सोमवार, 25 मार्च 2013

     गठबंधन की राजनीति  के दौर में राष्ट्रीय हितों पर  कुठाराघात .....!

 रात को एक एस एम् एस मिला-अवसरवादिता और गठबंधन की मनमानी वाली राजनीति  में  दम  तोड़ते  जनता के असली मुद्दे…!पर प्रकाश  डालिए ! में इस  एस एम् एस का- जो की भाषा और व्याकरण के परिप्रेक्ष्य   में  आंशिक रूप से अशुद्ध है,  इस तरह से वाक्य विन्यास करता हूँ ...!'अवसरवादिता और गठबंधन' ' दम  तोड़ते जनता के असली मुद्दे'मनमानी वाली राजनीती '....!बार-बार उसी वाक्य को दुहराने पर में इस वाक्य विन्यास को  पुनः  संछिप्तीकरण  करते हुए ,  उपरोक्त  शीर्षक के रूप में इन्द्राज करता हूँ .  याने-गठबंधन की राजनीति के दौर में राष्ट्रीय हितों पर  कुठाराघात ....!अर्थात गठबंधन की राजनीति  को राष्ट्रीय हितों के खिलाफ   मानने को बाध्य हो जाता हूँ .हालाँकि यह तय करने का अधिकार मुझे तो क्या इस देश की संसद को भी नहीं है  कि ' गठबंधन  की राजनीति  में केवल अवसरवादिता ही शेष  है और निहित स्वार्थी क्षेत्रीय पार्टनर्स का व्यवहार नितांत 'राष्ट्र विरोधी' और मनमाना है.  यह स्थापना सेधान्तिक रूप में स्वीकार करने का मतलब है - उस जनादेश की अवमानना  जो की देश की जनता ने विगत २ 0 0 9  में  आम चुनाव के माध्यम से दिया था .अर्थात यु पी ए  द्वतीय गठबंधन की सरकार को जनता का जनादेश मिला था .

         इससे पूर्व यु पी ए  प्रथम की स्थिति भी लगभग यही थी फर्क सिर्फ इतना था की तब सी पी एम् के ५ ० सांसदों  का बाहर से 'बिना' शर्त समर्थन था और तत्कालीन मनमोहन सरकार ने जब  बेहिचक अपनी आर्थिक उदारीकरण  की अमेरिका परस्त नीतियों को धडल्ले से लागू करना शुरू  किया  तो लोक सभा में सत्ता पक्ष की  स्थिति ठीक वैसी हो गई जैसी अभी डी  एम् के के समर्थन वापसी पर हुई है .  वाम के  प्रवल  विरोध  के वावजूद 1 ,2 ,3 , एटमी करार किया  गया तो वाम ने आँख दिखाई और समर्थन वापिस ले लिया .जब तक वाम का दवाव रहा तब तक -मनरेगा , सूचना का अधिकार ,और गरीबों को सब्सिडी इत्यादि   जन-कल्याणकारी कार्यक्रम और नीतियाँ जारी रहीं  ,ज्यों ही वाम ने बाहर से दिया अपना समर्थन वापिस लिया  तो न केवल मनमोहनसिंह   जी  बल्कि  एनडीए  के  अरुण  शौरी  और  अमेरिकी  राजदूत अपनी ख़ुशी को  छिपा नहीं सके .  तत्कालीन अल्पमत सरकार को बचाने के लिए दुनिया भर के चोर-लुटेरे एकजुट हो गए यही सपा -बसपा और ममता  तब भी तारणहार थे ,सरमायेदारों ने   सांसदों की खरीद फरोक्त कर जिस तरह सरकार बचाई वो सारा  संसार  जानता  है.  उसमे गुनाहगार सिर्फ वो ही नहीं थे जिन्हें क्षेत्रीय दल कहकर हिकारत से देखा जाता है बल्कि वो भी थे जो 'तथाकथित राष्ट्रवाद"  के  स्वघोषित  अलम्वर्दार हुआ करते हैं , कौन नहीं जानता की भाजपा के दर्जनों सांसद गैर हाज़िर रहे और दर्जनों को मीडिया पर नोट लहराते हुए देखा गया .  कायदे से 2 0 0 9  में उस यु पी ए  की भृष्ट तम  सरकार को सत्ता में पुनार्वापिसी का अधिकार नहीं था  किन्तु ईश्वर इस देश की  उस जनता को सद्बुद्धि दे[जिसमें से 9 0 % को  जस्टिस काटजू ने  मूर्ख कहा था]   जिसने  भाजपा नीति एनडीए की अटल सरकार से न जाने क्या खार खाई  कि   एक तरफ तो वाम पंथ का ही सूपड़ा साफ़ कर दिया और 'लाख शाइनिंग इंडिया' और करोड़ों' फील गुड 'के वावजूद 'पी एम् इन वैटिंग '  महान तम  राष्ट्रवादी हिन्दू शिरोमणि  आदरणीय लालकृष्ण  आडवाणी जी को  को घास नहीं डाली और शेयर बाज़ार के लाडले,अमेरिका के परम मित्र, वाम शत्रु  और देशी-विदेशी अमीरों के हीरो सरदार मनमोहनसिंह  के नेत्रत्व में  यु पी ए  द्वतीय के तथाकथित 'अवसरवादी गठजोड़ ' को सत्ता में पुन:  वापिसी  मिली  थी . इस घोर अलोकतांत्रिक   कुक्र्त्य  के मद्देनज़र तत्कालीन  मीडिया  रिपोर्ट्स  में सारे के सारे चेनल्स,अखवार,बेब साइट्स वगैरह वगैरह चीख -चीख कर चुनाव पूर्व घोषणा कर चुके थे कि  बस अब यु पी ए  के पापों का घड़ा भर चूका है और बस अब दस जनपथ,रायसीना हिल्स समेत  सम्पूर्ण सत्ता प्रतिष्ठान पर एनडीए गठबंधन काबिज होने जा रहा है . यही हाल अभी के श्री लंका प्रकरण के बहाने डी एम् के और शेष सभी पक्ष -विपक्ष के हैं। गाँव वसा नहीं सूअर -कुत्ते पहले से  कुकरहाव करने  पहुँचने लगे  .
                          जो-जो प्रहसन, ढपोरशंख टोटके और द्वीपक्षीय कुत्सित प्रचार इन   महा  गठबन्धनों  ने 2 0 0 9  में किये थे  वे इस आसन्न आगामी 2 0 1 4  की प्रस्तावित पटकथा में भी  लिखे जा चुके हैं ,  अभी उनके घोषणा  पत्र  बिलकुल विपरीत सिद्धांतों और नीतियों पर आधारित हैं,किन्तु आगामी आम चुनाव में संभावित त्रिशंकु संसद में 'वांछित बहुमत ' जुटाने के नाम पर सत्ता सुख    के लिए उनके पुनर्मिलन  से इनकार नहीं किया जा सकता .  भाजपा , कांग्रेस , वामपंथ  के अलावा शेष सभी दल लगभग जाति - धर्म , क्षेत्रीयतावाद  और  पुरोगामी आंचलिक मानसिकता  का प्रतिनिधित्व करते है ,वे अपने वोट बेंक के पोखर में आसन्न डूबकर '  भारत -राष्ट्र' का भुरता  बनाने से भी नहीं चूकते .  ये क्षेत्रीय क्षत्रप और उनके  पिछलग्गू  अर्ध शिक्षित कार्यकर्ता और  'जनतांत्रिक समझ' के लिहाज़ से अपरिपक्व उनके स्थाई वोट बेंक की  भीड़ -देश के   दूरगामी हितों  को पहचानने में असमर्थ हैं .  इस जनता जनार्दन को   यह भी याद  नहीं रहता की जिसका वो विरोध कर रहा है वो  हारकर भी सत्ता में आ सकता है और जिसे वो वोट दे कर  जिता  रहा है वो जीत कर भी  सत्ता में नहीं आने  वाला  और इसकी भी पूरी संभावना हो सकती है कि  वो सत्ता के गठ्बंध्नीय दौर में महज़ एक 'बिकाऊ माल' बन कर रह जाये.  तब कर लो 'राष्ट्रवाद ' का गुणगान . देश के जाबांज  बहादुर जवानों को शपथ दिलाने वाला , न्याय विदों को शपथ दिलाने वाला , स्वयम संविधान की रक्षा की शपथ लेने वाला  'नायक' भी इन्ही बिकाऊ जिंसों के ढेर में से  प्रगट  हो सकता है .  देश भक्तों , ईमानदार मीडिया कर्मियों,ईमानदार राजनीतिज्ञों  की यह दुश्चिंता जायज़ है  कि  दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र केवल सीबी आई के सहारे या दुमछल्लों और नीतिविहीन कुकुरमुत्ता दलों के ब्लैक मेलिंग  के सहारे कब तक चल सकेगा ?
  वे इसका भी मीजान करते हैं कि  यदि 'पीपुल्स रिपब्लिक आफ चायना ' की तरह हमारे देश में यदि निष्कंटक सर्व प्रभुत्व सम्पन्न पूर्ण बहुमत प्राप्त  सत्ता केंद्र होता तो शायद जी डी पी या सकल राष्ट्रीय उत्पादन में ,आर्थिक ग्रोथ में हम चीन से आगे होते . हम पाकिस्तान ,बंगला देश श्रीलंका या इटली की धौंस धपट  में नहीं जी रहे होते .उनका अनुमान और मूल्यांकन सही भी हो सकता है किन्तु 'भारत' और चीन में लाखों समानताएं होने के बावजूद  ये कटु सत्य है की भारत में जितनी बोलियाँ ,जातियां धार्मिक विश्वाश और पंथ -मज़हब के फंदे हैं , जितनी जटिल क्षेत्रीय मानसिकताएं हैं उतनी चीन में नहीं हैं फिर वही एक सनातन गौरब भी की -
     हस्ती   मिटती  नहीं हमारी .... सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा .....!
 
हमे ऐतिहासिक विरासत में 'महान पडोसी' पाकिस्तान मिला है जबकि चीन को पड़ोस के रूप में भारत ! अब सोचो की  प्रवाह के विपरीत किसे तैरना  पड  रहा है ? हमें  एक हजार साल की गुलामी का दंश भोगना पड  रहा है जबकि  चीन को  पांच साल भी गुलाम नहीं रहना पडा . गुलामी से छुटकारा पाने में कुछ ऐतिहासिक विषाणु भारत के शरीर में प्रवेश कर गए जिसके कारण क्षेत्रीतावाद और साम्प्रदायिक अलगाव से भारत को  जूझना  पड़  रहा है . ये गठ्बंध्नीय दौर भी ऐतिहासिक  विकाश क्रम की अनवरत प्रक्रिया का अभिन्न अंग है   जिसको शिरोधार्य  कर भारत दुनिया में मानव अधिकार का , क्षेत्रीय आकन्क्षाओं  की   वकालत का  झंडावरदार है .  हमें यह कतई  नहीं भूलना चाहिए की ये भारतीय वांग्मय के शब्द है;-

             सर्वे भवन्तु सुखिनः ...सर्वे सन्तु निरामया ...
   केवल बहुसंख्यक या बहुमत ही शाशन करे ये भारतीय जन-मानस  और भारतीय संविधान दोनों को ही पसंद  नहीं . भारत के प्रतेक नागरिक  को  विना भेदभाव और क्षेत्र भाषा धर्म जाती से परे  अवसरों की समानता के पवित्र संवैधानिक आचरण में निरुपित किया गया है .अतः गठबंधन की राजनीती हो या एकल -द्वीपक्षीय राजनैतिक अवस्था हो देश की जनता अपने हितों की हिफाजत करना सीख चुकी है . जहाँ तक सपा- बसपा  द्रुमुक या अन्य क्षेत्रीय दलों की ब्लेक मेलिंग या सीबी आई की गिरफ्त का सवाल है तो    इसका      जबाब इस देश  के   बैबिध्यता पूर्ण - सामाजिक -आर्थिक- सांस्कृतिक-साम्प्रदायिक - भाषाई और क्षेत्रीयता  की मिलावट से बने भूसे के ढेर में  ढूँढना होगा। देश की जनता को कम से कम पांच साल में एक बार -सिर्फ एक बार अपनी  देशभक्ति  और विवेकशीलता का परिचय तो देना ही चाहिए और सारे के सारे कुकुरमुत्ता दलों का सूपड़ा साफ़ करते हुए सिर्फ - कांग्रेस , भाजपा या वामपंथ में से किसी एक जिम्मेदार राष्ट्रीय दल को  'गुजारे लायक' बहुमत  अवश्य देना चाहिए . जनता  द्वारा विपक्ष का चयन भी उतना ही  जिम्मेदारी और विवेकशीलता से होना चाहिए की पक्ष-विपक्ष के सारे अपराधी,हत्यारे,बलात्कारी,सत्ता के दलाल और पूंजीपतियों  के एजेंट  तो लोक सभा का चुनाव हारे किन्तु जो ईमानदार , न बिकने वाला ,नीतिवान , धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद  में आश्था वाला हो वो अवश्य लोक सभा में जीत कर पहुंचे .  इतना तो देश की आवाम से अपेक्षा की ही जा सकती है .बाबा रामदेव , अन्ना हजारे,केजरीवाल,काटजू,किरण वेदी ,और तमाम गैर  राजनैतिक  लोग  बजाय  सत्ता  और राजनीती को गली बकने के देश की आवाम [वोटर्स] को जागृत कर सकें तो यह भारतीय लोकतंत्र के लिए उनका अमूल्य योगदान होगा .
                                                        क्षेत्रीयता वाद तब तक बुरा नहीं जब तक वह  संप्रभु राष्ट्र की अखंडता को   नुक्सान नहीं पहुंचाता बल्कि स्थानीय  स्तर  पर क्षेत्रीय पार्टियां उनके स्थानिक सरोकारों को राष्ट्र के सकल सरोकारों से अपरूप कर सकती हैं . यह उनके   इमान दार नेत्रत्व से ही उम्मीद की जा सकती है . इस दौर में जो  अधिकांश क्षेत्रीय- भाषाई और मज़हबी  पार्टियां राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा के लिए कुख्यात हो चुकी हैं उन्हें नसीहत अवश्य दी जाए और अखिल भारतीय स्तर  के  दलों  को  ज्यादा  महत्व  दिया  जाए .    देश के बुद्धिजीवियों ,छात्रों,किसानो,नौजवानों, और सम्पूर्ण सर्वहारा वर्ग की यह ऐतिहासिक जिम्मेदारी है कि  उचित हस्तक्षेप करे .जरुरत हो तो खुल कर राजनीति  भी करे . राजनीती कोई अपावन  वस्तु  नहीं अपितु राष्ट्र के सञ्चालन की परम आवश्यकता है . गठबंधन राजनीती भी  इतनी अपवित्र नहीं की दुनिया के बदनाम फासिस्टों,तानाशाहों और धर्म आधारित कट्टरवादियों के सामने सीना तान के न चल सके . गठबंधन धर्म और तत्सम्बन्धी राजनीती  के भारतीय जनक कामरेड ज्योति वसु थे .  सबसे पहले उन्होंने ही 'कामन मिनिमाम प्रोग्राम ' का कांसेप्ट गठबंधन के दलों को एकजुट करने बाबत दिया था . बाद में लगभग सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों ने ज्योति वसु की नक़ल की . उन्होंने ही  उन्नीस सौ सडसठ में वाम मोर्चा  बना कर बंगाल की महा बदनाम सिद्धार्थ शंकर रे सरकार को उखाड़ फेंका था . बाद में इंदिरा कांग्रेस ने सत्तर के दशक में भाकपा को  , जनसंघ ने हिन्दू महा सभा को  ,जयप्रकाश ने समाजवादियों को  ,वी पी सिंह ने जन-मोर्चा को  , चन्द्र शेखर ने  जनता पार्टी को , गुजराल - देवेगौडा ने  संयुक्त मोर्चे को अटल बिहारी वाजपेई ने  एन डी ऐ  को इसी लाइन पर देश की सत्ता के काबिल बनाने का प्रयास किया और ये वर्तमान की यु पीए सरकार को  सोनिया गाँधी ने गठबंधन  से चलाकर  कोई गुनाह  तो नहीं किया .  जब खंडित जनादेश हो तो इसके अलावा विकल्प ही क्या रह जाता है .  यु पी ऐ प्रथम से ये यूपीए द्वतीय ज़रा ज्यादा ही बदनाम हो चली है .
                      जबकि यु पी ए  द्वतीय में सभी अलायन्स पार्टनर्स सत्ता में साझीदार हैं  या थे और अपने-अप ने क्षेत्रीय अजेंडे को लेकर  {जो की 'भारत राष्ट्र' के एजेंडे से मेल नहीं खाते }  निरतर आंतरिक सत्ता संघर्ष में व्यस्त   रहते हुए  इस वर्तमान सरकार के प्रमुख  घटक   दल -कांग्रेस को पूर्ण  रूपेण  'राज्य-सञ्चालन'  के  अधिकार  से  महरूम किये हुए हैं . सत्र साल बाद कोई कांग्रेसी रेल मंत्री बजट पेश कर पाया है यह गठबंधन राजनीति  की ही बलिहारी है . देश में केंद्र -राज्यों के और आपस में राज्यों के भी कई विवाद तब भी पेंडिंग थे जब केंद्र में किसी एक दल की ही  तूती  बोला करती थी और अब भी वे पुराने मुद्दे यथावत हैं जबकि केंद्र और राज्य दोनों   स्तरों  अपर आजकल गठबंधन सरकारें सत्तासीन  हैं .अर्थात देश के विकाश और अमन चेन के लिए' गठबंधन'  या एक्चाल्कानुवार्तित्व में से कोई भी  सिद्धांत अपावन नहीं हैं . वशर्ते शशक  वर्ग की कतारों  में ईमान दारी ,उत्कृष्ट  इच्छा शक्ति   हो , अधुनातन  विज्ञान  सम्मत  विजन हो  तो चाहे राष्ट्रीय दल हों या क्षेत्रीय  या गठबंधन  कोई भी इस लोक तंत्र में अवांछनीय या अप्रसांगिक नहीं है है . सभी विचारधाराओं का सभी मजहबों का,और सभी संस्कृतियों का सम्मान करना हम भारतीय को आता है . माओ जे दोंग ने कहा था ;-

  "  बिल्ली काली हो या सफ़ेद , यदि चूहे मारकर खा जाए तो काम की है वरना बेकार है…"
    श्रीराम तिवारी
                                                

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