   पूरे राष्ट्र के कोने-कोने में
    बाकायदा अपनी वैचारिक शिद्दत के साथ स्थापित कराने में मेरा कुछ साहित्यिक किस्म के लोगों से भी  मिलना -जुलना होता रहा  है  .सांगठनिक सम्मेलनों -सेमिनारों अथवा अधिवेशनों  में अपनी विभागीय और पूर्व घोषित कार्यसूची के आलावा 'भाषा-साहित्य-संगीत और कला' के लिए भी  हमारे आयोजक  बहुत गंभीर और उत्साही तो होते ही थे, वे यह प्राणपन से यह सावित करने में भी  जुट जाते थे कि यदि मुंबई वालों ने इतना किया ,तो हम चेन्नई वाले उनसे कम नहीं ....और कोलकाता  वाले भी  उनसे कम नहीं ...और लुधियाना वाले उनसे ज्यादा साहित्यिक -सांस्कृतिक हैं  तो इंदौर वाले या लखनऊ वाले बेंगलुरु से कम नहीं। लुब्बो-लुआब ये की कोई किसी से कम  सुसंस्कृत नहीं दिखना चाहता था .इस दीर्घकालीन देशाटन के दौरान मैंने  अनुभव किया कि  हमारी तथाकथित "राष्ट्रभाषा-इन वेटिंग"  हिंदी सबसे निचले और दयनीय पायदान पर  सहमी हुई सी बैठी  हुई   है .उत्तरप्रदेश,बिहार,राजस्थान,मध्यप्रदेश,दिल्ली,हिमाचल,छ्ग़. उत्तराखंड,झारखंड में पूर्णतः और कमोवेश   लगभग पूरे भारतीय  उपमहादीप में  बोली-समझी जाने वाली 'राजभाषा' हिंदी एक क्रीत  दासी के मानिंद अपनों के ही द्वारा बहिष्कृत- तिरष्कृत  होकर ' हिंदी  जाति "  को  वैश्विक स्तर  पर श्रीहीन करती प्रतीत हो रही है . हिंदी भाषी क्षेत्रों में भाषाई और साहित्यिक सृजन यथेष्ट है किन्तु जन-मानस  के सरोकारों वाला साहित्य बहुत कम है. कुछेक जनवादी-प्रगतिशील पत्र -पत्रिकाएँ  जो स्थापित वैचारिक केन्द्रों से  घाटा उठाकर निकलतीं  हैं  वे भले ही वैज्ञानिक कसौटी पर  खरी उतरती  हों   और देश की आवाम के हितों की चिंता करती हैं किन्तु उन्हें भी हिन्दी क्षेत्र की विराट आवादी तक  उनके ईमानदार प्रकाशकों  की आर्थिक मजबूरियों  या अनैतिक वित्त पोषण के अस्वीकार्य   के कारण ,सर्वत्र  पहुंचा पाना असंभव होने से इस क्षेत्र में आम आदमी की वैचारिक -सामाजिक-राजनैतिक-अंतर्राष्ट्रीय-साहित्यिक समझ का नितांत आभाव  बना हुआ है.
देश के  चंद मुठ्ठी भर संगठित क्षेत्र के कामगार अवश्य अपने-अपने जन-संगठनों के मासिक-त्रिमासिक पत्र -पत्रिकाओं को उनके प्रगतिशील और  संघर्ष कारी तेवर के साथ प्रकाशित करते हुए परम्परों के निर्वहन में साझीदार बने हुए हैं . दुर्भाग्य से देश की आवादी का  विराट अर्ध-निरक्षर- असंगठित   हिस्सा ही दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र"भारतीय-गणतन्त्र " के नीति-नियामक -नियंताओं का चयन करता है और आज़ादी के ६६  साल   बाद भी  अपनी बदहाली पर उन्हें ही रात-दिन कोसता रहता है जिन्हें की वो हर पांच साल में  खुद चुनता  रहता है.  इसी में वो लोग हैं जो गाँव में 2 2  रुपया और शहर में 3 2  रुपया रोज प् जाएँ तो गरीब नहीं कह्लाएंगे ? इनको सत्यजित रे  आजीवन फिल्माते रहे,इन पर तमाम मिशनरीज ऑफ़  चेरेटीज़  ने आंसू बहाए, इन पर कवियों ने गीत लिखे, इन पर शायरों ने शायरी की और इन पर 'स्लिम डॉग  मिलियेनर्स ' बनी  इन पर देश  की संसद में क़ानून बने  कुछ मनरेगा  और खाद्यान्न सुरक्षा क़ानून बनाने से राहत की उम्मीद भी बनी किन्तु 'महाभ्रष्ट व्यवस्था' ने आम आदमी को रहत दने के बजाय  महंगाई नामक नागपाश में बाँध दिया ओर उधर नव्य -उदारवादियों के झांसे में आकर साहित्य के ठेठ देशी  लंबरदारों ने आम आदमी को साहित्य के एरिना से  ही  बाहर कर दिया . इस मेहनतकश वर्ग को जाति .धर्म,खाप,और क्षेत्रीय राजनैतिक सांडों  का रातिब बना डाला .  इस प्रतिगामी दौर में भी देश के प्रगतिशील और वामपंथी  साहित्य सर्जकों ने   जन-सरोकारों के इस विमर्श  को जिन्दा रखा . हिंदी साहित्य के लिए प्रगतिशील विरादरी में हमेशा  सम्मान का भाव विराजित रहा है .
               इसका सबसे बेहतरीन प्रमाण  ये है की  जन- आकांक्षी  क्षेत्रीय भाषा साहित्य में केरल प्रथम पायदान पर है.  वहां घर-घर,गाँव-गाँव,गली-गली,न केवल  मलयालम अपितु अंग्रेजी-संस्कृत और दीगर देशी-विदेशी भाषाओँ का प्रगतिशील साहित्य  -मासिक-पाक्षिक-साप्ताहिक-दैनिक और "सर्वकालिक-जन-साहित्य'  उपलब्ध है. लगभग सभी साक्षर हैं और सभी की राजनैतिक -सामाजिक चेतना अखिल भारतीय पैमाने पर क्रमोन्नत है.  वहाँ हमेशा हिंदी सीखने -सिखाने और अखिल भारतीय सेवाओं में   अपने लिए स्थान प्राप्त करने की सदाशयता विद्द्य्मान रही है .
               निसंदेह ई .एम.एस. नम्बूदरीपाद से लेकर बी एस अचुतानंदन तक के  साठ  सालाना  प्रगतिशील  साहित्यिक अनुशीलन का ये प्रतिफल है और भले ही राजनैतिक हेर-फेर में सत्ता कभी वामपंथ के पास तो कभी कांग्रेस के पास हुआ करती है किन्तु साहित्य के जन-सरोकार हर हाल में विमर्श के केंद्र में ही हुआ करते हैं . लगभग यही स्थिति पश्चिम बंगाल की है जहां पर साहित्य -संगीत-कला को 'इंसानियत' के लिए दशकों पहले परिभाषित किया जा  चुका  है और जहां पर 'कला-कला  के लिए' कहने  वाला  अजायबघर का या सामंत युग का प्राणी समझा जाता है.  कामरेड ज्योति वसु,बुद्धदेव भट्टाचार्य और गुरुदास दासगुप्ता  इत्यादि ने  न केवल  राजनैतिक मोर्चे पर अपितु साहित्य और समाज की नव-संरचना को नै उचाइयां प्रदान की थी . वर्तमान में  भले ही प्रगतिशील वाम मोर्चे को एक 'ब्रेक' लगा हो किन्तु प्रगतिशील - धर्मनिरपेक्ष -वर्गविहीन  समाज की  अवधारण  से  लेस जनवादी मूल्यों, साहित्यिक सरोकारों में बँगला साहित्य अभी भी भारत में बेजोड़ है. त्रिपुरा में भी प्रोग्रेशिव साहित्य प्रचुर मात्रा में प्रकाशित हो रहा है और  वहां  के आम आदमी और आदिवासी के बीच का  फासला खत्म होने को है. असमानता और शोषण से विमुक्ति के साधन  का दूसरा नाम वहाँ 'साहित्य' ही है भले ही वो सिर्फ बांगला ही क्यों ना हो?
                             महाराष्ट्र,गुजरात,तमिलनाड, कर्नाटक,पंजाब  में भी अपनी-अपनी  क्षेत्रीय भाषाओँ के परचम लहरा रहे हैं,भले ही इन प्रान्तों में क्षेत्रीयतावादी और कट्टरतावादी  विचारधाराएँ  परवान चढ़ रहीं है किन्तु वे अपनी क्षेत्रीय आकांक्षाओं  को राष्ट्रीय परिदृश्य में सामंजस्य बिठाकर कोई न कोई विवेकपूर्ण राह अवश्य निकाल  सकते हैं बशर्ते क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों के मद्देनज़र महज़ वोट की राजनीती से साहित्यि को दूर  रखा जाए . बहरहाल यहाँ मेरा कथन यह है कि  इन क्षेत्रीय भाषा विमर्शों के सापेक्ष हिंदी भाषी क्षेत्रों में भाषाई और साहित्यिक सरोकार न केवल दयनीय हैं अपितु वेहद शर्मनाक   और चिंतनीय भी हैं .  जिसे आप असली भारत -ठेठ भारत भी कह सकते है।  हिंदी भाषी पाठकों  की संख्या महज १ ० % है जबकि हिंदी  क्षेत्र की जन् संख्या ८ 0  करोड़ है . यही एक खतरनाक फेक्टर है जो ' हिंदी जाति ' को वैश्विक फलक पर सम्मान नहीं दिला पा रहा है . सिर्फ पाठकों की कमी का  सवाल नहीं तदनुरूप उत्क्रष्ट कोटि के   हिंदी -साहित्य सर्जन  की   कमी भी एक अहम् प्रश्न है .
                        अव्वल तो इस  हिंदी क्षेत्रों  की 7 0 % आबादी गाव् -देहात में -अति पिछड़े क्षेत्रों में वैसे ही उत्कृष्ट शिक्षा से और  अधुनातन वैश्विक मानको की पकड़  से कोसों दूर है,  दूसरी बात ये कि  महज अखवार भी किसी गाँव में पहुँच गया  तो कोई भी पढने वाला नहीं या किसी को अपनी खेती-किसानी,हल-बेल से फुर्सत नहीं या  कि  देश -दुनिया के  नक्से में अपनी स्थिति चिन्हित कर सके वो लियाकत नहीं।  डिजिटल नेटवर्किंग,इन्टरनेट या सोशल नेट्वोर्किंग के लिए 'दिल्ली इतनी दूर है' कि  पीने के पानी के लाले पड़े हैं तो बिजली महीने में एक -दो बार ही आती है . हिंदी क्षेत्र की इस आबादी को आप  केवल वही सर्वनाम दे सकते हैं जो जस्टिस काटजू ने कभी [नब्बे प्रतिशत मूर्ख] प्रयोग किया था .  शेष 3 0 % आबादी में से 1 0 % हिस्सा वो है जिसके सरोकार वर्तमान युगीन वैश्विक-उदारीकरण -भूमंडलीकरण और मुनाफाखोरी से है ,उसके सरोकारों से आम आम आदमी अर्थात मेहनतकश जनता के सरोकारों का टकराना स्वभाविक है.  इस वर्ग का साहित्यिक विमर्श और रुचियाँ 'कला-कला के लिए' से अभिप्रेरित हुआ करती है  अतेव इस सभ्रांत लोक का साहित्यिक स्वाद वाल स्ट्रीट  के जायके से मेल  खाता  है   ,इस वर्ग का शब्द कोष-शेयर बाज़ार,मंदी,रेपो-रेट ,वायदा बाज़ार, से शुरू होकर नितांत निजी  स्व्राथों के   र्शुभ -लाभ  की देहलीज पर समाप्त होता है. यह प्रभु वर्ग देश के हितों को  दाँव  पर लगा सकता है, चारा  ,2 -G  ,स्पेक्ट्रम,बोफोर्स,सुखोई,हेलीकाप्टर, सब कुछ खा  सकता है,  गरीबों की जमीने हड़प सकता है,घटिया पुल , घटिया  सड़कें और घटिया समाज के निर्माण में सहभागी हुआ करता है .  मनरेगा   का पैसा खा सकता है . सम्पूर्ण  भ्रष्ट व्यवस्था के संचालन में बेइमान ब्यूरोक्रेट्स नेता और दलालों की तिकड़ी का जून्टा यह वर्ग अपने लिए सारा का सारा आसमान और धरती सुरक्षित चाहता है .  इस वर्ग को ' भूस्वामी-सरमायेदारों का गठजोड़" भी कह सकते हैं . इस वर्ग का पतनशील अधोगामी  साहित्य 'सूरा-सुन्दरी-नव-वित्त पूंजी " के  विमर्श में   रचा  जाता है . मध्यप्रदेश में तो  एक मामूली पटवारी पर छापा पड़ने पर चार सौ करोड़ की सम्पत्ति निकलती है तो पता  लगता है  कि   वो कोई पत्रिका और वो भी हिंदी की कभी नहीं पड़ता वो सिर्फ  और सिर्फ रिश्वत के लिए पैदा हुआ है , पत्रिका खरीदने का तो सवाल ही नहीं . उसे अंग्रेजी नहीं आती  शायद हिंदी में कर्ता  और कर्म का फर्क भी वो नहीं जानता  किन्तु वह सिस्टम का प्रजा होकर इस राष्ट्र को घु न की तरह निगल रहा है . हर महकमें 9 5 % महाभ्रष्ट काबिज हैं . सबको मालूम है किन्तु जब कलम या तो मौन हो या बिक चुकी हो तो  इतिहास गवाह है न तो देश की सीमायें सुरक्षित रह सकेंगी और न मुंबई, हैदरावाद,गोधरा,कांड रुकेंगे . जब चीजें बेकाबू हो जाएँ कोई रह न सूझे तो वहाँ पर साहित्य अपनी क्रन्तिकारी भूमिका में अवतरित होकर राष्ट्र का उद्धार करता है .  इतिहास साक्षी है कि अपने-अपने दौर के युवाओं ने साहित्य के माध्यम से  इस तथ्य को जाना और देश समाज के लिए कुर्वानी दी . इस दौर के युवा क्या चाहते हैं वे ही तय करें .मार्ग दर्शन के लिए स्वामी विवेकानंद ,शहीद भगतसिंह  महात्मा गाँधी, कार्ल मार्क्स और लेनिन मौजूद हैं .
                 हिंदी क्षेत्र की शेष 2 0 % आबादी  जो की शहरी ओरे कस्वाई  युवाओं से संपृक्त है वो आधुनिकतम सूचना एवं संचार क्रांति का सम्बाहक तो है किन्तु उसे उस साहित्य का ककहरा भी नहीं मालूम जिससे फ्रांसीसी क्रांति  ,वोल्शैविक क्रांति,युरोपियन पुनर्जागरण,भारतीय स्वाधीनता -संग्राम , चायनीज क्रांति, और  विश्व सर्वहारा  का मेनिफेस्टो-"कम्मुनिस्ट घोषणा-पत्र "  तैयार  हुआ . जिस साहित्य को पढ़कर स्वामी विवेकानंद जी , खुदीराम बोस ,उधमसिंह,फेज़-अहमद फेज़, शहीद भगत सिंह विश्व वन्दनीय हुए , जिसे पढ़कर शहीद गणेश शंकर विद्द्यार्थी और लोकमान्य बाल गंगा धर तिलक  धन्य  हुए,  जिसे पढ़कर गाँधी जी,जयप्रकाश,जी नेहरु जी,डॉ राधा कृष्णन जी  तथा तमाम जनवादी-प्रगतिशील साहित्यकार धन्य  हुए,  जिसे पढ़कर सारे संसार ने - भ्रातत्व-समानता-मुक्ति  का शंखनाद किया उस साहित्य से हिंदी क्षेत्र का  वर्तमान युवा वर्ग कोसों दूर है .  जबकि केरल, बंगाल त्रिपुरा, ही नहीं बल्कि देश के अंदरूनी भागों सुदूर छग और अंतरवर्ती उडीसा-झारखंड  में विश्वस्तरीय  साहित्य पढने वाले  हाजिर हैं ,हालांकि वे अपने इस ज्ञान  को गलत तरीके से परिभाषित कर भारत गणराज्य के खिलाफ  हथियार उठा लेते हैं , जो की भारतीय जमीनी सच्चाइयों से मेल नहीं खाता.  लेकिन यह कटु सत्य है कि  यह आधुनिकतम सुशिक्षित युवा वर्ग इलेक्ट्रोनिक मीडिया,डिजिटल नेटवर्क,जिएसेम ,इन्टरनेट  इत्यादि अधुनातन उन्नत सूचना एवं संचार प्रोउद्द्गिकि  का जानकार ओर  उपभोक्ता  होने के वावजूद  तब तलक  आधा अधुरा इंसान ही है  जब तक की वो अपने - सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनैतिक और राष्ट्रीय सरोकारों को को नहीं जान लेता और ये जानने के  लिए -प्रगतिशील- धर्मनिरपेक्ष और जनवादी साहित्य का अनुशीलन जरुरी है .युवा वर्ग को चाहिए कि  वे मुंशी प्रेमचंद को जाने, गजानंद माधव मुक्तिबोध को जाने,शहीद भगत सिंह को जाने,स्वामी विवेकनद को जाने ,दुष्यंत कुमार ,रामविलाश शर्मा ,राहुल साङ्क्र्त्यायन को जाने.  न केवल इन  चन्द प्रगतिशील  महापुरषों को बल्कि वे कबीर,नानक,तुलसी रहीम,रसखान ,निराला और निदा फाजली को भी जाने.  वे महात्मा भीमराव आंबेडकर को भी जाने, बी ती रणदिवे और ई एम् एस को भी जाने .   भारतीय वांग्मय में कहा है :-०
    
    "साहित्य संगीत कला विहीनः  मनुष्य साक्षात् पशु पुच्छ  विषाण  हीनः "
   
        जिन लोगों ने पहले वेद -उपनिषद-पुराण-बाइबिल-कुरआन पढ़ी है वे माल्थस-एडाम स्मिथ डार्विन , रूसो , बाल्तेयर ,तालस्ताय, मार्क्स लेनिन, गोर्की और स्टीफन हाकिंस को पढ़ें और जिन्होंने सिर्फ साइंस तकनोलाजी या आधुनिक ज्ञान-विज्ञान  या तकनीकी में महारत हासिल कर ली है वे उस  भारतीय वांग्मय का अनुशीलन करें जो भारतीयता की बुनियाद है।
                                                  
       हिंदी क्षेत्र के युवाओं को वेशक कतिपय एतिहासिक कारणों से न केवल आजीविका के लिए , न केवल जिजीविषा के लिए अपितु अपने श्रम के उचित मूल्य और मानव कृत  असमानता से जूझना पड़ता है.  उन्हें इस हीन ग्रुन्थी से उभरने में  केवल और केवल 'प्रगतिशील" साहित्य सृजन -अनुशीलन और तदनुरूप जन-संघर्षों में शिकत ही बढ़त  दिला  सकती है.  इस हेतु  हिंदी साहित्य -कविता,नाटक,निबन्ध,लघु-कथा,इतिव्र्त्तात्मक,आलेख,और रिपोर्ताज इत्यादि की महती उपलब्धता,तथा  साहित्यिक विमर्श के उद्देश्य  से  किये जाने वाले उपक्रम स्तुत्य है।
                                                
       स्थापित पत्र -पत्रिकाओं में से आज  अधिकांस वे ही जीवित हैं जिनके सरोकार साहित्य के माध्यम से जन-हित- कारी अर्थात देशभक्तिपूर्ण थे. हंस,कादम्बनी  , वीणा और देशाभिमानी जैसी पत्रिकाओं के कलेवर कितने ही बदरंग हों किन्तु उन्होंने  अपनी 'अंतर्वस्तु' को सहेज रखा था इसलिए वे आज भी न केवल जीवित हैं बल्कि प्रगतिशील साहित्य में शुमार है। हिंदी क्षेत्र के लिए खुश खबर है  कि  नितांत नूतन प्रयोग करते हुए  मीडिया  और ज्ञान-विज्ञान में दक्ष कुछ  भारतीय युवा  नए प्रकाशनों को लेकर गंभीर हैं .इनमे "समृद्ध जीवन परिवार " की  पत्रिका 'लाइव इंडिया'प्रमुख है जिसके सी एम् डी -श्री महेश मोतेवार जी है  और  प्रधान संपादक  डॉ  प्रवीण  तिवारी हैं . जो की  "लाइव इंडिया" न्यूज़ चेनल के एग्जीक्यूटिव    डायरेक्टर  भी है। पत्रिका का कार्य क्षेत्र पूरा भारत है, यह  -1 , मंदिर मार्ग  नै दिल्ली से निकल रही है  उसमें कुछ युवा भारतीय एन आर आई वैज्ञानिकों  के अलावा देश-विदेश के श्रेष्ठतम  विद्वान  जुड़ रहे हैं . इस पत्रिका ने आउट-लुक और इंडिया टुडे की  वानगी  से भी आगे का सफरनामा शुरू किया है . विगत दिनों दिल्ली में इसके विमोचन  के शुभ अवसर पर सभी राजनैतिक दलों के दिग्गज नेता, मीडिया पर्सोनालिटी और जस्टिस काटजू इत्यादि उपस्थित थे .
                                  एक और उल्लेखनीय पत्रिका "फालो अप "  भी इसी तरह के तेज तर्राट तेवर के साथ  इंदौर  से  प्रकाशित होने लगी है। इसके एडिटर इन चीफ श्री श्री वर्धन त्रिवेदी हैं जो की जाने-माने सनसनी स्टार हैं। इस पत्रिका के एग्जीक्यूटिव एडिटर  कुंवर पुष्पेन्द्रसिंह जी चौहान और असोसिएट  एडिटर अमित तिवारी  हैं . इन दोनों मासिक पत्रिकाओं ने न केवल साहित्य बल्कि समाज के हर क्षेत्र में हल चल पैदा करने का शानदार आगाज किया है .  आशा करता हूँ की जनता के सवालों को, देश के सम्मुख उपस्थित  चुनौतियों को और 'आम आदमी ' की अपेक्षाओं को देश और दुनिया के सामने पेश करने की क्षमता  इन नए प्रकाशनों में अवश्य प्रतिध्वनित होगी .  हिंदी  और  हिन्दुस्तान की सेवा में जुटे इन युवाओं को कोटिशः शुभाशीष ....!
                                                श्रीराम तिवारी ......
                                                 
                                       अध्यक्ष -जन-काव्य-  भारती ...इंदौर [म.प्र]
                    
                                        




                                               

       


                                                                              




    

   

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